सॉनेट
कठपुतली
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कठपुतली हैं हम सब प्यारे!
नटवर तू नित हमें नचाता।
तू नटराज न नृत्य दिखाता।।
नाच नचा जग को मुस्का रे!!
छलिया! छिपा हुआ अंतर में।
थके खोज वह नजर न आता।
निर्बल का संबल बन जाता।।
महल मिला माटी-कंकर में।।
कठपुतली क्या पाए-खोए?
सपने अनगिन नयन सँजोए।
नाहक लड़-मर, नयन भिगोए।।
दर्शक झूम बजाए ताली।
रुचे न खेला, झट दे गाली।
कठपुतली खाली की खाली।।
१३-३-२०२२
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सॉनेट
श्रद्धानन्द
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'श्रद्धा' रहे सत्य में जिसकी।
वह 'आनंद' अनंतिम पाता।
पाखंडों से हँस टकराता।।
मृत्यु वीर जैसी हो उसकी।।
'दया' और 'आनंद' राह गह।
'सरस वती' जीवन-सुंदरता।
'शिवा' आ मिलीं लेकर शिवता।।
शिक्षा-शुद्धि-जागरण शुभ तह।।
गुरुकुल में पनपाई समता।
दीन-निबल प्रति मन में ममता।
आर्य धर्म से पा-दी क्षमता।।
किया आत्म बलिदान विहँसकर।
थे विषपायी, हैं अजरामर।
धन्य हुए हम उन्हें सुमिरकर।।
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स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती
स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती (२२ फरवरी, १८५६ - २३ दिसम्बर, १९२६) भारत के शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी थे। उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं का प्रसार किया। वे भारत के उन महान राष्ट्रभक्त सन्यासियों में अग्रणी थे जिन्होंने अपना जीवन स्वाधीनता, स्वराज्य, शिक्षा तथा वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था। उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय आदि शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की और हिन्दू समाज व भारत को संगठित करने तथा १९२० के दशक में शुद्धि आन्दोलन चलाने में महती भूमिका अदा की। डॉ भीमराव आम्बेडकर ने सन १९२२ में कहा था कि श्रद्धानन्द अछूतों के "महानतम और सबसे सच्चे हितैषी" हैं।
स्वामी श्रद्धानन्द (मुंशीराम विज) का जन्म २२ फरवरी सन् १८५६ (फाल्गुन कृष्ण त्र्योदशी, विक्रम संवत् १९१३) को पंजाब प्रान्त के जालन्धर जिले के तलवान (तलवण) ग्राम में एक कायस्थ (खत्री) परिवार परिवार में हुआ था। आपके दादा सुखानंद जी राजा रणजीत सिंह के निकट थे। उन्होंने रणजीत सिंह से प्राप्त धन से शिवमंदिर बजवाया। गृह-नक्षत्र के आधार पर पंडित ने उनमें असाधारण मेधा होने की भविष्यवाणी कर 'बृहस्पति' नाम दिया। उस समय हर दफ्तर में 'मुंशी' होते थे जो जन सामान्य और प्रशासनिक उच्चाधिकारियों के बीच की कड़ी होते थे। उनके होशियार होने की भविष्यवाणी सुन बच्चे को घर में लाड़ से 'मुंशीराम' कहा जाने लगा। उनके पिता श्री नानकचन्द विज ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में कोतवाल (पुलिस अधिकारी) थे।
पिता का स्थानान्तरण अलग-अलग स्थानों पर होने के कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा अच्छी प्रकार नहीं हो सकी। लाहौर और जालंधर उनके मुख्य कार्यस्थल रहे। संवत १९३६ वि. में स्वामी दयानन्द सरस्वती का बरेली आगमन हुआ। पिता को तो शान्ति-व्यवस्था बनाए रखने के नाते स्वामी जी के व्याख्यान सुनने थे। उन्होंने आग्रह पूर्व मुंशीराम को स्वामी के सत्संग में सम्मिलित होने की प्रेरणा दी। न चाहते हुए भी मुंशीराम ने स्वामी दयानन्द जी का प्रवचन सुना। आदित्यमूर्ति दयानन्द के महान व्यक्तित्व के दर्शन कर तथा सभा में पादरी स्काट एवं अन्य यूरोपियनो को बैठा देखकर इनके मन में श्रद्धा का उत्स प्रस्फुटित हो उठा।
एक दिन उनके किशोर हृदय को ऐसी ठेस लगी कि इनकी समस्त रुढ़िवादी धार्मिक कट्टरता, तिरोहित हो गयी। हुआ यह कि काशी के विश्वनाथ के दर्शनार्थ गये तो उन्हें बाहर ही रोक दिया गया क्योंकि मन्दिर में रींवा की महारानी दर्शन कर रही थी। भगवान के दरबार में भी ऊँच-नीच देखकर उन्हें मूर्ति-पूजा से विरक्ति हो गयी। ऐसी ही कुछ अन्य घटनाओं के कारण मुंशीराम के मन में उथल-पुथल मच गयी।
