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सोमवार, 28 मार्च 2022

महादेवी

महीयसी महादेवी जी और उनका कालजयी साहित्य
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महादेवी वर्मा (२६ मार्च १९०७ - ११ सितम्बर १९८७) हिन्दी भाषा की कवयित्री थीं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तम्भों में से एक मानी जाती हैं। आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है। महादेवी ने स्वतन्त्रता के पहले का भारत भी देखा और उसके बाद का भी। वे उन कवियों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की। न केवल उनका काव्य बल्कि उनके सामाजसुधार के कार्य और महिलाओं के प्रति चेतना भावना भी इस दृष्टि से प्रभावित रहे। उन्होंने मन की पीड़ा को इतने स्नेह और शृंगार से सजाया कि दीपशिखा में वह जन-जन की पीड़ा के रूप में स्थापित हुई और उसने केवल पाठकों को ही नहीं समीक्षकों को भी गहराई तक प्रभावित किया।

उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी की कविता में उस कोमल शब्दावली का विकास किया जो अभी तक केवल बृजभाषा में ही संभव मानी जाती थी। इसके लिए उन्होंने अपने समय के अनुकूल संस्कृत और बांग्ला के कोमल शब्दों को चुनकर हिन्दी का जामा पहनाया। संगीत की जानकार होने के कारण उनके गीतों का नाद-सौंदर्य और पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने अध्यापन से अपने कार्यजीवन की शुरूआत की और अन्तिम समय तक वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बनी रहीं। उनका बाल-विवाह हुआ परन्तु उन्होंने अविवाहित की भाँति जीवन-यापन किया। प्रतिभावान कवयित्री और गद्य लेखिका महादेवी वर्मा साहित्य और संगीत में निपुण होने के साथ-साथ कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं। उन्हें हिन्दी साहित्य के सभी महत्त्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है। भारत के साहित्य आकाश में महादेवी वर्मा का नाम ध्रुव तारे की भाँति प्रकाशमान है। गत शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार के रूप में वे जीवन भर पूजनीय बनी रहीं। वे पशु पक्षी प्रेमी थी गाय उनको अति प्रिय थी । वर्ष २००७ उनका जन्म शताब्दी के रूप में मनाया गया। २७ अप्रैल १९८२ को भारतीय साहित्य में अतुलनीय योगदान के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से इन्हें सम्मानित किया गया था। गूगल ने इस दिवस की याद में वर्ष २०१८ में गूगल डूडल के माध्यम से मनाया ।
जन्म और परिवार

महादेवी का जन्म २६ मार्च १९०७ को प्रातः ८ बजे फ़र्रुख़ाबाद उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ। उनके परिवार में लगभग २०० वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद पहली बार पुत्री का जन्म हुआ था। अतः बाबा बाबू बाँकेविहारी जी हर्ष से झूम उठे और इन्हें घर की देवी — महादेवी मानते हुए पुत्री का नाम महादेवी रखा। उनके पिता श्री गोविंद प्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनकी माता का नाम हेमरानी देवी था। हेमरानी देवी के ताऊ जी सुंदरलाल जी तत्कालीन तहसीलदार तथा पिता खैराती लाल द्वारा शिव तथा पार्वती के दो मंदिर जबलपुर में बनवाए गए थे। ये अब भी शहर कोतवाली जबलपुर के निकट बाड़े में स्थित हैं।

हेमरानी देवी बड़ी धर्म परायण, कर्मनिष्ठ, भावुक एवं शाकाहारी महिला थीं। विवाह के समय अपने साथ सिंहासनासीन भगवान की मूर्ति भी लायी थीं। वे प्रतिदिन कई घंटे पूजा-पाठ तथा रामायण, गीता एवं विनय पत्रिका का पारायण करती थीं और संगीत में भी उनकी अत्यधिक रुचि थी। इसके बिल्कुल विपरीत उनके पिता गोविन्द प्रसाद वर्मा सुन्दर, विद्वान, संगीत प्रेमी, नास्तिक, शिकार करने एवं घूमने के शौकीन, माँसाहारी तथा हँसमुख व्यक्ति थे। महादेवी वर्मा के मानस बंधुओं में सुमित्रानन्दन पन्त तथा सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' थे जो उनसे जीवन पर्यन्त राखी बँधवाते रहे। निराला जी से उनकी अत्यधिक निकटता थी, उनकी पुष्ट कलाइयों में महादेवी जी लगभग चालीस वर्षों तक राखी बाँधती रहीं।
शिक्षा

