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रविवार, 18 दिसंबर 2022

नित्य कल्पा तुलसी, समीक्षा, चंद्रा चतुर्वेदी

पुस्तक चर्चा
नित्य कल्पा तुलसी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण - नित्य कल्पा तुलसी, उपन्यास, डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी, प्रथम संस्करण २०२२, आकर डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ २०१, मूल्य ५९५/-, प्रकाशक ज्ञानभारती पब्लिकेशन दिल्ली ]


                    साहित्य वह है जिसमें सबका हित समाहित हो। सबका हित किसी वैचारिक प्रबद्धता के होते हुए संभव नहीं हो सकता। कोई विचारधारा कितनी अधिक उदात्त और उदार होने का दावा क्यों न करे, वह पूर्ववर्ती अन्य विचारधाराओं को हटा-मिटा कर उनका ही स्थान लेती है। मानव सभ्यता ने बोलने की कला का विकास करने के साथ ही गुनगुनाना और कहना आरंभ किया जो कालांतर में गद्य और पद्य के रूप में विकसित हुए। बड़ों के समीप जाकर बैठना, पूछना और सुनना उपनिषद साहित्य का जनक बना जहाँ शिष्यों की जिज्ञासाओं का समाधान गुरुओं द्वारा किया गया। कहने की कला 'कहानी; कहलाई जिसका विस्तृत रूप उपन्यास है। उपन्यास शब्द में 'अस' धातु 'नि' उपसर्ग से मिलकर न्यास बनती है। उप' अधिक समीप वाची उपसर्ग है।  'न्यास' अर्थात धरोहर, भावार्थ धरोहर के निकट स्थापित करना। संस्कृत में विशेष प्रकार की टीका पद्धति को न्यास कहते हैं चूँकि टीका भी पाठक के मन को मूल के निकट स्थापित करती है। हिन्दी में उपन्यास शब्द परस्पर गुँथे हुए लंबे कथा समूह का पर्याय है जिसे बांगला में 'उपन्यास', गुजराती में 'नवल कथा', मराठी में 'कादंबरी' तथा अंग्रेजी में में 'नावल' कहा गया है। डा. श्यामसुंदर दास ने उपन्यास को 'मनुष्य जीवन की काल्पनिक कथा', मुंशी प्रेमचंद्र ने 'मानव चरित्र का चित्र मात्र' आचार्य नंददुलारे बाजपेयी ने 'गद्यात्मक कृति' तथा डा0 भगीरथ मिश्र ने 'युगीन स्वाभाविक जीवन की पूर्ण झाँकी' कहा है।अर्नेस्ट ए. बेकर ने उपन्यास को 'गद्यबद्ध कथानक के माध्यम द्वारा जीवन तथा समाज की व्याख्या का सर्वोत्तम साधन' बताया है। अंग्रेजी के महान्‌ उपन्यासकार हेनरी फ़ील्डिंग ने अपनी रचनाओं को 'गद्य में लिखे गए व्यंग्यात्मक महाकाव्य' की संज्ञा दी। उन्होंने उपन्यास की इतिहास से तुलना करते हुए उसे 'अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण' कहा। 

                    उपन्यास में उपन्यासकार घटनाओं का संयोजन इस प्रकार करता है कि उसे पढ़कर पाठक वास्तविक घटनाक्रम के इतना समीप मानसिक रूप से पहुँच सके जैसे वह स्वयं भी सहभागी है। साहित्य दर्पण मे उपन्यास 'भणिका' का एक भेद माना गया जो दृश्य काव्य के अन्तर्गत है। पं. अंबिका दत्त व्यास ने गद्य काव्य मीमांसा और डा. श्यामसुंदर दास ने साहित्यालोचन में उपन्यास को 'गद्य काव्य' की कोटि में रखा है किंतु उपन्यास गद्य काव्य से भिन्न एक स्वतंत्र प्रकार की रचना है। अमर कोष में दिया गया अर्थ उस पर पूर्णत:लागू नहीं होता। प्राचीन काल में उपन्यास अविर्भाव के समय इसे 'आख्यायिका' नाम मिला था। अभिनव की अलौकिक कल्पना, प्रबंध कल्पना, आश्चर्य वृत्तांत कथा, प्रबंध कल्पित कथा, सांस्कृतिक वार्ता, नोबेल, नवन्यास आदि विशेषणों से इसे अभिहित किया गया।