मुंशीराम में स्वाध्याय की प्रवृत्ति ने बचपन से ही थी। उन्होंने ब्रह्मसमाज का साहित्य भी पढ़ा। पुस्तकें पढ़ते तो मन में अनेक प्रश्न उठते जिनका सम्यक समाधान न मिलता।उन्होंने उत्तरों की तलाश में विद्वज्जनों से भेंट की, ब्रह्म समाज का साहित्य भी पढ़ा। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का दैदीप्यमान मुख मंडल जब-तब उनके सामने आ जाता।
यायावर वृत्ति के मुंशीराम ने संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू का ज्ञान प्राप्त किया। युवावस्था तक मुंशीराम विज ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। मुंशीराम को चलचित्र देखने का शौक हो गया। फ़िल्मी तारिका की तरह जीवन संगिनी की कल्पना मन में होने लगी। मुंशीराम का विवाह शिवा देवी हे करा दिया गया। शिवा न तो विदुषी थीं, न सुंदरी। मुंशीराम यार-दोस्तों के साथ मांस भक्षण, सुरापान कर कोठों पर जाने लगे। एक रात अत्यधिक सुरापान के कारण वमन करते हुए बेसुध हो गए तो मित्रों ने लाद कर घर पहुँचाया। सुबह नींद खुली तो मुंशीराम ने देखा कि शरीर स्वच्छ है, वस्त्र बदल दिए गए हैं, बगल में भोजन की थाली देख पत्नी से पूछा कि उसने खाना क्यों नहीं खाया? उत्तर मिला 'आपने नहीं खाया तो मैं कैसे खाती? मुंशीराम को आत्मग्लानि हुई।
एक दिन मांसाहार हेतु काटे गए जीवों के अंग और रक्तादि देखा, मन विचलित हुआ। मांसाहार परोसा जाने पर वही दृश्य आँखों के सामने आ गया और मुंशीराम ने थाली उठाकर फेंक दी।
मुंशीराम का दाम्पत्य जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो रहा था। उन्हें दो पुत्र और दो पुत्रियाँ प्राप्त हुईं। वे ३५ वर्ष के थे, तभी शिवा देवी स्वर्ग सिधार गईं। इन्द्र विद्यावाचस्पति उनके ही पुत्र थे।
इन्होंने तीन अवसरों पर स्वामी जी के समक्ष इश्वर के अस्तित्व पर शंका प्रकट की। कालांतर में स्वामी दयानन्द जी के तर्कों और आशीर्वाद ने मुंशीराम विज को दृढ़ ईश्वर विश्वासी तथा वैदिक धर्म का अनन्य भक्त बना दिया। वे एक सफल वकील बने, नाम और प्रसिद्धि अर्जित की। वकालत के साथ आर्य समाज जालंधर के जिला-अध्यक्ष के पद से उनका सार्वजनिक जीवन प्रारम्भ हुआ। वे आर्य समाज में निरंतर सक्रिय रहते थे। महर्षि दयानन्द के महाप्रयाण (३०-१०-१८८३) के बाद उन्होने स्वयं को स्व-देश, स्व-संस्कृति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, स्वदेशी प्रचार, वेदोत्थान, पाखण्ड खण्डन, अन्धविश्वास-उन्मूलन और धर्मोत्थान के कार्यों को आगे बढ़ाने में पूर्णतः समर्पित कर दिया। १३ अप्रैल सन् १९१७ को मुन्शीराम ने सन्यास धारण कर लिया और स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए। आर्यसमाज के सिद्धान्तों का समर्थक होने के कारण उन्होंने इसका बहुत तेजी से प्रचार-प्रसार किया । वे नरम दल के समर्थक होते हुए भी, ब्रिटिश उदारता के समर्थक नहीं थे ।
स्वामी श्रद्धानन्द जी ने गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना, अछूतोद्धार, शुद्धि, सद्धर्म प्रचार, पत्रिका द्वारा धर्म प्रचार, सत्य धर्म के आधार पर साहित्य रचना, वेद पढ़ने व पढ़ाने की व्यवस्था करना, धर्म के पथ पर अडिग रहना, आर्य भाषा के प्रचार तथा उसे जीवीकोपार्जन की भाषा बनाने का सफल प्रयास, आर्य जाति के उन्नति के लिए हर प्रकार से प्रयास करस्वामी श्रद्धानन्द अनन्त काल के लिए अमर हो गए। ‘दलितों को धार्मिक स्थलों में प्रवेश नहीं दिए जाने से वह बहुत आहत थे। मनुष्य का मनुष्य से ऐसा बरताव उन्हें कचोटता था। स्वामीजी ने दलितों के साथ हो रहे छूआछूत का मुखर विरोध किया और हवन यज्ञ में साथ बिठाकर सदियों से चली रही असमानता को खत्म करने का काम किया। उस समय कट्टरवादियों ने उनका विरोध भी किया लेकिन वह सामाजिक असमानता के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे।
सृजन :
(१) स्वामी दयानन्द सम्बन्धित साहित्य- स्वामी जी ने 'पूना प्रवचन' अर्थात् 'उपदेश मञ्जरी' का मराठी से अनुवाद करवाकर उर्दू में प्रकाशित किया था। स्वामी दयानन्द के पत्र-व्यवहार को १९१० में सर्वप्रथम प्रकाशित किया था। ‘आदिम सत्यार्थ प्रकाश’ और ‘आर्यसमाज के सिद्धान्त’ को सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण की समीक्षा के अंतर्गत प्रकाशित किया था। इसके अलावा स्वामी दयानन्द की संक्षिप्त जीवनी ‘युग-विधाता तत्त्ववेता दयानन्द’, ‘शास्त्रार्थ बरेली’ के लेखन में सहयोग, उर्दू ‘ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका’ की भूमिका, पं. लेखराम लिखित एवं मास्टर आत्माराम अमृतसरी लिखित ‘महर्षि दयानन्द जीवन चरित’ की भूमिका का लेखन किया।
(२) पण्डित लेखराम संबंधित साहित्य- स्वामी जी ने पं. लेखराम के बलिदान के पश्चात् उनका जीवन चरित ‘आर्य पथिक लेखराम का जीवन वृत्तांत’ के नाम से लिखा। उनके लेखों का संग्रह उर्दू में ‘कुल्यात आर्य मुसाफिर’ के नाम से प्रकाशित करवाया।
(३) आर्यसिद्धान्त सम्बन्धी साहित्य- स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा वैदिक सिद्धांतों से सम्बंधित अनेक छोटे-बड़े ट्रैक्ट्स और पुस्तकें लिखी गई थीं, जैसे आर्य संगीतमाला, वर्ण व्यवस्था, पुराणों की नापाक तालीम से बचो, क्षात्र धर्म पालन का गैर-मामूली मौका, वेदानुकूल संक्षिप्त मनुस्मृति, पारसी मत और वैदिक धर्म, वेद और आर्यसमाज, पंच महायज्ञों की विधि, विस्तारपूर्वक संध्या विधि, आर्यों की नित्यकर्म विधि, मानव धर्म शास्त्र तथा शासन पद्धति, यज्ञ का पहला अंग, मुक्ति-सोपान, ‘सुबहे उम्मीद’ उर्दू (इसका हिंदी अनुवाद ‘आशा की उषा’ के नाम से प्राध्यापक राजेन्द्र जिज्ञासु द्वारा किया गया था।) इस पुस्तक में स्वामीजी ने मैक्समूलर के वेद मन्त्रों की व्याख्या की स्वामी दयानन्द के वेद भाष्य से तुलना कर महर्षि के भाष्य को श्रेष्ठ सिद्ध किया था। द फ्यूचर ऑफ आर्यसमाज - ए फोरकास्ट (अंग्रेजी) में आर्यसमाज के भविष्य की योजनाओं पर दिये गये विचार हैं।
(४) संपादन : स्वामी जी द्वारा उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी में पत्र-पत्रिकाएँ निकाली गईं, जिनके नाम हैं- सद्धर्म प्रचारक, श्रद्धा, तेज (उर्दू), लिबरेटर (अंग्रेजी) बहुत लोकप्रिय हुए।
(५) ईसाई-इस्लाम मत सम्बंधित : ईसाई पक्षपात और आर्यसमाज, खतरे का घंटा अर्थात मुहम्मदी षडयंत्र का रहस्यभेद, हिन्दू संगठन, हिन्दू मुस्लिम इत्तहाद की कहानी, मेरा आखिरी मश्वरा, हिन्दुओं सावधान, तुम्हारे धर्म-दुर्ग पर रात्रि में छिपकर धावा बोला गया, अंधा इतिकाद और खुफिया जिहाद, ‘द हिस्ट्री ऑफ असैसिन्स’ (अंग्रेजी में इस्लाम के इतिहास से सम्बंधित पुस्तक) का अनुवाद स्वामी जी द्वारा प्रकाशित किया गया था।
(६) समाज सुधार सम्बन्धी साहित्य : ‘आचार, अनाचार और छूतछात’, उत्तराखण्ड की महिमा, जाति के दीनों को मत त्यागो, वर्तमान मुख्य समस्या-अछूतपन के कलंक को दूर करो, गढ़वाल में १९७५ (सं0) का दुर्भिक्ष और उसके निवारणार्थ गुरुकुल-दल का कार्य। वर्तमान मुख्य समस्या अछूतपन के कलंक को दूर करो।
(७) आन्दोलन सम्बन्धी साहित्य : बन्दीघर के विचित्र अनुभव (गुरु का बाग मोर्चे में जेल के अनुभव), आर्यसमाज एंड इट्स डेट्रक्टर्स: अ विंडीकेशन ( पटियाला अभियोग सम्बंद्दी) एक मांस प्रचारक महापुरुष की गुप्त लीला का प्रकाश, आर्यसमाज के खानाजाद दुश्मन, सद्धर्म प्रचारक का पहला लायबल केस।
(८) आप-बीती : दुःखी दिल की पुरदर्द दास्ताँ।
(९) स्वामी जी द्वारा सद्धर्म प्रचारक में प्रकाशित वेद मन्त्रों की व्याख्या को लब्भु राम नैय्यड़ ने संकलित कर धर्मोपदेश के नाम से प्रकाशित किया था।
(१०) ‘इनसाइड द कांग्रेस’ उनके राजनीतिक जीवन से सम्बंधित महत्त्वपूर्ण लेखों का संग्रह है, जो लिबरेटर अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित हुए थे, जिन्हें देशबंधु गुप्ता ने संकलित कर प्रकाशित किया था।
(११) गुरुकुल कांगड़ी से स्वामी श्रद्धानन्द सम्बंधित साहित्य को डाॅ. विष्णुदत्त राकेश एवं डाॅ. जगदीश विद्यालंकार द्वारा संकलित कर प्रकाशित किया गया है। जैसे ‘श्रुति विचार सप्तक’ (वैदिक चिंतन तथा भारतीय साहित्य से सम्बंधित सात विनिबंध हैं।) महात्मा गाँधी और गुरुकुल (स्वामी श्रद्धानन्द, गुरुकुल कांगड़ी और महात्मा गाँधी के संबंधों का वर्णन है। स्वामी श्रद्धानन्द की सम्पादकीय टिप्पणियाँ (स्वामी जी द्वारा सद्धर्म प्रचारक और श्रद्धा में लिखे गए सम्पादकीयों का संग्रह है।) दीक्षालोक (गुरुकुल कांगड़ी में प्रदत्त दीक्षांत भाषणों एवं सारस्वत व्याख्यानों का संग्रह है।) कुलपुत्र सुनें (समय समय पर गुरुकुल कांगड़ी में दिए गए भाषण और प्रकाशित लेखों का संग्रह है।) स्वामी श्रद्धानन्द और उनका पत्रकार कुल (डाॅ.) विष्णुदत्त राकेश द्वारा प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित स्वामी श्रद्धानन्द और गुरुकुल कांगड़ी के पत्रकार स्नातकों के पत्रकार रूप में कार्यों का वर्णन है।
गुरुकुल की स्थापना
जब उन्होंने अपनी ही बेटी को मिशनरी-संचालित स्कूल में पढ़ते हुए ईसाई धर्म के प्रभाव में आते हुए देखा, तो भारतीय आदर्शों में निहित शिक्षा प्रदान करने का मन बनाया और अपने प्रयासों से जालंधर में पहला कन्या महाविद्यालय की स्थापना कर दी। सन् १९०१ में मुंशीराम विज ने अंग्रेजों द्वारा जारी शिक्षा पद्धति के स्थान पर वैदिक धर्म तथा भारतीयता की शिक्षा देने वाले संस्थान "गुरुकुल" की स्थापना की। स्वामीजी गुरुकुल खोलना चाहते थे। गाँव-गाँव जाकर चंदा मांगा लेकिन किसी ने सहयोग नहीं दिया। जालंधर में उनके पुरखों की खूब जमीन जायजाद थी, जिसकी मलकियत स्वामीजी के नाम थी। अपने बेटों से विमर्श के बाद अपनी कोठी और सारी जमीन आर्य समाज को दान दे दी।
महर्षि दयानंद (१८२४-१८८३ ई.) के सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' में प्रतिपादित शिक्षा संबंधी विचारों से श्रद्धानन्द जी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने १८९७ में अपने पत्र 'सद्धर्म प्रचारक' द्वारा गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के पुनरुद्वार का प्रबल आन्दोलन आरम्भ किया। ३० अक्टूबर १८९८ को उन्होंने इसकी विस्तृत योजना रखी। नवंबर, १८९८ ई. में पंजाब के आर्य समाजों के केंद्रीय संगठन आर्य प्रतिनिधि सभा ने गुरुकुल खोलने का प्रस्ताव स्वीकार किया। महात्मा मुंशीराम ने यह प्रतिज्ञा की कि वे इस कार्य के लिए, जब तक ३० हजार रुपया एकत्र नहीं कर लेंगे, तब तक अपने घर में पैर नहीं रखेंगे। तत्कालीन परिस्थितियों में इस दुस्साध्य कार्य को अपने अनवरत उद्योग और निष्ठा से उन्होंने आठ मास में पूरा कर लिया। १६ मई १९०० को पंजाब के गुजराँवाला स्थान पर एक वैदिक पाठशाला के साथ गुरुकुल की स्थापना कर दी गई। श्रद्धानन्द जी को यह स्थान उपयुक्त प्रतीत नहीं हुआ। वे शुक्ल यजुर्वेद के एक मंत्र 'उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनां धिया विप्रो अजायत' (२६.१५) के अनुसार नदी और पर्वत के निकट कोई स्थान चाहते थे। वे हरिद्वार में गंगा किनारे गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना करना चाहते थे। इसी समय बिजनौर के रईस मुंशी अमनसिंह जी ने इस कार्य के लिए महात्मा मुंशीराम जी को १२०० बीघे का अपना कांगड़ी ग्राम और ११ हजार रुपये दान दिया। हिमालय की उपत्यका में गंगा के तट पर सघन रमणीक वनों से घिरी कांगड़ी की भूमि गुरुकुल के लिए आदर्श थी। अत: यहाँ घने जंगल साफ कर कुछ छप्पर बनाए गए। होली के दिन सोमवार, चार मार्च १९०२ को गुरुकुल गुजराँवाला से कांगड़ी लाया गया। गुरुकुल का आरम्भ ३४ विद्यार्थियों के साथ कुछ फूंस की झोपड़ियों में किया गया। पंजाब की आर्य जनता के उदार दान और सहयोग से इसका विकास तेजी से होने लगा। १९०७ में महाविद्यालय विभाग आरंभ हुआ। १९१२ में गुरुकुल कांगड़ी से शिक्षा समाप्त कर निकलने वाले स्नातकों का पहला दीक्षान्त समारोह हुआ। सन १९१६ में गुरुकुल काँगड़ी फार्मेसी की स्थापना हुई। १९२१ में आर्य प्रतिनिधि सभा ने इसका विस्तार करने के लिए वेद, आयुर्वेद, कृषि और साधारण (आर्ट्स) महाविद्यालय बनाने का निश्चय किया। १९२३ में महाविद्यालय की शिक्षा और परीक्षा विषयक व्यवस्था के लिए एक शिक्षापटल बनाया गया। कांगड़ी के सरपंच ने अपनी सारी जमीन स्वामी जी को दान कर दी। आज उसी जगह विश्व का सबसे बड़ा गुरुकुल स्थापित है। इस समय यह मानद विश्वविद्यालय है जिसका नाम गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय है। २४ सितंबर १९२४ को गुरुकुल पर भीषण दैवी विपत्ति आई। गंगा की असाधारण बाढ़ ने गंगातट पर बनी इमारतों को भयंकर क्षति पहुँचाई। भविष्य में बाढ़ के प्रकोप से सुरक्षा के लिए एक मई १९३० को गुरुकुल गंगा के पूर्वी तट से हटाकर पश्चिमी तट पर गंगा की नहर पर हरिद्वार के समीप वर्तमान स्थान में लाया गया।
गाँधी जी जी उन दिनों अफ्रीका में संघर्षरत थे। श्रद्धानन्द जी ने गुरुकुल के छात्रों के श्रमदान कराकर १५०० रुपए एकत्रित कर गाँधी जी को भेजे। गाँधी जी जब अफ्रीका से भारत लौटे तो वे गुरुकुल पहुँचे तथा श्रद्धानन्द जी तथा राष्ट्रभक्त छात्रों के समक्ष नतमस्तक हो उठे। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने ही सबसे पहले गांधी जी को 'महात्मा' की उपाधि से विभूषित किया और भविष्यवाणी कर दी थी कि वे आगे चलकर बहुत महान बनेंगे।
पत्रकारिता एवं हिन्दी-सेवा
श्रद्धानन्द जीने पत्रकारिता में भी कदम रखा। वे उर्दू और हिन्दी भाषाओं में धार्मिक व सामाजिक विषयों पर लिखते थे किन्तु बाद में स्वामी दयानन्द सरस्वती का अनुसरण करते हुए देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी को प्राथमिकता दी। उनका पत्र सद्धर्म प्रचारक पहले उर्दू में प्रकाशित होता था और बहुत लोकप्रिय हो गया था, किन्तु बाद में उनने इसको उर्दू के बजाय देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी में निकालना आरम्भ किया। इससे श्रद्धानन्द जी को आर्थिक नुकसान भी हुआ। उन्होने दो पत्र भी प्रकाशित किये, हिन्दी में अर्जुन तथा उर्दू में तेज। जलियांवाला काण्ड के बाद अमृतसर में कांग्रेस का ३४वां अधिवेशन( दिस्म्बर १९१९) हुआ। स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में अपना भाषण हिन्दी में दिया और हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किए जाने का मार्ग प्रशस्त किया।
स्वतन्त्रता आन्दोलन
उन्होने स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। गरीबों और दीन-दुखियों के उद्धार के लिये काम किया। स्त्री-शिक्षा का प्रचार किया। सन् १९१९ में स्वामी जी ने दिल्ली में जामा मस्जिद क्षेत्र में आयोजित एक विशाल सभा में भारत की स्वाधीनता के लिए प्रत्येक नागरिक को पांथिक मतभेद भुलाकर एकजुट होने का आह्वान किया था।
शुद्धि आंदोलन
स्वामी श्रद्धानन्द ने जब कांग्रेस के कुछ प्रमुख नेताओं को "मुस्लिम तुष्टीकरण की घातक नीति" अपनाते देखा तो उन्हें लगा कि यह नीति आगे चलकर राष्ट्र के लिए विघटनकारी सिद्ध होगी। इसके बाद कांग्रेस से उनका मोहभंग हो गया। दूसरी ओर कट्टरपंथी मुस्लिम तथा ईसाई हिन्दुओं का मतान्तरण कराने में लगे हुए थे। स्वामी जी ने असंख्य व्यक्तियों को आर्य समाज के माध्यम से पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित कराया। उनने गैर-हिन्दुओं को पुनः अपने मूल धर्म में लाने के लिये शुद्धि नामक आन्दोलन चलाया और बहुत से लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित किया। स्वामी श्रद्धानन्द पक्के आर्यसमाजी थे, किन्तु सनातन धर्म के प्रति दृढ़ आस्थावान पंडित मदनमोहन मालवीय तथा पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ को गुरुकुल में आमंत्रित कर छात्रों के बीच उनका प्रवचन कराया था। स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वेच्छा एवं सहमति के पश्चात पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मलकान राजपूतों को शुद्धि कार्यक्रम के माध्यम से हिन्दू धर्म में वापसी कराई। शासन की तरफ से कोई रोक नहीं लगाई गई थी जबकि ब्रिटिश काल था।
राजनैतिक व सामाजिक जीवन:
उनका राजनैतिक जीवन रोलेट एक्ट का विरोध करते हुए एक स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में प्रारम्भ हुआ । अच्छी-खासी वकालत की कमाई छोड़कर स्वामीजी ने ”दैनिक विजय” नामक समाचार-पत्र में ”छाती पर पिस्तौल” नामक क्रान्तिकारी लेख लिखे । स्वामीजी महात्मा गाँधी के सत्याग्रह से प्रभावित थे । जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड तथा रोलेट एक्ट का विरोध वे हिंसा से करने में कोई बुराई नहीं समझते थे। वे इतने निर्भीक थे कि जनसभा करते समय अंग्रेजी फौज व अधिकारियों को वे ऐसा साहसपूर्ण जवाब देते थे कि अंग्रेज भी उनसे डरा करते थे ।
स्वतंत्रता के लिए चल रहे आन्दोलन और सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेने के साथ स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कथित अछूत माने जाने वाले समाज के मुद्दों को उठाते हुए १९१९ में अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष के रूप में अपने संबोधन में कहा था कि “सामाजिक भेदभाव के कारण आज हमारे करोड़ भाइयों के दिल टूटे हुए हैं, जातिवाद के कारण इन्हें काट कर फेंक दिया हैं, भारत माँ के ये लाखों बच्चे विदेशी सरकार के जहाज का लंगर बन सकते है, लेकिन हमारे भाई नहीं क्यों? मैं आप सभी भाइयों और बहनों से यह अपील करता हूँ कि इस राष्ट्रीय मंदिर में मातृभूमि के प्रेम के पानी के साथ अपने दिलों को शुद्ध करें, और वादा करें कि ये लाखों करोड़ों अब हमारे लिए अछूत नहीं रहेंगे, बल्कि भाई-बहन बनेंगे, अब उनके बेटे और बेटियाँ हमारे स्कूलों में पढ़ेंगे, उनके पुरुष और महिलाएँ हमारे समाजों में भाग लेंगे, आजादी की हमारी लड़ाई में वे हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होंगे और हम सभी अपने राष्ट्र की पूर्णता का एहसास करने के लिए हाथ मिलाएँगे।”
अछूतों की मदद करने और कई मुद्दों पर गाँधी जी असहमति होने के पश्चात स्वामी श्रद्धानंद ने कांग्रेस की उप-समिति से इस्तीफा दे दिया। हिंदू महासभा में शामिल होकर अछूत और दलित माने जाने वाली जातियों के कल्याण के लिए शुद्धि का कार्य शुरू किया। शुद्धि-आन्दोलन के द्वारा सोया हुआ भारत जागने लगा! कहते हैं जिस देश का नौजवान खड़ा हो जाता है वह देश दौड़ने लगता है! सच ही स्वामी जी ने हजारों देशभक्त नौजवानों को खड़ा कर दिया था। स्वामी श्रद्धानंद ने वर्ष १९२२ में दिल्ली की जामा मस्जिद में भाषण दिया था। उन्होंने पहले वेद मंत्र पढ़े और एक प्रेरणादायक भाषण दिया। मस्जिद में वेद मंत्रों का उच्चारण करने वाले भाषण देने वाले स्वामी श्रद्धानंद एकमात्र व्यक्ति थे। दुनिया के इतिहास में यह एक असाधारण क्षण था। स्वामी जी ने १९२२ में गुरु का बाग सत्याग्रह के समय अमृतसर में एक प्रभावशाली भाषण दिया । हिन्दू महासभा उनके विचारों को सुनकर उन्हें प्रभावशाली पद देना चाहती थी, किन्तु उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया ।
स्वामी श्रद्धानंद जी ने बलात् हिन्दू से मुसलमान बने लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में शामिल कर आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के द्वारा शुरू की परंपरा को पुनर्जीवित किया और समाज में यह विश्वास पैदा किया कि जो किसी भी कारण अपने धर्म से पतित हुए हुए हैं वे सभी वापस अपने हिन्दू धर्म में आ सकते हैं। फलस्वरूप देश में हिन्दू धर्म में वापसी के वातावरण बनने से लहर सी आ गयी। सिद्धान्तों पर आधारित सांस्कृतिक धरातल पर उन्हें कोई पराजित नहीं कर सका। स्वामी जी ने राजस्थान के मलकाना क्षेत्र के हिन्दू से मुसलमान बनाए गए हजारों राजपूतों की सनातन धर्म में वापसी कराई। इससे शंकित मुस्लिम संप्रदायवादियों ने गुप्त बैठकें कर स्वामी जी के विरुद्ध षड्यंत्र रचना आरंभ कर दिया।
शहादत
२३ दिसम्बर १९२६ को नया बाजार, चाँदनी चौक दिल्ली स्थित उनके निवास स्थान पर अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी धर्म-चर्चा के बहाने उनके कक्ष में प्रवेश कर, लोई में छिपाकर लाई पिस्तौल से गोली मारकर इस महान विभूति की हत्या कर दी। उसे बाद में फांसी की सजा हुई। उनकी हत्या के दो दिन बाद अर्थात २५ दिसम्बर, १९२६ को गुवाहाटी में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में जारी शोक प्रस्ताव में मुसलमानों की शंका के शमनार्थ गाँधी जी ने कहा - “मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा और मैं इसे दोहराता हूँ। मैं यहाँ तक कि उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ। वास्तव में दोषी वे लोग (मुस्लिम कट्टरपंथी) हैं जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा की भावना को पैदा किया। इसलिए यह अवसर दुख प्रकट करने या आँसू बहाने का नहीं है।'' गाँधी जी ने अपने भाषण में यह भी कहा- ”… मैं इसलिए स्वामी जी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता। हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए। मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूँ।'' उन्होंने आगे कहा कि “समाज सुधारक को तो ऐसी कीमत चुकानी ही पढ़ती है। स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं है …ये हम पढ़े, अध-पढ़े लोग हैं जिन्होंने अब्दुल रशीद को उन्मादी बनाया। स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि उनका खून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा।'' (यंग इण्डिया, १९२६)।
गाँधी जी ने अब्दुल रशीद जैसे युवा को भड़कानेवाले मुस्लिम कट्टरपंथियों को श्रद्धानन्द जी की हत्या का वास्तविक गुनहगार कहा था, अब्दुल रशीद को नहीं। सनातन धर्म में अकाल मृत्यु को शोचनीय मृत्यु कहा गया है। स्वामी जी जैसे दिव्य व्यक्ति अपनी लीला संवरण किसी न किसी बहाने से करते हैं। श्रीकृष्ण पर तीर चलनेवाले बहेलिए को उनका हत्यारा न कहे जीने की पृष्ठभूमि यही है। इस कारण गाँधी जी ने कहा ''मैं स्वामीजी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता हूँ।'' गांधी जी ने यह भी कहा कि समाज सुधारक को तो ऐसी कीमत चुकानी ही पड़ती है। कालांतर में स्वयं गाँधी जी को भी यह कीमत चुकानी पड़ी जब वैचारिक मत वैभिन्न्य रखनेवाले अन्य सम्प्रदाय के कट्टर पंथियों के वैचारिक प्रभाव में आए युवक ने गाँधी जी पर गोली दागकर उन्हें भूलोक से बिदा कर दिया।
श्रद्धानन्द जी और गाँधी जी दोनों ने बचपन और कैशोर्य में सामान्य जनों की तरह ऐसे कई कार्य किये जो उचित नहीं कहे जा सकते किन्तु बुद्धि का विकास होने पर दोनों ने आत्मावलोकन और आत्मालोचन कर आत्मोन्नयन के पथ पर पग रखा और देश तथा मानव मात्र की महती सेवा कर वीरोचित मृत्यु पाई। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने गांधी जी को सदा आशीर्वाद और समर्थन दिया। गांधी जी ने कहा- स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि उनका खून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा।'' गाँधी जी ने भी मत वैभिन्नता के बावजूद श्रद्धानन्द जी ऐसा हुतात्मा स्वीकार किया जिसका रक्त शेष जनों के दोष धोने की पात्रता रखता है। स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही हो सकती है कि हर भारतीय स्वदेशी शिक्षा पद्धति में अपने बच्चों को शिक्षित कराए और पश्चिमी संस्कृति से प्रभावी निजी अंग्रेजी विद्यालयों का बहिष्कार कर, सरकारों को सभी सरकारी विद्यालयों एक गुरूकुलीकरण करने की प्रेरणा दे।
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स्वामी विरजानन्द(1778-1868), एक संस्कृत विद्वान, वैदिक गुरु और आर्य समाज संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती के गुरु थे। इनको मथुरा के अंधे गुरु के नाम से भी जाना जाता था।
इनका जन्म मोह्याल दत्त परिवार में पंजाब के करतारपुर में 1778 इस्वी में हुआ। इनका बचपन का नाम - वृज लाल था। पाँच साल की उम्र में चेचक के कारण ये पूर्ण अंधे हो गए। 12वें साल में माँ-बाप चल बसे और भाई-भाभी के संरक्षण में कुछ दिन गुजारने के बाद ये घर से विद्याध्ययन के लिए निकल पड़े। कुछ काल तक इधर भटकने के उपरांत ये आध्यात्मिक नगरी के रूप में विख्यात ऋषिकेश आए और कुछ काल ऋषिकेश में रहने के बाद किसी की प्रेरणा से ये हरिद्वार किसी आश्रम में रहने लगे। वहाँ ये स्वामी पूर्णानन्द से मिले। पूर्णानन्द ने इन्हें वैदिक व्याकरण और आर्ष शास्त्रों से अवगत कराया। इसके बाद वे संस्कृत विद्वानों के लिए प्रसिद्ध काशी (बनारस) आए जहाँ 10 सालों तक उन्होंने 6 दर्शनों (वेदान्त, मीमांसा, न्यायादि)तथा आयुर्वेदादि ग्रंथों का अध्ययन किया। इसके बाद गया आए जहाँ उपनिषदों के तुलनात्मक अध्ययन का काम जारी रखा। यहाँ से वे कलकत्ता गए जहाँ अपने संस्कृत ज्ञान के लिए उन्हे प्रशंसा मिली। इसके बाद ये निमंत्रण पर अलवर आए और यहाँ उन्होंने शब्द-बोध ग्रंथ की रचना की। इसकी मूल प्रति अब भी वहाँ के संग्रहालय में रखी है। इसके बाद वे मथुरा में रहे जहाँ उन्होंने पाठशाला स्थापित की। इसमें देश भर से संस्कृत जिज्ञासु आए और राजपूतों की तरफ से दान भी मिले।
