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शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

सॉनेट, महाकाल, बृज मुक्तिका, छंद बारहमासा, द्विपदी, शे'र, पद, सरस्वती

पद 
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रे मन! शारद के गुन  गाओ।  
सोकर समय गँवाया नाहक, जगकर कदम बढ़ाओ।। 
ठोकर खाकर रो मत; उठ बढ़, साहस कर मुस्काओ।। 
मानव तन पा सबका हित कर, सबसे आशीष पाओ।।
अँगुली पकड़ किसी निर्बल की, मंज़िल तक पहुँचाओ।।
स्वार्थ तजो; परमार्थ राह चल, सबको सुख दे जाओ।।
अन्धकार दस दिश व्यापा है, श्रम कर सूर्य  उगाओ।।
अक्षर-अक्षर शब्द बनाकर, पद रच मधुर सुनाओ।।
संजीव, ९४२५१८३२४४
१-१२-२०२२, जबलपुर
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सॉनेट 
महाकाल
देव देवों के पतितपावन
स्वयंभू दक्षिणमुखी जगनाथ
दिव्य दर्शन रम्य भूतभावन
सलिल कर अभिषेक है नत माथ

महाकालीपति न महिमा अंत
सृष्टि तुमसे जन्मती हो लय
भजूँ पल पल तुम्हें निश-दिन कंत
हृदय में धर हो सकूँ निर्भय

तीर क्षिप्रा के विराजे मौन
नर्मदा जल कर रहा अभिषेक 
महत्तम तुमसे अधिक है कौन
नमन दें नटराज भक्ति विवेक

