रामायण
रामायण का काल वैवस्वत, मन्वंतर के 28 वी चतुर्युगी के त्रेतायुग का है। वैदिक गणित/विज्ञान के अनुसार ये सृष्टि 14 मन्वंतर तक चलती है। प्रत्येक मन्वंतर मे 71 चतुर्युगी होती है। 1 चतुर्युगी मे 4 युग- सत,त्रेता,द्वापर एवं कलियुग होते है। अब तक 6 मन्वंतर बीत चुके है 7 वाँ मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है। सतयुग 17,28,000 वर्षो का एक काल है, इसी प्रकार त्रेतायुग 12,96,000 वर्ष, द्वापरयुग 8,64,000 वर्ष एवं कलियुग 4,32,000 वर्ष का है। वर्तमान मे 28 वी चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है। अर्थात् श्रीराम के जन्म होने और हमारे समय के बीच द्वापरयुग है। जो कि उपरोक्त 8,64,000 वर्ष का है। अब आगे आते है कलियुग के लगभग 5200 वर्ष बीत चुके है। महान गणितज्ञ एवं ज्योतिष वराहमिहिर जी के अनुसार-
असन्मथासु मुनय: शासति पृथिवी: युधिष्ठिरै नृपतौ:
षड्द्विकपञ्चद्वियुत शककालस्य राज्ञश्च:
जिस समय युधिष्ठिर राज्य करते थे उस समय सप्तऋषि मघा नक्षत्र मे थे। वैदिक गणित मे 27 नक्षत्र होते है और सप्तऋषि प्रत्येक नक्षत्र मे 100 वर्ष तक रहते है।ये चक्र चलता रहता है। राषा युधिष्ठिर के समय सप्तऋषियो ने 27 चक्र पूर्ण कर लिये थे उसके बाद आज तक 24 चक्र और हुए कुल मिलाकर 51 चक्र हो चुके है सप्तऋषि तारा मंडल के। अत: कुल वर्ष व्यतीत हुए 51×100= 5100 वर्ष। राजा युधिष्ठिर लगभग 38 वर्ष शासन किये थे। तथा उसके कुछ समय बाद कलियुग का आरम्भ हुआ अत: मानकर चलते है कि कलियुग के कुल 5155 वर्ष बीत चुके है।
इस प्रकार कलियुग से द्वापरयुग तक कुल 8,64,000+5155=8,69,155 वर्ष।
श्रीराम का जन्म हुआ था त्रेतायुग के अंत मे। इस प्रकार कम से कम 9 लाख वर्ष के आस पास श्रीराम और रामायण का काल आता है।
रामायण सुन्दरकांड सर्ग 5, श्लोक 12 मे महर्षि वाल्मीकि जी लिखते है-
वारणैश्चै चतुर्दन्तै श्वैताभ्रनिचयोपमे भूषितं रूचिद्वारं मन्तैश्च मृगपक्षिभि:||
अर्थात् जब हनुमान जी वन मे श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाते है तब वो सफेद रंग 4 दांतो नाले हाथी को देखते है। ये हाथी के जीवाश्म सन 1870 मे मिले थे। कार्बन डेटिंग पद्धति से इनकी आयु लगभग 10 लाख से 50 लाख के आसपास निकलती है।
वैज्ञानिक भाषा मे इस हाथी को Gomphothere नाम दिया गया। इस से रामायण के लगभग 10 लाख साल के आस पास घटित होने का वैज्ञानिक प्रमाण भी उपलब्ध होता है।
तुलसीदास लगभग 500 वर्ष पूर्व पैदा हुए थे। वे अवधी एवं ब्रज भाषा मे लिखते थे। जो गीता वेदव्यास द्वारा लिखित थी वो केवल 80 श्लोक की थी, आज 800 श्लोक तक पहुँच गयी है। आज से 1500 वर्ष पूर्व जन्मे राजाभोज अपनी पुस्तक भोजप्रबंध मे लिखते है कि म़ेरे से 500 वर्ष पूर्व जब राजा विक्रमादित्य शासन करते थे तब महाभारत मे 1000 श्लोक थे, मेरे दादा के समय मे 2500 श्लोक तथा मेरे समय मे 3000 श्लोक है। वर्तमान मे गीताप्रेस गोरखपुर 1 लाख 10,000 श्लोक की महाभारत छापता है। इसी प्रकार मूल रामायण के बहुत से संस्कृत श्लोकों को अवधी,ब्रज भाषा में बदलकर तुलसीदास ने काव्य रूप से रामायण की रचना की जिसे रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। रामचरितमानस मे जो तथ्य मूल रामायण(मुनि वाल्मीकि रचित) सम्मत है उन्हें ग्रहण करें और जो विरुद्ध हैं उन्हे त्याग दें।