                    उपन्यास को आधुनिक युग की देन कहना समीचीन होगा। साहित्य में गद्य का प्रयोग जीवन के यथार्थ चित्रण का द्योतक है। साधारण बोलचाल की भाषा द्वारा लेखक के लिए अपने पात्रों, उनकी समस्याओं तथा उनके जीवन की व्यापक पृष्ठभूमि से प्रत्यक्ष संबंध स्थापित करना आसान हो गया है। महाकाव्यों में कृत्रिमता तथा आदर्शोन्मुख प्रवृत्ति की झलक मिलती है। आधुनिक उपन्यासकार जीवन की विशृंखलताओं का नग्न चित्रण प्रस्तुत करने में ही अपनी कला की सार्थकता देखता है। बाबू गुलाबराय के शब्दो में ‘उपन्यास कार्य कारण श्रृंखला मे बँधा हुआ वह गद्य कथानक है जिसमें वास्तविक व काल्पनिक घटनाओ द्वारा जीवन के सत्यों का उद्घाटन किया है।’ 


                    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार १८८२ ई. में लाला श्रीनिवास दास लिखित 'परीक्षा गुरु' हिंदी का प्रथम उपन्यास है। 'देवरानी जेठानी की कहानी' (लेखक - पंडित गौरीदत्त, सन् १८७०) तथा श्रद्धाराम फिल्लौरी की 'भाग्यवती' को भी हिंदी के प्रथम उपन्यास होने का श्रेय दिया जाता है। हिंदी के आरंभिक उपन्यास अधिकतर ऐयारी और तिलस्मी किस्म के थे। अनूदित उपन्यासों में पहला सामाजिक उपन्यास भारतेंदु हरिश्चंद्र का "पूर्णप्रकाश' और चंद्रप्रभा नामक मराठी उपन्यास का अनुवाद था। सामाजिक उपन्यासों का आधुनिक अर्थ में सूत्रपात प्रेमचंद (१८८०-१९३६) से हुआ। देवकीनंदन खत्री जी की "चंद्रकांता' हिंदी का प्रथम मौलिक उपन्यास है। जासूसी उपन्यास लेखकों में बाबू गोपालराम गहमरी का नाम महत्वपूर्ण है।

                    उपन्यास के मुख्य प्रकार सांस्कृतिक, सामाजिक, यथार्थवादी, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक, प्रयागेात्मक, तिलस्मी जादुई, वैज्ञानिक, धार्मिक, लोक कथात्मक, आंचलिक, रोमानी, कथानक प्रधान, चरित्र प्रधान, वातावरण प्रधान, महाकाव्यात्मक, जासूसी उपन्यास, समस्या प्रधान, भाव प्रधान, आदर्शवादी, नीति प्रधान तथा प्राकृतिक उपन्यास आदि हैं। 

                    उपन्यासकार के दो प्रधान कार्य उपदेश देना और कहानी सुनाना रहे हैं। आदि उपन्यासकार भावों का उद्रेक नहीं करते थे। दूसरी पीढ़ी के उपन्यासकार अपने कर्तव्य व दायित्व के प्रति सजग थे। वे कलावादी होने के साथ-साथ सुधारवादी तथा नीतिवादी भी थे। उनके लिए उपन्यास केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि जीवन सुधार का अस्त्र भी था। उन्होंने संस्थाओं की आलोचना द्वारा समाज की बुराइयों का पर्दाफाश कर विनाश पर आँसू बहाने के बदले निर्माण का संदेश दिया। वे प्रगतिशील व दूरदर्शी थे, उनके विचार समय के अनुकूल होते हुए भी समयानुसार आगे के थे।

                    इस पृष्ठ भूमि में सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर निवासी विदुषी डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी का सद्य प्रकाशित उपन्यास 'नीतिकल्पा तुलसी' भारतीय जन मानस में प्रतिष्ठित अपौरुषेय तथा अलौकिक महासती 'तुलसी' तथा वानस्पतिक वरदान 'तुलसी' पौधे को उपन्यास की नायिका तुलसी के चरित से संश्लिष्ट कर सम सामायिक सामाजिक परिवर्तनों को रेखांकित करते हुए विभिन्न चरित्रों के माध्यम से युग कथा कहता है। चंद्रा जी सनातन वैष्णवी विचारधारा की पोषक हैं। स्त्री नव जागरण के वर्तमान युग में विष्णु-जरासंध-तुलसी का पौराणिक आख्यान एक जागरूक धर्म परायण नारी को उद्वेलित कर नव चिंतन हेतु प्रेरित करे, यह स्वाभाविक है।

