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शनिवार, 18 फ़रवरी 2023

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'                                                                                   ४०१ विजय अपार्टमेंट 

संस्थापक विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर                                                              नेपियर टाउन 

संपादक कृष्णप्रज्ञा द्वैभाषिक मासिकी                                                                      जबलपुर ४८२००१ 

अध्यक्ष इंडियन जिप्टेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर                                              चलभाष ९४२५१८३२४४ 


सम्मति 


                                   सनातन भारतीय संस्कृति में 'सत्य-शिव-सुंदर' को 'सत-चित-आनंद' प्राप्ति का माध्यम बताया गया है। सर्वकल्याण की राह को जीवन का लक्ष्य बनाकर, इष्ट-भक्ति के माध्यम से लोक देवता की आराधना करनेवाले समयजयी व्यक्तित्वों में संत तुलसीदास का स्थान अग्रगण्य है। मुगल काल में जब जनगण नैराश्य से ग्रसित और अत्याचारों से संत्रस्त था तब तुलसी ने रामचरितमानस और अन्य ग्रंथों के माध्यम से लोक चेतना को न केवल जाग्रत किया अपितु उसे उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त भी किया। शिव, पार्वती, गणेश, राम, सीता, लक्ष्मण, भरत, हनुमान आदि के चरित्रों का सर्वांग सुंदर वर्णन कर तुलसी ने जन मन में आशा, विश्वास, आस्था, निष्ठा के अनगिन दीपक प्रज्ज्वलित किए। गीताप्रेस गोरखपुर के माध्यम से जयदयाल गोयन्दका तथा हनुमान प्रसाद पोद्दार ने लगत से भी कम नाम मात्र के मूल्य पर तुलसी साहित्य की करोड़ों प्रतियाँ देश के कोने-कोने में जन सामान्य को उपलब्ध कराकर आदर्शों तथा जीवन मूल्यों को प्रतिष्ठित किया। 

''तुलसीदास : प्रासंगिकता व नीति वचन''

                                   बाबा गोरखनाथ की साधनास्थली गोरखपुर में जन्मी और श्री राम की लीलाभूमि अवध (लखनऊ) में कार्यरत सुनीता सिंह ने ''तुलसीदास : प्रासंगिकता व नीति वचन'' की रचना कर असंख्य विद्वानों द्वारा जनहितकारी साहित्य सृजन की श्रृंखला को आगे बढ़ाया है। कलिकाल के प्रभाव वश समाज और व्यक्ति के जीवन से लुप्त होते मानव मूल्यों, दिनानुदिन बढ़ती भोग और लोभ वृत्ति ने प्रकृति और पर्यावरण को विनाश की कगार पर ला खड़ा किया है। तुलसी का जीवन और साहित्य मूल्यहीनता घटाटोप अन्धकार को चीरकर नवमूल्यों का भुवन भास्कर उगाने में समर्थ है। सुनीता सिंह ने संत तुलसी के दुर्भाग्य, जीवन संघर्ष, जीवट, गुरु और ईश कृपा, साहित्य के विविध पहलुओं, जीवनादर्श, अवदान आदि का छंद मुक्त काव्य में सहज बोधगम्य भाषा में शब्दांकन कर किशोरों और युवाओं के लिए उपलब्ध कराया है। ११२ शीर्षकों के अन्तर्गत यह १४८ पृष्ठीय पुस्तक आद्योपांत पठनीय तथा मननीय है। 

''भक्ति काल के रंग'' 

                                   भारतीय भक्ति साहित्य समूचे विश्व इतिहास में अपने ढंग का अकेला है। भक्तिकाल हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल है। आचार्य  द्विवेदी के शब्दों में “जितनी सरलता और सहजता से इस साहित्य ने जन-जीवन का स्पर्श किया, उतनी सहजता से अन्य कोई भी साहित्य नहीं कर सका। इस साहित्य ने भ्रमित और हताशजनता को उल्लासमय जीने की प्रेरणा दी, उन्हें एक अलौकिक संतोष प्रदान किया।'' 