श्रीराम की कथा सर्वप्रथम भगवान शंकर ने माता पार्वतीजी को सुनाई थी। उस कथा को एक कौवे ने भी सुन लिया। उसी कौवे का पुनर्जन्म कागभुशुण्डि के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि को पूर्व जन्म में भगवान शंकर के मुख से सुनी वह रामकथा पूरी की पूरी याद थी। उन्होंने यह कथा अपने शिष्यों को सुनाई। इस प्रकार रामकथा का प्रचार-प्रसार हुआ। भगवान शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा 'अध्यात्म रामायण' के नाम से विख्यात है। काकभुशुण्डि : लोमश ऋषि के शाप के चलते काकभुशुण्डि कौवा बन गए थे। लोमश ऋषि ने शाप से मुक्त होने के लिए उन्हें राम मंत्र और इच्छामृत्यु का वरदान दिया। कौवे के रूप में ही उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत किया। वाल्मीकि से पहले ही काकभुशुण्डि ने रामायण गिद्धराज गरूड़ को सुना दी थी।
जब रावण के पुत्र मेघनाथ ने श्रीराम से युद्ध करते हुए श्रीराम को नागपाश से बाँध दिया था, तब देवर्षि नारद के कहने पर गिद्धराज गरुड़ ने नागपाश के समस्त नागों को खाकर श्रीराम को नागपाश के बंधन से मुक्त कर दिया था। भगवान राम के इस तरह नागपाश में बंध जाने पर श्रीराम के भगवान होने पर गरुड़ को संदेह हो गया। गरुड़ का संदेह दूर करने के लिए देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्माजी के पास भेज देते हैं। ब्रह्माजी उनको शंकरजी के पास भेज देते हैं। भगवान शंकर ने भी गरुड़ को उनका संदेह मिटाने के लिए काकभुशुण्डिजी के पास भेज दिया। अंत में काकभुशुण्डिजी ने राम के चरित्र की पवित्र कथा सुनाकर गरुड़ के संदेह को दूर किया।
वैदिक साहित्य के बाद जो रामकथाएँ लिखी गईं, उनमें वाल्मीकि रामायण सर्वोपरि है। वाल्मीकि श्रीराम के समकालीन थे और उन्होंने रामायण तब लिखी, जब रावण-वध के बाद राम का राज्याभिषेक हो चुका था। एक दिन वे वन में ऋषि भारद्वाज के साथ घूम रहे थे और उन्होंने एक व्याघ्र (बहेलिया) द्वारा क्रौंच पक्षी को मारे जाने की हृदयविदारक घटना देखी और तभी उनके मन से एक श्लोक फूट पड़ा। बस यहीं से इस कथा को लिखने की प्रेरणा मिली। यह इसी कल्प की कथा है और यही प्रामाणिक है। वाल्मीकिजी ने राम से संबंधित घटनाचक्र अपने जीवनकाल में स्वयं देखा-सुना था, उनकी रामायण सत्य के काफी निकट है, लेकिन उनकी रामायण के सिर्फ 6 ही कांड थे। उत्तरकांड को बौद्धकाल में जोड़ा गया।
अद्भुत रामायण संस्कृत भाषा में रचित 27 सर्गों का काव्य-विशेष है। कहा जाता है कि इस ग्रंथ के प्रणेता भी वाल्मीकि थे। किंतु शोधकर्ताओं के अनुसार इसकी भाषा और रचना से लगता है कि किसी बहुत परवर्ती कवि ने इसका प्रणयन किया है अर्थात अब यह वाल्मीकि कृत नहीं रही। तो क्या वाल्मीकि यह चाहते थे कि मेरी रामायण में विवादित विषय न हो, क्योंकि वे श्रीराम को एक मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में ही स्थापित करना चाहते थे?
क्यों हनुमानजी ने 'रामायण' समुद्र में फेंक दी थी?
हनुमद रामायण : शास्त्रों के अनुसार विद्वान लोग कहते हैं कि सर्वप्रथम रामकथा हनुमानजी ने लिखी थी और वह भी एक शिला (चट्टान) पर अपने नाखूनों से लिखी थी। यह रामकथा वाल्मीकिजी की रामायण से भी पहले लिखी गई थी और यह 'हनुमद रामायण' के नाम से प्रसिद्ध है।
यह घटना तब की है जबकि भगवान श्रीराम रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद अयोध्या में राज करने लगते हैं और श्री हनुमानजी हिमालय पर चले जाते हैं। वहाँ वे अपनी शिव तपस्या के दौरान की एक शिला पर प्रतिदिन अपने नाखून से रामायण की कथा लिखते थे। इस तरह उन्होंने प्रभु श्रीराम की महिमा का उल्लेख करते हुए 'हनुमद रामायण' की रचना की।
