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रविवार, 5 फ़रवरी 2023

सोरठा, सॉनेट, सुरेश पाल वर्मा, शारद मैया, रोहिताश्व अस्थाना, हिंदी गज़लें, शीत, माहिया, बाल गीत, बसंत, दोहा-यमक, दोहा ग़ज़ल

सोरठा सलिला
उसे नमन कर मौन, जो अपना मन जीत ले।
छिपा आपमें कौन?, निज मन से यह पूछिए।।
*
जब हो कन्यादान, नारी पाती दो जगत।
भले न हो वर-दान, पा-देती वरदान वह।।
*
उछल छुएँ आकाश, अब बैसाखी छोड़कर।
वे जो रहें हताश, गिर उठ फिर बढ़ते नहीं।।
*
'जो घर में बेकार, सब रद्दी सामान दें।'
गृहणी कहे पुकार, 'फिर आना, बाहर गए'।।
*
भू से नभ पर रोज, चंद्र-कांता कूदती।  
हो इसकी कुछ खोज, हिम्मत लाती कहाँ से।।
वचन दोष-
तुम हो मेरे साथ, नेता बोले भीड़ से, ।
रखें हाथ में हाथ, हम यह वादा कर रहे।।
***
सॉनेट
सुरेश पाल वर्मा
*
बहुमुखी प्रतिभा के हैं धनी
मेहनत करें सतत हैं धुनी
मंज़िल से मित्रता है घनी
सपनों की चादर नव बुनी

है सुरेश पर्याय जसाला
मन का मनका मन से फेरा
वर्ण पिरामिड गूँथी माला
शारद मैया को नित टेरा

छंद नए रच; करी साधना
छंद सिखा नव दीप जलाए
प्रसरित पल-पल पुण्य भावना
बालारुण शत शत मुस्काए