महादेवी जी की शिक्षा इन्दौर में मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई साथ ही संस्कृत, अंग्रेज़ी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही। बीच में विवाह जैसी बाधा पड़ जाने के कारण कुछ दिन शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरान्त महादेवी जी ने १९१९ में क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। १९२१ में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया। यहीं पर उन्होंने अपने काव्य जीवन की शुरुआत की। वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और १९२५ तक जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। कालेज में सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई। सुभद्रा कुमारी चौहान महादेवी जी का हाथ पकड़ कर सखियों के बीच में ले जाती और कहतीं ― “सुनो, ये कविता भी लिखती हैं”। १९३२ में जब उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम॰ए॰ पास किया तब तक उनके दो कविता संग्रह नीहार तथा रश्मि प्रकाशित हो चुके थे।
वैवाहिक जीवन

सन् १९१६ में उनके बाबा श्री बाँके विहारी ने इनका विवाह बरेली के पास नबावगंज कस्बे के निवासी श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कर दिया, जो उस समय दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। श्री वर्मा इण्टर करके लखनऊ मेडिकल कॉलेज में बोर्डिंग हाउस में रहने लगे। महादेवी जी उस समय क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद के छात्रावास में थीं। श्रीमती महादेवी वर्मा को विवाहित जीवन से विरक्ति थी। कारण कुछ भी रहा हो पर श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कोई वैमनस्य नहीं था। सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में उनके सम्बन्ध मधुर ही रहे। दोनों में कभी-कभी पत्राचार भी होता था। यदा-कदा श्री वर्मा इलाहाबाद में उनसे मिलने भी आते थे। श्री वर्मा ने महादेवी जी के कहने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोईं और कभी शीशा नहीं देखा। सन् १९६६ में पति की मृत्यु के बाद वे स्थायी रूप से इलाहाबाद में रहने लगीं।
कार्यक्षेत्र

महादेवी, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी आदि के साथ

महादेवी का कार्यक्षेत्र लेखन, सम्पादन और अध्यापन रहा। उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। यह कार्य अपने समय में महिला-शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम था। इसकी वे प्रधानाचार्य एवं कुलपति भी रहीं।१९२३ में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘चाँद’ का कार्यभार संभाला। १९३० में नीहार, १९३२ में रश्मि, १९३४ में नीरजा, तथा १९३६ में सांध्यगीत नामक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। १९३९ में इन चारों काव्य संग्रहों को उनकी कलाकृतियों के साथ वृहदाकार में यामा शीर्षक से प्रकाशित किया गया। उन्होंने गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में नए आयाम स्थापित किये। इसके अतिरिक्त उनकी 18 काव्य और गद्य कृतियां हैं जिनमें मेरा परिवार, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, शृंखला की कड़ियाँ और अतीत के चलचित्र प्रमुख हैं। सन १९५५ में महादेवी जी ने इलाहाबाद में साहित्यकार संसद की स्थापना की और पं इलाचंद्र जोशी के सहयोग से साहित्यकार का सम्पादन संभाला। यह इस संस्था का मुखपत्र था। उन्होंने भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नीव रखी। इस प्रकार का पहला अखिल भारतवर्षीय महिलाकवि सम्मेलन १५ अप्रैल १९३३ को सुभद्रा कुमारी चौहान की अध्यक्षता में प्रयाग महिला विद्यापीठ में सम्पन्न हुआ। वे हिन्दी साहित्य में रहस्यवाद की प्रवर्तिका भी मानी जाती हैं। महादेवी बौद्ध पन्थ से बहुत प्रभावित थीं।महात्मा गाँधी के प्रभाव से उन्होंने जनसेवा का व्रत लेकर झूसी में कार्य किया और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया।१९३६ में नैनीताल से २५ किलोमीटर दूर रामगढ़ कसबे के उमागढ़ नामक गाँव में महादेवी वर्मा ने एक बंगला बनवाया था। जिसका नाम उन्होंने मीरा मन्दिर रखा था। जितने दिन वे यहाँ रहीं इस छोटे से गाँव की शिक्षा और विकास के लिए काम करती रहीं। विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए उन्होंने बहुत काम किया। आजकल इस बंगले को महादेवी साहित्य संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। शृंखला की कड़ियाँ में स्त्रियों की मुक्ति और विकास के लिए उन्होंने जिस साहस व दृढ़ता से आवाज़ उठाई हैं और जिस प्रकार सामाजिक रूढ़ियों की निन्दा की है उससे उन्हें महिला मुक्तिवादी भी कहा गया। महिलाओं व शिक्षा के विकास के कार्यों और जनसेवा के कारण उन्हें समाज-सुधारक भी कहा गया है। उनके सम्पूर्ण गद्य साहित्य में पीड़ा या वेदना के कहीं दर्शन नहीं होते बल्कि अदम्य रचनात्मक रोष समाज में बदलाव की अदम्य आकांक्षा और विकास के प्रति सहज लगाव परिलक्षित होता है।

उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर में बिताया। ११सितम्बर १९८७ को इलाहाबाद में रात ९ बजकर ३० मिनट पर उनका देहांत हो गया।

नीहार १९३० - महादेवी जी का पहला गीत काव्य संग्रह है। इस संग्रह में १९२४ से १९२८ तक के रचित गीत संग्रहीत हैं। नीहार जीवन के उषाकाल की ही रचना है, जिसमें सत्य कुहाजाल में छिपा रह कर भी मोहक और कुतूहलपूर्ण प्रतीत होती है। नीहार की विषयवस्तु के संबंध में स्वयं महादेवी वर्मा का कथन उल्लेखनीय है- "नीहार के रचना काल में मेरी अनुभूतियों में वैसी ही कौतूहल मिश्रित वेदना उमड़ आती थी, जैसे बालक के मन में दूर दिखायी देने वाली अप्राप्य सुनहली उषा और स्पर्श से दूर सजल मेघ के प्रथम दर्शन से उत्पन्न हो जाती है।" इन गीतों में कौतूहल मिश्रित वेदना की स्वाभाविक अभिव्यक्ति हुई है।

रश्मि १९३२ - यह महादेवी वर्मा का दूसरा कविता संग्रह है। इसमें १९२७ से १९३१ तक की रचनाएँ हैं। 'रश्मि' युवावस्था के प्रारंभिक दिनों की रचना है। जब सत्य की किरणें आत्मा में ज्ञान की ज्वाला जगा देती हैं। 'इसमें महादेवी जी का चिंतन और दर्शन पक्ष मुखर होता प्रतीत होता है। अतः अनुभूति की अपेक्षा दार्शनिक चिंतन और विवेचन की अधिकता है।

नीरजा १९३४ - रश्मि का चिन्तन और दर्शन अधिक स्पष्ट और प्रौढ़ हुआ है नीरजा में। नीरजा' कवयित्री की प्रौढ़ मानसिक स्थिति की कृति है, जिसमें दिन के उज्जवल प्रकाश में कमलिनी की तरह वह अपने साधना मार्ग पर अपना सौरभ बिखरा देती हैं। कवयित्री सुख-दु:ख में समन्वय स्थापित करती हुई पीड़ा एवं वेदना में आनन्द की अनुभूति करती है। वह उस सामंजस्यपूर्ण भावभूमि में पहुँच गई हैं, जहाँ दुःख सुख एकाकार हो जाते हैं और वेदना का मधुर रस ही उसकी समरसता का आधार बन जाता है। सांध्यगीत में यह सामंजस्य भावना और भी परिपक्व और निर्मल बनकर साधिका को प्रिय के इतना निकट पहुँचा देती है कि वह अपने और प्रिय के बीच की दूरी को ही मिलन समझने लगती है।