कुछ समय बाद महर्षि वाल्मीकि ने भी 'वाल्मीकि रामायण' लिखी और लिखने के बाद उनके मन में इसे भगवान शंकर को दिखाकर उनको समर्पित करने की इच्छा हुई। वे अपनी रामायण लेकर शिव के धाम कैलाश पर्वत पहुँचे। वहाँ उन्होंने हनुमानजी को और उनके द्वारा लिखी गई 'हनुमद रामायण' को देखा। हनुमद रामायण के दर्शन कर वाल्मीकिजी निराश हो गए। वाल्मीकिजी को निराश देखकर हनुमानजी ने उनसे उनकी निराशा का कारण पूछा तो महर्षि बोले कि उन्होंने बड़े ही कठिन परिश्रम के बाद रामायण लिखी थी लेकिन आपकी रामायण देखकर लगता है कि अब मेरी रामायण उपेक्षित हो जाएगी, क्योंकि आपने जो लिखा है उसके समक्ष मेरी रामायण तो कुछ भी नहीं है। तब वाल्मीकिजी की चिंता का शमन करते हुए श्री हनुमानजी ने हनुमद रामायण पर्वत शिला को एक कंधे पर उठाया और दूसरे कंधे पर महर्षि वाल्मीकि को बिठाकर समुद्र के पास गए और स्वयं द्वारा की गई रचना को श्रीराम को समर्पित करते हुए समुद्र में समा दिया। तभी से हनुमान द्वारा रची गई हनुमद रामायण उपलब्ध नहीं है। वह आज भी समुद्र में पड़ी है। हनुमानजी द्वारा लिखी रामायण को हनुमानजी द्वारा समुद्र में फेंक दिए जाने के बाद महर्षि वाल्मीकि बोले कि हे रामभक्त श्री हनुमान, आप धन्य हैं! आप जैसा कोई दूसरा ज्ञानी और दयावान नहीं है। हे हनुमान, आपकी महिमा का गुणगान करने के लिए मुझे एक जन्म और लेना होगा और मैं वचन देता हूँ कि कलयुग में मैं एक और रामायण लिखने के लिए जन्म लूंगा। तब मैं यह रामायण आम लोगों की भाषा में लिखूँगा। माना जाता है कि रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास कोई और नहीं बल्कि महर्षि वाल्मीकि का ही दूसरा जन्म था। तुलसीदासजी अपनी 'रामचरित मानस' लिखने के पूर्व हनुमान चालीसा लिखकर हनुमानजी का गुणगान करते हैं और हनुमानजी की प्रेरणा से ही वे फिर रामचरित मानस लिखते हैं।
कहते हैं कि कालिदास के काल में एक पट्टलिका को समुद्र के किनारे पाया गया था जिसे एक सार्वजनिक स्थान पर टाँग दिया गया था ताकि विद्यार्थी उस पर लिखी गूढ़ लिपि को समझ और पढ़कर उसका अर्थ निकाल सकें। कालिदास ने उसका अर्थ निकाल लिया था और वे जान गए थे कि यह हनुमानजी द्वारा रचित हनुमद रामायण का ही एक अंश है। महाकवि तुलसीदास के हाथ वही पट्टलिका लग गई थी। उसे पाकर तुलसीदास ने अपने आपको बहुत भाग्यशाली माना कि उन्हें हनुमद रामायण के श्लोक का एक पद्य प्राप्त हुआ है। हनुमन्नाटक रामायण के अंतिम खंड में लिखा है-
'रचितमनिलपुत्रेणाथ वाल्मीकिनाब्धौ
निहितममृतबुद्धया प्राड् महानाटकं यत्।।
सुमतिनृपतिभेजेनोद्धृतं तत्क्रमेण
ग्रथितमवतु विश्वं मिश्रदामोदरेण।।'
अर्थात : इसको पवनकुमार ने रचा और शिलाओं पर लिखा था, परंतु वाल्मीकि ने जब अपनी रामायण रची तो तब यह समझकर कि इस रामायण को कौन पढ़ेगा, श्री हनुमानजी से प्रार्थना करके उनकी आज्ञा से इस महानाटक को समुद्र में स्थापित करा दिया, परंतु विद्वानों से किंवदंती को सुनकर राजा भोज ने इसे समुद्र से निकलवाया और जो कुछ भी मिला उसको उनकी सभा के विद्वान दामोदर मिश्र ने संगतिपूर्वक संग्रहीत किया।
अब तक लिखी गई राम कथा की सूची :
१. अध्यात्म रामायण
२. वाल्मीकि की 'रामायण' (संस्कृत)
३. आनंद रामायण
४. 'अद्भुत रामायण' (संस्कृत)
५. रंगनाथ रामायण (तेलुगु)
६. कवयित्री मोल्डा रचित मोल्डा रामायण (तेलुगु)
७. रूइपादकातेणपदी रामायण (उड़िया)
८. रामकेर (कंबोडिया)
९. तुलसीदास की 'रामचरित मानस' (अवधी)
१०. कम्बन की 'इरामावतारम' (तमिल)
११.. कुमार दास की 'जानकी हरण' (संस्कृत)
१२. मलेराज कथाव (सिंहली)
१३. किंरस-पुंस-पा की 'काव्यदर्श' (तिब्बती)
१४. रामायण काकावीन (इंडोनेशियाई कावी)
१५. हिकायत सेरीराम (मलेशियाई भाषा)
१६. रामवत्थु (बर्मा)
१७. रामकेर्ति-रिआमकेर (कंपूचिया खमेर)
१८. तैरानो यसुयोरी की 'होबुत्सुशू' (जापानी)
१९. फ्रलक-फ्रलाम-रामजातक (लाओस)
२०. भानुभक्त कृत रामायण (नेपाल)
२१. अद्भुत रामायण
२२. रामकियेन (थाईलैंड)
२३. खोतानी रामायण (तुर्किस्तान)
२४ . जीवक जातक (मंगोलियाई भाषा)
२५. मसीही रामायण (फारसी)
२६. शेख सादी मसीह की 'दास्ताने राम व सीता'।
२७. महालादिया लाबन (मारनव भाषा, फिलीपींस)
२८. दशरथ कथानम (चीन)
२९. हनुमन्नाटक (हृदयराम-1623)
***
क्या वाल्मिकि रामायण में "तथागत बुद्ध" है? यदि है तो इसका मतलब क्या है?
