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शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

सॉनेट, जागरण, दोहा, मीना श्रीवास्तव, दोहा मुक्तिका, गीत, हाइकु, बिटिया, बालगीत, नवगीत


सॉनेट 
जागरण
जागरण का समय; मत सो।
ले नवाशा करो कलरव।
कोशिशें हों सतत अभिनव।।
कीमती है समय मत खो।।

नाम सुमिरो परम प्रभु का।
काम कर निष्काम होकर।
क्या करोगे दाम लेकर?
साथ कुछ भी जाएगा क्या?

है अनर्थ; न अर्थ कद में
क्या मिलेगी शांति पद में?
मुक्ति होगी कभी जद में?

नर्मदा तट पर टहल रे!
छोड़ किलकिल; मत बहल रे!
सलिल कलकल सुन असल रे!
संजीव 
१६•१२•२०२२
जबलपुर, ७•१३
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***
मीनाकारी शब्द की, मीना करतीं नित्य
श्री वास्तव में पा रहीं, रचनाकर्म अनित्य

गत में आगत की झलक, दिखा सके इतिहास।
देखें रह निष्पक्ष हम, रख अधरों पर हास।।

मिल मिलिंद जी से मिला, देश प्रेम का पाठ।
कालजयी कृतियाँ रचीं, सदा रहेगा ठाठ।।

जो नायक इतिहास के, वे हैं ज्योतिस्तंभ।
लें प्रकाश उनसे सदा, तजकर मन का दंभ।।

गीत-ग़ज़ल में भी मिले, हमें सत्य इतिहास।
सीखें भावी पीढ़ियाँ, कहाँ घटा क्या ख़ास।। 

कर वंदना शहीद की, निशि को मिले उजास।   
'मावस भी पूनम बने, दमक उठे आकाश।। 

उम्मीदों का है 'सलिल', ऊँचा नीलाकाश। 
कोशिश कर तोड़ें विहँस, बाधाओं का पाश।।
 ***
दोहा मुक्तिका
*
दोहा दर्पण में दिखे, साधो सच्चा रूप।
पक्षपात करता नहीं, भिक्षुक हो या भूप।।
*
सार-सार को गह रखो, थोथा देना फेंक।
मनुज स्वभाव सदा रखो, जैसे रखता सूप।।
*
प्यासा दर पर देखकर, द्वार न करना बंद।
जल देने से कब करे, मना बताएँ कूप।।
*
बिसरा गौतम-सीख दी, तज अचार-विचार।
निर्मल चीवर मलिन मन, नित प्रति पूजें स्तूप।।
*
खोट न अपनी देखती, कानी सबको टोंक।
सब को कहे कुरूप ज्यों, खुद हो परी अनूप।।
***
१६-१२-२०१८
***
गीत:
दरिंदों से मनुजता को जूझना है
.
सुर-असुर संघर्ष अब भी हो रहा है
पा रहा संसार कुछ, कुछ खो रहा है
मज़हबी जुनून पागलपन बना है
ढँक गया है सूर्य, कोहरा भी घना है
आत्मघाती सवालों को बूझना है
.
नहीं अपना या पराया दर्द होता
कहीं भी हो, किसी को हो ह्रदय रोता
पोंछना है अश्रु लेकर नयी आशा
बोलना संघर्ष की मिल एक भाषा
नाव यह आतंक की अब डूबना है
.
आँख के तारे अधर की मुस्कुराहट
आये कुछ राक्षस मिटाने खिलखिलाहट
थाम लो गांडीव, पाञ्चजन्य फूंको
मिटें दहशतगर्द रह जाएँ बिखरकर
सिर्फ दृढ़ संकल्प से हल सूझना है
.
जिस तरह का देव हो, वैसी ही पूजा
दंड के अतिरिक्त पथ वरना न दूजा
खोदकर जड़, मठा उसमें डाल देना
तभी सूझेगा नयन कर रुदन सूजा
सघन तम के बाद सूरज ऊगना है
*
***
एक हाइकु-
बहा पसीना
चमक उठी देह
जैसे नगीना।
***
नवगीत:
जितनी रोटी खायी
की क्या उतनी मेहनत?
.
मंत्री, सांसद मान्य विधायक
प्राध्यापक जो बने नियामक
अफसर, जज, डॉक्टर, अभियंता
जनसेवक जन-भाग्य-नियंता
व्यापारी, वकील मुँह खोलें
हुए मौन क्यों?
कहें न तुहमत
.
श्रमिक-किसान करे उत्पादन
बाबू-भृत्य कर रहे शासन
जो उपजाए वही भूख सह
हाथ पसारे माँगे राशन
कब बदलेगी परिस्थिति यह
करें सोचने की
अब ज़हमत
.
उत्पादन से वेतन जोड़ो
अफसरशाही का रथ मोड़ो
पर्यामित्र कहें क्यों पिछड़ा?
जो फैलाता कैसे अगड़ा?
दहशतगर्दों से भी ज्यादा
सत्ता-धन की
फ़ैली दहशत
.
***
मुक्तक:
अधरों पर मुस्कान, आँख में चमक रहे
मन में दृढ़ विश्वास, ज़िन्दगी दमक कहे
बाधा से संकल्प कहो कब हारा है?
आओ! जीतो, यह संसार तुम्हारा है
***
दोहा:
पलकर पल भर भूल मत, पालक का अहसान
गंध हीन कटु स्वाद पर, पालक गुण की खान
१६-१२-२०१४
बाल रचना 
बिटिया छोटी 
*
फ़िक्र बड़ी पर बिटिया छोटी 
क्यों न खेलती कन्ना-गोटी?
*
ऐनक के काँचों से आँखें
झाँकें लगतीं मोटी-मोटी
*
इतनी ज्यादा गुस्सा क्यों है?
करे न कोई हरकत खोटी
*
दो-दो फूल सजे हैं प्यारे
सर पर सोहे सुंदर चोटी
*
हलुआ-पूड़ी इसे खिलाओ
तनिक न भाती इसको रोटी
*
खेल-कूद में मन लगता है
नहीं पढ़ेगी पोथी मोटी
***


     

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