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रविवार, 20 मार्च 2022

रमण महर्षि, जनक छंद, सॉनेट,गौरैया, चिरैया, बाल गीत


विश्ववाणी हिंदी संस्थान - अभियान जबलपुर
वाट्स ऐप संगोष्ठी प्रकोष्ठ
सोमवार - नर्मदा तीरे उपनिषद वार्ता, संध्या ५ बजे से, सरला वर्मा जी।
मंगलवार -
बुधवार - भाषा विविधा, संध्या ५ बजे से, डॉ. अनिल जैन जी।
गुरूवार - गीत गुंजन, संध्या ५ बजे से, सरला वर्मा जी।
शुकवार -
शनिवार -
रविवार - संत समागम - पूर्वाह्न ११ बजे से, डॉ. संगीता भारद्वाज जी।
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वक्ताओं से निवेदन
१. समयानुशासन प्रार्थनीय। जो वक्त निर्धारित समय सीमा में विचार अभिव्यक्त करने में समर्थ हों, वे कृपया, सहभागिता न करें।
२. संयोजक / संचालक / पूर्व वक्ताओं द्वारा कही जा चुकी बात दुबारा न कहें।
३. आरंभ व अंत में औपचारिकताओं में समय का अपव्यय न करें। फठाम पल से अंतिम पल तक अपने विषय पर केंद्रित रहें ताकि समयाभाव न हो।
४. संयोजक की पूर्वानुमति के बिना किसी वक्ता को जोड़ने हेतु संचालक पर दबाव न बनायें।
५. सभी संचालक पारिवारिक दायित्वों में व्यस्त है। समयानुक्रमण कर उनके लिए असुविधा का कारण न बनें। शेष ४ दिनों के कार्यक्रम इसी कारण बंद हुए कि सहभागी निर्धारित से अधिक समय लेते हैं. संचालक अधिक समय नहीं दे सकते।
६. जो वक्त समय सीमा का उल्लंघन करेंगे उन्हें वक्ता मंडल में न रख पाना हमारी विवशता है।
७. उक्त के अतिरिक्त अन्य कार्यक्रम संचालित करने के इच्छुक साथी संयोजक से संपर्क ९४२५१८३२४४ पर करें।
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जनक छंद
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रमण आप में आप कर।
मौन; आप का जाप कर।
आप आप में व्याप कर।।

मौन बोलता है, सुनो।
कहने के पहले गुनो।
व्यर्थ न अपना सर धुनो।।

अति सीमित आहार कर।
विषयों का परिहार कर।
मन मत अधिक विचार कर।।

नाहक सपने मत बुनो।
तन बनकर क्यों तुम घुनो।
दो न, एक को चुप चुनो।।

मन-विचार दो नहीं हैं।
दूर नहीं प्रभु यहीं हैं।
गए नहीं वे कहीं हैं।।

बनो यंत्र भगवान का।
यही लक्ष्य इंसान का।
पुण्य अमित है दान का।।

जीवन पंकिल नहीं है।
जो कुछ उज्ज्वल; यहीं है।
हमने कमियाँ गहीं हैं।।

है महत्त्व अति ध्यान का।
परमपिता के भान का।
उस सत्ता के गान का।।

कर नियमन आहार का।
नित अपने आचार का।
मन में उठे विचार का।।

राही मंज़िल राह भी।
हैं मानव तू आप ही।
आह न केवल वाह भी।।

कोष न नफरत-प्यार का।
बोझ न भव-व्यापार का।
माध्यम पर उपकार का।।

जन्म लिया; भर आह भी।
प्रभु की कर परवाह भी।
है फ़क़ीर तू शाह भी।।

भीतर-बाहर है वही।
जिसकी महिमा सब कहीं।।
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रमण महर्षि

भारत के तामिलनाडू प्रान्त में मदुरै से ३० मील दक्षिण तिरुचुली नामक एक गाँव है जहाँ एक प्राचीन शिव मंदिर है जिसकी अभ्यर्थना, महान तमिल संत एंव कवि सुन्दरमूर्ति एवं माणिक्क वाचकर ने अपने गीतों में की | उन्नीसवीं सदी के अन्त मे इस पवित्र गांव में सुन्दर अय्यर नामक वकील एवं उनकी पत्नी अलगम्माल रहते थे| ये आदर्श दम्पति भक्ति, उदारशीलता एवं दानशीलता से युक्त थे| सुन्दर अय्यर बहुत ही उदार थे जबकि अलगम्माल एक आदर्श हिन्दू पत्नी थीं| वेंकटरामन, उनसे द्वितीय पुत्र के रूप में पैदा हुए जो बाद में समस्त विश्व में भगवान श्री रमण महर्षि के रूप में जाने गये| हिन्दुओं के पावन दिन आरुद्रा-दर्शन, ३० दिसम्बर १८७९ को उनका जन्म हुआ| प्रत्येक वर्ष इस पावन दिन को नटराज शिव की मूर्ति को जनसामान्य के दर्शन हेतु एक समारोह के रूप में निकाला जाता है ताकि लोग शिव के अनुग्रह को अनुभव एवं प्राप्त कर सकें| आरुद्रा (१८७९) के दिन नटराज की मूर्ति तिरुचुली के मंदिर से विभिन्न समारोह के साथ नगर में निकली थी तथा पुनः मंदिर में प्रवेश करने वालि थी, उसी क्षण वेंकटरामन का जन्म हुआ|

