***
मुक्तक सलिला
*
प्रात मात शारदा सुरों से मुझे धन्य कर।
शीश पर विलंब बिन धरो अनन्य दिव्य कर।।
विरंचि से कहें न चित्रगुप्त गुप्त चित्र हो।
*
मलिन बुद्धि अब अमल विमल हो श्री राधे।
नर-नारी सद्भाव प्रबल हो श्री राधे।।
अपराधी मन शांत निबल हो श्री राधे।
सज्जन उन्नत शांत अचल हो श्री राधे।।
*
जागिए मत हे प्रदूषण, शुद्ध रहने दें हवा।
शांत रहिए शोरगुल, हो मौन बहने दें हवा।।
मत जगें अपराधकर्ता, कुंभकर्णी नींद लें-
जी सके सज्जन चिकित्सक या वकीलों के बिना।।
*
विश्व में दिव्यांग जो उनके सहायक हों सदा।
एक दिन देकर नहीं बनिए विधायक, तज अदा।
सहज बढ़ने दें हमें, चढ़ सकेंगे हम सीढ़ियाँ- 
पा सकेंगे लक्ष्य चाहे भाग्य में हो ना बदा।।
२-१२-२०१९ 
***
एक गीत  
बातें हों अब खरी-खरी 
* 
मुँह देखी हो चुकी बहुत 
अब बातें हों कुछ खरी-खरी 
लातें तबियत करें हरी 
*
पाक करे नापाक हरकतें 
बार-बार मत चेताओ 
दहशतगर्दों को घर में घुस 
मार-मार अब दफनाओ 
लंका से आतंक मिटाया 
राघव ने यह याद रहे
काश्मीर को बचा-मिलाया 
भारत में, इतिहास कहे 
बांगला देश बनाया हमने 
मत भूले रावलपिडी 
कीलर-सेखों की बहादुरी 
देख सरहदें थीं सिहरी 
मुँह देखी हो चुकी बहुत 
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
*
करगिल से पिटकर भागे थे 
भूल गए क्या लतखोरों?
सेंध लगा छिपकर घुसते हो 
क्यों न लजाते हो चोरों?
पाले साँप, डँस रहे तुझको
आजा शरण बचा लेंगे 
ज़हर उतार अजदहे से भी 
तेरी कसम बचा लेंगे 
है भारत का अंग एक तू 
दुहराएगा फिर इतिहास 
फिर बलूच-पख्तून बिरादर 
के होंठों पर होगा हास 
'जिए सिंध' के नारे खोदें 
कब्र दुश्मनी की गहरी 
मुँह देखी हो चुकी बहुत 
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
*
२१-९-२०१६
***
छंद सप्तक १. 
*
शुभगति 
कुछ तो कहो 
चुप मत रहो 
दुःख मत सहो 
*
छवि 
बन मनु महान 
कर नित्य दान 
तू हो न हीन- 
निज यश बखान
*
गंग 
मत भूल जाना 
वादा निभाना
सीकर बहाना 
गंगा नहाना 
*
दोहा:
उषा गाल पर मल रहा, सूर्य विहँस सिंदूर।
कहे न तुझसे अधिक है, सुंदर कोई हूर।।
*
सोरठा
सलिल-धार में खूब,नृत्य करें रवि-रश्मियाँ।
जा प्राची में डूब, रवि ईर्ष्या से जल मरा।।
*
रोला
संसद में कानून, बना तोड़े खुद नेता।
पालन करे न आप, सीख औरों को देता।।
पाँच साल के बाद, माँगने मत जब आया।
आश्वासन दे दिया, न मत दे उसे छकाया।।
*
कुण्डलिया
बरसाने में श्याम ने, खूब जमाया रंग। 
मैया चुप मुस्का रही, गोप-गोपियाँ तंग।।
गोप-गोपियाँ तंग, नहीं नटखट जब आता। 
माखन-मिसरी नहीं, किसी को किंचित भाता।।
राधा पूछे "मजा, मिले क्या तरसाने में?"
उत्तर "तूने मजा, लिया था बरसाने में??"
*
३.१२.२०१८
***
नवगीत
सड़क पर
.
फ़िर सड़क पर 
भीड़ ने दंगे किए 
.
भटकते-थकते यहाँ 
छा गए पग 
अटकते-चलते यहाँ 
जाति, मजहब, 
दल, प्रदर्शन, सभाएँ,
सियासी नेता 
ललच नंगे हुए 
.
