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शनिवार, 3 दिसंबर 2022

सुगम बरवै रामायण, अवधी हरि, पुरोवाक्, सलिल

पुरोवाक्
सुगम बरवै रामायण - करिए नित्य पारायण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल
*
                 राम महामानव ही नहीं आदर्श और अवतार के रूप में सकल विश्व में प्रतिष्ठित हैं। राम चरित्र का प्रथम शब्दांकन महर्षि वाल्मीकि ने किया तदोपरांत अनेक कवियों-संतों ने अपनी कलम को रामचरित लिखकर धन्य किया। निस्संदेह, रामचरित का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ गोस्वामी तुलसीदास रचित राम चरित मानस है तथापि इसके वृहदाकार को देखते हुए तुलसी ने आप ही संक्षिप्त रामकथा 'बरवै रामायण के रूप में लिखी। 'बरवै रामायण' में ६९ बरवै हैं, जो 'मानस' की ही तरह सात काण्डों में विभाजित हैं। प्रथम छ: काण्डों में रामकथा वर्णित है,जबकि उत्तरखण्ड में रामभक्ति के छन्द हैं। 'बरवै रामायण' स्फुट ढंग पर रचे हुए रामकथा तथा रामभक्ति सम्बन्धी बरवा छन्दों का संग्रह है। इसका दैनिक पाठ करना सहज सरल है।

                 बरवै अर्ध सम मात्रिक छंद है जिसके विषम (प्रथम, तृतीय) चरण में बारह तथा सम ( द्वितीय, चतुर्थ) चरण में सात उच्चार रखने का विधान है। सम चरणों के अन्त में जगण (जभान = लघु गुरु लघु) या तगण (ताराज = गुरु गुरु लघु) होने से बरवै की मिठास बढ़ जाती है। बरवै छंद के प्रणेता अकबर के नवरत्नों में से एक महाकवि अब्दुर्रहीम खानखाना 'रहीम' कहे जाते हैं। किंवदन्ती है कि रहीम का कोई सेवक अवकाश लेकर विवाह करने गया। वापिस आते समय उसकी विरहाकुल नवोढ़ा पत्नी ने उसके मन में अपनी स्मृति बनाए रखने के लिए दो पंक्तियाँ लिखकर दीं। रहीम का साहित्य-प्रेम सर्व विदित था सो सेवक ने वे पंक्तियाँ रहीम को सुनाईं। अज्ञात विरहिं द्वारा रचित पहले बरवै की मूल पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:

प्रेम-प्रीति कौ बिरवा, चले लगाइ।
सींचन की सुधि लीज्यौ, मुरझि न जाइ।।

                 इसे सुनते ही रहीम चकित रह गए। छंद की सरसता ने उन्हें प्रभावित किया। पंक्तियों में गति-यति का समायोजन उन्हें ज्ञात छंदों से भिन्न था। सेवक को ईनाम देने के बाद रहीम ने पंक्तियोन की कल बाँट पर गौर किया और प्रथम चरण में बारह (भोजपुरी में बरवा या बरवै) मात्रा गणना के आधार पर उसे 'बरवै' नाम दिया। मूल पंक्ति में प्रथम चरण के अंत 'बिरवा' शब्द का प्रयोग होना भी 'बरवै नामकरण का कारन बना। रहीम के लगभग २२५ तथा तुलसी के ७० बरवै प्रसिद्ध हैं। विषमसम चरण के अंत में गुरु लघु (ताल या नन्द) होने से इसे 'नंदा' और दोहा की तरह दो पंक्ति और चार चरण होने से 'नंदा दोहा' भी कहा गया है। बरवै को 'ध्रुव' तथा' कुरंग' नाम भी मिले।१  