                    उपन्यास की नायिका 'तुलसी डॉ. चंद्रा की ही तरह सुसंस्कारित, सुशिक्षित, धर्म परायण गृहणी है जो अपने पति और संतानों के स्वार्थ साधन तक सीमित न रहकर स्वजनों और परिजनों को भी उपकृत कर उनके जीवन को दिशा देती है। इस परिधि में उपन्यासकार की कल्पना सीमाबद्ध हो गई है। यथार्थ की परिधि के बाहर जाकर ध्वंस , विप्लव और प्रतिशोध के मनचाही उड़ान लेना उसके लिए संभव न रहा। इस कारण तथाकथित प्रगतिवादियों तथा संकुचित अंध शृद्धावलंबियों को भले ही यह कृति मनोनुकूल प्रतीत न हो, शांतिप्रिय, सहिष्णु, सर्वधर्म समभावी स्वस्थ्य चिंतनवाले पाठकों को यह उपन्यास और उसका घटनाक्रम आदर्श, विचारणीय और अनुकरणीय प्रतीत होगा। स्वस्थ्य चिंतनपरक युवा पीढ़ी को इस औपन्यासिक कृति में सामाजिक और निजी जीवन की कुछ समस्याओं का समाधान मिल सकता है।

                    इस उपन्यास का आविर्भाव और विकास सात्विक सामाजिक जीवनशैली और स्वस्थ्य पारिवारिक जीवन मूल्यों के साथ हुआ है। आरंभ में तुलसी के चरित्र और पौधे की महिमा नायिका तुलसी के माध्यम से इंगित कर लेखिका उसकी प्रवासी पुत्री महिमा द्वारा तुलसी पौधे भारत से लॉस एंजेल्स (अमेरिका) ले जाकर लगाने और स्वजनों को वितरित करने के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण के लिए पौधरोपण का महत्वपूर्ण संदेश देती है। आधुनिकाओं द्वारा अमेरिका में तुलसी जी के पौधे लगाना, पूजा करना तथा उस पर विमर्श करना सुखद है। यहाँ विष्णु-जलंधर-वृंदा के पौराणिक आख्यान तथा सत्यभाभा द्वारा कृष्ण का तुलादान करते समय समस्त स्वर्ण, रजत, धन-संपदा आदि होने पर एक तुलसीदल चढ़ाते ही पल्ला झुकने के प्रसंग के माध्यम से तुलसी की महत्ता प्रतिपादित की गई है। 

                    आधुनिक विज्ञान ने व्यक्ति तथा समाज को सामान्य धरातल से देखने तथा चित्रित करने की प्रेरणा देने के समानांतर जीवन की समस्याओं के प्रति एक नए स्वास्थ्य दृष्टिकोण का भी संकेत किया है। यह दृष्टिकोण मुख्यत: बौद्धिक है। वर्तमान में उपन्यासकार के ऊपर कुछ नए उत्तरदायित्व आ गए हैं। अब उपन्यासकार की लेखन साधना चिंतन की अमूर्त समस्याओं तक ही सीमित न रहकर व्यापक सामाजिक जागरूकता की अपेक्षा रखती है। ''नित्य कल्पा तुलसी'' उपन्यास आधुनिक सामाजिक चेतना के क्रमिक विकास की कलात्मक अभिव्यक्ति है। जीवन का जितना व्यापक, सकारात्मक एवं सर्वांगीण चित्र इस उपन्यास में मिलता है उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता।