सो रहे कुछ 
थके सपने मौन हो 
पूछ्ते खुद 
खुदी से, तुम कौन हो?
गएरौंदते जो, 
कहो क्यों चंगे हुए?
.
ज़िन्दगी भागी 
सड़क पर जा रही 
आरियाँ ले 
हाँफ़ती, पछ्ता रही 
तरु न बाकी 
खत्म हैं आशा कुंए 
.
झूमती-गा
सड़क पर बारात जो 
रोक ट्रेफ़िक 
कर रही आघात वो 
माँग कन्यादान 
भिखमंगे हुए 
.
नेकियों को 
बदी नेइज्जत करे 
भेडि.यों से 
शेरनी काहे डरे?
सूर देखें 
चक्षु ही अंधे हुए 
३-१२-२०१७ 
***
नवगीत:
अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये
. 
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?
. 
सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
२-१२-२०१७ 
***
मुक्तक 
*
क्या लिखूँ? कैसे लिखूँ? मैं व्यस्त हूँ 
कहूँ क्यों जग से नहीं सन्यस्त हूँ 
ज़माने से भय नहीं मुझको तनिक
३-१२-२०१६ 
***
कृति चर्चा: 
जिजीविषा : पठनीय कहानी संग्रह 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
[कृति विवरण: जिजीविषा, कहानी संग्रह, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, द्वितीय संस्करण वर्ष २०१५, पृष्ठ ८०, १५०/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक जेकट्युक्त, बहुरंगी, प्रकाशक त्रिवेणी परिषद् जबलपुर, कृतिकार संपर्क- १०७ इन्द्रपुरी, ग्वारीघाट मार्ग जबलपुर।]
*
हिंदी भाषा और साहित्य से आम जन की बढ़ती दूरी के इस काल में किसी कृति के २ संस्करण २ वर्ष में प्रकाशित हो तो उसकी अंतर्वस्तु की पठनीयता और उपादेयता स्वयमेव सिद्ध हो जाती है। यह तथ्य अधिक सुखकर अनुभूति देता है जब यह विदित हो कि यह कृतिकार ने प्रथम प्रयास में ही यह लोकप्रियता अर्जित की है। जिजीविषा कहानी संग्रह में १२ कहानियाँ सम्मिलित हैं।
सुमन जी की ये कहानियाँ अतीत के संस्मरणों से उपजी हैं। अधिकांश कहानियों के पात्र और घटनाक्रम उनके अपने जीवन में कहीं न कहीं उपस्थित या घटित हुए हैं। हिंदी कहानी विधा के विकास क्रम में आधुनिक कहानी जहाँ खड़ी है ये कहानियाँ उससे कुछ भिन्न हैं। ये कहानियाँ वास्तविक पात्रों और घटनाओं के ताने-बाने से निर्मित होने के कारण जीवन के रंगों और सुगन्धों से सराबोर हैं। इनका कथाकार कहीं दूर से घटनाओं को देख-परख-निरख कर उनपर प्रकाश नहीं डालता अपितु स्वयं इनका अभिन्न अंग होकर पाठक को इनका साक्षी होने का  अवसर देता है। भले ही समस्त और हर एक घटनाएँ उसके अपने जीवन में न घटी हुई हो किन्तु उसके अपने परिवेश में कहीं न कहीं, किसी न किसी के साथ घटी हैं उन पर पठनीयता, रोचकता, कल्पनाशक्ति और शैली का मुलम्मा चढ़ जाने के बाद भी उनकी यथार्थता या प्रामाणिकता भंग नहीं होती । 
जिजीविषा शीर्षक को सार्थक करती इन कहानियों में जीवन के विविध रंग, पात्रों - घटनाओं के माध्यम से सामने आना स्वाभविक है, विशेष यह है कि कहीं भी आस्था पर अनास्था की जय नहीं होती, पूरी तरह जमीनी होने के बाद भी ये कहानियाँ अशुभ पर चुभ के वर्चस्व को स्थापित करती हैं। डॉ. नीलांजना पाठक ने ठीक ही कहा है- 'इन कहानियों में स्थितियों के जो नाटकीय विन्यास और मोड़ हैं वे पढ़नेवालों को इन जीवंत अनुभावोब में भागीदार बनाने की क्षमता लिये हैं। ये कथाएँ दिलो-दिमाग में एक हलचल पैदा करती हैं, नसीहत देती हैं, तमीज सिखाती हैं, सोई चेतना को जाग्रत करती हैं तथा विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं।' 