गगन छुए तव कीर्ति पताका
तुम सा हुआ न दूजा बाँका
५-२-२०२३
***
शारद वंदन
*
शारद मैया शस्त्र उठाओ,
हंस छोड़ सिंह पर सज आओ...
.
सीमा पर दुश्मन आया है, ले हथियार रहा ललकार।
वीणा पर हो राग भैरवी, भैरव जाग भरें हुंकार।।
रुद्र बने हर सैनिक अपना, चौंसठ योगिनी खप्पर ले।
पिएँ शत्रु का रक्त तृप्त हो, गुँजा जयघोषों से जग दें।।
नव दुर्गे! सैनिक बन जाओ
शारद मैया! शस्त्र उठाओ...
.
एक वार दो को मारे फिर, मरे तीसरा दहशत से।
दुनिया को लड़ मुक्त कराओ, चीनी दनुजों के भय से।।
जाप महामृत्युंजय का कर, हस्त सुमिरनी हाे अविचल।
शंखघोष कर वक्ष चीर दो, भूलुंठित हों अरि के दल।।
रणचंडी दस दिश थर्राओ,
शारद मैया शस्त्र उठाओ...
.
कोरोना दाता यह राक्षस,मानवता का शत्रु बना।
हिमगिरि पर अब शांति-शत्रु संग, शांति-सुतों का समर ठना।।
भरत कनिष्क समुद्रगुप्त दुर्गा राणा लछमीबाई।
चेन्नम्मा ललिता हमीद सेंखों सा शौर्य जगा माई।।
घुस दुश्मन के किले ढहाओ,
शारद मैया! शस्त्र उठाओ...
***
शारद! अमृत रस बरसा दे।
हैं स्वतंत्र अनुभूति करा दे।।
*
मैं-तू में बँट हम करें, तू तू मैं मैं रोज।
सद्भावों की लाश पर, फूट गिद्ध का भोज।।
है पर-तंत्र स्व-तंत्र बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
अमर शहीदों को भूले हम, कर आपस में जंग।
बिस्मिल-भगत-दत्त आहत हैं, दुर्गा भाभी दंग।।
हैं आजाद प्रतीति करा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
प्रजातंत्र में प्रजा पर, हावी होकर तंत्र।
छीन रहा अधिकार नित, भुला फर्ज का मंत्र।।
दीन-हीन को सुखी बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
ज॔गल-पर्वत-सरोवर, पल पल करते नष्ट।
कहते हुआ विकास है, जन प्रतिनिधि हो भ्रष्ट।।
जन गण मन को इष्ट बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
शोक लोक का बढ़ रहा, लोकतंत्र है मूक।
सारमेय दलतंत्र के, रहे लोक पर भूँक।।
दलदल दल का मातु मिटा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
'गण' पर 'गन' का निशाना, साधे सत्ता हाय।
जन भाषा है उपेक्षित, पर-भाषा मन भाय।।
मैया! हिंदी हृदय बसा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
जन की रोटी छिन रही, तन से घटते वस्त्र।
मन आहत है राम का, सीता है संत्रस्त।।
अस्त नवाशा सूर्य उगा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
रोजी-रोटी छीनकर, कोठी तानें सेठ।
अफसर-नेता घूस लें, नित न भर रहा पेट।।
माँ! मँहगाई-टैक्स घटा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
जिए आखिरी आदमी, श्रम का पाए दाम।
ऊषा गाए प्रभाती, संध्या लगे ललाम।।
रात दिखाकर स्वप्न सुला दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
***
कृति चर्चा
'चुनिंदा हिंदी गज़लें' संग्रहणीय संकलन
*
[कृति विवरण : चुनिंदा हिंदी गज़लें, संपादक डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ १८४, मूल्य ५९५/-, प्रकाशक - ज्ञानधारा पब्लिकेशन, २६/५४ गली ११, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली ११००३२]
*
विश्ववाणी हिंदी की काव्य परंपरा लोक भाषाओँ प्राकृत, अपभृंश और संस्कृत से रस ग्रहण करती है। द्विपदिक छंद रचना के विविध रूपों को प्रकृत-अपभृंश साहित्य में सहज ही देखा जा सकता है। संस्कृत श्लोक-परंपरा में भिन्न पदभार और भिन्न तुकांत प्रयोग किए गए हैं तो दोहा, चौपाई, सोरठा आदि में समभारिक-संतुकांती पंक्तियों का प्रयोग किया जाता रहा है। द्विपदिक छंद की समतुकान्तिक एक अतिरिक्त आवृत्ति ने चतुष्पदिक छंद का रूप ग्रहण किया जिसे मुक्तक कहा गया। मुक्तक की तीसरी पंक्ति को भिन्न तुकांत किन्तु समान पदभार के साथ प्रयोग से चारुत्व वृद्धि हुई। भारतीय भाषा साहित्य अरब और फारस गया तो भारतीय लयखण्डों के फारसी रूपान्तरण को 'बह्र' कहा गया। मुक्तक की तीसरी और चौथी पंक्ति की तरह अन्य पंक्तियाँ जोड़कर रची गयी अपेक्षाकृत लंबी काव्य रचनाओं को 'ग़ज़ल' कहा गया। भारत में लोककाव्य में यह प्रयोग होता रहा किन्तु भद्रजगत ने इसकी अनदेखी की। मुग़ल आक्रांताओं के विजयी होकर सत्तासीन होनेपर उनकी अरबी-फारसी भाषाओं और भारतीय सीमंती भाषाओँ का मिश्रण लश्करी, रेख़्ता, उर्दू के रूप में प्रचलित हुआ। लगभग २००० वर्ष पूर्व 'तश्बीब' (लघु प्रणय गीत), 'ग़ज़ाला-चश्म' (मृगनयनी से वार्तालाप) या 'कसीदा' (प्रेयसी प्रशंसा के गीत) के रूप में प्रचलित हुई ग़ज़ल भारत में आने पर सूफ़ी रंगत में रंगने के साथ-साथ, क्रांति के आह्वान-गान और सामाजिक परिवर्तनों की वाहक बन गई। अरबी ग़ज़ल का यह भारतीय रूपांतरण ही हिंदी ग़ज़ल का मूल है।