सांध्यगीत १९३६ - १९३४ से १९३६ ई० तक के इन गीतों में नीरजा के भावों का परिपक्व रूप मिलता है। 'सांध्यगीत' में जीवन के संध्याकाल की करुणार्द्रता और वैराग्य भावना के साथ-साथ आत्मा की अपने आध्यात्मिक घर को लौट चलने की प्रवृत्ति वर्तमान है। यहाँ न केवल सुख-दुख का बल्कि आँसू और वेदना, मिलन और विरह, आशा और निराशा एवं बन्धन-मुक्ति आदि का समन्वय है। दीपशिखा में १९३६ से १९४२ ई० तक के गीत हैं। इस संग्रह के गीतों का मुख्य प्रतिपाद्य स्वयं मिटकर दूसरे को सुखी बनाना है। यह महादेवी की सिद्धावस्था का काव्य है, जिसमें साधिका की आत्मा की दीपशिखा अकंपित और अचंचल होकर आराध्य की अखंड ज्योति में विलीन हो गई है।

प्रथम आयाम १९७४ -

अग्निरेखा १९९० - महादेवी जी के अन्तिम दिनों में रची गयीं रचनाएँ संग्रहीत हैं जो पाठकों को अभिभूत भी करेंगी और आश्चर्यचकित भी, इस अर्थ में कि महादेवी काव्य में ओत-प्रोत वेदना और करुणा का वह स्वर, जो कब से उनकी पहचान बन चुका है। 'अग्निरेखा` में दीपक को प्रतीक मानकर अनेक रचनाएँ लिखी गयी हैं। साथ ही अनेक विषयों पर भी कविताएँ हैं।

दीपशिखा १९४२ - दीपशिखा में महादेवी वर्मा के गीतों का अधिकारिक विषय ‘प्रेम’ है। पर प्रेम की सार्थकता उन्होंने मिलन के उल्लासपूर्ण क्षणों से अधिक विरह की पीड़ा में तलाश की है। 'दीपशिखा' में रात के शांत, स्निग्ध और शून्य वातावरण में आराध्य के सम्मुख जीवन दीप के जलते रहने की भावना प्रमुख है। इस प्रकार उन्होंने अपने जीवन के अहोरात्र को इन पाँच प्रतीकात्मक शीर्षकों में विभक्त कर अपनी जीवन साधना का मर्म स्पष्ट कर दिया है

सप्तपर्णा १९५९ - सप्तपर्णा में महादेवी ने अपनी सांस्कृतिक चेतना के सहारे वेद, रामायण, थेर गाथा, अश्वघोष, कालिदास, भवभूति एवं जयदेव की कृतियों से तादात्म्य स्थापित करके ३९ चयनित महत्वपूर्ण अंशों का हिन्दी काव्यानुवाद इस प्रस्तुत किया है। आरंभ में ६१ पृष्ठीय ‘अपनी बात’ में उन्होंने भारतीय मनीषा और साहित्य की इस अमूल्य धरोहर के संबंध में गहन शोधपूर्ण विमर्ष भी प्रस्तुत किया है। ’सप्तपर्णा’ के अंतर्गत आर्षवाणी, वाल्मीकि, थेरगाथा, अश्वघोष, कालिदास और भवभूति के बाद सातवें सोपान पर महादेवी वर्मा ने जयदेव को प्रतिष्ठित किया है। उन्होंने बताया है कि जयदेव (१२वीं शती का पूर्वार्द्ध) का जब आविर्भाव हुआ तब संस्कृत के शृंगारी काव्य के नायक-नायिका के रूप में राधाकृष्ण की प्रतिष्ठा हो चुकी थी।...महादेवी जी ने ’सप्तपर्णा’ में संस्कृत और पालि साहित्य के चयनित अंशों का काव्यानुवाद प्रस्तुत करते समय अपनी दृष्टि भारतीय चिंतनधारा और सौंदर्यबोध की परंपरा के इतिहास पर केंद्रित रखी है। उनकी यह कृति उन्हें एक सफल सृजनात्मक काव्यानुवादक, साहित्येतिहासकार तथा संस्कृति-चिंतक के रूप में प्रतिष्ठित करने में पूर्ण समर्थ है, इसमें संदेह नहीं।

