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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
हवा लगे ठहरी-ठहरी
उथले मन बातें गहरी
.
ऊँचे पद हैं नीचे लोग
सरकारें अंधी-बहरी
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सुख-दुःख आते-जाते हैं
धूप-छाँव जैसे तह री
.
प्रेयसी बैठी है सर पर
मैया लगती है महरी
.
नहीं सुहाते गाँव तनिक
भरमाती नगरी शहरी
.
सबकी ख़ुशी बना अपनी
द्वेष जलन से मत दह री
*

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