जिजीविषा की लगभग सभी कहानियाँ नारी चरित्रों तथा नारी समस्याओं पर केन्द्रित हैं तथापि इनमें कहीं भी दिशाहीन नारी विमर्ष, नारी-पुरुष पार्थक्य, पुरुषों पर अतिरेकी दोषारोपण अथवा परिवारों को क्षति पहुँचाती नारी स्वातंत्र्य की झलक नहीं है। कहानीकार की रचनात्मक सोच स्त्री चरित्रों के माध्यम से उनकी समस्याओं, बाधाओं, संकोचों, कमियों, खूबियों, जीवत तथा सहनशीलता से युक्त ऐसे चरित्रों को गढ़ती है जो पाठकों के लिए पथ प्रदर्शक हो सकते हैं। असहिष्णुता का ढोल पीटते इस समय में सहिष्णुता की सुगन्धित अगरु बत्तियाँ जलाता यह संग्रह नारी को बला और अबला की छवि से मुक्त कर सबल और सुबला के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
'पुनर्नवा' की कादम्बिनी और नव्या, 'स्वयंसिद्धा' की निरमला, 'ऊष्मा अपनत्व की' की अदिति और कल्याणी ऐसे चरित्र है जो बाधाओं को जय करने के साथ स्वमूल्यांकन और स्वसुधार के सोपानों से स्वसिद्धि के लक्ष्य को वरे बिना रुकते नहीं। 'कक्का जू' का मानस उदात्त जीवन-मूल्यों को ध्वस्त कर उन पर स्वस्वार्थों का ताश-महल खड़ी करती आत्मकेंद्रित नयी पीढ़ी की बानगी पेश करता है। अधम चाकरी भीख निदान की कहावत को सत्य सिद्ध करती  'खामियाज़ा' कहानी में स्त्रियों में नवचेतना जगाती संगीता के प्रयासों का दुष्परिणाम  उसके पति के अकारण स्थानान्तारण के रूप में  सामने आता है। 'बीरबहूटी' जीव-जंतुओं को ग्रास बनाती मानव की अमानवीयता पर केन्द्रित कहानी है। 'या अल्लाह' पुत्र की चाह में नारियों पर होते जुल्मो-सितम का ऐसा बयान है जिसमें नायिका नुजहत की पीड़ा पाठक का अपना दर्द बन जाता है। 'प्रीती पुरातन लखइ न कोई' के वृद्ध दम्पत्ति का देहातीत अनुराग दैहिक संबंधों को कपड़ों की तरह ओढ़ते-बिछाते युवाओं के लिए भले ही कपोल कल्पना हो किन्तु भारतीय संस्कृति के सनातन जवान मूल्यों से यत्किंचित परिचित पाठक इसमें अपने लिये एक लक्ष्य पा सकता है। 
संग्रह की शीर्षक कथा 'जिजीविषा' कैंसरग्रस्त सुधाजी की निराशा के आशा में बदलने की कहानी है। कहूँ क्या आस निरास भई के सर्वथा विपरीत यह कहानी मौत के मुंह में जिंदगी के गीत गाने का आव्हान करती है। अतीत की विरासत किस तरह संबल देती है, यह इस कहानी के माध्यम से जाना जा सकता है, आवश्यकता द्रितिकों बदलने की है। भूमिका लेख में डॉ. इला घोष ने कथाकार की सबसे बड़ी सफलता उस परिवेश की सृष्टि करने को मन है जहाँ से ये कथाएँ ली गयी हैं। मेरा नम्र मत है कि परिवेश निस्संदेह कथाओं की पृष्ठभूमि को निस्संदेह जीवंत करता है किन्तु परिवेश की जीवन्तता कथाकार का साध्य नहीं साधन मात्र होती है। कथाकार का लक्ष्य तो परिवेश, घटनाओं और पात्रों के समन्वय से विसंगतियों को इंगित कर सुसंगतियों के स्रुअज का सन्देश देना होता है और जिजीविषा की कहानियाँ इसमें समर्थ हैं। 