                    वैयक्तिक जीवन संघर्षों, सामाजिक जीवन में बढ़ती स्वार्थपरकता प्रस्तुत करने के साथ ही साथ इस उपन्यास का घटनाक्रम वैयक्तिक मानवीय चरित्रों के टकराव-भटकाव-सुलझाव की झाँकियाँ प्रस्तुत करता है। मानव को, परिवार, जाति, व्यवसाय आदि से संलग्न इकाई के रूप में देखने के स्थान पर पारिवारिक परंपरा की श्रृंखला के रूप में देखने और वैयक्तिक प्रतिष्ठा हेतु सतत प्रयासरत रहनेवाले जीवंत-सजग जीव के रूप में आत्मोन्नति हेतु सक्रिय रूप को उपन्यास प्रतिष्ठित करता है। स्वार्थपरक सामाजिक बंधन, राजनैतिक प्रदूषण और व्यक्तिगत हित साधन को विविध घटनाओं के माध्यम से हेय, तुच्छ और त्याज्य बताया गया है। मानव चरित्र के अध्ययन के लिए यथार्थोन्मुख प्रवृत्तियों का विश्लेषण करते हुए लेखिका ने नायिका के माध्यम से नया दृष्टिकोण दिया है। मानव चरित्र के सरल वर्गीकरण की परंपरा करते हुए उपन्यास के पात्र पूर्णतया भले, भले-बुरे और पूरी तरह बुरे के मध्य राह खोजते हुए तथा तीनों वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अच्छाइयों और त्रुटियों का सम्मिश्रण, जैसा वास्तविक जीवन में सर्वत्र देखने को मिलता है, चंद्रा जी स्वाभाविकता के साथ इस उपन्यास में प्रस्तुत कर सकी हैं। इस उपन्यास में लंबे समय बाद पहली बार मानव चरित्र के यथार्थ, विशद एवं गहन अध्ययन की संभावना देखने को मिली है।

                    वर्तमान संक्रमण काल में लघुकथा, क्षणिका, दोहा, माहिया, हाइकु जैसी लघ्वाकारी सृजन विधाओं का बोलबाला है, महाकाव्य और उपन्यास जैसी विधाओं में सृजन, पठन और पाठन दिन-ब-दिन कम से कम होता जा रहा है। इसके दो कारण हैं - पहला यह कि ये दोनों विधाएँ अपेक्षाकृत अधिक शोध, मनन, मौलिकता, सकारात्मकता तथा श्रम की माँग करती हैं, दूसरा तथाकथित समयाभाव। इन दोनों विधाओं में नायक के चयन हेतु जिन मानकों का उल्लेख साहित्य शास्त्र में हैं, वैसे व्यक्तित्व अब किसी और लोक के वासी जान पड़ते हैं। अपने चारों और देखने पर इन महापुरुषों के पैर की धूल की कण कहलाने योग्य व्यक्तित्व भी नहीं दिखते। महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने गाँधी जी के बारे में लिखा था कि “भविष्य की पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई व्यक्ति भी कभी धरती पर आया था।” यही बात विवेच्य उपन्यास 'नित्यकल्पा तुलसी ' की नायिका के बारे में भी सत्य है। यह औपन्यासिक कृति प्रामाणिकता की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरी है तथापि यह केवल तथ्य संकलन या समस्याओं का लेख-जोखा नहीं है। उपन्यास के कथा-क्रम में कथ्य के विश्लेषण, मूल्याङ्कन और विवेचन में उपन्यासकार की स्वतंत्र चिंतन दृष्टि का परिचय यत्र-तत्र मिलता है।

                    सामाजिक चरित्रों को उपन्यास में ढालते समय कई चुनौतियों का सामना करना होता है। सबसे पहली चुनौती नायक/नायिका के चयन की है। सामान्यत:, अतिरेकी पत्रों का चयन किया जाता है जबकि मनुष्य पूरी तरह बुरा या भला कम अपवादस्वरूप ही होता है। बुरे से बुरे मनुष्य के जीवन में अच्छाई के पल और अच्छे से अच्छे मनुष्य के जीवन में कमजोरियों के क्षण सहज ही देखे जा सकते हैं। चरित्र-चित्रण करते समय अधिकांश उपन्यासकार चरित्रों को अतिरेकी उत्कर्ष या पतन के साथ विकसित करते हैं। ऐसा करने से वह पात्र विशेष भले ही उभरता है किंतु अन्य पात्र प्रभावी नहीं हो पाते और कथा का विकास स्वाभाविक नहीं हो पाता। नित्यकल्पा तुलसी की लेखिका सामान्य से इतर सभी पात्रों को विकास का यथायोग्य अवसर देती है। किसी पात्र का चरित्र न तो अत्यधिक विस्तार पाता है, न ही अवसर के अभाव में दम तोड़ता है। 