जीवन के आरम्भिक वर्षो में वेंकटरामन में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था| वे एक सामान्य बालक के रुप में विकसित हुए| उन्हें तिरुचुली के एक प्राइमरी स्कूल में तथा बाद में दिण्डुक्कल के एक स्कूल में भेजा गया| जब वे बारह वर्ष के थे तो उनके पिता का देहावसान हो गया| ऐसी स्थिति में उन्हें परिवार के साथ, अपने चाचा सुब्ब अय्यर के साथ मदुरै में रहने की आवश्यकता पड़ी| मदुरै में उन्हें पहले स्काट मीडिल स्कूल तथा बाद में अमेरिकन मिशन हाईस्कूल में भेजा गया| यद्यपि वह तीव्र बुद्धि एवं तीव्र स्मरण शक्ति सम्पन्न थे किन्तु अपनी पढ़ाई के प्रति गंभीर नहीं थे। वह स्वस्थ एवं शक्तिशाली शरीर युक्त थे तथा उनके साथी उनकी ताकत से डरते थे| उनसे से यदि कभी किसी को नाराजगी रहती तो वे उनकी गहरी निद्रावस्था में बदला लेते थे| उन्हें सोया जानकर कहीं दूर जाकर पीटते थे तो भी उनकी नींद नहीं रवुलती थी| रमण महर्षि (1879-1950) अद्यतन काल के महान ऋषि और संत थे। उन्होंने आत्म विचार पर बहुत बल दिया। उनका आधुनिक काल में भारत और विदेश में बहुत प्रभाव रहा है।
मुदुरै में भी ऐसी घटनाएं अक्सर ही घटती थी, वहां रमण स्कूल में पढ़ते थे जब किसी लड़के से उनकी खटपट हो जाती, तब दिन में जागते हुए तो वह उनसे कुछ कह न पाता, क्योंकि रमण का स्वास्थ्य अच्छा था, पर उनके सो जाने पर वह अपने मन की मुराद पूरी कर लेता। वह अपने साथियों की मदद से सोए हुए रमण को उठाकर कहीं ले जाता और मन भर पीटने के बाद फिर वहीं सुला जाता। बालक रमण में इस तरह की गहरी नींद के साथ-साथ अर्द्ध निद्रा में रहने की भी आदत थी। ये दोनों ही बातें उनकी धार्मिक वृत्तियों की परिचायक है। गहरी नींद एक ओर तो अच्छे स्वास्थ्य की निशानी है और दूसरी ओर इस बात का संदेश देती है कि यदि कोई व्यक्ति ध्यान में लीन हो जाए, तो पूरी तरह निमग्न रह सकता है - अर्द्धनिद्रावस्था यह दर्शाती है कि व्यक्ति आंखें खुली रहने पर भी, संसार के काम करते हुए भी, आत्मा अथवा परमात्मा में लीन हो सकता है।

रमण महर्षि ने अद्वैतवाद पर जोर दिया। उन्होंने उपदेश दिया कि परमानंद की प्राप्ति 'अहम्‌' को मिटाने तथा अंत:साधना से होती है। रमण ने संस्कृत, मलयालम, एवं तेलुगु भाषाओं में लिखा। बाद में आश्रम ने उनकी रचनाओं का अनुवाद पाश्चात्य भाषाओं में किया।

वकील सुंदरम्‌ अय्यर और अलगम्मल को 30 दिसम्बर 1879 को तिरुचुली, मद्रास में जब द्वितीय पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई तो उसका नाम वेंकटरमन रखा गया। रमण की प्रारंभिक शिक्षा तिरुचुली और दिंदिगुल में हुई। उनकी रुचि शिक्षा की अपेक्षा मुष्टियुद्ध व मल्लयुद्ध जैसे खेलों में अधिक थी तथापि धर्म की ओर भी उनका विशेष झुकाव था।

दक्षिण के शैव लोग “अरुदर्शन” (अर्थात् जब शिव ने अपने भक्तों को नटराज के रूप में दर्शन दिए) का त्यौहार बड़े जोर-शोर और श्रद्धा-भक्ति से मनाते हैं। ३० दिसंबर १८७९ को इसी पवित्र त्यौहार के दिन तमिलनाडु के तिरुचुली नामक छोटे से कस्बे में श्री सुंदरम् अय्यर के घर एक बालक का जन्म हुआ, जो आगे चलकर महर्षि रमण के रूप में विख्यात हुआ। कुछ लोग महर्षि रमण को भगवान शिव का अवतार मानते हैं। बचपन से ही वह संन्यासियों जैसा आचरण करते थे। समाधिस्थ होना उनका सहज स्वभाव था। बचपन में वे अपने चाचा के घर किण्डीगुल में थे। घर में कोई समारोह था, सब लोग समारोह के बाद मंदिर चले गए। रमण उनके साथ नहीं गये। वह चुपचाप बैठे पढ़ते रहे। फिर जब नींद आने लगी तो कुंडे-दरवाजे बंद कर सो गए। घर के लोग जब वापस लोटे, तो उन्होंने बहुतेरा खटखटाया और शोर मचाया, पर रमण की नींद न टुटी| आखिर वे लोग किसी दूसरे के घर से होकर अपने घर में आए और रमण को जगाने के लिए पीटने लगे| घर के सब बच्चों ने उन्हें पीटा, चाचा ने भी पीटा, पर उनकी आंखे न खुली| वह पूर्ववत सोए रहे। रमण को उस मार-पीट का कुछ भी पता नहीं लगा। वह तो सुबह घर के लोगो ने उन्हे बतलाया, तो उन्हें पता चला कि रात को उनकी पिटाई भी हुई था।
तपस्या
लगभग 1895 ई. में अरुचल (तिरुवन्नमलै) की प्रशंसा सुनकर रामन अरुंचल के प्रति बहुत ही आकृष्ट हुए। वे मानवसमुदाय से कतराकर एकांत में प्रार्थना किया करते। जब उनकी इच्छा अति तीव्र हो गई तो वे तिरुवन्नमलै के लिए रवाना हो गए ओर वहाँ पहुँचने पर शिखासूत्र त्याग कौपीन धारण कर सहस्रस्तंभ कक्ष में तपनिरत हुए। उसी दौरान वे तप करने पठाल लिंग गुफा गए जो चींटियों, छिपकलियों तथा अन्य कीटों से भरी हुई थी। 25 वर्षों तक उन्होंने तप किया। इस बीच दूर और पास के कई भक्त उन्हें घेरे रहते थे। उनकी माता और भाई उनके साथ रहने को आए और पलनीस्वामी, शिवप्रकाश पिल्लै तथा वेंकटरमीर जैसे मित्रों ने उनसे आध्यात्मिक विषयों पर वार्ता की। संस्कृत के महान्‌ विद्वान्‌ गणपति शास्त्री ने उन्हें 'रामनन्‌' और 'महर्षि' की उपाधियों से विभूषित किया।