                                   भक्ति काल ने वीरगाथाकाल के पारस्परिक टकरावों से उपजे वैमनस्य का शमन कर विविध विचारधाराओं, जीवनमूल्यों, आदर्शों और जीवनपद्धतियों में समन्वय स्थापना का महत्वपूर्ण कार्य किया। सूर, कबीर, नानक, तुलसी, रैदास आदि संत कवियों ने कुरीति निवारण, जन जागरण, समाज सुधार की प्रेरणा देता साहित्य रचकर सामाजिक दायित्व चेतना जागरण करने के साथ कर्म और फल को जोड़कर नैतिक मूल्यों के प्रति जन मानस को आकृष्ट किया। वर्तमान पाश्चात्य शिक्षाप्रणाली जनित आर्थिक दुष्चक्र ने भारतीय युवाओं को पश्चिम की श्रेष्ठता के प्रति मोहांधित कर, परम्पराओं और विरासत के प्रति उदासीन किया है। ऐसी विषम स्थिति में भक्तिकाल के सम्यक मूल्यांकन  कर युवा लेखिका सुनीता सिंह ने सराहनीय कार्य किया है। उच्च प्रशासनिक पद के जटिल कार्य दायित्वों का सम्यक निर्वहन करते हुए भी सतत साहित्य साधना करना सुनीता को सामान्य से विशिष्ट बनाता है। 

                                   ''भक्ति काल के रंग'' ग्यारह अध्यायों में विभाजित सुगेय काव्य संग्रह है। सर्वाधिक लोकप्रिय अर्धसम मात्रिक दोहा छंद और सम मात्रिक चौपाई छंद  में रचित यह कृति लालित्यमयी है। सगुण भक्ति की रामाश्रयी व कृष्णाश्रयी शाखाओं तथा निर्गुण भक्ति की ज्ञानाश्रयी व प्रेमाश्रयी शाखाओं पर केंद्रीय अध्याय पठनीय हैं। संबंधित चित्रों का यथास्थान प्रयोग कृति का सौंदर्य बढ़ाता है। आरभ में भक्तिकाल की पृष्भूमि, शाखाओं व् विशेषताओं पर सम्यक प्रकाश डाला गया है। कृति सर्वोपयोगी है। 

''तुलसी का रचना संसार''

                                   संत तुलसीदास विश्व साहित्य की अमर विभूति हैं। रामाश्रयी शाखा के प्रमुख हस्ताक्षर होने का साथ-साथ वे भक्तिकाल के प्रतिनिधि कवि ही नहीं हिंदी, बुंदेली, बृज, भोजपुरी, बघेली आदि के भी प्रतिनिधि कवि के रूप में अग्रगण्य हैं। तुलसी के जीवन तथा रचनाओं को केंद्र में रची गयी यह कृति वस्तुत: तुलसी पर महाकाव्य / खंड काव्य के रूप में परिगणित किया जा सकता था यदि इसकी सामग्री को यथोचित अध्यायों में वर्गीकृत तथा सुव्यवस्थित किया जाता।  कवयित्री सुनीता सिंह ने इसे लंबी कविता के रूप में प्रस्तुत किया है। सामान्यत: युद्ध काव्यों को लंबी कविता के रूप में प्रस्तुत करने की परंपरा अंग्रेजी, फ़ारसी आदि में रही है। भारत में 'रासो' महाकाव्य के रूप में रचे गए।  

                                   ''तुलसी का रचना संसार'' सामान्य लीक से हटकर प्रसाद गुण संपन्न भाषा में रचित ऐसी काव्य कृति है जिसे सामान्य और विशिष्ट दोनों तरह के पाठक आत्मार्पित का सराहेंगे। प्रयुक्त भाषा सहज बोधगम्य है। 

                                   ''तुलसीदास : प्रासंगिकता व नीति वचन'', ''भक्ति काल के रंग'' तथा  ''तुलसी का रचना संसार'' तीनों कृतियाँ रचनकर्त्री सुनीता सिंह के सात्विक चितन और सृजन का सुपरिणाम हैं। ये कृतियाँ केवल विसंगति, वैषम्य, टकराव, बिखराव से प्रदूषित अथवा अंधश्रद्धा, तर्कहीनता और असंस्कारी भाषा में लिखे जा रहे साहित्य के कारण जन-रूचि के ह्रास को दूर कर सद्प्रवृत्ति व सुसंस्कारी पाठकों में साहित्य-पठन के प्रति रुझान बढ़ाएँगी। सुनीता जी इस सारस्वत रचना-यज्ञ हेतु सधिवाद की पात्र हैं। मुझे विश्व है कि कृतियों का विद्वज्जन, समीक्षकों और सामान्य जन में समादर होगा।

''अस्तिबोध : भक्तिकाव्य की क्रांतिधर्मिता''

                                   इस संक्रमण काल में नकारात्मकता का प्रभाव दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। 'सर्वजन हिताय ,सर्वजन सुखाय' रचे जाने वाले साहित्य की विधाओं से भी ''सत-शिव-सुंदर'' ओझल होता जा रहा है। नवगीत, लघुकथा और व्यंग्य लेख आदि विधाएँ केवल और केवल विसंगतियों, विडंबनाओं और टकरावों को उभाड़कर द्वेष भाव का प्रसार कर रही हैं। फलत:, 'विवाह' और 'परिवार' खतरे में हैं। मनुष्य- जीवन में लोभ, वासना और असंतोष ने मनुष्य से सुख-चैन छीन लिया है। ऐसे समय में सकारात्मक मूल्यपरक चिंतन अपरिहार्य हो गया है। 

                                   ''अस्तिबोध : भक्तिकाव्य की क्रांतिधर्मिता'' ' शीर्षक कृति की रचनाकर श्रीमती सुनीता सिंह ने अमावसी घटाटोप में शरतचंद्र की ज्योत्सना फ़ैलाने का अपरिहार्य और मांगलिक कार्य किया है। वे साधुवाद की पात्र हैं। 

                                   तीन भागों (अस्तिबोध : अर्थ और आयाम, भक्ति काव्य में अस्ति  बोध तथा आधुनिक साहित्य में अस्तिबोध) में विभक्त यह कृति त्रिकालिक (विगत, वर्तमान और भावी) साहित्य के मध्य सकारात्मक चिन्तन का सेतु स्थापित करता है। तीन का मनुष्य जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। त्रिदेव (विधि-हरी-हर), त्रिकाल (कल-आज-कल), त्रिऋण (देव-पितृ-ऋषि), त्रिअग्नि (पापाग्नि-जठराग्नि-कालाग्नि), त्रिदोष (वात-पित्त-कफ), त्रिलोक (स्वर्ग-धरती-पाताल), त्रिवेणी (गंगा-यमुना-सरस्वती), त्रिताप (दैहिक-दैविक-भौतिक), त्रिऋतु (पावस-शीत-ग्रीष्म), त्रिराम (परशुराम-श्रीराम-बलराम) तथा त्रिमातुल (कंस-शकुनि-माहुल) ही नहीं त्रिपुर, त्रिनेत्र, त्रिशूल, त्रिदल, तीज, तिराहा और त्रिभुज भी तीन का महत्व प्रतिपादित करते हैं।  

                                कृति में चौदह अध्याय हैं। इनमें अस्तिबोध की अवधारण, महत्त्व, प्रकृति, विज्ञान, अस्तबोध के साथ संबंध, काव्य में स्थान, भक्ति काल में स्थान, सगुण-निर्गुण भक्ति धरा में स्थान, सामाजिकता, प्रासंगिकता, समाधान, रचनाकार तथा क्रांतिधर्मिता जैसे आवश्यक बिंदुओं की सम्यक विवेचना की गई है। चौदह इंद्र, चौदह मनु, चौदह विद्या और चौदह रत्नों की तरह ये चौदह अध्याय पाठक के ज्ञान चक्षुओं को खोलकर उसे नव चिंतन हेतु प्रवृत्त करते हैं।  

 
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संपर्क -विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
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