कथावस्तु

                    कथा वस्तु उपन्यास की जीवन शक्ति होती है। 'नित्यकल्पा तुलसी' सामान्य जनों के दैनंदिन जीवन से संबंधित होते हुए भी मौलिक कल्पना से व्युत्पन्न वर्णनों से सुसज्जित है। काल्पनिक प्रसंग इतने स्वाभाविक एवं यथार्थ हैं कि पाठक को उनके साथ तादात्म्य स्थापित करने में किंचितमात्र भी कठिनाई नहीं होती। उपन्यासकार ने ऐसी विश्वसनीय घटनाओं को ही स्थान दिया है जो मुख्य कथा को यथास्थान यथावश्यक गति देती हैं। तुलसी की मुख्य कथा के साथ महिमा, वृन्दा, अक्षय, मालती, गिरिराज आदि के प्रसंग उपकथाओं के रूप में पिरोए गए हैं। ये गौण कथाएँ मुख्य कथा को दिशा, गति तथा विकास देने में सहायक हैं। इन उपकथाओं को मुख्य कथा के साथ इस तरह संगुफित किया गया है कि वे नीर-क्षीर की तरह एक हो सकी हैं। उपन्यासकार मुख्य और प्रासंगिक उपकथाओं को गूँथते समय कौतूहल और रोचकता बनाए रख सका है।  

पात्र व चरित्र चित्रण

                    इस उपन्यास का मुख्य उद्देश्य समाज को सदाचरण की प्रेरणा देना है। उपन्यासकार इस उद्देश्य में पूरी तरह सफल है। उपन्यास में प्रधान पात्र तुलसी है जिसके जन्म से अवसान तक विवेकपूर्ण आचरण का पूरी प्रामाणिकता के साथ वर्णन कर उपन्यासकार न केवल अतीत में घटे प्रेरक प्रसंगों को पुनर्जीवित करता है अपितु उन्हें सम-सामयिक परिदृश्य में प्रासंगिक निरूपित करते हुए, उनका अनुकरण किये जाने की आवश्यकता प्रतिपादित करती है। नायिका के जीवन में निरंतर कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं, उसे लगातार जूझना पड़ता है, कड़े संघर्ष के बाद मिली सफलता क्षणिक सिद्ध होती है और बार-बार वह स्वजनों ही नहीं परिजनों की भी परेशानियों सको अपनी मानकर परेशां होती  है तथापि एक बार भी हताश नहीं होती, नियति को दोष नहीं देती, खुद कष्ट सहकर भी अपने परिवारजनों और परिचितों-अपरिचितों के कल्याण हेतु हित पल-पल प्राण से समर्पित रहती है। इससे सीख लेकर पाठकों को अपने आचरण के नियमन की प्रेरणा बिन कहे ही मिलती है। उपन्यास में अनेक गौड़ पात्र हैं जो नायिका के चतुर्दिक घटती घटनाओं के पूर्ण होने में सहायक होते हैं तथा नायिका के आदर्श व्यक्तित्व को स्थापित करने में सहायक हैं। वे कथानक को गति देकर, वातावरण की गंभीरता कम कर, उपयुक्त वातावरण की सृष्टि करने के साथ-साथ अन्य पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालते हैं।

संवाद :

                    संवादों का प्रयोग कथानक को गति देने, नाटकीयता लाने, पात्रों के चरित्र का उद्घाटन करने, वातावरण की सृष्टि करने आदि उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किया गया है। संवाद पात्रों के विचारों, मनोभावों तथा चिंतन की अभिव्यक्ति कर अन्य पात्रों तथा पाठकों को घटनाक्रम से जोड़ते हैं। कथोपकथन पात्रों के अनुकूल हैं। संवादों के माध्यम से उपन्यासकार अनुपस्थित होते हुए भी अपने चिन्तन को पाठकों के मानस में आरोपित कर सकी है।  संवाद न तो नाटकीय हैं, न उनमें अतिशयोक्ति है, गुरु गंभीर चिंतन को सरस, सहज, सरल शब्दों और लोक में परिचित भाषा शैली में व्यक्त किया गया है। इससे पाठक के मस्तिष्क में बोझ नहीं होता और वह कथ्य को ह्रदयंगम कर पाता है।