महर्षि रमण का बचपन का नाम वेंकटरमण था, पर साधारणतः लोग उन्हें रमण के नाम से ही पुकारते थे | अपने नाम के अनुरूप ही वह अध्यात्म की दुनिया में रमण भी करते थे | उस समय उनकी उम्र १७ वर्ष की रही होगी। वह अपने चाचा के घर आए हुए थे। वहां एक विचित्र घटना घटी। वह घटना स्वयं उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है :

“मैं कभी बीमार नहीं हुआ था। स्वास्थ्य ठीक था। पर एक दिन एकाएक मैंने महसूस किया कि मैं मर रहा हूं। मौत के भय ने मुझे बुरी तरह जकड़ लिया। पर उस समय यह नहीं सूझा कि किसी डाक्टर के पास जाऊं, अथवा किसी मित्र को बुलाऊं। मैं अपने आप में ही उलझ गया, मौत के भय ने एकाएक मुझे सोचने पर मजबूर किया कि मैं मर रहा हूँ। पर तभी दिमाग में एक बिजली कौंधी - मैं कहां मर रहा हूं, मर तो शरीर रहा है। और मैं मौत का नाटक करने लगा। मैं लेट गया - सांस रोक ली और सब हरकतें भी बंद कर दी। तब मैंने अपने से कहा - यह शरीर तो मर गया। इसके मरने में और कसर ही क्या है? इसे जला दिया जाएगा, पर इस शरीर के मरने से मैं मर गया क्या? यदि मैं मर गया, तो शक्ति कैसे अनुभव करता हूं? मेरा व्यक्तित्व तो इससे अलग है। मैं इस शरीर की आत्मा हूं। शरीर मर जाएगा - पर मेरी आत्मा नहीं मरेगी। मैं तो कभी मरूंगा ही नहीं। और, इसके साथ ही, मौत का भय एकदम चला गया | मैं पुनःसशक्त हो गया। तब से मैंने शरीर में विशेष दिलचस्पी लेनी छोड़ दी।“

1922 में जब रमण की माता का देहांत हो गया तब आश्रम उनकी समाधि के पास ले जाया गया। 1946 में रमण महर्षि की स्वर्ण जयंती मनाई गई। यहाँ महान्‌ विभूतियों का जमघट लगा रहता था। असीसी के संत फ्रांसिस की भाँति रामन सभी प्राणियों से - गाय, कुत्ता, हिरन, गिलहरी, आदि - से प्रेम करते थे।

14 अप्रैल 1950 की रात्रि को आठ बजकर सैंतालिस मिनट पर जब महर्षि रमण महाप्रयाण को प्राप्त हुए, उस समय आकाश में एक तीव्र ज्योति का तारा उदय हुआ एवं अरुणाचल की दिशा में अदृश्य हो गया।

शास्त्र हमें बताते हैं कि एक ऋषि द्वारा अपनाये गये पथ को मालूम करना उसी प्रकार कठिन है जिस प्रकार से अपने पंखों से उड़‌कर आकाश में पहुँची एक चिड़िया का पथ रेखांकित करना । अधिकांश व्यक्तियों को लक्ष्य की ओर धीमी एवं श्रमसाध्य यात्रा करनी पड़‌ती है किन्तु कुछ व्यक्ति, समस्त अस्तित्वों के स्रोत – सर्वोच्च आत्मा में निर्विघ्न उड़ने के लिए जन्मजात प्रतिभा लिए पैदा होते हैं । जब कभी ऎसा कोई ऋषि प्रकट होता है तो सामान्यतया मानवजाति उसे अपने हृदय में स्थान देती है। यद्यपि उनके साथ गति रखना संभव नहीं होता किन्तु उनकी उपस्थिति एवं सान्निध्य में उस आन्नद की अनुभूति होती है जिसके समक्ष सांसारिक सुख नहीं के बराबर होते हैं । महर्षि श्री रमण के जीवनकाल में तिरुवण्णामलै पहुँचने वाले असंख्य व्यक्तियों का यह अनुभव है। उन्होंने उनमें, संसार से पूर्ण विरक्त ऋषि, अतुल्य पावन संत तथा वेदान्त के शाश्वत सत का एक साक्षी देखा। किन्तु जब कभी ऐसी घटना घटित होती है तो उससे समस्त मानव जाति लाभान्वित होती तथा उसके समक्ष आशा का एक नया आयाम खुल जाता है ।