डॉ. रोहिताश्व अस्थाना हिंदी ग़ज़ल के प्रथम शोधार्थी ही नहीं उसके संवर्धक भी हैं। कबीर, खुसरो, वली औरंगाबादी, ज़फ़र, ग़ालिब, रसा, बिस्मिल, अशफ़ाक़, सामी, नादां, साहिर, अर्श, फैज़, मज़ाज़, जोश, नज़रुल, नूर, फ़िराक, मज़हर, शकील, केशव, अख्तर, कैफ़ी, जिगर, सौदा, तांबा, चकबस्त, दाग़, हाली, इक़बाल, ज़ौक़, क़तील, रंग, अंचल, नईम, फ़ुग़ाँ, फ़ानी, निज़ाम, नज़ीर, राही, बेकल, नीरज, दुष्यंत, विराट, बशीर बद्र, अश्क, साज, शांत, यति, परवीन हक़, प्रसाद, निराला, दिनकर, कुंवर बेचैन, अंबर, अनंत, अंजुम, सलिल, सागर मीरजापुरी, बेदिल, मधुकर, राजेंद्र वर्मा, समीप, हस्ती, आदि सहस्त्राधिक हिंदी ग़ज़लकारों ने हिंदी ग़ज़ल को समृद्ध-संपन्न करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।
डॉ. रोहिताश्व अस्थाना ने हिंदी ग़ज़ल को लेकर शोध ग्रन्थ 'हिंदी ग़ज़ल : उद्भव और विकास', व्यक्तिगत ग़ज़ल संग्रह 'बांसुरी विस्मित है', हिंदी ग़ज़ल पंचदशी संकलन श्रृंखला आदि के पश्चात् 'चुनिंदा हिंदी गज़लें' के समापदं का सराहनीय कार्य किया है। इस पठनीय, संग्रहणीय संकलन में ४४ ग़ज़लकारों की ४-४ ग़ज़लें संकलित की गयी हैं। डॉ, अस्थाना के अनुसार "मैं आश्वस्त हूँ कि संकलित कवि अथवा गज़लकार किसी मिथ्याडंबर अथवा अहंकार से मुक्त होकर निस्वार्थ भाव से हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में साधनारत हैं।'' इस संकलन में वर्णमाला क्रमानुसार अजय प्रसून, अनिरुद्ध सिन्हा, अशोक आलोक, अशोक 'अंजुम', अशोक 'मिज़ाज', ओंकार 'गुलशन, उर्मिलेश, किशन स्वरूप, सजल, कृष्ण सुकुमार, कौसर साहिरी, ख़याल खन्ना, गिरिजा मिश्रा, नीरज, विराट, चाँद शेरी, पथिक, वियजय, नलिन, याद राम शर्मा, महर्षि, रोहिताश्व, विकल सकती, निर्मम, श्याम, अंबर, बिस्मिल, विशाल, संजीव 'सलिल', मुहसिन, हस्ती, वहां, प्रजापति, विनम्र, दिनेश रस्तोगी, दिनेश सिंदल, दीपक, राकेश चक्र, विद्यासागर वर्मा, सत्य, भगत, मिलान, अडिग, रऊफ परवेज की सहभागिता है। ग़ज़लकारों के वरिष्ठ और कनिष्ठ दोनों ही हैं। ग़ज़लकारों और ग़ज़लों का चयन करने में रोहिताश्व जी विषय वैविध्य और शिल्प वैविध्य में संतुलन स्थापित कर संकलन की गुणवत्ता बनाए रखने में सफल हैं।
डॉ. अजय प्रसून 'हर कोई अपनी रक्षा को व्याकुल है' कहकर असुरक्षा की जन भावना को सामने लाते हैं। अनिरुद्ध सिन्हा 'दर्द अपना छिपा लिया उसने' कहकर आत्मगोपन की सहज मानवीय प्रवृत्ति का उल्लेख करते हैं। 'सच बयानी धुंआ धुंआ ही सही' - अशोक अंजुम, धीरे-धीरे शोर सन्नाटों में गुम हो जायेगा' - मिज़ाज, अपने कदमों पे खड़े होने के काबिल हो जा - उर्मिलेश, अंधियारे ने सूरज की अगवानी की - किशन स्वरूप, आँसू पीकर व्रत तोड़े हैं - गिरिजा मिश्रा, बढ़ता था रोज जिस्म मगर घाट रही थी उम्र - नीरज, कालिख है कोठरी की लगेगी अवश्य ही - विराट, शहर के हिन्दोस्तां से कुछ अलग / गाँव का हिन्दोस्तां है और हम - महर्षि, राहत के दो दिन दे रब्बा - श्याम, सुविधा से परिणय मत करना -अंबर, रिश्तों की कब्रों पर मिटटी मत डालो - विशाल, छोड़ चलभाष प्रिय! / खत-किताबत करो -संजीव 'सलिल', सच है लहूलुहान अगर झूठ है तो बोल - हस्ती, सर उठाकर न जमीन पर चलिए - वहम, सुख मिथ्या आश्वासन जैसा - विनम्र, रोज ही होता मरण है - राकेश चक्र, एक सागर नदी में रहता है - मिलन, घर में पूजा करो, नमाज पढ़ो - रऊफ परवेज़ आदि हिंदी जगत के सम सामायिक परिवेश की विसंगतियों, विडंबनाओं, अपेक्षाओं, आशंकाओं आदि को पूरी शिद्दत से उद्घाटित करते हैं।
डॉ. अस्थाना ने रचना-चयन करते समय पारंपरिकता पर अधुनातन प्रयोगधर्मिता को वरीयता ठीक ही दी है। इससे संकलन सहज ग्राह्य और विचारणीय बन सका है। हर दिन प्रकाशित हो रहे सामूहिक संकलनों की भीड़ में यह संकलन अपनी पृथक पहचान स्थापित करने में सफल है। आकर्षक आवरण, त्रुटिहीन मुद्रण, स्तरीय रचनाएँ इसे 'सोने में सुहागा' की तरह पाठकों में लोकप्रिय और शोधार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध करेगी।
*
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, वॉट्सऐप ९४२५१८३२४४
***
सॉनेट
शीत
पलट शीत फिर फिर है आती।
सखी! चुनावी नेता जैसे।
रँभा रहीं पगुराती भैंसे।।
यह क्यों बे मौसम टर्राती।।
कँपा रही है हाड़-माँस तक।
छुड़ा रही छक्के, छक्का जड़।
खड़ी द्वार पर, बन छक्का अड़।।
जमी जा रही हाय श्वास तक।।
सूरज ओढ़े मेघ रजाई।
उषा नवेली नार सुहाई।
रिसा रही वसुधा महताई।।
पाला से पाला है दैया।
लिपटे-चिपटे सजनी-सैंया।
लल्ला मचले लै लै कैंया।।
५-२-२०२२
•••

सोरठा गीत
पदभार- २४।
यति - १३-११।
पदांत - लघु गुरु।
*
 तेरी-मेरी प्रीत, युगों-युगों तक रहेगी।
अमर रचें कवि गीत, तू चंदा मैं चाँदनी।।
*
कर जग से तम दूर, हम मिल पाला भगा दें।
सहिष्णुता सिंदूर, लोक हितों की माँग हो।।
नभ के श्रमिक-किसान, अनगिन तारागण बनें।
कोशिश बीज पुनीत, श्रम-सीकर वर्षा बने।
रचें अनश्वर रीत, चल हम चंदा-चाँदनी।।
*
बन पाएँ निष्काम, काम अकाम-सकाम वर।
आसें अर्ध विराम, श्वासें अल्प विराम हों।।
रच दें हम नव नीत, पूर्ण विराम अनाम हो।
मन हारें मन जीत, श्री वास्तव में पा सकें।।
*
छप्-छपाक् संजीव, विमल निर्मल सलिल।
हो जाएँ राजीव, शैशव वर वार्धक्य में।।
भावी बने अतीत, भू-नभ की कुड़माई हो।
बन सत स्वर संगीत, कलरव-कलकल अमर हो।।
***
५-२-२०२१

प्रार्थना
छंद मुक्तक
*
अजर अमर माँ शारद जय जय।
आस पूर्ण कर करिए निर्भय।।
इस मन में विश्वास अचल हो।
ईश कृपा प्रति श्रद्धा अक्षय।।
उमड़ उजाला सब तम हर ले।
ऊसर ऊपर सलिल प्रचुर दे।।
एक जननि संतान अगिन हम
ऐक्य भाव पथ, माँ! अक्षर दे।।
ओसारे चहके गौरेया।
और रँभाए घर घर गैया।
अंकुर अंबर छू ले बढ़कर
अः हँसे सँग बहिना-भैया।।
क्षणभंगुर हों शंका संशय।
त्रस्त रहे बाधा, शुभ की जय।
ज्ञान मिले सत्य-शिव-सुंदर का
ऋद्धि-सिद्धि दो मैया जय जय।।
*
५-२-२०१०
***
सामयिक माहिया
*
त्रिपदिक छंद।
मात्रा भार - १२-१०-१२।
*
भारत के बेटे हैं
किस्मत के मारे
सड़कों पर बैठे हैं।
*
गद्दार नहीं बोलो
विवश किसानों को
नेता खुद को तोलो।
*
मत करो गुमान सुनो,
अहंकार छोड़ो,
जो कहें किसान सुनो।
*
है कुछ दिन की सत्ता,
नेता सेवक है
है मालिक मतदाता।
*
मत करना मनमानी,
झुक कर लो बातें,
टकराना नादानी।
*
सब जनता सोच रही
खिसियानी बिल्ली
अब खंबा नोच रही।
*
कितनों को रोकोगे?
पूरी दिल्ली में
क्या कीले ठोंकोगे?
*
जनमत मत ठुकराओ
रूठी यदि जनता
कह देगी घर जाओ।
*
फिर है चुनाव आना
अड़े रहे यूँ ही
निश्चित फिर पछताना।
*
५-२-२०२१

गले मिले दोहा-यमक
*
नारी पाती दो जगत, जब हो कन्यादान
पाती है वरदान वह, भले न हो वर-दान
*
दिल न मिलाये रह गए, मात्र मिलकर हाथ
दिल ने दिल के साथ रह, नहीं निभाया साथ
*
निर्जल रहने की व्यथा, जान सकेगा कौन?
चंद्र नयन-जल दे रहा, चंद्र देखता मौन
*
खोद-खोदकर थका जब, तब सच पाया जान
खो देगा ईमान जब, खोदेगा ईमान
*
कौन किसी का सगा है, सब मतलब के मीत
हार न चाहें- हार ही, पाते जब हो जीत
*
निकट न होकर निकट हैं, दूर न होकर दूर
चूर न मद से छोर हैं, सूर न हो हैं सूर
*
इस असार संसार में, खोज रहा है सार
तार जोड़ता बात का, डिजिटल युग बे-तार
*
५-२-२०१७

बाल गीत:
"कितने अच्छे लगते हो तुम "
*
कितने अच्छे लगते हो तुम |
बिना जगाये जगते हो तुम ||
नहीं किसी को ठगते हो तुम |
सदा प्रेम में पगते हो तुम ||
दाना-चुग्गा चुगते  हो तुम |
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ करते हो तुम ||
आलस कैसे तजते हो तुम?
क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम |
बिल्ली से डर बचते हो तुम ||
क्या माला भी जपते हो तुम?
शीत लगे तो कँपते हो तुम?
सुना न मैंने हँसते हो तुम |
चूजे भाई! रुचते हो तुम |
***
बासंती दोहा ग़ज़ल:
संजीव
*
स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार
किंशुक कुसुम दहक रहे, या दहके अंगार?
*
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री-श्रृंगार
*
महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार
मधुशाला में बिन पिये, सिर पर नशा सवार
*
नहीं निशाना चूकती, पञ्चशरों की मार
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार
*
नैन मिले लड़ झुक उठे, करने को इंकार
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार
*
मैं-तुम, यह-वह ही नहीं, बौराया संसार
सब पर बासंती नशा, मिल लें गले खुमार
*
ढोलक, टिमकी, मंजीरा, करें ठुमक इसरार
दुनियावी चिंता भुला, नाचो-झूमो यार
*
घर आँगन तन धो दिया, तन का रूप निखार
अंतर्मन का मेल भी, प्रियवर! कभी बुहार।
*
बासंती दोहा-गज़ल, मन्मथ की मनुहार
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार
५-२-२०१४

***
छंद सलिला:
रामा छंद
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, मधुभार, रामा, माला, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सुगति, सुजान, हंसी)
*
रामा छंद में माला छंद के सर्वथा विपरीत प्रथम पद में दो चरण इंद्र वज्रा छंद के तथा द्वितीय पद में उपेन्द्र वज्रा छंद के दो चरण होते हैं.
उदाहरण:
१. पूजा उसे ही हमने हमेशा, रामा हमारा सबका सहारा
उसे सभी की रहती सदा ही, फ़िक्र न भूले वह देव प्यारा
२. कैसे बहलायें परदेश में जो, भाई हमारे रहने गये हैं
कहीं रहें वे हमको न भूलें, बसे हमारे दिल में वही हैं
३. कोई नहीं है अपना-पराया, जैसा जहाँ जो सब है तुम्हारा
तुम्हें मनायें दिन-रात देवा!, हमें न मोहे भ्रम-मोह-माया
५-२-२०१४
***

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