वातावरण

                    वर्तमान संक्रमण काल में भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व में मूल्यहीनता, स्वार्थलिप्सा, संकीर्णता तथा भोग-विलास का वातावरण है। इस काल में ऐसे जनसामान्य जिन्होंने 'स्व' पर 'सर्व' को वरीयता देकर संयम त्याग के उदाहरण बनकर मानवीय मूल्यों की ज्योति को जलाए रखा हो ताकि अन्य जन प्रेरित होकर आदर्श पथ पर चल सके, मिलाना दुर्लभ नहीं तो दुष्कर अवश्य हो गया है। तुलसी ऐसा ही चरित्र है जो बचपन से परिवर्तित होती परिस्थितियों में मिलते गुरुतर दायित्व को ग्रहण कर न केवल स्वयं को उसके उपयुक्त प्रमाणित करटी हैं बल्कि शिव की तरह उपेक्षा या आलोचना का गरल पीकर भी नीलकंठ की भाँति उन्हीं संबंधियों की रक्षा भी करती है। उपन्यासकार ने समसामयिक सामाजिक परिस्थितियों का वर्णन पूरी स्वाभाविकता के साथ किया है।  

भाषा शैली :

                    भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होती है और शैली भावों की का अभिव्यक्ति का ढंग। भाषा के द्वारा उपन्यासकार अपनी मन की बात पाठक तक संप्रेषित करता है। अतः, भाषा का सरल-सहज-सुबोधहोना, शब्दों का सटीक होना तथा शैली का सरस होना आवश्यक है। डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी स्वयं संस्कृत की पंडिता हैं तथापि वे भाषिक शुद्धता रखते हुए भी क्लिष्टता से बच सकी हैं। ऐसी स्थिति में बहुधा लेखक पांडित्य प्रदर्शन करने के फेर में पाठकों और कथा के पात्रों के साथ न्याय नहीं कर पाते किन्तु डॉ. चंद्रा ने कथावस्तु के अनुरूप बुंदेली ग्रामीण परिवेश और पत्रों का शहरी उच्च शिक्षित पात्रों का यथास्थान भली प्रकार समायोजन कर भाषा को पात्रों, घटनाओं तथा परिवेश के अनुरूप बनाने के साथ सहज बोधगम्य भी रखा है। पात्रों के संवाद उनकी शिक्षा तथा वातावरण के साथ सुसंगत हैं। प्रसंगानुकूल भाषिक वैशिष्ट्य का उदाहरण पद्यांशों के रूप में है। 


जीवन दर्शन व उद्देश्य :


                    किसी भी रचना को रचते समय रचनाकार के मन में कोई न कोई मान्यता, विचार या उद्देश्य होता है। उपन्यास जैसी गुरु गंभीर रचना निरुद्देश्य नहीं की जा सकती। 'नित्यकल्पा तुलसी' की रचना के मूल में निहित उद्देश्य का उल्लेख करते हुए डॉ. चतुर्वेदी  'अभिव्यक्ति' के अंतर्गत लिखती हैं  सभी पुराना त्याज्य नहीं है और सभी पुराना ग्राह्य ही हो ऐसा भी नहीं है। अच्छे-बुरे की सम्यक परीक्षा कर ही नर्णय होना चाहिए।' इस उपन्यास में यह संदेश अन्तर्निहित है कि पहले मनुष्य को ठीक किया जाए ,यदि मनुष्य विकृत रहा तो वह सबको विकृत कर देगा...मनुष्य को सत्य, न्याय, प्रेम करुणा, अहिंसा, समता, क्षमा, पवित्रता, निस्स्वार्थता, परोपकारिता, विनम्रता, जैसे गुणों को अपने व्यक्तित्व में अंगभूत करना चाहिए। फिर समाज से अन्धविश्वास, कुरीति, वर्णभेद, जातिभेद, असमानता आदि का उन्मूलन किया जाए। समाज और व्यक्ति में सहिष्णुता, स्वतंत्रता, सरलता और मृदुलता के भावों को विकसित करने की जरूरत है।  