सांस्कृतिक-शैक्षणिक वैभव संपन्न कायस्थ परिवार की पृष्ठभूमि ने सुमन जी को रस्मो-रिवाज में अन्तर्निहित जीवन मूल्यों की समझ, विशद शब्द  भण्डार, परिमार्जित भाषा तथा अन्यत्र प्रचलित रीति-नीतियों को ग्रहण करने का औदार्य प्रदान किया है। इसलिए इन कथाओं में विविध भाषा-भाषियों,विविध धार्मिक आस्थाओं, विविध मान्यताओं तथा विविध जीवन शैलियों का समन्वय हो सका है। सुमन जी की कहन पद्यात्मक गद्य की तरह पाठक को बाँधे रख सकने में समर्थ है। किसी रचनाकार को प्रथम प्रयास में ही ऐसी परिपक्व कृति दे पाने के लिये साधुवाद न देना कृपणता होगी। 
२-१२-२०१५ 
***
सवाल-जवाब:
Radhey Shyam Bandhu 11:20 pm (11 घंटे पहले)
आचार्य संजीव वर्मा सलिल आप तो कुछ जरूरत से ज्यादा नाराज लग रहे हैं । आप के साथ तो मैंने एेसी गुस्ताखी नहीं की फिर आप अलोकतांत्रिक भाषा का प्रयोग करके अपनी मर्यादा क्यों भंग कर रहे हैं ? अनजाने में कोई बात लग गयी हो तो क्षमा करें आगे आप का ध्यान रखेंगे ।                                 
                                                                                                           राधेश्याम बन्धु
*
आदरणीय बंधु जी!
नमन. 
साहित्य सृजन में व्यक्तिगत राग-द्वेष का कोई स्थान नहीं होता। मैंने एक विद्यार्थी और रचनाकार के नाते मर्यादाओं का आज तक पालन ही किया है । ऐसे रचनाकार जो खुद मानते हैं कि उन्होंने कभी नवगीत नहीं लिखा, उन्हें सशक्त नवगीतकार बताकर और जो कई वर्षों से सैंकड़ों नवगीत रच चुके हैं उन्हें छोड़कर मर्यादा भंग कौन कर रहा है? इस अनाचार का शिकार लगभग ५० नवगीतकार हुए हैं। गुण-दोष विवेचन समीक्षक का अधिकार है पर उन सबके संकलनों को शून्य नहीं माना जा सकता । राजधानी की चमक-दमक में जिन्हें महिमामंडित किया गया वे भी मेरे अच्छे मित्र हैं किन्तु सृजन का मूल्यांकन व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के आधार पर नहीं किया जा सकता। 
अतीतजीवी मठाधीशों की मायानगरी में आपसे यह आशा की थी कि आप निष्पक्ष होंगे किन्तु निराशा ही हाथ लगी। लखनऊ में जब नवोदितों के रचनाकर्म पर आक्षेप किये जा रहे थे, उनके सृजन को बेमानी बताया जा रहा है तब भी आप उनके समर्थन में नहीं थे। 
वह आयोजन नवगीत के लिये था, किसी कृति विशेष या व्यक्ति विशेष पर चर्चा के लिये नहीं। वहाँ प्रतिवर्षानुसार पूर्वघोषित  सभी कार्यवाही यथासमय सुचारू रूप से सम्पादित की गयी। आपका अपनी पुस्तक पर चर्चा करने का विचार था तो आप कहते, आपने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा। कहा होता तो एक अतिरिक्त सत्र की व्यवस्था कर दी जाती। मेरे कक्ष में दोनों रात देर तक अघोषित चर्चा सत्र चले रहे और नये नवगीतकार अपनी शंकाओं और जिज्ञासाओं के उत्तर मुझसे, डॉ. रणजीत पटेल और श्री रामकिशोर दाहिया से प्राप्त करते रहे। पुस्तकों के अवलोकन और अध्ययन का कार्य भी निरंतर चला। आपने चाहा होता तो आपकी कृतियों पर भी चर्चा हो सकती थी। लखनऊ के कई सशक्त और प्रतिष्ठित नवगीतकारों को आपकी पुस्तक पर बहुत कुछ कहना था किन्तु आपको असुविधा से बचाने के लिये उन्हें मना किया गया था और उनहोंने खुद पर संयम बनाये रखते हुए निर्धारित विषयों की मर्यादा का ध्यान रखा। 
