दोहा सलिला:
संजीव
अ
संजीव
अ
जड़ पकड़े चेतन तजे, हो खयाल या माल
खलिश तभी आनंद हो, झूमे दे-दे ताल
Sanjiv verma 'Salil'
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8 टिप्पणियां:
Pramendra pratap singh
kyaa baat kahi aapne...
Dr.M.C. Gupta द्वारा yahoogroups.com
सलिल जी,
मैंने इसे ऐसे पढ़ा--
जड़ पकड़े चेतन, तजे हो खयाल या माल
खलिश तभी आनंद हो, झूमे दे-दे ताल.
--ख़लिश
Lalit Walia
See, how important punctuation is in poetry ?
Just a right place of coma made a difference.
Good one 'Khalish Ji.
Lalit Walia
As a matter of fact this doesn't need coma any where. These kind of lines are understood when read in straight flow. (Its a kind of metaphor).
जड़ पकड़े चेतन तजे हो खयाल या माल
खलिश तभी आनंद हो झूमे दे-दे ताल.
Lalit
>>> (Its a kind of metaphor)
Sorry, not a metaphor,
It's a kind of an Idiom I meant.
Lalit Walia
दरअसल इतनी दलीलें देने के बाद भी मुझे तसल्ली नहीं हुई । जब दूसरों के ग़लत वक्तव्य बर्दाश्त नहीं होते, तो ख़ुद ही कैसे गलत कह दूं ?
वास्तव में अच्छी तरह सोचने के बाद ये निष्कर्ष निकला ।
जड़ पकड़े चेतन, तजे हो खयाल या माल (पंक्ति का सही अर्थ निकालने की दृष्टि से आप सही हैं ।
खलिश तभी आनंद हो, झूमे दे-दे ताल.
जड़ पकड़े चेतन तजे, हो खयाल या माल (दोहे की लय क़ायम रखने की दृष्टि से संजीव जी की जगह भी ठीक है)
खलिश तभी आनंद हो, झूमे दे-दे ताल.
पर ये दोहा मुहावरे जैसा होने के कारण कोमे की कहीं भी ज़रुरत नही है ।
Dr.M.C. Gupta द्वारा yahoogroups.com
संदर्भ--
जड़ पकड़े चेतन, तजे हो खयाल या माल (पंक्ति का सही अर्थ निकालने की दृष्टि से आप सही हैं ।
खलिश तभी आनंद हो, झूमे दे-दे ताल.
जड़ पकड़े चेतन तजे, हो खयाल या माल (दोहे की लय क़ायम रखने की दृष्टि से संजीव जी की जगह भी ठीक है)
खलिश तभी आनंद हो, झूमे दे-दे ताल.
***
अब विकट समस्या / बेतल पहेली यह है कि चूँकि दोनों का अर्थ बिल्कुल विपरीत है, अत: मूल लेखक का मंतव्य क्या था?
वैसे मेरा सुझाव यह है कि इस मंतव्य को उसी प्रकार परदे में रहने दिया जाए जैसा हसरत साहिब ने सुझाया था-- "पर्दे में रहने दो, पर्दा न उठाओ"
http://www.youtube.com/watch?v=gDUry5XwX5w&noredirect=1
--बेहतर हो यह प्रकरण यहीं समाप्त कर दिया जाए.
--ख़लिश
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राजा करे सो न्याय
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