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शनिवार, 18 नवंबर 2017

doha salila

दोहा सलिला
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मन की मन में ही रखो, सब से कहो न बात
साथ न ताम में छाँव दे, अपने करते घात
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अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ
'सलिल' न जो मिलकर रहें, उनका जीवन व्यर्थ
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उग बढ़ झड पत्ते रहे, रहे न कुछ भी जोड़
सीख न लेता कुछ मनुज, कब चाहे दे छोड़?
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लट्टू पर लट्टू हुए, दिया न आया याद
जब बिजली गुल हो गयी, तब करते फ़रियाद
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बना बतंगड़ बात का, उड़ी खूब अफवाह
बिना सत्य जाने करें, क्यों सद्भाव तबाह?
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सुमन न देता अंजुमन, कहता लाओ मोल
चकित खड़ा माली रहा अपनी जेब टटोल 
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ले-देकर सुलझा रहे, मंदिर-मस्जिद लोग
प्रभु से पहले लग रहा, भक्तों को ही भोग
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सही-गलत जाने बिना, बेमतलब आरोप
लगा नासमझ दिखाते, अपनों पर ही कोप 
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लोकतंत्र में धमकियाँ, क्यों देते हम-आप
संविधान की अदेखी, दंडनीय है पाप
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नादां हैं आतंक को, अगर रहे हैं पाल
जला रहे हैं हाथ निज, मगर न गलती दाल
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मुखड़े को लाइक मिलें, रचना से क्या काम?
हुए भले बदनाम हम, हुआ दूर तक नाम
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