वाल्मीकी रामायण के सातों कांड में कहीं भी तथागत बुद्ध का उल्लेख नहीं है। इस श्लोक के कारण भ्रांति फैली हुई है-
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्ध |
स्तथागतं नास्तिकमत्र विध्हि |
तस्माद्धि यः शङ्क्यतमः प्रजानाम् |
न नास्ति केनाभिमुखो बुधः स्यात्
स्रोत - अयोध्याकाण्ड, सर्ग संख्या १०९, वाल्मीकी रामायण
इस श्लोक का अंग्रेज़ी अनुवाद कुछ इस प्रकार से है -
बुद्ध का अर्थ विद्वान व्यक्ति है, न कि तथागत बुद्ध।
यह प्रसंग श्री राम और जाबाली के बीच हुए संवाद का है। जाबाली ऋषि भरत के साथ श्री राम को अयोध्या ले जाने के उद्देश्य से वन पधारे हैं। श्री राम को अयोध्या ले जाने के लिए वह चारवाक दर्शन का सहारा लेते हुए उनसे पिता की आज्ञा का पालन न करने के लिए कहते हैं और नास्तिकता का गुणगान करते हैं।
श्री राम अपने प्रतिउत्तर में चारवाक दर्शन और नास्तिकता का पूर्ण रूप से खंडन करते हैं और नास्तिक व्यक्ति को दंडनीय भी बताते हैं। इस श्लोक में श्री राम द्वारा नास्तिकता का खंडन किया गया है।
गीताप्रेस के अनुवादसे ऐसा प्रतीत होगा कि इस श्लोक में बुद्ध का उल्लेख है। लेकिन यदि तथ्यों पर गौर करें, तो रामायण का कालखंड बुद्ध से बहुत पहले का है। इसलिए गीताप्रेस द्वारा इस श्लोक का अनुवाद गलत है।
*
कविता : कृष्ण
*
कृष्ण!
मैं देख तुम्हारी जीवन यात्रा चकित हुआ,
क्यों अपने संघर्षों से इतना मैं व्यथित हुआ !
जन्म से भी आदि, जीवन के अन्त तक
सरल न कोई तुम्हारा पथ रहा
एक नहीं अनेक बार जीवन विस्थापित हुआ !
झंझाओं को जूझ देते रहे
मोह को छोड़ नित्य आगे बढ़ते रहे
मानवता के रक्षक बने
तुम्हीं से धर्म धरा पर स्थापित हुआ !!
स्वलिखित © सविता पाटील
(क्वोरा से साभार )
*
बिहारी के दोहे
*
हिंदी साहित्य के चार भाग - आदिकाल (वीरगाथाकाल), भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल हैं। आदि काल वीरकाव्य प्रधान है, भक्तिकाल भक्ति भावप्रधान और रीतिकाल शृंगार प्रधान। आधुनिक साहित्य में विषय वैविध्य उल्लेखनीय है।
रीतिकालीन कवियों में केशवदास, पद्माकर, देव, बिहारी, घनानंद और भूषण आदि प्रमुख हैं। रीतिकाल के श्रेष्ठ कवि बिहारी एकमात्र कृति 'सतसई' सेहिंदी साहित्य में अमर हो गए। बिहारी के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है - कल्पना की अद्भुत समाहार क्षमता और भाषा की बेजोड़ समास शक्ति। अपनी इसी विशेषता के कारण वह बहुत कम शब्दों में बहुत अधिक बातें कह देते हैं-
"कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन में करत है, नैननु ही सों बात।।"
बिहारी के काव्य की विशेषता है उनका बिंब कौशल। वह अमूर्त से अमूर्त भाव को भी शब्द-चित्र की भाषा में जीवंत कर सके हैं।
"बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करें, भौंहनु हँसै, दैन कहै नटि जाय।।"
बिहारी की अलंकार योजना अपनी मिसाल आप है। वह श्लेष, यमक, अतिशयोक्ति, विरोधाभास आदि अलंकारों के रोचक प्रयोग से व पाठक को रस-लीन करा देते हैं।
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गम्भीर।
को घटि? ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥
बिहारी के काव्य का विषय-वैविध्य चमत्कारिक है। रीतिकाल के अन्य कवि सामान्यत: एक विषय पर केंद्रित रहे , किंतु बिहारी शृंगार को काव्य-केंद्र बिंदुखते हुए भी नीति, भक्ति, राजनीतिक चेतना और सामाजिक सजगता से भी साक्षात्कार करते-कराते रहे।
भक्ति भाव-
" मेरी भववाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय।।"
राजनीतिक चेतना -
"नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।
अली कली में ही बिंध्यों, आगे कौन हवाल।"
पाखंड पर प्रहार-
