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मंगलवार, 5 मई 2020

कविता - ढाई आखर

कविता -
ढाई आखर
.
दाँत दूध के टूट न पाये
पर वयस्क हैं.
नहीं सुंदरी नर्स इसलिए
अनमयस्क हैं.
चूस रहे अंगूठा लेकिन
आँख मारते
बाल भारती पढ़ न सके
डेटिंग परस्त हैं
हर उद्यान
काम-क्रीड़ा हित
इनको बाखर
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
.
मकरध्वज घुट्टी में शायद
गयी पिलायी
वात्स्यायन की खोज
गर्भ में गयी सुनायी
मान देह को माटी माटी से
मिलते हैं
कीचड किया, न शतदल कलिका
गयी खिलायी
मन अनजाना
तन इनको केवल
जलसाघर
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
.
४.५.२०१५

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