                 बरवै हिंदी पिंगल शास्त्र का प्रतिष्ठित छंद है जिसमें अनेक प्रयोग संभव हैं। रहीम ने इस बरवै छंद का प्रयोग कर श्रृंगार रास प्रधान कृति 'बरवै नायिका भेद' की रचना की। गोस्वामी तुलसीदास ने बरवै छंद का प्रयोग कर भक्ति रस प्रधान  कृति 'बरवै रामायण रचा।भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा जगन्नाथ प्रसाद 'रत्नाकर' आदि ने भी इसे अपनाया। उस समय बरवै रचना साहित्यिक कुशलता और प्रतिष्ठा का पर्याय था। दोहा की ही तरह दो पद, चार चरण तथा लय के लिए विख्यात छंद नंदा दोहा या बरवै लोक काव्य में प्रयुक्त होता रहा है।२   

                 रहीम ने फ़ारसी में भी इस छंद का प्रयोग किया है जिसका हिंदी अनुवाद कर संलग्न है -


मीं गुज़रद ईं दिलरा, बेदिलदार।
इक-इक साअत हमचो, साल हज़ार।।


इस दिल पर यूँ बीती, हे उर हीन!
  पल-पल वर्ष सहस्त्र, हुई मैं दीन।।  

                 आधुनिक कड़ी हिंदी में बरवै गीत, दोहा-बरवै गीत, बरवै-दोहा गीत तथा बरवै ग़ज़ल कहने के प्रयोग मैंने लगभग एक दशक पूर्व किए हैं। हिंदयुग्म, साहित्यशिल्पी, दिव्यनर्मदा.इन, फेसबुक पर छंद सलिला, वॉट्सऐप पर अभियान जबलपुर आदि स्थलों पर बरवै छंद शिक्षण भी किया गया है। 

कल  बाँट-

                 बरवै के चरणों की मात्रा बाँट ८+४ तथा ४+३ है। छन्दार्णवकार भिखारीदास के अनुसार- 

पहिलहि बारह कल करु, बहरहुँ सत्त।
यही बिधि छंद ध्रुवा रचु, उनीस मत्त।।

पहले बारह मात्रा, फिर हों सात।
इस विधि छंद ध्रुवा रच, उन्निस मात्र।।  

                 बरवै छंद में हास्य-व्यंग्य का प्रवाह करने का प्रयोग देखिए -

'सलिल' लगाए चंदन, भज हरि नाम।
पण्डे ठगें जगत को, नित बेदाम।।

हाय!, हलो!! अभिवादन, तनिक न नेह।
भटक शहर में भूले, अपना गेह।।

पाँव पड़ें अफसर के, भूले बाप।
रोज पुण्य कह करते, छिपकर पाप।।

                 प्रसन्नता का विषय है कि हिंदी-उर्दू के सशक्त रचनाकार हरि श्रीवास्तव उर्फ़ हरि फ़ैज़ाबादी उर्फ़ डॉ. अवधी हरि ने बरवै छंद का प्रयोग करते हुए तुलसीकृत अवधी ''बरवै रामायण'' का हिंदी भाषानुवाद 'सुगम बरवै रामायण' शीर्षक से किया है। इसके पूर्व वे सुंदरकांड, हनुमान चालीसा आदि का आधुनिक हिंदी (खड़ी बोली) में पद्यानुवाद कर चर्चित हो चुके हैं। इस कृति का वैशिष्ट्य कथ्य स्वातंत्र्य से बचते हुए अभिव्यक्ति सामर्थ्य के सहारे लोकप्रिय और कालजयी कृति का भाषानुवाद करने की चुनौती का सफलता पूर्वक सामना करना है। पारंपरिक मूल्यों और संस्कारों के इस पराभव काल में जब हर व्यक्ति समयाभाव के भ्रम का शिकार है, मर्यादा पुरुषोत्तम  की कथा को संक्षेप में पढ़-कह-सुनकर आदर्श की प्रेरणा लेना सहज संभव है।

