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रविवार, 3 मई 2020

दोहा दो दुम का

दो दुम का दोहा
*
राजनीति में नीति का, कहीं न किंचित काम.
निज प्रशस्ति कर आप मुख, रहो बढ़ाते दाम.
लोग बिलखें या रोएँ
काँध पर तुमको ढोएँ
*

एक दूसरे को चलो, दें हम दोनों दोष.
मिल-जुल लूटें देश को, दिखला झूठा रोष.
लोग संतोष करेंगे
हमारा कोष भरेंगे

*
जब जिसने जो कह दिया, बोला सच्ची बात
सच न कहीं है अगर तो, सच दोषी कर घात

न दोषी होगा नेता 
हमेशा ही वह लेता 
*
देख रहे हैं तमाशा, अब अपने ही लोग.
ऋण ऋण मिल ऋण ही रहें, कैसा है दुर्योग?

मर रहा लोकतंत्र है 
जी रहा लोभ तंत्र है 
*
मन में क्या किससे कहें? कौन सुनेगा बात?
सुनकर समझेगा 'सलिल' अब न रहे हालात

जो कहे सत्ता वह सच 
नहीं सच कहने से बच 
*
३.५.२०१८ 

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