वेदना की इस एकांत साधना के फलस्वरूप महादेवी की कविता में विषयों का वैविध्य बहुत कम है। उनकी कुछ ही कविताएँ ऐसी हैं, जिनमें राष्ट्रीय और सांस्कृतिक उद्बोधन अथवा प्रकृति का स्वतंत्र चित्रण हुआ है। शेष सभी कविताओं में विषयवस्तु और दृष्टिकोण एक ही होने के कारण उनकी काव्यभूमि विस्तृत नहीं हो सकी हैं। इससे उनके काव्य को हानि और लाभ दोनों हुआ है। हानि यह हुई है कि विषय परिवर्तन न होने से उनके समस्त काव्य में एकरसता और भावावृत्ति बहुत अधिक है। लाभ यह हुआ है कि सीमित क्षेत्र के भीतर ही कवयित्री ने अनुभूतियों के अनेकानेक आयामों को अनेक दृष्टिकोणों से देख-परखकर उनके सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेद-प्रभेदों को बिंबरूप में सामने रखते हुए चित्रित किया है। इस तरह उनके काव्य में विस्तारगत विशालता और दर्शनगत गुरुत्व भले ही न मिले, पर उनकी भावनाओं की गंभीरता, अनुभूतियों की सूक्ष्मता, बिंबों की स्पष्टता और कल्पना की कमनीयता के फलस्वरूप गांभीर्य और महत्ता अवश्य है। इस तरह उनके काव्य विस्तार का नहीं, गहराई का काव्य है।

महादेवी का काव्य वर्णनात्मक और इतिवृत्तात्मक नहीं हैं। आंतरिक सूक्ष्म अनुभूतियों की अभिव्यक्ति उन्होंने सहज भावोच्छवास के रूप में की है। इस कारण उनकी अभिव्यंजना पद्धति में लाक्षणिकता और व्यंजकता का बाहुल्य है। रूपकात्मक बिंबों और प्रतीकों के सहारे उन्होंने जो मोहक चित्र उपस्थित किए हैं, वे उनकी सूक्ष्म दृष्टि और रंगमयी कल्पना की शक्तिमत्ता का परिचय देते हैं। ये चित्र उन्होंने अपने परिपार्श्व, विशेषकर प्राकृतिक परिवेश से लिए हैं पर प्रकृति को उन्होंने आलंबन रूप में बहुत कम ग्रहण किया। प्रकृति उनके काव्य में सदैव उद्दीपन, अलंकार, प्रतीक और संकेत के रूप में ही चित्रित हुई हैं। इसी कारण प्रकृति के अति परिचित और सर्वजनसुलभ दृश्यों या वस्तुओं को ही उन्होंने अपने काव्य का उपादान बनाया हैं। उसके असाधारण और अल्पपरिचित दृश्यों की ओर उनका ध्यान नहीं गया है। फिर भी सीमित प्राकृतिक उपादानों के द्वारा उन्होंने जो पूर्ण या आंशिक बिंब चित्रित किए हैं, उनसे उनकी चित्रविधायिनी कल्पना का पूरा परिचय मिल जाता है। इसी कल्पना के दर्शन उनके उन चित्रों में भी होते हैं, जो उन्होंने शब्दों से नहीं, रंगों और तूलिका के माध्यम से निर्मित किए हैं। उनके ये चित्र 'दीपशिखा' और 'यामा' में कविताओं के साथ प्रकाशित हुए हैं।