वेंकटरामन ने वचपन से ही अपनी अन्त: स्फुर्णा से अनुभव किया कि अरुणाचल कुछ महान, रहस्यमय एवं पहुँच से बाहर है | उनकी आयु के सोलहवें वर्ष में एक वृद्ध रिश्तेदार उनके घर मदुरै पहुँचे| लड़के ने उनसे पूछा कि वे कहाँ से आये हैं । ‘अरुणाचल से’, रिश्तेदार का उत्तर था| अरुणाचल के नाम मात्र से वेंकटरामन रोमांचित हो गये तथा अपनी उत्तेजना में उन्होंने कहा “क्या? अरुणाचल से! यह कहाँ हैं?” उनको उत्तर मिला कि तिरुवण्णामलै ही अरुणाचल है | उस घटना को संबोधित करते हुए बाद में ऋषि अपनी रचना अरुणाचल स्तुति में कहते है ।

‘ओ महान आश्चर्य! एक अचल पर्वत के रुप में यह खड़ा है किन्तु इसके क्रियाकलाप को समझना हर किसी के लिए कठिन है| बचपन से ही मेरी स्मृति में था की अरुणाचल कोई बहुत महान सत्ता है किन्तु जब मैने किसी से जाना कि यह तिरुवण्णामलै मे है तो इसका अर्थ नहीं समझ सका । मेरे मन को स्थिर कर जब इसने मुझे अपनी ओर आकार्षित किया और मैं निकट आया तो पाया कि यह अचल था’|

वेंकटरामन के ध्यान को अरुणाचल पर आकर्षित करने की इस घटना के शीघ्र वाद एक दूसरी घटना घटी जिसने उनकी आध्यात्मिक उत्कंठा को तीव्र किया| उन्हें पेरिय पुराण की तमिल पुस्तक देखने को मिली जो प्रसिद्ध ६३ शैव संतों के जीवन का वर्णन करती है| पुस्तक पढ़‌ते ही वह रोमांचित हो उठे | धार्मिक साहित्य की यह प्रथम पुस्तक थी जो उन्होंने पढ़ी | संतो के उदाहरण ने उन्हें रोमांचित किया तथा उनके हृदय को स्पर्श किया | संतों के भगवान के प्रति प्रेम एवं वैराग्ययुक्त जीवन अपनाने की इच्छा उनके भीतर प्रबल हुई:

उन्होंने साधारण जनों को रास्ता बताया कि मानव को उसके दैनिक कार्यों को करते हुए किस प्रकार उस परम तत्त्व की वंदना करनी है, कैसे आत्मा की शुद्धि करके जन्म-मरण के चक्करों से पार पाना है। यदि हम अपने दायित्वों का निर्वाह ही नहीं कर सकते तो हमें इस पृथ्वी पर मानव बनकर रहने का क्या अधिकार है! इस जगत् में ज्ञान की वास्तविक परिभाषा, जीवन की गहराइयाँ महर्षि रमण जैसे ज्ञानी पुरुषों ने ही हमें समझाई है।

ध्यान विधि

उसके बाद यदि कोई उनसे कुछ कहता-झगड़ता, तो वह जवाब नहीं देते। जो कुछ भी खाने को मिलता, खा लेते। धीरे-धीरे स्कूल में भी उनकी दिलचस्पी समाप्त हो गई। खेल-कुद से तो मन हट ही गया। एक संन्यासी सा जीवन बन गया | फिर एक दिन चरम स्थिति भी आ पहुंची। स्कूल में काम नहीं किया था - इसलिए अंग्रेजी व्याकरण के एक अभ्यास को तीन बार नकल करने की सजा मिली। दो बार तो उन्होंने नकल कर ली, पर उसके बाद न जाने मन में क्या उमंग उठी कि सभी किताबें एक ओर फेंक दीं और समाधि लगाकर ध्यान करने बैठ गए। फिर, कुछ देर बाद, उन्होंने स्कूल जाने का बहाना किया, कहा कि वहां स्पेशल क्लास लगेगी। चलने लगे, तो बड़े भाई ने पांच रुपये दिए, कालेज में अपनी फीस जमा करवाने को।

रमण ने सोचा कि अरुणाचलम् पहुंचने में तीन रुपये लगेंगे। सो, उन्होंने तीन रुपये तो अपने पास रखे और एक चिट लिख दी – “मैं अपने परम पिता की तलाश में, उसी की आज्ञा से, जा रहा हूँ। यह एक महान कार्य है - इसके लिए दुख करने और खोज में रुपया खर्च करने की आवश्यकता नहीं। तुम्हारी कालेज की फीस जमा नहीं करवा रहा। दो रुपये इसके साथ नत्थी हैं।“ इसके बाद वह घर से निकले, स्टेशन पर आए, टिकट लिया और गाड़ी में बैठ गए। राह में दो दिन भटके भी, परंतु आखिर में अपने आराध्य भगवान शिव के स्थान अरुणाचलम् पहुंच ही गए। जब वह अपने घर से चले थे, तो कानों में सोने की बालियां थी। राह में भटक जाने पर उन्होंने वे बालियां एक गृहस्थ को चार रुपये में दे दी। अरुणाचलम् पहुंचने पर एक आदमी ने उनसे पूछा - "चुटिया मुंड़वाओगे?"

