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सोमवार, 21 मार्च 2022

ऐतरेयोपनिषद हिंदी पद्यानुवाद

ऐतरेयोपनिषद
हिंदी पद्यानुवाद
*
शांति पाठ 
वाणी मन में; मन वाणी में, वास करें प्रभु! वे अभिन्न हो। 
हो प्रकाश -रूप प्रगटो प्रभु!, वेद-ज्ञान मन-वाणी ला दो।।
सुना ज्ञान जो; मुझे न भूले, निष्-दिन चिंतन-पठन कर सकूँ-
सत्य-श्रेष्ठ-शुभ ही बोलूँ मैं, रक्षा करिए मेरी; गुरु की
मुझको-गुरुको प्रभु! बचाइए, विघ्न अध्ययन में न तनिक हो। 
। ॐ शांति: शांति: शांति: 

। अध्याय १, खंड १

ॐ जगत प्रगटन के पहले, एकमात्र परमात्मा ही था। 
अन्य न चेष्टा करनेवाला, लोक रचूँ उसने यह सोचा।१। 

उसने लोकों की रचना की, अंभ-मरीचि-मृत्यु-जल सृजकर। 
मह-जन-तप-सत्; अंभ-मरिचि-भव, नर-भू-जल-पाताल बनाए।२। 

उसने सोचा- लोक रचे; अब, लोकपाल भी रचना होंगे।
सलिल-पद्मनाल से उसने, पुरुष हिरण्यमयी प्रगटाया।३। 
 
तपकर मुख-वागाग्नि-नासिका, प्राण-वायु फिर चक्षु बनाए।
तब रवि कान दिशा व त्वचा रच, लोम दवा तरु पौध उगाए। 
हृद मन शशि फिर अपानवायु, मृत्यु लिंग रेतस जल आए।४।

। अध्याय १, खंड २ 

इस विधि उपजे सब देवों को, भूख-प्यास भी दे दी प्रभु ने। 
सृष्टि-सिंधु पड़ प्रभु से बोले, 'जहाँ मिले आहार-जगह दें'।१।

गौ-तन बना दिया तब प्रभु ने,  'यह पर्याप्त नहीं' सुर बोले
अश्व शरीर रचा तब प्रभु ने, 'है पर्याप्त न' कहा सुरों ने।२। 

तब प्रभु ने नर-देह बनाई, 'अति सुंदर है' सुर बोले झट। 
कहा ईश ने 'उचित लगे जो, जगह वहीं हो प्रविष्ट जाओ'।३। 

अग्नि वाक् बन बैठे मुख में, वायु प्राण बन गए नाक में। 
सूर्य दृष्टि बन नयन में बसे, दिशा देव हो श्रवण कान में। 
देव दवा के लोम-त्वचा में, चंद्र हुआ मन पैठा हृद में।  
यम अपान बन नाभि बस गया, वरुण वीर्य बन लिंग में बसे।४।  

भूख-प्यास तब बोलीं प्रभु से, 'जगह हमें भी कहीं दीजिए'।
प्रभु बोले इन देवों का ही, भागीदार बनाता तुमको'।
लें हवि देवों-हित इंद्रिय जब, भूख-प्यास भी हिस्सा पाएँ।५। 

। अध्याय १, खंड ३

उस प्रभु ने फिर सोचा 'ये सब, लोकपाल लोकों के हैं जो। 
इनके लिए बनाना है अब, अन्न- तृप्ति ये पाएँ जिससे।१। 

उसने पंच महाभूतों को, तपा तुरत आकार दे दिया। 
हो साकार सूक्ष्म भूतों से, अन्न; भोग्य जो है देवों का।२। 

'भक्षक मेरा नाश करेगा', सोच अन्न भाग; मुँह फेरा।
जीवात्मा ने वाणी द्वारा, चाहा पकड़ूँ; पकड़ न पाया।३। 
(वाक् पकड़ पाता यदि उसको, बोले 'अन्न' तृप्ति हो जाती।)

तब प्राणों ने चाहा पकड़े, हाथ न अन्न प्राण के आया। 
सकता पकड़ अन्न तो उसको, सूँघ अन्न मन सुतृप्ति पाता।४। 

अब आँखों ने चाहा पकड़े, लेकिन अन्न न हाथ लग सका।
अगर पातीं आँखें तो, अन्न देखकर मन भर जाता।५। 

कोशिश कानों ने की पकड़ें, अन्न; न लेकिन पकड़ सके वे। 
अगर पकड़ लेते तो सुनकर, अन्न तृप्ति मन को मिल सकती।६। 

अन्न पकड़ लूँ चाह चर्म ने, कोशिश की पर पकड़ न पाया। 
होता सफल अगर तो छूकर, अन्न तृप्ति मनु को मिल पाती।७।

मन ने  चाहा; पकड़ न पाया, अगर पकड़ लेता तो नर को। 
मात्र सोचकर भूख-प्यास से, अन्न ग्रहण सम तृप्ति सुहाती।८। 