उक्त के अतिरिक्त कुछ ऐसे काव्य संकलन भी प्रकाशित हैं, जिनमें उपर्युक्त रचनाओं में से चुने हुए गीत संकलित किये गये हैं। जैसे - १. आत्मिका, २. धनु निरंतरा, ३. परिक्रमा, ४. सन्धिनी (१९६५), ५. यामा(१९३६), ६. गीतपर्व, ७ . दीपगीत, ८. स्मारिका, ९. हिमालय(१९६३) और १०. आधुनिक कवि महादेवी आदि।

गद्य में कविता का मर्म




महादेवी की प्रमुख गद्य रचनाएँ

महादेवी वर्मा ने लिखा है- 'कला के पारस का स्पर्श पा लेने वाले का कलाकार के अतिरिक्त कोई नाम नहीं, साधक के अतिरिक्त कोई वर्ग नहीं, सत्य के अतिरिक्त कोई पूँजी नहीं, भाव-सौंदर्य के अतिरिक्त कोई व्यापार नहीं और कल्याण के अतिरिक्त कोई लाभ नहीं।' लेखन-अवधि में उन्होंने एकनिष्ठ होकर अबाध-गति से भावमय सृजन और कर्ममय जीवन की साधना में लिखी हुई बात को सार्थक बनाया। एक महादेवी ही हैं जिन्होंने गद्य में भी कविता के मर्म की अनुभूति कराई और 'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति' उक्ति को चरितार्थ किया है। विलक्षण बात तो यह है कि न तो उन्होंने उपन्यास लिखा, न कहानी, न ही नाटक फिर भी श्रेष्ठ गद्यकार हैं। उनके ग्रंथ लेखन में एक ओर रेखाचित्र, संस्मरण या फिर यात्रावृत्त हैं तो दूसरी ओर संपादकीय, भूमिकाएँ, निबंध और अभिभाषण, पर सबमें जैसे संपूर्ण जीवन का वैविध्य समाया है। बिना कल्पनाश्रित काव्य रूपों का सहारा लिए कोई रचनाकार गद्य में इतना कुछ अर्जित कर सकता है, यह महादेवी को पढ़कर ही जाना जा सकता है। हिन्दी साहित्य में चंद्रकान्ता मणि के समान द्रवणशील करुण रस की देवी महादेवी वर्मा न केवल विशिष्ट कलाकार, कवयित्री और गद्य लेखिका हैं अपितु इससे आगे एक श्रेष्ठ निबंधकार भी हैं। उनका गद्य कविता की भांति सौंदर्य के भुलावे में डालकर हमें जीवन से दूर नहीं ले जाता, वह तो हमारी शिराओं में चेतना भरकर हमें यथार्थ जीवन में झांकने की प्रेरणा प्रदान करता है।