                    इस सारस्वत अनुष्ठान की प्रासंगिकता और उपयोगिता तुलसी के काल से अब तक हुए भाषिक विकास और परिवर्तन के कारण तो है ही, आंग्लभाषा में शिक्षित और/या नगरों में रहने के कारण भोजपुरी शब्दों से अपरिचित जनों के लिए यह अनुवाद परम उपयोगी और सहज ग्राह्य है। श्री राम के अनुपम सौंदर्य का वर्णन करते हुए तुलसी लिखते हैं- 

बड़े नयन कुटि भृकुटी भाल बिसाल।
तुलसी मोहत मनहि मनोहर बाल।।1। 
 
                    अवधी हरि ने इस बरवै का अनुवाद इस तरह किया है- 

तुलसी कहते हैं बालक रघुनंदन के 
चक्षु खिले कमलों के जैसे बड़े-बड़े
टेढ़ी उनकी भौहें हैं ललाट चौड़ा 
मन को मोहित बालक यह करने वाला 
                
                    काव्यानुवाद करते समय अनुवादकर्ता ने मूल रचना का कथ्य सकल बारीकियों सहित पाठक तक पहुँचाया है, भले ही ऐसा करने में एक बरवै के स्थान पर दो से ५-६ बरवै तक कहने पड़े हैं। अनुवादकर्ता ने आकारिक साम्यता पर भाव संप्रेषण को वरीयता उचित ही दी है। ऐसा करने से पाठक को वह रसानुभूति हो सकेगी जो मूल कृति का वैशिष्ट्य है। 

                    बालकाण्ड के १८वें बरवै में सीता की सखियाँ हास-परिहास में राम के श्यामल सौंदर्य को सीता की छाँह बताकर अपने पक्ष की महत्ता प्रदर्शित करती हैं। इसका अनुवाद करते समय विशेष सावधानी की आवश्यकता थी। हरि  इस कसौटी पर खरे उतरे हैं। 

गरब करहुँ रघुनंदन जनु मन माहँ।  
देखहु आपनि मूरति सी के छाहँ।।१८।  

फिर सखियाँ विनोद में कहती रघुवर से 
गर्व रूप का नहीं करो मन में अपने 

मूर्ति तुम्हारी राम साँवली होने से 
है समान देखो सीता की छाया के

                    भाषिक शुद्धता की संकीर्ण दृष्टि के बंदी आलोचक भले ही कुछ शब्द रूपों पर आपत्ति लें किंतु अनुवादकर्ता ने शब्दों को कथ्य और छंद की आवश्यकतानुसार  शब्द प्रयोग की स्वतंत्रता ली है। ऐसे करने से भाषा सरस, सरल और जीवंत बन गई है। इस लघुकाय कृति में विविध रसों और घटनाओं का बाहुल्य है, तदनुसार भाषा न हो तो पाठक घटनाओं से जुड़ नहीं पाता। अनुवादकर्ता ने इस और विशेष सजगता बरती है और घटनाक्रम के साथ-साथ भावानुसार शब्द चयन और शब्द-रूप परिवर्तन की प्रतिभा प्रदर्शित की है। आम लोगों और युवा पीढ़ी के लिए उपयोगी इस कृति में विद्वज्जनों का मन मोहने की सामर्थ्य भी है। मुझे आशा ही नहीं विश्वास भी है कि इस कृति को जान-मन मोहकर यश पाने में भी सफलता मिलेगी और अनुवादकर्ता अवधी हरि जी आगे भी इस तरह के सारस्वत अनुष्ठान कर सुकीर्ति के भागी होंगे।  

संदर्भ- 
१.छंद-क्षीरधि, छ्न्दाचार्य ओमप्रकाश बरसैंया 'ओंकार',  पृष्ठ ८८। 
२. मेकलसुता त्रैमासिकी, डॉ. सुमन शर्मा, अंक ११, पृष्ठ २३२। 
३.धीरेंद्र, वर्मा “भाग- २ पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), ३७०। 
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सम्पर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
चलभाष ९४२५१८३२४४, ई मेल- salil.sanjiv@gmail.com  



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