नवगीत -
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पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो 
ठोंक कील। 
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कैसा निजाम जिसमें 
दो दूनी 
तीन-पाँच ही होता है।
जो काट रहा है पौधों को 
वह हँसिया 
फसलें बोता है। 
कीचड़ धोता है दाग 
रगड़कर 
कालिख गोर चेहरे पर। 
अंधे बैठे हैं देख 
सुनयना राहें रोके पहरे पर।  
ठुमकी दे उठा, गिराते हो 
खुद ही पतंग 
दे रहे ढील। 
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो 
ठोंक कील। 
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कैसा मजहब जिसमें 
भक्तों की  
जेब देख प्रभु वर देता?
कैसा मलहम जो घायल के  
ज़ख्मों पर 
नमक छिड़क देता। 
अधनँगी देहें कहती हैं   
हम सुरुचि
पूर्ण, कपड़े पहने। 
ज्यों काँटे चुभा बबूल कहे 
धारण कर 
लो प्रेमिल गहने।  
गौरैया निकट बुलाते हो 
फिर छोड़ रहे हो  
कैद चील। 
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो 
ठोंक कील। 
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३०-८-२०१६ 
 
 
2 टिप्पणियां:
सुन्दर सरल ....प्रभावी
धन्यवाद
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