आपको आयोजन में सर्वाधिक सम्मान और बोलने के अवसर दिये गये। प्रथम सत्र में शेष वक्ताओं ने एक नये नवगीतकार को मार्दर्शन दिया आपको २ नवगीतकारों के सन्दर्भ में अवसर दिया गया। आपने उनके प्रस्तुत नवगीतों पर कम और अपनी पुस्तक पर अधिक बोला। 
द्वितीय सत्र में आपको नवगीत वाचन का अवसर दिया गया जबकि पूर्णिमा जी, व्योम जी तथा मुझ समेत कई नवगीतकार जो आयोजन के अभिन्न अंग हैं, उन्होंने खुद नवगीत प्रस्तुत नहीं किये। 
तृतीय सत्र सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा चतुर्थ सत्र शोधपत्र वाचन के लिये था। यहाँ भी पूर्वघोषित के अलावा किसी ने शोध पत्र प्रस्तुत नहीं किये जबकि मेरा शोधपत्र तैयार था। जो पहली बार शोधपत्र प्रस्तुत कर रहे थे उन्हें प्रोत्साहित किया गया ।  
पंचम सत्र में नवगीत की कृतियों पर समीक्षाएं प्रस्तुत की गयीं।
षष्ठं सत्र में नवगीत के विविध पहलुओं पर सारगर्भित चर्चा हुई। 
सप्तम सत्र में नवगीतकारों ने एक-एक नवगीत प्रस्तुत किया। किसी ने अधिक प्रस्तुति का मोह नहीं दिखाया। ऐसा आत्मानुशासन मैंने अन्यत्र नहीं देखा। 
इन सभी सत्रों में आप किसी न किसी बहाने अपनी पुस्तक को केंद्र में रखकर बार-बार बोलते रहे। किसी भी आयोजन में आयोजन आवधि के पूर्व और पश्चात्  प्रवास-भोजन व्यवस्था आयोजक नहीं करते, जबकि लखनऊ में यह आने से जाने के समय तक उपलब्ध कराई गयी। सबसे अधिक समय तक उस सुविधा को लेने वाले आप ही थे । इसके बाद भी अवसर न दिये जाने का आक्षेप लगाना आपको शोभा देता है क्या? श्री रामकिशोर दाहिया ने इसीलिये 'जिस पत्तल में खाया उसी में छेद किया' की बात कही। 
रहा मेरा ध्यान रखने की बात तो आप कृपया, मुझ पर ऐसी अहैतुकी कृपा न करें। मैं अपने सृजन से संतुष्ट हूँ, मुझे माँ शारदा के अलावा अन्य किसी की कृपा नहीं चाहिए। 
आप पुस्तक मेले में समय लेकर  ''श्री राधेश्याम 'बन्धु' की समीक्षात्मक कृतियाँ - एक मूल्यांकन'' परिसंवाद का आयोजन करा लें। मैं पूर्णत: सहयोग करूँगा और आपकी पुस्तक पढ़ चुके साथियों से पहुँचकर विविध आयामों पर चर्चा करने अथवा आलेख भेजने हेतु अनुरोध करूंगा।
विश्वास रखें आप या अन्य किसी के प्रति मेरे मन में अनादर नहीं है। हम सब सरस्वतीपुत्र हैं। छिद्रान्वेषण और असहिष्णुता हमारे लिए त्याज्य है। मतभेदों को मनभेद न मानें तथापि इस कठिन काल में स्वसाधनों से ऐसा गरिमामय आयोजन करनेवाले और उन्हें सहयोग देनेवाले दोनों सराहना और अभिनन्दन के पात्र हैं, आक्षेप के नहीं।
१-१२-२०१५ 
***
नव गीत -
*
आपन मूं 
आपन तारीफें 
करते सीताराम  
*
जिसमें-तिसमें खोट बताया
खुद के खुदी प्रशंसक भारी 
जब भी मौका मिला भुनाया 
फोड़-फाड़ 
फिर जोड़-तोड़ कर
जपते हरि का नाम 
*
खुद की खुद ही करें प्रशंसा 
कहे और ने की अनुशंसा 
गलत करें पर सही बतायें 
निज किताब का तान तमंचा 
नट-करतब 
दिखलाते जब-तब 
कहें सुबह को शाम 
*
जिन्दा को स्वर्गीय बता दें 
जिसका चाहें नाम हटा दें 
काम न देखें किसका-कितना 
सच को सचमुच धूल चटा  दें 
दूर रहो 
मत बाँह गहो 
दूरी से करो प्रणाम 
* 
आपन मूं 
आपन तारीफें 
करते सीताराम  
२-१२-२०१५ 
***
 
 
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें