माण्डूक्योपनिषद (हिंदी काव्यानुवाद)
ॐ शुभ वचन कान सुनें नित, देव! शुभ लखें ईश-यजन कर।
पुष्ट अंगों एवं शरीर से, दीर्घ आयु हों; देव-हितों हित।।
यशी इंद्र कल्याण करें प्रभु!, ज्ञानवान पूषा शुभ करिए।
मंगल करें गरुड़ न अशुभ हो, मम कल्याण बृहस्पति करिए।।
।। ॐ शांति: शांति: शांति: ।।
ॐ नाम है परमेश्वर का, है सारा व्याख्यान उसी का।
कल-अब-कल सब ओंकार है, शेष सभी कुछ भी परमेश्वर।१।
यह सब का सब है ब्रह्मात्मा, वह आत्मा है चार चरणमय।२।
बाह्य जगत यह है जिसका तन, सात अंग; उन्निस मुख जिसके।
स्थूल भोक्ता जग का है जो, वैश्वानर का प्रथम चरण है।३।
महत् आत्मा चार चरणमय, है जागृति ही प्रथम अवस्था।
ईश; जीव; गुण तीन; तेज अरु, कर्मों का फल सात अंग हैं।
सतरंगा उन्नीस मुखी जो, वैश्वानर है; इनको खाए।।
अंत:प्रज्ञा 'वास स्वप्नवत, सप्तांगी उन्नीस मुखी जो।
सूक्ष्म जगत् का भोक्ता तेजस, परम ब्रह्म का चरण दूसरा।४।
शयनित करे न भोग-कामना, स्वप्न न देखे; वह सुषुप्ति तन।
एकरूप जो प्रज्ञानंदी, मुख प्रकाशमय चरण तीसरा।५।
सर्वेश्वर सर्वज्ञ मन-बसा, जीवन-जन्म-मरण का कारण। ६।
अंत:-बाह्य; न दोनों प्रज्ञा, नहिं प्रज्ञानि या अज्ञानी।
नहिं अदृष्ट; लक्षण-चिंतन बिन, सार आत्मसत्ता है जिसकी।।
है प्रपंच बिन; शांत परम शुभ, अद्वितीय पद चौथा जिसका।
योग्य जानने के वह आत्मा, सभी ब्रह्मज्ञानी यह मानें।७।
वह यह आत्मा अध्यक्षर है, है ओंकार वही अधिमात्री।
'अ' 'उ' 'म' मात्राएँ तीनों, तीन चरण हैं उसी ब्रह्म के। ८।
प्रथम 'अकार' व्याप्त सब जग में, वैश्वानर का प्रथम चरण है।
जो जाने यह; भोग भोगकर, सबका मुखिया हो जाता है।९।
दूजी 'उ' उत्कृष्ट उभय भी, तेज स्वप्नवत दूजा पद है।
जाने उन्नत-सम भावी हो, हो न वंश में अज्ञानी फिर।१०।
जाने जग को; हो विलीन जग, जिसमें वही तीसरी मात्रा।
जो जाने ले जान जगत को, करे विलीन सभी को खुद में।११।
बिन मात्रा ओंकार प्रणव ही, अव्यवहारी; बिन प्रपंच के।
अद्वितीय शुभ चौथा पग है, जो जाने हो लीन ब्रह्म में।१२।
ॐ शुभ वचन कान सुनें नित, देव! शुभ लखें ईश-यजन कर।
पुष्ट अंगों एवं शरीर से, दीर्घ आयु हों; देव-हितों हित।।
यशी इंद्र कल्याण करें प्रभु!, ज्ञानवान पूषा शुभ करिए।
मंगल करें गरुड़ न अशुभ हो, मम कल्याण बृहस्पति करिए।।
।। ॐ शांति: शांति: शांति: ।।
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माण्डूक्योपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित, अथर्ववेदीय शाखा के अन्तर्गत है। इसके रचयिता वैदिक काल के ऋषि हैं। इसमें आत्मा या चेतना की चार अवस्थाओं का वर्णन मिलता है - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय।
प्रथम दस उपनिषदों में समाविष्ट केवल बारह मंत्रों का यह उपनिषद् आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है किंतु महत्त्व के विचार से इसका स्थान ऊँचा है, क्योंकि बिना वाग्विस्तार के आध्यात्मिक विद्या का नवनीत सूत्र रूप में इन मंत्रों में भर दिया गया है।
इस उपनिषद् में ऊँ की मात्राओं की विलक्षण व्याख्या करके जीव और विश्व की ब्रह्म से उत्पत्ति और लय एवं तीनों का तादात्म्य अथवा अभेद प्रतिपादित होने के अतिरिक्त 'वैश्वानर' शब्द का विवरण मिलता है जो अन्य ग्रंथों में भी प्रयुक्त है।
इस उपनिषद में कहा गया है कि विश्व में एवं भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालों में तथा इनके परे भी जो नित्य तत्त्व सर्वत्र व्याप्त है वह ॐ है। यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म है।
मांडूक्योपनिषद अथर्ववेद के ब्राह्मण भाग से लिया गया है
शंकराचार्य जी ने इस पर भाष्य लिखा है और गौड पादाचार्य जी ने कारिकाऐं लिखी हैं
आत्मा चतुष्पाद है अर्थात् उसकी अभिव्यक्ति की चार अवस्थाएँ हैं जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय।
१. जाग्रत अवस्था की आत्मा को वैश्वानर कहते हैं, इसलिये कि इस रूप में सब नर एक योनि से दूसरी में जाते रहते हैं। इस अवस्था का जीवात्मा बहिर्मुखी होकर "सप्तांगों" तथा इंद्रियादि १९ मुखों से स्थूल अर्थात् इंद्रियग्राह्य विषयों का रस लेता है। अत: वह बहिष्प्रज्ञ है।
२. दूसरी तेजस नामक स्वप्नावस्था है जिसमें जीव अंत:प्रज्ञ होकर सप्तांगों और १९ मुखों से जाग्रत अवस्था की अनुभूतियों का मन के स्फुरण द्वारा बुद्धि पर पड़े हुए विभिन्न संस्कारों का शरीर के भीतर भोग करता है।
३.तीसरी अवस्था सुषुप्ति अर्थात् प्रगाढ़ निद्रा का लय हो जाता है और जीवात्मा क स्थिति आनंदमय ज्ञान स्वरूप हो जाती है। इस कारण अवस्थिति में वह सर्वेश्वर, सर्वज्ञ और अंतर्यामी एवं समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और लय का कारण है।
४ परंतु इन तीनों अवस्थाओं के परे आत्मा का चतुर्थ पाद अर्थात् तुरीय अवस्था ही उसक सच्चा और अंतिम स्वरूप है जिसमें वह ने अंत: प्रज्ञ है, न बहिष्प्रज्ञ और न इन दोनों क संघात है, न प्रज्ञानघन है, न प्रज्ञ और न अप्रज्ञ, वरन अदृष्ट, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिंत्य, अव्यपदेश्य, एकात्मप्रत्ययसार, शांत, शिव और अद्वैत है जहाँ जगत्, जीव और ब्रह्म के भेद रूपी प्रपंच का अस्तित्व नहीं है (मंत्र ७)
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हिंदू शास्त्र और ग्रंथ |
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संबंधित हिंदू ग्रंथ |
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ओंकार रूपी आत्मा का जो स्वरूप उसके चतुष्पाद की दृष्टि से इस प्रकार निष्पन्न होता है उसे ही ऊँकार की मात्राओं के विचार से इस प्रकार व्यक्त किया गया है कि ऊँ की अकार मात्रा से वाणी का आरंभ होता है और अकार वाणी में व्याप्त भी है। सुषुप्ति स्थानीय प्राज्ञ ऊँ कार की मकार मात्रा है जिसमें विश्व और तेजस के प्राज्ञ में लय होने की तरह अकार और उकार का लय होता है, एवं ऊँ का उच्चारण दुहराते समय मकार के अकार उकार निकलते से प्रतीत होते है। तात्पर्य यह कि ऊँकार जगत् की उत्पत्ति और लय का कारण है।
वैश्वानर, तेजस और प्राज्ञ अवस्थाओं के सदृश त्रैमात्रिक ओंकार प्रपंच तथा पुनर्जन्म से आबद्ध है किंतु तुरीय की तरह अ मात्र ऊँ अव्यवहार्य आत्मा है जहाँ जीव, जगत् और आत्मा (ब्रह्म) के भेद का प्रपंच नहीं है और केवल अद्वैत शिव ही शिव रह जाता है।
उपनिषदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। कुछ उपनिषदों को वेदों की मूल संहिताओं का अंश माना गया है। ये सर्वाधिक प्राचीन हैं। कुछ उपनिषद ब्राह्मण और आरण्यक ग्रन्थों के अंश माने गये हैं। इनका रचनाकाल संहिताओं के बाद का है। उपनिषदों के काल के विषय में निश्चित मत नहीं है समान्यत उपनिषदो का काल रचनाकाल ३००० ईसा पूर्व से ५०० ईसा पूर्व माना गया है। उपनिषदों के काल-निर्णय के लिए निम्न मुख्य तथ्यों को आधार माना गया है—
- पुरातत्व एवं भौगोलिक परिस्थितियां
- पौराणिक अथवा वैदिक ॠषियों के नाम
- सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी राजाओं के समयकाल
- उपनिषदों में वर्णित खगोलीय विवरण
निम्न विद्वानों द्वारा विभिन्न उपनिषदों का रचना काल निम्न क्रम में माना गया है-
विभिन्न विद्वानों द्वारा वैदिक या उपनिषद काल के लिये विभिन्न निर्धारित समयावधिलेखक | आरंभ (ई.पू.) | समापन (ई.पू.) | विधि |
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लोकमान्य तिलक, विंटरनित्ज़ | ६००० | २०० | खगोलिय विधि | बी. वी. कामेश्वर | २३०० | २००० | खगोलिय विधि | मैक्स मूलर | १००० | ८०० | भाषाई विश्लेषण | रनाडे | १२०० | ६०० | भाषाई विश्लेषण, वैचारिक सिद्धांत | राधा कृष्णन | ८०० | ६०० | वैचारिक सिद्धांत | | मुख्य उपनिषदों का रचनाकालडयुसेन (१००० या ८०० – ५००) (ई.पू.) ) | रनाडे (१२०० – ६००) (ई.पू.) | राधा कृष्णन (८०० – ६००) (ई.पू.) |
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अत्यंत प्राचीन उपनिषद गद्य शैली में: बृहदारण्यक, छान्दोग्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, कौषीतकि, केन कविता शैली में: केन, कठ, ईश, श्वेताश्वतर, मुण्डक बाद के उपनिषद गद्य शैली में: प्रश्न, मैत्री, मांडूक्य | समूह I: बृहदारण्यक, छान्दोग्य समूह II: ईश, केन समूह III: ऐतरेय, तैत्तिरीय, कौषीतकि समूह IV: कठ, मुण्डक, श्वेताश्वतर समूह V: प्रश्न, मांडूक्य, मैत्राणयी | बुद्ध काल से पूर्व के:' ऐतरेय, कौषीतकि, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, केन मध्यकालीन: केन (१-३), बृहदारण्यक (IV ८–२१), कठ, मांडूक्य सांख्य एवं योग पर अधारित: मैत्री, श्वेताश्वत | |
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