उन्होंने कहा-"हां।"

फलतः वह उन्हें एक जगह ले गया, जहां अनेक नाई बैठे यही काम कर रहे थे। चोटी मुड़वाकर उन्होंने अपनी जनेऊ भी अपने आप उतार दी। धोती फाड़कर फेंक दी और उसमें से कोपीन या लंगोटी के लायक कपड़ा रख लिया। बाल कटवाने के बाद हिंदू रीति के अनुसार स्नान करना चाहिए, पर रमण तो शरीर की सेवा के पक्ष में थे ही नहीं, सो मंदिर की ओर चल पड़े। परंतु मंदिर के द्वार में घुसने से पहले ही जोरों की बूंदें पड़ी और उनका स्नान हो गया।

इस प्रकार, दुनिया से मुंह मोड़कर, और सारी इच्छाओं को त्यागकर, महर्षि रमण भगवान शिव के चरणों में साधनालीन हो गए। मंदिर के बड़े दालान में एक ओर उन्होंने आसन जमा दिया। कई सप्ताह तक वह बिना हिले-डुले, बोले-चाले, वहीं बैठे रहे। संसार से उनका नाता टूट चुका था। वह आत्मा की खोज में लीन थे। शीघ्र ही, लोग उन्हें “ब्राह्मणस्वामी” कहने लगे और शेषाद्रिस्वामी नाम के एक सज्जन ने, जो कुछ साल से वहां आए हुए थे, उनकी देखभाल का काम अपने जिम्मे ले लिया। लोग रमण महर्षि को “छोटा शेषाद्वि” भी कहने लगे। उनके घर से गायब होने के बाद स्वभावतः ही लोग उनकी खोज में लग गए और एक दिन उनकी माता उनके पास आ पहुंची। पर वह चुप रहे, कुछ नहीं बोले। अंततः एक व्यक्ति के कहने पर उन्होंने लिखा – “नियंता की आज्ञा और प्रारब्ध कर्मों के अनुसार जो कुछ नहीं होगा, वह कभी नहीं होगा इसलिए अच्छा है कि जो होता है, उसे होने दो।“

लगभग तीन वर्ष तक रमण ने कठोर तपस्या की। इन दिनों कोई व्यक्ति जो कुछ मुंह में डाल देता, वही खा लेते, पर दिन में केवल एक बार, और वह भी उतना ही, जिससे शरीर का आधार बना रहे। कुछ दिनों तक तो जिस पानी मिले दूध से मंदिर का फर्श धुलता था, वही उन्हें पिलाया गया। अरुणाचलम् की पहाड़ी के चारों ओर बहुत रूखा-सा वातावरण है। इस चोटी के दक्षिण में, नीचे की ओर, महर्षि रमण का आश्रम है। इस आश्रम की भी एक कथा है| महर्षि रमण की माता ने जब और कोई चारा न देखा, तो वह उन्हीं के पास रहने लगी और उनके भक्तों-शिष्यों की सेवा करने लगी। धीरे-धीरे उन्हें भान होता गया कि रमण अद्भुत शक्ति संपन्न दैवी पुरुष हैं। एक बार तो रमण के रूप में साक्षात भगवान ने उन्हें दर्शन दिए और वह चिल्ला पड़ी -"बेटा, इन सांपों को दूर करो। ये तुम्हें काट खाएंगे।"

जब माता की मृत्यु हुई, तो उनकी समाधि आज के आश्रम के स्थान पर बना दी गई। उन दिनों महर्षि रमण अरुणाचलम् की एक गुफा में रहते थे और माता की समाधि पर प्रतिदिन घूमने जाते थे। एक दिन वहां गए, तो वहीं ठहर गए। उनके शिष्यों को चिंता हुई कि वह कही चले गए। सो, वे उन्हें खोजने लगे। अंत में, उन्होंने उन्हें अपनी माता की समाधि पर बैठे पाया। पूछने पर वह बोले, "भगवान् का यही आदेश है।" फलतः वहां आश्रम बना दिया गया। अब तो आश्रम एक पूरी बस्ती ही बन गया है, पर पहले-पहल महर्षि के रहने के लिए वहां केवल घांस-फूंस की एक झोपड़ी डाली गई थी।
चिंतन
महर्षि रमण की आध्यात्मिक उन्नति की बात शीघ्र ही सारे संसार में फेल गई । विभिन्न देशों के लोग उनके दर्शन के लिए आने लगे | अच्छे प्रतिष्ठित और विचारवान व्यक्ति उनके पास आते और उनके सत्संग का लाभ उठाकर अपना जीवन सफल मानते। उनका कहना था कि सारे प्राणी, सारी आत्माएं, एक हैं। सभी आत्माओं को सुखी बनाने के लिए प्रयत्नशील होना ही ईश-भक्ति है। इसीलिए वह दुखियों, रोगियों, आदि की भरपूर सेवा करते थे कहते हैं कि कुछ ईसाई पादरी एक बार उनकी परीक्षा के लिए आए। वे महर्षि को पाखंडी मानते थे। पर जब उन्होंने उन्हें एक कोढ़ी दंपति की सेवा में लीन देखा, तो उनकी आंखें खुल गई और उन्होंने कहा, "आज हमने साक्षात् यीशू मसीह के दर्शन किए हैं।"

आज हमारे बीच महर्षि रमण तो नहीं हैं, पर उनकी शिक्षाएं उनके उपदेश और उनके सिद्धांत आज भी हमें प्रेरणा दे रहे हैं। वह कहते थे – “भगवान, गुरु और आत्मा एक समान हैं।“

गुरु की परिभाषा वह इस तरह करते थे – “गुरु वह है जो हर समय आत्मा की गहराई में निवास करता है। उसे गलतफहमियों और भेद-भावों से दूर रहना चाहिए। वह स्वतंत्र और बंधनमुक्त होना चाहिए। उसे कभी चिंतित नहीं होना चाहिए।“

वह यह भी कहते थे कि – “जो व्यक्ति अपने को नहीं जानता, वह दूसरे को क्या ज्ञान दे सकता है? वह अद्वैत सिद्धांत को मानने वाले थे। वह अधिक बोलते नहीं थे, परंतु लोगों को उनके दर्शन मात्र से शांति प्राप्त होती थी | बात यह थी कि वह स्वयं ज्ञानपूर्ण थे और सदा दूसरों के कष्ट दूर करने अथवा अपने ऊपर रखने की भावना रखते थे।

महर्षि रमण अपने शरीर की बिल्कुल परवाह नहीं करते थे। इसी वजह से वह असमय में ही बुढ़े हो गए |१९४७ के बाद तो वह बहुत ही कमजोर हो थे। फिर,१९५० में उनकी आंख में एक भयंकर फोड़ा निकला। इस फोड़े का कई बार आपरेशन हुआ, परंतु वह ठीक न हुआ और अंत में उसी की वजह से वह महासमाधि में लीन हो गए।

इस तरह, यद्यपि महर्षि रमण हमारे बीच से चले गए हैं, पर उनका संदेश आज भी हमें बार-बार सावधान करता है – “सभी प्राणी एक हैं। सबके कल्याण में ही तुम्हारा कल्याण है ।

सभी जीव सदैव आनन्द (ख़ुशी) की इच्छा रखते हैं, ऐसा आनन्द जिसमें दु:ख का कोई स्थान न हो,।
"जबकि हर व्यक्ति अपने आप से सब से अधिक प्रेम करता है. इस प्रेम का केवल एक कारण आनन्द है, इसलिए आनन्द अपने स्वयं के भीतर हमेशा होना चहिए..❗"

2 🍀 :: मन क्या हैं? मन अंतरआत्मा की एक आश्चर्यजनक शक्ति है. जो शरीर के भीतर मैं के रुप “में” उदित होता है,
" वह मन है. जब सूक्ष्म मन, मस्तिष्क एवं इन्द्रियों के द्वारा बहिर्मुखी होता है, तो स्थूल नाम, रुप की पहचान होती है❗"

3 🍀 :: जब वह हृदय में रहता है तो नाम, रुप विलुप्त हो जाते है. यदि मन हृदय में रहता है तो "मै" या अहंकार जो समस्त विचारों का स्रोत है, चला जाता हैं और केवल आत्मा या वास्तविक शाश्वत "मैं" प्रकाशित होगा. जहाँ अहंकार लेशमात्र नहीं होता, वहाँ आत्मा है।

4 🍀 :: केवल शांति अस्तित्वमान है. हमें केवल शांत रहन है. शांति ही हमारी वास्तविक प्रकृति है. हम इसे नष्ट करते हैं. इसे नष्ट करने की आदत को बंद करने की जरुरत है।

5 🍀 :: जब तक इंसान अज्ञानी रहता है, तभी तक पुनर्जन्म का अस्तित्व बना रहता है. वास्तव में पुनर्जन्म है ही नहीं ना वह पहले था, न अभी है, न आगे होगा. यही एक सत्य है।

6 🍀 :: मृत्यु शरीर को मार सकती है, "अहं-मैं-आत्मा" अनिश्वर है, अमर है, मृत्यु की हर एक सीमा से बाहर है।

7 🍀 :: मन दो नहीं हैं अच्छा और बुरा. वासना के अनुरूप अच्छे और बुरे मन का स्वरूप हमारे सामने आ जाता है।

8 🍀 :: सबसे उत्कृष्ट दान ज्ञान-दान है।

9 🍀 :: परमात्मा और आत्मा एक ही वस्तु तत्व के दो नाम हैं।

10 🍀 :: अहंकार मूल पाप है. लोभ, क्रोध व मोह ऐसी की छायाएं हैं।

11 🍀 :: हृदय गुहा के मध्य में केवल ब्रह्म आत्मा के रूप में अहम् -अहम् की स्फुरणा के साथ चमकता है. श्वाँस-नियमन या एकाग्रचित्त आत्म-विचार द्वारा अपने भीतर गोता लगाकर हृदय में पहुँचो. इस प्रकार से आप आत्मा में स्थिर हो जायेंगे।

12 🍀 :: अपने आपको जानो आत्मज्ञान परमोच्च ज्ञान है, सत्य का ज्ञान है।

13 🍀 :: दुःख का कारण बाहर नहीं है. यह तो अपने भीतर है. दुःख की उत्पत्ति अहंकार से होती है।

14 🍀 :: मौन की भाषा शांतिमयी वाणी में जो सक्रियता और शक्ति है, वह भाषण प्रवचन कदापि नहीं है।

15 🍀 :: व्यक्ति समाज से तिरस्कृत होने पर दार्शनिक, शासन से प्रताड़ित होने पर विद्रोही, परिवार से उपेक्षित होने पर महात्मा और नारी से अनादृत होने पर देवता बनता है।

16 🍀 :: स्वप्न एवं जाग्रत अवस्था में कोई अन्तर नहीं है, सिवाय इसके कि स्वप्न छोटा तथा जाग्रत अवस्था लम्बी होती है. दोनो ही मन के परिणाम है. वास्तविक अवस्था जिसे तुरिया (चतुर्थ) कहा जाता है, जाग्रत, स्वप्न एवं नींद के पार है।

17 🍀 :: इस बात का विचार मत करो कि तुम मरने के बाद क्या होंगे, समझना तो यह है कि तुम इस समय क्या हो।

18 🍀 :: ईश्वर को जानने के पहले अपने आपको जानना चाहिए आत्मा से भिन्न ईश्वर की स्थिति नहीं है. संसार आत्मा को न जानने के कारण ही दुखी हैं।

19 🍀 :: तुम भविष्य की क्यों चिंता करते हो. तुम तो अपना वर्तमान ही नहीं जानते हो, वर्तमान को संभालो, भविष्य स्वयं अपने आप ठीक हो जाएगा।