प्रासंगिकता

                     'नित्यकल्पा तुलसी' उपन्यास की प्रासंगिकता विविध प्रसंगों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहज ही देखी जा सकती है। भारत का जन मानस संविधान द्वारा समानता की गारंटी दिए जाने के बाद भी,जाति, धर्म पंथ, संप्रदाय, भाषा, भूषा, लिंग आदि के भेद-भाव से आज भी ग्रस्त है। तुलसी द्वारा अपने से जुड़े पात्रों के साथ पक्षपात न कर निष्पक्ष और सर्वोत्तम मार्गदर्शन करना, बचपन में बिछुड़ गई सहेली के मिलने पर उसे सहजता से स्वीकारना, धन-संपत्ति के लोभ में पिता की संपत्ति हड़पनेवाले भाई-भाभी के प्रति भी अनादर या द्वेष भाव न रखना आदि अनुकरणीय है। आज देश नेताओं, नौकरशाहों, धनपतियों ही नहीं आम आदमी के भी भ्रष्टाचार से संत्रस्त है। तुलसी ने अपनों की स्वार्थपरता को अस्वीकारते हुए भी सौजन्यता और शालीनता नहीं खोई। वे लिखती हैं- 

तुलसी की व्यथा का अनुमान करिए
छलिया कितना भी सबल हो, मत डरिए।
निज आत्मबल एकत्र कर प्रतिकार करिए
शापित कर, मारने के बाद मरिए।।


                    २०१ पृष्ठीय यह उपन्यास न तो अति विशाल है, न अति संक्षिप्त। हिंदी साहित्य में तपस्विनी और कृष्णावतार (क.मा. मुंशी), खरीदी कौड़ियों के मोल (बिमल मित्र), अनुत्तर योगी (वीरेंद्र कुमार जैन) जैसे दीर्घाकारी और कई भागों में लिखे उपन्यासों की समृद्ध विरासत को देखते हुए यह उपन्यास विस्तृत नहीं है तथापि लघुता की ओर बढ़ते आकर्षण को देखते हुए गंभीर लेखन, पठनीयता की दृष्टि से जोखिम उठाने की तरह है, वह भी उस समय में जबकि उपन्यास लेखन व्यक्तिगत न होकर चित्रपटीय पटकथाओं की तरह समूह द्वारा किया जा रहा हो।

                    'नित्यकल्पा तुलसी' में चंद्रा जी समसामयिक समस्याओं के समाधान के प्रति भी सजग हैं। अंतर्जातीय, अंतर्नस्लीय तथा अंतर्राष्ट्रीय विवाहों में संस्कार, भाषा, जीवनशैली आदि की भिन्नता से उपजती समस्याओं तथा उनके सम्यक समाधान की ओर उपन्यास लेखिका सजग है। युवाओं में संबंध में बँधने की उतावली और विषम परिस्थितियों में निर्वहन के स्थान पर संबंध भंग के पथ को चुनने से उपजती निराशा की मनोवैज्ञानिक चिकित्सा वे अपने पात्रों के माध्यम से करती हैं। उनके अपने शब्दों में - 'इस कृति के कथा प्रसंग में कुछ मुद्दे उठाए गए हैं जहाँ आज धर्म-अध्यात्म की संस्कृति के माध्यम से शिक्षण संस्थाएँ चलती हैं पर इसके मूल उद्देश्य की उपेक्षा कर संपत्ति और जमीन के अधिग्रहण की कशमकश पर ध्यान केंद्रित रहता है.....आधुनिकता के बढ़ते चरण के शुरुआती दिनों तक ..... विदेशों में खूब विवाह संबंध हुए हैं, अभी भी हैं पर क्या वे अधिकांश सफल-सार्थक हो पाए, विशेषकर विदेश में ही पले-बढ़े युवकों के विवाह नितांत भारतीय परिवेश में हुए हों। इस उपन्यास में तुलसी पुत्री महिमा इस विडंबना के दंश को झेलती है क्योंकि हमारे आचार-विचार, रहन-सहन में परिवेश का अंतर आड़े तो आता ही है। अत:, इस संबंध में परंपरागत और आधुनिकता का ताल-मेल देखकर ही विचार होना चाहिए।'

                    लेखिका कथा को वर्तमान देशज और वैश्विक परिवेश के मध्य ताने-बाने बुनते हुए विविध पात्रों के सामान्य जनों की तरह स्वाभाविकतापूर्ण रचे गए चरित चित्रण के माध्यम से ग्रहण कर पाते हैं। पात्रों में उदारता, स्वार्थपरकता, धूर्तता, त्याग, संघर्ष, जिजीविषा, लगन, पश्चाताप आदि विविध मानवीय प्रवृत्तियाँ घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में खुद-ब-खुद सामने आ सकी हैं, वे थोपी हुए नहीं हैं। तुलसी पौधे के आयुर्वेदीय औषधीय उपयोग आदि प्रसंग सामाजिक उपादेयता की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। उपन्यास पढ़ते समय यह प्रतीत नहीं होता कि आप काल्पनिक कथा पढ़ रहे हैं अपितु ऐसा लगता है मानो हमारे आस-पास घट रही घटनाओं और उनमें सहभागी व्यक्तियों की चर्चा हो रही है। घटनाक्रम की स्वाभाविकता तथा भाषा की सहजता-सरलता, शब्दों का सटीक चयन, अभिव्यक्ति में संयम और आलोचना में निंदा का न होना लेखिका के सृजन कौशल का प्रमाण है। 