ध्यान कर नित जीव हो संजीव
हो तुम्हीं में लीन करुणासींव 

संजीव, ९४२५१८३२४४
१-१२-२०२२, जबलपुर 
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बृज मुक्तिका
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जी भरिकै जुमलेबाजी कर
नेता बनि कै लफ्फाजी कर
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दूध-मलाई गटक; सटक लै
मुट्ठी में मुल्ला-काजी कर
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जनता कूँ आपस में लड़वा
टी. वी. पै भाषणबाजी कर
*
अंडा शाकाहारी बतला
मुर्ग-मुसल्लम को भाजी कर
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सौ चूहे खा हज करने जा
जो शरीफ उसको पाजी कर
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२-१२-२०२०
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त्रिपदिक मुक्तिका
(मात्रिक छंद - बारहमासा १२-१२-१२)
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निर्झर कलकल बहता
किलकिल न करो मानव
कहता, न तनिक सुनता।
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नाहक ही सिर धुनता
सच बात न कह मानव
मिथ्या सपने बुनता।
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जो सुना नहीं माना
सच कल ने बतलाया
जो आज नहीं गुनता।
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जिसकी जैसी क्षमता
वह लूट खा रहा है
कह कैसे हो समता?
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बढ़ता न कभी कमता
बिन मिले मिल रहा है
माँ का दुलार-ममता।
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संजीव, ७९९९५५९६१८
२-१२-२०१८
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द्विपदियाँ (अश'आर)
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आँख आँख से मिलाकर, आँख आँख में डूबती।
पानी पानी है मुई, आँख रह गई देखती।।
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एड्स पीड़ित को मिलें एड्स, वो हारे न कभी।
मेरे मौला! मुझे सामर्थ्य, तनिक सी दे दे।।
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बहा है पर्वतों से सागरों तक आप 'सलिल'।
समय दे रोक बहावों को, ये गवारा ही नहीं।।
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आ काश! कि आकाश साथ-साथ देखकर।
संजीव तनिक हो सके, 'सलिल' के साथ तू।।
२-१२-२०१८
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जुगुनू जगमग कर रहे, सूर्य-चंद्र हैं अस्त.
मच्छर जी हैं जगजयी, पहलवान हैं पस्त.
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अपनी अपनी ढपलियाँ, अपने-अपने राग.
कोयल-कंठी मौन है, सुरमणि होते काग.
२-१२-२०१७
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स्मरण : डॉ. राजेंद्र प्रसाद 
पूत के पाँव
भारतीय संविधान के निर्माता, देश के अग्रणी स्वतन्त्रता संग्राम सैनानी, भारतीय प्रजातन्त्र के प्रथम राष्ट्रपति, कायस्थ कुल दिवाकर, अजातशत्रु डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी तब बी.ए. के विद्यार्थी थे। प्रातःकाल दैनिक कार्यों से निपट ही रहे थे कि अचानक ध्यान आया कि आज तो उनकी परीक्षा का अंग्रेजी का दूसरा पर्चा है। तत्काल भागते-दौड़ते कॉलेज पहुँचे लेकिन उस समय परीक्षा समाप्त होने में मात्र एक घंटे का समय शेष था। निरीक्षक ने प्रवेश देने से मना के दिया। प्राचार्य से निवेदन किया तो उन्होंने यह सोचकर कि राजेंद्र सर्वाधिक मेधावी छात्र है, सशर्त अनुमतिदी कि प्रश्नपत्र हल करने के लिये कोई अतिरिक्त समय नहीं दिया जाएगा। राजेन्द्र प्रसाद जी ने ग्रामर तथा ट्रान्सलेशन आदि तो तुरन्त हल कर दिया किन्तु एस्से (निबंध) के लिये बहुत कम समय बचा। विषय था ताजमहल। बी.ए. के स्तर का निबंध कम से कम़ ५-६ पृष्ठ का होना ही होना चाहिये था पर इतना समय तो अब शेष था ही नहीं। परीक्षार्थी राजेंद्र प्रसाद ने मात्र एक वाक्य लिखा....
"Taj is the frozen mosque of royal tears".
परीक्षक ने उनके इस निबंध की बहुत सराहना की और उसे सर्वश्रेष्ठ निरूपित किया। पटना के संग्रहालय में यह उत्तर पुस्तिका आज भी सुरक्षित है।
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कार्यशाला-
शे'र से मुक्तक
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तुम एक सुरीला मधुर गीत, मैं अनगढ़ लोकगीत सा हूँ
तुम कुशल कलात्मक अभिव्यंजन, मैं अटपट बातचीत सा हूँ - फौजी
तुम वादों को जुमला कहतीं, मैं जी भर उन्हें निभाता हूँ
तुम नेताओं सी अदामयी, मैं वोटर भला भीत सा हूँ . - सलिल
१-१२-२०१६
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स्मरण : ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
(२६ दिसंबर १८२० - २९ जुलाई १८९१)
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ईश्वरचंद्र विद्यासागर बांग्ला साहित्य के समर्पित रचनाकार तथा श्रेष्ठ शिक्षाविद रहे हैं। आपका जन्म २६ दिसंबर १८२० को अति निर्धन परिवार में हुआ था। पिताश्री ठाकुरदास तथा माता श्रीमती भगवती देवी से संस्कृति, समाज तथा साहित्य के प्रति लगाव ही विरासत में मिला। गाँव में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर आप १८२८ में पिता के साथ पैदल को कलकत्ता (कोलकाता) पहुँचे तथा संस्कृत महाविद्यालय में अध्ययन आरम्भ किया। अत्यधिक आर्थिक अभाव, निरंतर शारीरिक व्याधियाँ, पुस्तकें न खरीद पाना तथा सकल गृह कार्य हाथ से करना जैसी विषम परिस्थितियों के बावजूद अपने हर परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया।
सन १८४१ में आपको फोर्ट विलियम कोलेज में ५०/- मासिक पर मुख्य पंडित के पद पर नियुक्ति मिली। आपके पांडित्य को देखते हुए आपको 'विद्यासागर' की उपाधि से विभूषित किया गया। १८५५ में आपने कोलेज में उपसचिव की आसंदी को सुशोभित कर उसकी गरिमा वृद्धि की। १८५५ में ५००/- मासिक वेतन पर आप विशेष निरीक्षक (स्पेशल इंस्पेक्टर) नियुक्त किये गये।
अपने विद्यार्थी काल से अंत समय तक आपने निरंतर सैंकड़ों विद्यार्थिओं, निर्धनों तथा विधवाओं को अर्थ संकट से बिना किसी स्वार्थ के बचाया। आपके व्यक्तित्व की अद्वितीय उदारता तथा लोकोपकारक वृत्ति के कारण आपको दयानिधि, दानवीर सागर जैसे संबोधन मिले।
आपने ५३ पुस्तकों की रचना की जिनमें से १७ संकृत में,५ अंग्रेजी में तथा शेष मातृभाषा बांगला में हैं। बेताल पंचविंशति कथा संग्रह, शकुन्तला उपाख्यान, विधवा विवाह (निबन्ध संग्रह), सीता वनवास (कहानी संग्रह), आख्यान मंजरी (बांगला कोष), भ्रान्ति विलास (हास्य कथा संग्रह) तथा भूगोल-खगोल वर्णनं आपकी प्रमुख कृतियाँ हैं।
दृढ़ प्रतिज्ञ, असाधारण मेधा के धनी, दानवीर, परोपकारी, त्यागमूर्ति ईश्वरचंद्र विद्यासागर ७० वर्ष की आयु में २९ जुलाई १८९१ को इहलोक छोड़कर परलोक सिधारे। आपका उदात्त व्यक्तित्व मानव मात्र के लिए अनुकरणीय है।
१-१२-२०१५
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ई मित्रता पर पैरोडी:
(बतर्ज़: अजीब दास्तां है ये, कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...)
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हवाई दोस्ती है ये,
निभाई जाए किस तरह?
मिलें तो किस तरह मिलें-
मिली नहीं हो जब वज़ह?
हवाई दोस्ती है ये...
*
सवाल इससे कीजिए?
जवाब उससे लीजिए.
नहीं है जिनसे वास्ता-
उन्हीं पे आप रीझिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
जमीं से आसमां मिले,
कली बिना ही गुल खिले.
न जिसका अंत है कहीं-
शुरू हुए हैं सिलसिले.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
३०-११-२०१२
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