20 🍀 :: विधाता प्राणियों के भाग्य का उनके कर्म के अनुसार निपटारा करते हैं. जो नहीं होना है, वह नहीं होगा।

21 🍀 :: सर्वोत्तम और परम शक्तिमयी भाषा मौन है, मौन शांति का भूषण है. उपदेश तो नितान्त मौन रहकर दिया जा सकता है।

“ हालांकि दुष्ट-बुद्धि (या मक्कार) लोगों से भी तुम्हारा सामना हो सकता है, किन्तु उनसे नफरत या घृणा करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। पसंद और नापसंद, प्यार और नफरत भी समान रूप से त्याज्य हैं। मन के लिये यह उचित नहीं है, कि उसको हमेशा भौतिक पदार्थों या सांसारिक विषयों के चिन्तन में लगाये रखा जाये। जहां तक ​​संभव हो, दूसरों के मामलों में हमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।"
“ यह प्रतीयमान जगत,विचार के सिवा अन्य कुछ भी नहीं है। जब मन सभी प्रकार के विचारों से मुक्त हो जाता है, उस समय व्यक्ति की दृष्टि से यह जगत-प्रपंच भी ओझल हो जाता है, और मन - निजानन्द या स्वयं के आनंद का भोग करता है। इसके विपरीत, जब जगत दिखाई देता है, अर्थात जब विचार प्रकट होने लगते हैं, उस समय मन दर्द और पीड़ा का अनुभव करता है। “
“ जिस प्रकार मकड़ी अपने ही भीतर से जाला के धागे को बाहर निकालती है, और फिर अपने भीतर खींच लेती है, ठीक उसी तरह से मन अपने भीतर के जगत को बाहर प्रक्षिप्त करता है, और स्वयं ही उसको अपने भीतर समाहित कर लेता है।”
“ किसी मनुष्य को अपने उन व्यक्तिगत स्वार्थों (कामिनी-कांचन में आसक्ति ) को त्याग देना चाहिये जो उसे इस नश्वर जगत से बाँध देता है। मिथ्या अहंकार (मैं -पन ) को त्याग देना ही सच्चा त्याग है। “
“ प्रत्येक मनुष्य स्वभावतः दिव्य और ओजस्वी है। जो कुछ दुर्बल और अशुभ दिख रहे हैं, वे उसकी आदतें, वासनायें और विचार हैं, किन्तु वह स्वयं वैसा नहीं है।”
“ वे जो अपना जन्मदिन मनाना चाहते हों,-सुने ! तुम पहले यह खोजो कि तुम्हारा जन्म कब हुआ था ? किसी व्यक्ति का वास्तविक जन्मदिन वह है, जिस दिन (१४-४-१९९२) वह अपने को एक अजन्मा, अविनाशी, अमृत-सन्तान के रूप में पहचान लेता है !
" किसी व्यक्ति को कम से कम, अपने जन्मदिन के अवसर पर, इस संसार (जन्म-मृत्यु के चक्र) में प्रविष्ट होने की मूर्खता के लिये अफ़सोस प्रकट करना चाहिये। क्योंकि शरीर-यौवन पर गौरवान्वित होना और जश्न मनाना तो किसी लाश को अलंकृत करने, या शव का श्रृंगार करने जैसा है। अपनी आत्मा की खोज करना, और स्वयं में विलीन हो जाना -- इसीको ज्ञान या अपने सत्य-स्वरुप की पहचान कहते हैं।”
“ एकाकी आत्मा या ‘स्व’ ही जगत् है, 'मैं' और भगवान (ब्रह्म) है! यह सारी कायनात, या जिस वस्तु का भी अस्तित्व है, वह सब किन्तु, उसी ब्रह्म (Supreme-परम) की अभिव्यक्ति है ! "“The Self alone is the world, the ‘I’ and God. All that exists is but the manifestation of the Supreme.”
“ (3H-) वह चेतना…. जो इस भौतिक शरीर में ‘मैं' के रूप में पैदा होती है, ‘मन’ (mind या Head) है। यदि कोई व्यक्ति यह पता लगाने की चेष्टा करे, कि शरीर (body या Hand) के किस स्थान से ‘मैं’-पन का विचार उठता है--तो उसे पहला दृष्टान्त यही मिलेगा कि वह विचार सर्वप्रथम ‘हृदयम्’ या ‘Heart’ से उतपन्न होता है।” 3H - That which arises in the physical body as ’I′ is the mind..(Head) If one enquires whence the ’I′ thought in the body (Hand) arises in the first instance, it will be found that it is from ‘hrdayam’ or the (Heart).”
" जो कुछ भी हम दूसरों को अर्पित करते हैं, वह सब कुछ वास्तव में अपने आप को ही अर्पित करना है; और जिसे केवल इसी सच्चाई का एहसास हो गया हो, वह भला दूसरों को कुछ भी देने से कैसे मना कर सकता है?”
"कर्म-मय जीवन का परित्याग करने की आवश्यकता नही है। यदि आप हर दिन एक या दो घंटे के लिए ध्यान करें तो आप अपने जीवन के कर्तव्यों को आसानी से जारी रख सकते हैं।” “The life of action need not be renounced. If you meditate for an hour or two every day, you can then carry on with your duties.”
“ कोई एक सत्ता अवश्य है, जो इस जगत् को नियंत्रित (governs) करती है, और यह उसकी चौकसी या निगेहबानी है कि वह दुनिया की रखवाली कैसे करती है, या इसे कैसे सँभालती है ? वही सत्ता (माँ जगद्धात्री) इस दुनिया का बोझ उठाती है, न कि तुम उठाते हो ! "
" मन के सात्विक गुणों को विकसित करने का सबसे अनुकूल तरीका, सर्वोत्कृष्ट आचार-नीति है - आहार का नियमन; अर्थात केवल सात्विक आहार- ग्रहण करना, वह भी परिमित मात्रा में।“
“ प्रश्न : मैं जगत् की सहायता करना चाहता हूँ, क्या मैं संसार का मददगार या उपकारी नहीं बन सकता? उत्तर : हाँ ! स्वयं की सहायता करके, आप जगत् की सहायता करते हैं। आपकी स्थिति जगत में इस प्रकार है ---कि आप ही जगत हैं। आप जगत से भिन्न नहीं हैं, और न यह जगत ही आपसे अलग है। “
“ जब आप लक्ष्य तक पहुँच जाते हैं, अर्थात आप ज्ञाता को भी जान लेते हैं, उसके बाद यदि आप लंदन में एक घर में रहते हैं, या आप किसी जंगल के एकांत में रहते हैं, --दोनों के बीच आपको कोई अंतर महसूस नहीं होता। " “When the goal is reached, when you know the knower, there is no difference between living in a house in London and living in the solitude of a jungle.”
“ मानव-जाति का मार्ग-दर्शक नेता, वह है जिसने पूरी तरह से केवल भगवान पर ध्यान किया, और अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ब्रह्म-समुद्र में डूबो दिया, तथा उसे तब तक भुलाये रखा है जब तक वह केवल भगवान का एक यंत्र नहीं बन जाता। और अब जब उसका मुंह खुलता है, तो वह बिना अग्रचिंता किये ही भगवान के शब्द बोलता है, और जब वह अपना हाथ उठाता है, तब पुनः भगवान की कृपा ही कोई चमत्कार करने के लिए, उस के माध्यम से बहती है। "
"महर्षि रमण की एक और विशेषता यह है, कि वे जब खाने के लिए बैठते हैं, तो अपना भोजन ग्रहण करने के पूर्व वे दूसरों के बारे में पूछते हैं, और यह देखते हैं, कि वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति की सेवा निष्पक्ष होकर की जा रही है, या नहीं ? यदि कोई चावल नहीं लेता हो, तो उसके लिये फल या जो कुछ भी वह पसन्द करता हो, उसे परोसने की व्यवस्था रहती है।”
" आत्मा में एक अद्वितीय शक्ति है - मन, जिसके द्वारा किसी व्यक्ति में विचार प्रकट होते हैं। यदि इस बात का सूक्ष्म परिक्षण किया जाय, कि सभी विचारों के समाप्त हो जाने के बाद क्या बच जाता है ? तो यही पाया जायेगा कि विचार से अलग मन नामक कोई वस्तु है ही नहीं। तोफिर, इससे यही सिद्ध होता है कि विचार खुद ही के मन का निर्माण करता है।"
" मन के स्वभाव के बारे में एक नियमित और निरन्तर अन्वेषण करने से, मन उस वस्तु में रूपान्तरित हो जाता है, जिसे हमलोग ‘मैं’ कहकर उद्धृत करते है, और जो वास्तव में आत्मा ही है।”
" हमारा मन में असंख्य विषय-वासनायें ( इन्द्रिय-भोगों की परितुष्टि देने वाली वस्तुओं के संबंध में मन की सूक्ष्म प्रवृत्तियों), सागर की लहरों की तरह एक के बाद एक करके उठती-गिरती रहती हैं, जिसके कारण मन हमेशा चंचल बना रहता है। तथापि अपने आत्मस्वरूप पर ध्यान करने से या आत्मा पर ध्यान करने से, वे विचार कम होते जाते हैं, और प्रगतिशील अभ्यास के साथ अंत में बिल्कुल नष्ट हो जाते हैं. "

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नवगीत
चिरैया!
*
चिरैया!
आ, चहचहा
*
द्वार सूना
टेरता है।
राह तोता
हेरता है।
बाज कपटी
ताक नभ से-
डाल फंदा
घेरता है।
सँभलकर चल
लगा पाए,
ना जमाना
कहकहा।
चिरैया!
आ, चहचहा
*
चिरैया
माँ की निशानी
चिरैया
माँ की कहानी
कह रही
बदले समय में
चिरैया
कर निगहबानी
मनो रमा है
मन हमेशा
याद सिरहाने
तहा
चिरैया!
आ चहचहा
*
तौल री पर
हारना मत।
हौसलों को
मारना मत।
मत ठिठकना,
मत बहकना-
ख्वाब अपने
गाड़ना मत।
ज्योत्सना
सँग महमहा
चिरैया!
आ, चहचहा
२०-३-२०२१
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बाल गीत :
जल्दी आना ...
*
मैं घर में सब बाहर जाते,
लेकिन जल्दी आना…
*
भैया! शाला में पढ़-लिखना
करना नहीं बहाना.
सीखो नई कहानी जब भी
आकर मुझे सुनाना.
*
दीदी! दे दे पेन-पेन्सिल,
कॉपी वचन निभाना.
सिखला नच्चू , सीखूँगी मैं-
तुझ जैसा है ठाना.
*
पापा! अपनी बाँहों में ले,
झूला तनिक झुलाना.
चुम्मी लूँगी खुश हो, हँसकर-
कंधे बिठा घुमाना.
*
माँ! तेरी गोदी आये बिन,
मुझे न पीना-खाना.
कैयां में ले गा दे लोरी-
निन्नी आज कराना.
*
दादी-दादा हम-तुम साथी,
खेल करेंगे नाना.
नटखट हूँ मैं, देख शरारत-
मंद-मंद मुस्काना.
२०-३-२०१३
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