लगभग इसी समय स्वामी दयानन्द सरस्वती जी सत्य को जानने की अभिलाषा से घर परिवार त्यागकर सच्चे गुरू की खोज में निकल पड़े थे। भारत के अनेक स्थानों का भ्रमण करते हुए वे सन् १८६० में गुरूवर स्वामी विरजानन्द के आश्रम में पहुंचे। जहां उन्हें नई दृष्टि, सद्प्रेरणा और आत्मबल मिला। वर्षों तक भ्रमण करने के बाद जब वे भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली मथुरा में गुरू विरजानन्द जी की कुटिया पर पहुंचे तो गुरू विरजानन्द ने उनसे पूछा कि वे कौन हैं। तब स्वामी दयानन्द ने कहा, गुरूवर यही तो जानना चाहता हूं कि वास्तव में, मैं कौन हूं? प्रश्न के उत्तर से संतुष्ट होकर गुरूवर ने दयानन्द को अपना शिष्य बनाया।
आदर्श मनुष्य का निर्माण आदर्श माता, पिता और आचार्य करते हैं। ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि वह सन्तान भाग्यशाली होती है जिसके माता, पिता और आचार्य धार्मिक होते हैं। धार्मिक होने का अर्थ है कि जिन्हें वेद व वेद परम्पराओं का ज्ञान होता है। ऋषि दयानन्द भाग्यशाली थे कि उन्हें धार्मिक माता-पिता मिले। उनके जन्म व उसके बाद माता-पिता ने उन्हें धार्मिक संस्कार दिये। पिता कर्षनजी तिवारी पौराणिक ब्राह्मण थे अतः वह उन्हें पौराणिक कृत्य मूर्तिपूजा आदि करने के लिए प्रेरित करते थे। स्वामी दयानन्द जी की आयु का चौहहवां वर्ष था। शिवरात्रि के पर्व पर पिता ने अपने पुत्र को शिव जी की पौराणिक कथा सुनाई और उन्हें शिवरात्रि का व्रत रखने के लिए प्रेरित किया। कथा के प्रभाव से बालक मूलशंकर वा स्वामी दयानन्द व्रत उपवास रखने को सहमत हो गये। उन्होंने व्रत रखा परन्तु रात्रि को शिव मन्दिर में जागरण करते हुए मन्दिर में बिलों से कुछ चूहे बाहर निकले और शिव की पिण्डी के निकट आकर उस पर भक्तों द्वारा चढ़ाये गये अन्न आदि पदार्थो को खाने लगे। यह देखकर स्वामी दयानन्द का बाल मन आहत हुआ। उन्हें विचार आया कि शिव तो सर्व शक्तिमान हैं। वह ऐसा क्यों हो दे रहे हैं। वह अपने ऊपर से उन चूहों को भगा क्यों नहीं रहे हैं। मनुष्य के शरीर पर मक्खी या मच्छर भी बैठे तो वह उसे उड़ाकर भगा देता है। शिव तो मनुष्यों से कहीं अधिक शक्तिशाली हैं फिर वह असमर्थता का परिचय क्यों दे रहे हैं। वास्तविकता यह है कि मनुष्य में जो थोड़ी बहुत शक्ति है वह भी परमात्मारूपी शिव की ही दी हुई होती है। इस घटना से मूर्तिपूजा पर उनका विश्वास जाता रहा। पिता व मन्दिर के पुजारी कोई उनकी शंका व जिज्ञासा को दूर न कर सका। इसके बाद घर पर बहिन व चाचा की मृत्यु से उनको वैराग्य हो गया। माता-पिता को जब इन बातों का ज्ञान हुआ तो वह उनका विवाह करने लगे। स्वामी दयानन्द की विचार शक्ति असाधारण थी। वह बन्धनों में बन्धना नहीं चाहते थे। यदि वह बन्धनों में फसते तो वह ईश्वर साक्षात्कार और मोक्ष के साधनों का पालन न कर पाते। अतः सच्चे शिव की खोज व ज्ञान प्राप्ति जिससे जन्म मरण के बन्धन कटते हैं व मोक्ष प्राप्त होता है, उस अमृतत्व की खोज व प्राप्ति के लिए वह अपने जीवन के बाईसवें वर्ष में अपने माता-पिता व भाई बन्धुओं को छोड़ कर चले गये थे।
स्वामी विरजानन्द उच्च कोटि के विद्वान थे, उन्होंने वेद मंत्रों को नई दृष्टि से देखा था और वेदों को एक नवीन व्यवस्था प्रदान की थी। उन्होंने दयानन्द जी को वेद शास्त्रों का अभ्यास कराया।
अध्ययन पूरा होने के बाद जब दयानन्द जी गुरू विरजानन्द जी को गुरू दक्षिणा के रूप में थोडी से लौंग, जो गुरू जी को बहुत पसन्द थी लेकर गये तो गुरू जी ने ऐसी दक्षिणा लेने से मना कर दिया। उन्होंने दयानन्द से कहा कि गुरू दक्षिणा के रूप में, मैं यह चाहता हूं कि समाज में फैले अन्ध विश्वास और कुरीतियों को समाप्त करो। गुरू जी के आदेश के अनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक उत्थान में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
इनका स्मृति में करतारपुर के ग्रैंड ट्रंक रोड पर एक स्मारक बनवाया गया जिसकी आधारशिला श्री बद्रीनाथ आर्य ने रखी (उन्होंने बाद में आर्य समाज नैरोबी की स्थापना भी की)। 14 सितम्बर 1971 को डाक विभाग ने इनकी स्मृति में एक टिकट भी जारी किया।
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