                    इस सोद्देश्य, प्रेरणास्पद, चिंतनपरक तथा दैनंदिन जीवन में अनुकरणीय औपन्यासिक गल्प के माध्यम से डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी जी जीवन सत्यों, शाश्वत मूल्यों और वैयक्तिक प्रयासों के सर्वदेशीय महत्व को भली-भाँति प्रतिपादित कर सकी हैं।। साहित्य में आज उपन्यास का वस्तुत: वही स्थान है जो प्राचीन युग में महाकाव्यों का था। व्यापक सामाजिक चित्रण की दृष्टि से दोनों में पर्याप्त साम्य है। लेकिन जहाँ महाकाव्यों में जीवन तथा व्यक्तियों का आदर्शवादी चित्र मिलता है, उपन्यास, जैसा फ़ील्डिंग की परिभाषा से स्पष्ट है, समाज की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत करता है। उपन्यासकार के लिए कहानी साधन मात्र है, साध्य नहीं। उसका ध्येय पाठकों का मनोरंजन मात्र भी नहीं। वह सच्चे अर्थ में अपने युग का इतिहासकार है जो सत्य और कल्पना दोनों का सहारा लेकर व्यापक सामाजिक जीवन की झाँकी प्रस्तुत करता है। डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी ''युग परिधि'' के पश्चात्अ पनी दूसरी औपन्यासिक कृति 'नित्यकल्पा तुलसी'' के माध्यम से अपनी सृजन सामर्थ्य के प्रति पाठकों की अपेक्षाओं को बढ़ा सकी हैं। उनकी आगामी औपन्यासिक कृति की प्रतीक्षा करनेवाला पाठक वर्ग निश्चय ही बढ़ेगा। सारत: 

तुलसी बनी नवजीवन का अध्याय
आत्मोन्नति और परोपकार का पर्याय।
तुल सी गई लेकिन तौली-बेची न जा सके तुलसी
जिसके पास गई, उसकी तबीयत रही हुलसी।
***
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष ९४२५१ ८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com



तुलसी
तुलसी पौधा ही नहीं है
तुलसी कालजयी कथा है।
पालनकर्ता विष्णु द्वारा
छले जाने की व्यथा है।।

तुलसीपति हंता को बनना पड़ा जड़ पत्थर
भोगना पड़ी पत्नि विरह की पीर, भटककर दर दर।
तुलसी बिना अपूजित रहे जगपालक
जग कल्याण हेतु देव-देवियों को होना पड़ा याचक।

तुलसी है अमृता कठिंजर कायस्था कुठरेका
गंधहारिणी ग्राम्या जंबीर तीव्रा तरुपका।
त्रिदशमंजरी देवमंजरी पत्रपुष्पा पावनी
पर्णास प्रस्थपुष्पा प्रेतरक्षिणी फणिझका।

बहुमंजरी बहुपत्री भूतघ्नी भूतपत्री माधवी
रामा विष्णुवल्लभा विराज वृंदा अरु श्यामा।
सुखवल्ली सुगंधा सुवहा सुभगा सुरदुंदुभी
सुरभि सुरेज्या सुलभा हरिप्रिया हरिवल्लभा।

तुलसी है विष्णुप्रिया सुपूज्या लोकमाता
मोक्षदायिनी भवतारिणी जलंधरा दुखत्राता।
नित्यकल्पा असंख्यपर्णा साँझपूज्या संकल्पा

तुलसा जनपूज्या गृहशोभा निर्विकल्पा।
कंठाभूषणा जपमाला


संदर्भ- अमरकोश, भावप्रकाश, मधुमित्र, रत्नमाला, राजनिर्घंटु, शब्द रत्नावलि तथा नित्यकल्पा तुलसी।

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