"जप माला छापा तिलक, सरै न एकौ काम।
मन-काँचै नाचै वृथा, साँचै राँचै राम।।"
बिहारी शिल्प के सजग कवि होने के साथ ही संवेदना के स्तर पर भी अपने काव्य चरम साध सके हैं। बिहारी की काव्य भाषा मुख्यतः ब्रज है। ब्रज भाषा में सूरदास ने जो संगीतात्मकता और तन्मयता पैदा की थी उसे पूर्णता तक बिहारी ने ही पहुँचाया है। बिहारी अपने भाषा की समाहार और समास क्षमता, अनुभावों की सघन योजना, बिंब और अलंकारों का चमत्कारी प्रयोग कर अमर हो गए हैं। जॉर्ज ग्रियर्सन ने तो यहाँ तक कहा है कि " पूरे यूरोप में एक भी कवि बिहारी की बराबरी नहीं कर सकता"।
(स्रोत- बिहारी रत्नाकर, सं. जगन्नाथदास रत्नाकर)
***
महर्षि दधीचि
दधीचि ऋषि का हिंदू धर्म में केंद्रीय चरित्र रहा है। इन्हें दधिचंथा या दधिंगा के नाम से भी जाना जाता है। दधीचि मुख्य रूप से अपने जीवन का त्याग करने के लिए जाने जाते हैं। इन्होंने देवताओं की सहायता के लिए अपनी हड्डियों से “वज्र” नामक हथियार बनाकर तत्क्षण उनको दान में दिया था। इस वज्र को बनाने के लिए उन्होंने अपने प्राणों का त्याग करने में तनिक भी देरी नहीं की थी। नागराज वृत्र द्वारा स्वर्ग से निष्कासित होने के बाद देवताओं को नागराज से युद्ध करने के लिए एक शक्तिशाली हथियार की आवश्यकता थी, यह हथियार ऋषि दधीचि की हड्डियों से बना वज्र था, जिसका उपयोग करके देवताओं ने असुर को हराकर पुनः स्वर्ग को प्राप्त किया।
संस्कृत में दध्यांच या दधिहंगा दो शब्दों दधि (दही) + एंक (भागों) का एक संयोजन है, जिसका अर्थ है “दही से शरीर के अंगों का बल लेना।” दधीचि नाम दधिंगा या दधिचांचा का अपभ्रंश रूप है, जैसा कि प्राचीन संस्कृत विद्वान पाणिनि ने अपने कार्य अष्टाध्यायी में बताया है।
वृत्र को पराजित करके देवताओं ने अकाल का उन्मूलन करने के लिए पानी का प्रवाह शुरू किया, जिससे कि जीवित प्राणियों को, जो असुरों के अन्याय का शिकार हुए थे, राहत मिल सके। ऋषि दधीचि ने अपने बलिदान के माध्यम द्वारा देवताओं को असुरों को हराने में मदद की। ऋषि दधीचि की इसी निस्वार्थता के कारण वह ऋषियों और हिंदू संतो के बीच अत्यंत श्रद्धा का पात्र बन गए। ऋषि दधीचि का यह बलिदान इस बात का प्रतीक है कि बुराई से रक्षा करने में यदि कोई त्याग करना पड़े तो, कभी पीछे नहीं हटना चाहिए। भारत का सर्वोच्च सैन्य पुरस्कार “परमवीर चक्र” भी ऋषि दधीचि के इसी बलिदान और वीरता का प्रतीक है, जो युद्ध में असाधारण साहस दिखाने वाले सैनिकों को मरणोपरांत दिया जाता है।
ऋषि दधीचि के सम्मुख भगवन शिव का प्रकट होना
ऋषि दधीचि भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त थे। जब भगवान शिव अपनी पत्नी देवी शक्ति से अलग हो गए तो विरह की इस पीड़ा के दौरान वह एक ऋषि के रूप में एकांत में रहने के लिए जंगल चले गए। महाशिवरात्रि के वार्षिक उत्सव में भगवान शिव पहली बार ऋषि के रूप में अपने भक्तों के सामने प्रकट हुए, जिसमें ऋषि दधीचि और उनके शिष्य भी शामिल थे, जो उस समय भगवान शिव की प्रार्थना कर रहे थे।
ऋषि दधीचि का परिवार एवं मंदिर
भगवत पुराण में ऋषि दधीचि को अथर्वण का पुत्र कहा गया है, इनकी माता का नाम चिति था। अथर्वण, अथर्ववेद के लेखक कहे जाते हैं, जो चारों वेदों में से एक है। चिति ऋषि कर्दम की पुत्री थी। ऋषि दधीचि एक ब्राह्मण वंश के थे, जो मुख्यता राजस्थान में पाया जाता है। ऋषि दधीचि की पत्नी का नाम स्वार्चा और पुत्र का नाम पिप्पलदा था। पिप्पलदा ने प्रसन्न उपनिषद की रचना की। ऋषि दधीचि ने अपना आश्रम मिसरिख, नैमिषारण्य के पास (जो कि उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर में स्थित है) में स्थापित किया था। नैमिषारण्य, सभी पुराणों में उनके आश्रम के स्थान के रूप में उद्धृत किया गया है और यह आज भी अस्तित्व में है। वर्तमान का साबरमती आश्रम (अहमदाबाद, गुजरात में स्थित है) प्राचीन काल में इनके आश्रमों में से एक था। प्राचीन भारत में ऋषि मुनि सामान्यतया लंबी दूरी की यात्रा तय किया करते थे। ऐसा माना जा सकता है कि उन्होंने कुछ समय तक साबरमती नदी के किनारे वास किया होगा और उसी दौरान उन्होंने यह आश्रम बनाया होगा।