स्मृति की रेखाएँ और अतीत के चलचित्र

स्मृति की रेखाएँ और अतीत के चलचित्र में निरंतर जिज्ञासा शील महादेवी ने स्मृति के आधार पर अमिट रेखाओं द्वारा अत्यंत सह्रदयतापूर्वक जीवन के विविध रूपों को चित्रित कर उन पात्रों को अमर कर दिया है। इनमें गाँव, गँवई के निर्धन, विपन्न लोग, बालविधवाओं, विमाताओं, पुनर्विवाहिताओं तथा कथित भ्रष्टाओं और वृद्ध-विवाह के कारण प्रताड़िताओं के अत्यंत सशक्त एवं करुण चित्र है। केवल नारियाँ ही नहीं, उपेक्षित पुरुष वर्ग का भी महादेवी ने सही चित्रण किया है। रामा, घीसा, अलोपी और बदलू आदि के रेखाचित्र उनके असाधारण मानवतावाद की ओर इंगित करते हैं। महादेवी ने अधिकांश अपने रेखाचित्रों में निम्नवर्गीय पात्रों की विशेषताओं, दुर्बलताओं और समस्याओं का चित्रण किया है। सेवक रामा की वात्सल्यपूर्ण सेवा, भंगिन सबिया की पति-परायणता और सहनशीलता, घीसा की निश्छल गुरुभक्ति, साग-भाजी के विक्रेता अंधे अलोपी का सरल व्यक्तित्व, कुंभकार बदलू तथा रधिवा का सरल दांपत्य प्रेम, पहाड़ की रमणी लक्षमा का महादेवी के प्रति अनुपम स्नेह-भाव, वृद्ध भक्तिन की प्रगल्भता तथा स्वामी-भक्ति, चीनी युवक की करुण-मार्मिक जीवन-गाथा, पार्वत्य कुली जंगबहादुर तथा उसके अनुज धनिया की कर्मठता आदि अनेक विषयों को रेखाचित्रों में स्थान दिया है। सभी स्मृति-चित्रों को महादेवी ने अपने जीवन के भीतर से प्रस्तुत किया है, अतः यह स्वाभाविक ही है कि इनमें उनके अपने जीवन की विविध घटनाओं एवं उनके चरित्र के विभिन्न अंशों को स्थान प्राप्त हुआ है। उन्होंने अपनी अनुभूतियों को ज्यों का त्यों यथार्थ रूप में अंकित किया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि महादेवी के रेखाचित्रों में चरित्र-चित्रण का तत्व प्रमुख रहा है, कथानक उसका अंगीभूत होकर प्रकट हुआ है। उनके इन रेखाचित्रों में गंभीर लोक का भी पर्याप्त समावेश हुआ है।
पथ के साथी और शृंखला की कड़ियाँ

'पथ के साथी' में महादेवी ने अपने समकालीन रचनाकारों का चित्रण किया है। जिस सम्मान और आत्मीयतापूर्ण ढंग से उन्होंने इन साहित्यकारों का जीवन-दर्शन और स्वभावगत महानता को स्थापित किया है वह अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। 'पथ के साथी' में संस्मरण भी हैं और महादेवी द्वारा पढ़े गए कवियों के जीवन पृष्ठ भी। उन्होंने एक ओर साहित्यकारों की निकटता, आत्मीयता और प्रभाव का काव्यात्मक उल्लेख किया है और दूसरी ओर उनके समग्र जीवन दर्शन को परखने का प्रयत्न किया है। 'पथ के साथी' में कवींद्र रवींद्र, दद्दा (मैथिलीशरण गुप्त), प्रसाद, निराला, पंत, सुभद्राकुमारी चौहान तथा सियारामशरण गुप्त की रेखाएँ शब्द-चित्र के रूप में आईं हैं। श्रृंखला की कड़ियाँ' (१९४२ ई.) में सामाजिक समस्याओं, विशेष कर अभिशप्त नारी जीवन के जलते प्रश्नों के संबंधों में लिखे उनके विचारात्मक निबंध संकलित हैं।

संकलन

रेखाचित्र - १. अतीत के चलचित्र (१९४१) और २. स्मृति की रेखाएं (१९४३) ३. श्रृंखला की कड़ियां ४. मेरा परिवार।
संस्मरण
१. पथ के साथी (१९५६), २. मेरा परिवार (१९७२), ३. स्मृतिचित्र (१९७३) और ४. संस्मरण (१९८३)।
निबंध संग्रह - १. शृंखला की कड़ियाँ (१९४२), २. विवेचनात्मक गद्य (१९४२), 3 साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध (१९६२), ४. संकल्पिता (१९६९) , ५. भारतीय संस्कृति के स्वर।
ललित निबंधों का संग्रह
क्षणदा (१९५६) ललित निबंधों का संग्रह है।

रचनात्मक गद्य के अतिरिक्त महादेवी का विवेचनात्मक गद्य तथा दीपशिखा, यामा और आधुनिक कवि- महादेवी की भूमिकाएँ उत्कृष्ट गद्य-लेखन का नमूना समझी जाती हैं।

बाल साहित्य

कहानी संग्रह - गिल्लू और अन्य कहानियाँ।
भाषण संग्रह - संभाषण (१९७४)।
कविता संग्रह - ठाकुरजी भोले हैं, आज खरीदेंगे हम ज्वाला।

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