अन्न पकड़ लूँ सोच पुरुष ने, शिश्न माध्यम से कोशिश की। 
विफल हुआ; यदि गह सकता तो, तजकर अन्न तृप्त हो पाता।९। 

ग्रहण अपानवायु के द्वारा, मुख में अन्न कर सका जब नर। 
जीवन-रक्षा करे अन्न के द्वारा, मात्र अपान वायु ही।१०। 

परमपिता ने सोचा 'मुझ बिन, कैसे जीव रह सकेगा यह?
बोल वाक् से; सूँघ नाक से, श्वसन प्राण से; देख नेत्र से। 
सुन कानों से; स्पर्श त्वचा से, मन से सोचे; खा अपान से।
वीर्य शिश्न से तजे; खुदी तो, मेरा क्या उपयोग रह गया?
मुझ बिन रह न सके; पद-मस्तक, किस पथ से मैं इसमें जाऊँ?११। 

चीर जीव तन; विदृति द्वार से, तन में किया प्रवेश ईश ने। 
तीन स्वप्न त्रै धाम ईश के, हृदय-गगन-ब्रह्माण्ड समूचा।१२। 
(तीन अवस्था तीन स्वप्न हैं, स्थूल-सूक्ष्म अरु कारण रूपी।)    

मनुज देह में प्रगट पुरुष ने, पंच भूत को सब दिश देखा।
कौन दूसरा व्याप्त?; देख प्रभु, हर्षा 'मैंने प्रभु को देखा।'१३। 

नाम 'इदन्द्र' 'इसे देखा' है, लोग 'इंद्र' कहकर पुकारते। 
उसको प्रिय है छिपकर रहना, ईश न सम्मुख रहें चाहते।१४।  
***

। अध्याय २

जीव प्रथमत: पुरुष देह में, वीर्य बने होता सुपुष्ट भी। 
सिंचन नारी गर्भाशय में, करता पुरुष जन्म यह पहला।१। 

नारी गहती आत्मभाव से, अपने अंग सदृश ही उसको। 
पीर न होती; भार न लगता, आत्मावत करती पालन वह।२। 

पालन-पोषण कर जन्मे माँ, संस्कार दे पिता ज्ञान भी। 
संतति में खुद उन्नत होता, यह जातक का जन्म दूसरा।३। 

वह आत्मा है इस आत्मा का, प्रतिनिधि; यह कर्तव्य पूर्ण कर। 
आयु पूर्ण कर; पूण: जन्म ले, यह जातक का जन्म तीसरा।४। 

विस्मय सत्य गर्भ में जाना, देवों के अनेक जन्मों को। 
लौह आवरण तोड़ बाज सम, वामदेव ने कहा गर्भ में।५। 

जन्म रहस्य जान, उठ ऋषि वह, तन मिटने पर स्वर्ग को गया।
सर्व कामनामुक्त आप्त हो, जन्म-मृत्यु से मुक्त हो गया। ६। 

*** 

। अध्याय २

किस आत्मा को हम उपासते, देख सुनें सूँघें चख बोलें। 
जिससे वह या जिसने इनको, प्रगटाया है पुरुष देह में।१। 

हृद ही मन; संज्ञान ले सके, दे आज्ञा; विज्ञान है यही। 
प्रज्ञा; मेधा; दृष्टि; धैर्य; मति, मनन शक्ति; गति-स्मृति भी यह। 
संकल्प; मनोरथ; प्राण शक्ति, कामादि उसी के सत्ता-बोधक।
इनसे हो प्रतीति उस प्रभु की, जिसने इनको रचा-बनाया।२।

ब्रह्मा इंद्र प्रजापति सब सुर, धरा गगन नभ सलिल तेज भी। 
पंच भूत; लघु प्राणी; अंडज, जेरज; स्वेदज; उद्भिज; घोड़े। 
गौ; गज; मनुज; परिंदे;; जंगम, अचल जीव सब उससे पाते। 
प्रज्ञा-प्रज्ञानेत्र; ज्ञान भी, वह प्रज्ञानी पराम् ब्रह्म है।३। 

जो जाने  उठ धरा लोक से, स्वर्गलोक में ब्रह्म के सहित। 
सब भोगों को भोग अमर हो, जन्म-मृत्यु से मुक्त हुआ वह।४। 
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शांति पाठ  
वाणी मन में; मन वाणी में, वास करें प्रभु! वे अभिन्न हो। 
हो प्रकाश -रूप प्रगटो प्रभु!, वेद-ज्ञान मन-वाणी ला दो।।
सुना ज्ञान जो; मुझे न भूले, निष्-दिन चिंतन-पठन कर सकूँ-
सत्य-श्रेष्ठ-शुभ ही बोलूँ मैं, रक्षा करिए मेरी; गुरु की
मुझको-गुरुको प्रभु! बचाइए, विघ्न अध्ययन में न तनिक हो। 
। ॐ शांति: शांति: शांति: 
***

 
     
 
 




 


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