दाहोद के विषय में भी एक प्रचलित किंवदन्ती यह है कि एक बार ऋषि दधीचि ने दाहोद में दूधमति नदी के तट पर ध्यान किया। दधिमती इनकी बहन का नाम था।जिनके नाम पर नागपुर के राजस्थान में “दधिमती माता मंदिर” के नाम से एक मंदिर स्थापित है, यह मंदिर चौथी शताब्दी से भी ज्यादा पुराना है। इसका नाम ऋग्वेद के पहले मंडल में मिलता है। साथ ही ऋग्वेद के विभिन्न सुक्तों में भी ऋषि दधीचि का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि ऋषि दधीचि ने दक्षिण भारत में प्रसिद्ध भजन “नारायण कवचम” की रचना की थी, जिसे शक्ति और शांति के लिए गाया जाता था।
दधीच ब्राह्मण, ऋषि दधीचि के वंशज माने जाते हैं। उनके देवता दधिमती हैं, जो महर्षि दधीचि की बहन थीं।
ऋषि दधीचि के विषय में कई हिंदू किंवदंतियों भी हैं, जैसे कि कभी-कभी उन्हें घोड़े के सिर के रूप में भी चित्रित किया जाता है।
ऋषि दधीचि का अश्वशिरा (घोड़े के सिर वाला) रूप
ऋषि दधीचि के बारे में कहा जाता है कि वे ब्रह्मविद्या (मधु विद्या) नामक वैदिक कला के महान ज्ञाता थे। यह ब्रह्मविद्या, एक ऐसी विद्या है, जो अमरत्व प्राप्त कराने में सक्षम बनाती हैं। इसके कारण देवराज इंद्र ने महसूस किया कि उनका पद संकट में है, उनके अनुसार ऐसी शक्तियों का किसी नश्वर मनुष्य के हाथों में होना असुरक्षित था, विशेष रूप से ऋषि दधीचि समान ऐसे मनुष्य के पास, जिनके पास अत्यंत शक्ति और गुणों का भंडार है। देवराज इंद्र, अश्विन जुड़वा (औषधियों के देवता) के पूरी तरह खिलाफ थे क्योंकि वह ब्रह्म विद्या सीखना चाहते थे। इसी कारण देवराज इंद्र ने यह शपथ ली कि जो भी उन्हें ब्रह्मविद्या सिखाएगा, वह उनका सिर धड़ से काट देंगे। हालांकि अश्विनी जुड़वाँ देवता यह विद्या सीखना चाहते थे परंतु वे, ऋषि दधीचि को इंद्र की शक्तियों से बचाना भी चाहते थे इसलिए उन्होंने एक योजना तैयार की। वह जानते थे कि यदि उन्होंने यह विद्या सीखी तो देवराज इंद्र ऋषि दधीचि का सिर धड़ से अलग कर देंगे इसलिए उन्होंने योजना बंद होकर कार्य किया। पहले उन्होंने यह विद्या ऋषि दधीचि से सीखी, जिसके बाद देवराज इंद्र ने ऋषि दधीचि का सिर काट दिया।
अश्विनी जुड़वा देवताओं ने उनके इस कटे सिर को सुरक्षित बचा कर रखा और एक अश्व के सिर को उनके सिर के स्थान पर लगा दिया। यह देखकर देवराज इंद्र अत्यंत क्रोधित हो उठे और उन्होंने अश्व के सिर वाले ऋषि दधीचि का सिर पुनः काट दिया। इसके बाद अश्विन देवता ने ऋषि दधीचि का मूल सिर, जो उन्होंने बचा कर रखा था, इस घोड़े के सिर के स्थान पर स्थानांतरित कर दिया तथा मधु विद्या का प्रयोग करते हुए, जो उन्होंने ऋषि दधीचि से सीखी थी, ऋषि दधीचि को वापस जीवित कर दिया। यही कारण है कि ऋषि दधीचि को अश्वशिरा अर्थात घोड़े के सिर वाला भी कहा जाता है।
ऋषि दधीचि द्वारा कुशवा तथा इंद्रदेव को पराजित करना
एक बार ऋषि दधीचि और विष्णु भक्त राजा कुशवा के मध्य ब्राह्मणों में श्रेष्ठता को लेकर विवाद छिड़ गया। धीरे-धीरे इस विवाद ने झगड़े का रूप ले लिया और यह इतना बढ़ गया कि ऋषि दधीचि ने राजा कुशवा पर प्रहार कर दिया, जिसके उत्तर में राजा कुशवा ने भी ऋषि दधीचि पर वज्र से प्रहार किया। जिसके फलस्वरूप ऋषि दधीचि घायल हो गए। उस समय शुक्राचार्य ने ऋषि दधीचि का इलाज किया। इसके बाद ऋषि दधीचि ने जाकर भगवान शिव की भारी तपस्या की और उनसे तीन वरदान माँगे –वह कभी अपमानित नहीं होंगे, उनकी कभी हत्या नहीं की जा सकेगी तथा उनकी अस्थियाँ हीरे की तरह सख्त हो जाएँगी ।'
इसके बाद ऋषि दधीचि वापस लौट कर कुशवा से युद्ध किया और उन्हें पराजित कर दिया। राजा कुशवा, भगवान विष्णु के पास जाकर उनसे मदद माँगने लगे। तब भगवान विष्णु ने एक योजना के द्वारा इस समस्या का हल निकालने की कोशिश की। उन्होंने दधीचि के ऊपर एक त्रिशूल से हमला किया, जिसे देखकर भगवान विष्णु के अलावा अन्य सभी देवता भाग गए। इतना सब होने के बावजूद भी महर्षि दधीचि के मन में भगवान विष्णु के प्रति बहुत सम्मान की भावना थी इसी कारण जब देवताओं ने वृत्र के विरुद्ध युद्ध हेतु महर्षि दधीचि से मदद की गुहार लगाई और उनसे उनकी अस्थियों की माँग की, तो महर्षि दधीचि ने जैसे ही यह सुना, कि देवताओं को भगवान विष्णु ने भेजा है, वह तुरंत अपने अस्थियों का दान करने को तैयार हो गए।
इंद्र और वृत्र – ऋषि दधीचि द्वारा दिए गए वज्र से किये गए युद्ध की कथा
एक बार वृत्र नामक असुर के द्वारा देवराज इंद्र को देवलोक से बाहर निष्कासित कर दिया गया था। इस असुर को यह वरदान प्राप्त था कि इसकी हत्या किसी भी ज्ञात हथियार से नहीं की जा सकेगी, जिसके कारण यह अजेय बन गया था। इस असुर वृत्र ने संसार में उपस्थित समस्त जल को अपने और अपनी दानव सेना के उपयोग के लिए चुरा लिया। ऐसा करने के पीछे का कारण यह था, कि वह चाहता था कि संसार के अन्य सभी जीवित प्राणी भूख और प्यास से मरने लगें, जिससे कोई भी मानव या देवता उसे चुनौती देने के लिए जीवित ना रहे। इसी कारण देवराज इंद्र ने भी स्वर्ग लोक की पुनः प्राप्ति की सभी आशा खो दी थी, परंतु फिर भी वह भगवान विष्णु के पास पहुंचे ताकि उनसे कुछ सहायता ले सकें और स्वर्ग लोक पुनः प्राप्त कर सकें। भगवान विष्णु ने देवराज इंद्र से कहा कि केवल ऐसा हथियार जो हीरे के समान मजबूत और अस्थियों से बना हो, उसी से वृत्रासुर की मृत्यु संभव है। (उनका तात्पर्य ऋषि दधीचि की अस्थियों से बने वज्र से था।) इसके बाद इंद्रदेव और बाकी सभी देवता, ऋषि दधीचि, एक समय जिनके सिर को देवराज इंद्र ने धड़ से अलग कर दिया था, उन्हीं से वृत्रासुर को हराने के लिए मदद मांगने पहुंचे। ऋषि दधीचि ने देवताओं के अनुरोध को तुरंत मान लिया, परंतु उन्होंने कहा कि उनकी इच्छा है कि शरीर का त्याग करने से पहले वह पवित्र नदियों के तीर्थ स्थल पर जाना चाहते हैं। जिसके पश्चात देवराज इंद्र ने सभी पवित्र नदियों का जल को नैमिषारण्य में एकत्रित किया और इस प्रकार ऋषि की इच्छा को बिना समय नष्ट किए, पूरा कर दिया गया। तत्पश्चात ऋषि दधीचि घोर ध्यान की अवस्था में चले गए और अपने शरीर से उनके प्राणों को मुक्त कर दिया। उसके बाद कामधेनु के बछड़े ने महर्षि दधीचि के मृत शरीर को चाट कर अस्थियों में लगे मांस को हटाया और देवताओं ने उनकी रीढ़ की हड्डी से वज्र का निर्माण किया तथा बाकी अस्थियों से दूसरे अस्त्रों का निर्माण किया गया। उसके बाद इस वज्र का प्रयोग करते हुए देवराज इंद्र ने असुर वृत्रासुर का वध कर दिया और स्वर्ग लोक को पुनः प्राप्त किया। तत्पश्चात उन्होंने असुर द्वारा चुराए गए जल को पुनः संसार के सभी जीव जंतुओं के लिए मुक्त कर दिया।
ऋषि दधीचि द्वारा अस्त्रों को घोल कर पी जाना
इस कहानी का एक दूसरा संस्करण भी मिलता है, जहां देवताओं ने ऋषि दधीचि से उनके अस्त्रों की सुरक्षा करने के लिए कहा था, क्योंकि उनके अस्त्र, असुरों के अस्त्रों की पुरातन कला से बिल्कुल भी मेल नहीं खा रहे थे, जिसका देवता पता लगाना चाहते थे। ऋषि दधीचि ने बहुत समय लंबे समय तक अस्त्रों की सुरक्षा की, परंतु फिर वह थक गए और उन्होंने उन अस्त्रों को पानी में घोलकर पी लिया। जब देवता वापस आए और उन्होंने उनसे अस्त्र लौटाने के लिए कहा, जिससे कि वह असुरों की सेना को जो वृत्रासुर के नेतृत्व में उनसे युद्ध कर रही थी, हरा सकें। महर्षि दधीचि ने उन्हें बताया कि अब उनके अस्त्र उनकी अस्थियों का हिस्सा बन चुके हैं। इसके बाद महर्षि दधीचि ने महसूस किया कि उनकी अस्थियां ही एकमात्र तरीका है, असुरों को हराने का। तब उन्होंने स्वेच्छा से अपने प्राण त्यागने की बात कही। अपनी तपस्या के बल पर उन्होंने अग्नि प्रज्वलित करके प्राण त्याग दिए। भगवान ब्रह्मा के निर्देश में ऋषि दधीचि की हड्डियों से बड़ी संख्या में अस्त्र बनाए गए, जिसमें वज्रयुद्ध भी शामिल था, जिसका निर्माण उनकी रीढ़ की हड्डी से किया गया था। इसके बाद देवताओं ने इन अस्त्रों द्वारा वृत्रासुर का वध कर दिया।
ऋषि दधीचि द्वारा दक्ष का विरोध
ऋषि दधीचि के साथ कई अन्य किंवदंतियां जुड़ी हुई हैं। ऋषि दधीचि के बारे में कहा जाता है कि जैसे ही उन्हें पता चला कि दक्ष ने उनके आराध्य भगवान शिव को यज्ञ पूजा में आमंत्रित नहीं किया है, तत्क्षण ही उन्होंने राजा दक्ष के यज्ञ का त्याग करके वहां से चले गए।
ऋषि दधीचि द्वारा परशुराम के प्रकोप से बालकों की रक्षा
देवी हिंगलाज का मंत्र भी ऋषि दधीचि द्वारा ही निर्मित किया गया है। परशुराम के प्रकोप से कुछ क्षत्रिय बालकों को बचाने के लिए ऋषि दधीचि ने उन्हें हिंगलाज माता के मंदिर के अंदर छुपा दिया और हिंगलाज की स्थापना की, जिसके कारण उन बच्चों की परशुराम के प्रकोप से रक्षा की जा सकी।
***
वंदन
वाग्देवी! कृपा करिए
हाथ सिर पर विहँस धरिए
वास कर मस्तिष्क में माँ
नयन में जाएँ समा
हृदय में रहिए विराजित
कंठ में रह गुनगुना
श्वास बनकर साथ रहिए
वाग्देवी कृपा करिए
अधर यश गा पुण्य पाए
कीर्ति कानों में समाए
कर तुम्हारे उपकरण हों
कलम कवितांजलि चढ़ाए
दूर पल भर भी न करिए
वाग्देवी कृपा करिए
अक्षरों के सुमन लाया
शब्द का चंदन लगाया
छंद का गलहार सुरभित
पुस्तकी उपहार भाया
सलिल को संजीव करिए
वाग्देवी कृपा करिए
*
पूनम की निशि योगिता, इंदु जगत उजियार।
शिक्षक सम पूजित सदा, है जीवन-आधार।।
शकुंतला हर श्वास हो, हो जितेंद्र हर देह।
आकांक्षा कर पूर्ण हो, हो हर आत्म विदेह।।
लखन-राम मोहन पूजित, हुए तभी सच मान।
जब शिक्षक से पा सके, कृपा और वरदान।।
शिखा-किरण की भावना, समझ पतंगा मौन।
कूद-जल गया आप ही, पीड़ा समझे कौन?
आकृति कोई भी नहीं, अर्जुन पाया देख।
आँख परिंदे की रही, नयन तीर की रेख।।
सिमरन शिक्षक का किया, जिसने वही प्रवीण।
हो दिनेश नित दमककर, करे तिमिर को क्षीण।।
अंजलि महके मालती, हेमा नेहा मुग्ध।
जहाँ चंद्र वर्धन वहाँ, 'मावस हो जल दग्ध।।
संजय हो संजीव हर, उमा-उमेश प्रसन्न।
रितिका शालू शालिनी, नव उमंग आसन्न।।
*
सॉनेट
शिक्षक देते सीख नमन
सुख पाना तो कर संतोष
महकाता है अनिल चमन
पा आलोक न करना रोष
सरला बुद्धि हमेशा साथ
बचा अस्मिता करो प्रयास
गुरु छाया पा ऊँचा माथ
संगीता हो महके श्वास
देव कांत दें संरक्षण
मनोरमा मति अमल धवल
हो सुनीति को आरक्षण
विभा निरुपमा रहे नवल
शिक्षक से पा शाश्वत सीख
सत्-शिव-सुंदर जैसा दीख
*
सॉनेट
शिक्षक
शिक्षक सब कुछ रहे सिखाते
हम ही सीख नहीं कुछ पाए
खोटे सिक्के रहे भुनाते
धन दे निज वंदन करवाए
मितभाषी गुरु स्वेद बहाते
कंकर से शंकर गढ़ पाए
हम ढपोरशंखी पछताते
आपन मुख आपन जस गाए
गुरु नेकी कर रहे भुलाते
हमने कर अहसान जताए
गुरु बन दीपक तिमिर मिटाते
हमने नाते-नेह भुनाए
गुरु पग-रज यदि शीश चढ़ाते
आदम हैं इंसान कहाते
*
नवगीत:
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें