पुस्तक विमोचन वक्तव्य
यादों के पलाश तथा यात्राओं की तलाश - डॉ. संगीता भारद्वाज।
मन नवनीत - नवनीता चौरसिया
सृजन के सोपान - अस्मिता 'शैली'
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ॐ अनाहद नाद, चित्र गुप्त जो चित्त में।
वही वर्ण बन व्याप्त, होता सदा कवित्त में।।
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कलकल-कलरव व्याप, करे शारदा वंदना।
कण-कण में है आप, दीप ज्योति कर साधना।।।
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'तरुण' अरुण 'पाथेय', 'श्री वास्तव' में लुटाता।
नर के मध्य 'सुरेश', कलाकार की कला सम।।
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पाकर 'चंद्रा' छाँव, 'भगवत' होती 'तनूजा'।।
काव्य-कला के गाँव, हो 'जयंत' हर नव सृजन।।
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जीव तभी 'संजीव', जब 'प्रवीण' हो 'मुसाफिर'।
प्रगटे करुणासींव, बिंदु-शब्द में आप ही।।
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'संगीता' हर श्वास, 'नवनीता' हो आस हर।
करे 'अस्मिता' रास, 'शैली' 'पथिक' 'मधुर' चुने।।
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जब जब शत आकर, निराकार 'अन्विता' ले।
तब सपने साकार, हो 'मौली' सम साथ हों।।
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जीवन रेवा तीर,'यादें बने पलाश' जब।
दहकें दे सुख-पीर, बिछुड़े-बीते-यादकर।।
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करते रहें 'तलाश, यात्राओं की' जो सतत।
वे बाँधें भुज-पाश, प्रकृति-सुंदरी की छटा।।
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होता 'मन नवनीत' जब, तन हो जब चट्टान।
तब रस-निधि रस-लीन हो, आत्म बने रस-खान।।
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पाए परमानंद, चढ़े सृजन सोपान जो।
पल पल आनंदकंद, रहें सदा उस पर सदय।।
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सृजन 'त्रिवेणी' आज, 'कला वीथिका' में बहे।
धन्य सार्थक काज, जो अवगाहे वह कहे।।
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बिंदु-लकीर न भिन्न, हैं अभिन्न तन-आत्म सम।
शब्दोच्चार अभिन्न, परापरा इनमें निहित।।
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रचना-रचनाकार, सृष्टि-ब्रह्म सम एक हैं।
दिखते रूप हजार, कोई गिन सकता नहीं।।
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हर रेखा में ताल, बिंदु बिंदु में नाद है।
सचमुच किया कमाल, वाह वाह शैली गजब।।
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शैली के संकेत, सोपानों पर सृजन के।
अंतर्मन अनिकेत, देख सराहें मुग्ध सब।।
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खाता मिसरी घोल, कान्हा मन नवनीत ले।
वृत्ति रही है बोल, नवनीता की विनोदी।।
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यादें देतीं साथ, तब जब जब खिलें पलाश।
मौलि शुभागत हाथ, मन जयंत हो बाँधता।।
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बढ़ते पैर तलाश, यात्राओं की जब करें।
यादें हों भुजपाश, मंज़िल मिलकर नहिं मिले।।
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पद्य-गद्य अरु चित्र, त्रिदल त्रिवेणी त्रिनेत्री।
त्रिपुर त्रिकाल त्रिमित्र, ताप दोष पावक त्रयी।।
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जोड़ तीन संयोग, तीन भगिनियाँ त्रिदेवी।
शुभ सारस्वत योग, तीन राम ज्यों हों वरद।
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दिन अंबर ले नाप, चार दिशा सम पुस्तकें।
करें अभय हर ताप, मन पर देकर दस्तकें।।
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वेद धाम युग पीठ, आश्रम वर्ण विकार भी।
सब जानें हैं चार, चतुरानन को कर नमन।।
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दे आशीष निहार, कहें पञ्च अमृत पियो।।
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हुए मंच आसीन, पाँच अतिथि सुर पाँच ज्यों।
यज्ञ प्राण नद तत्व, गव्य भूत शर पाँच ही।।
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ग्यारह दो तेईस, नौ शुभांक दे पूर्णता।
पूजें मातृ मनीश, भक्ति नंद निधि रत्न ग्रह।।
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चढ़ें सृजन सोपान, फागुन सावन सम लगे।
यादें तान वितान, रंग पलाशी बिखेरें।।
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खुद की करें तलाश, यात्राओं में हम सभी।
पाकर मन नवनीत, आह्लादित हों कान्ह सम।।
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