दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020
दोहा सलिला
दोहा सलिला-
चिप्पियाँ Labels:
दोहा सलिला
दोहा शतक- मञ्जूषा 'मन'
दोहा शतक-२
मञ्जूषा 'मन'
मञ्जूषा 'मन'
*
९-९-१९७३।
सृजन विधा- गीत, दोहा, मुक्तक, ग़ज़ल आदि।
कार्यक्रम अधिकारी, अम्बुजा सीमेंट फाउंडेशन।
बलोदा बाज़ार, छतीसगढ़।
१.
अब हमको लगने लगे, प्यारे अपने गीत।
सपने नैनन में सजे, आप बने जो मीत।।
२.
कागज़ के टुकड़े हुए, उनके सारे नोट।
कर्मों से ज्यादा रही, क्यों नीयत में खोट।
३.
कहाँ छुपाकर हम रखें, तेरी ये तस्वीर।
भीग न जाये तू सनम, आँखों में है नीर।।
४.
ज़ख्मों पर मरहम नहीं, रखना तुम अंगार।
अनदेखी के दर्द पर, काम न आता प्यार।।
५.
दीप-शिखा बन हम जले, पाकर तेरा प्यार।
जान लुटाकर जी गए, यह जीवन का सार।।
६.
मन भीतर रखते छुपा, हमदम की तस्वीर।
बस ये ही तस्वीर है, जीने की तदबीर।।
७.
करी बागबानी बहुत, पर न खिल सके फूल।
क्या कोशिश में कमी, या कुदरत की भूल??
८.
करते शोषण मर्द तो, औरत क्यों बदनाम?
किसने मर्यादा लिखी, औरत के ही नाम??
९.
सबके अपने रंग है, अपने अपने रूप।
अपने-अपने सूर्य हैं, अपनी-अपनी धूप।।
११.
महँगाई के दौर में, सबसे सस्ती जान।
दो रोटी की चाह में, बिक जाता इंसान।।
११.
आँसू पलकों में लिए, हम बैठे चुपचाप।
मेरे दुख को भूल कर, रास रचाते आप।।
१२.
हमने तो बिन स्वार्थ के, किये सभी के काम।
हाथ न आया सुयश हम, मुफ़्त हुए बदनाम।।
१३.
मन को सींचा अश्रु से, पर मुरझाई बेल।
बहुत कठिन लगने लगा, जीवन का कटु खेल।।
१४.
बोलो कैसे निभ सके, पानी के सँग आग?
सुख सँग नाता है यही, डंसते बन कर नाग।
१५.
सूख गए आँसू सभी, आँखों में है प्यास।
बादल भी रूठे हुए, कौन बँधाए आस??
१६.
दुख-धागे चादर बुनी, पकड़े श्वांसें छोर।
सुख से कब सुलझी कहो, उलझी जीवन डोर??
१७..
हम सच बोलें तो उन्हें, क्यों आता है रोष?
अपने कर्मों का सदा, हमको देते दोष।।
१८.
अगिन शिकारी हैं छिपे, यहाँ लगाकर घात।
मन घबराता है बहुत, कौन बचाए तात??
१९.
अपने-गैरों की कहें, कैसे हो पहचान?
अपने धोखा कर रहे, मिले भले अनजान।।
२०.
ज़हर बुझे प्रिय के वचन, चुभते जैसे बाण।
इतनी पीड़ा सह हुए, हाय! प्राण निष्प्राण।।
२१.
चतुर समझता किंतु है, मन मूरख-नादान।
झूठे सारे रूप हैं, झूठी है सब शान।।
२२.
सूखे पोखर-ताल हैं, कहें किसे ये पीर?
और कहीं मिलता नहीं, आँखों में है नीर।।
२३.
फिर आएगी भोर कल, रखें जगाए आस।
बदलेंगे दिन ये कभी, बना रहे विश्वास।।
२४.
छिप न सके पंछी विवश, झरे पेड़ के पात।
निर्दय मौसम दे रहा, बड़े-बड़े आघात।।
२५.
सिर को पकड़े सोचता, बैठा एक गरीब।
कड़ी धूप से बच सकें, करे कौन तरकीब??
२६.
वसुधा तरसे नीर को, खो कर सब सिंगार।
मेघ नज़र आते नहीं, अम्बर के भी पार।।
२७.
थाम लिया पतवार खुद, चले सिंधु के पार।
मन में दृढ़ विश्वास ले, उतर गए मझधार।।
२८.
नीयत कब बदली कहो, बदले कपड़े रोज।
प्रेम हृदय में था नहीं, देखा हमने खोज।।
२९.
दुखे नहीं दिल आपसे, करी ऐसे कर्म।
कर्मों का फल भोगना, पड़ता समझो मर्म।।
३०.
दूजों को देखो नहीं, देखो अपने कर्म।
कुछ भी ऐसा मत करो, खुद पर आये शर्म।।
३१.
चंचल मन कब मानता, पल-पल उड़ता जाय।
छल से जब हो सामना, तब केवल पछताय।।
३२.
चंचलता अभिशाप है, रखना इसका ध्यान।
सोच-समझ कर चल सदा, सच को ले अनुमान।।
३३.
अब तक हमने था रखा, अपने मन पर धीर।
आँखों ने कह दी मगर, तुम से मन की पीर।।
३४.
सबके अपने दर्द हैं, कौन बँधाए धीर?
अपने-अपने दर्द हैं, अपनी-अपनी पीर।।
३५.
जाने क्या-क्या कह गया, बह नयनों से नीर।
हमने कब तुमसे कही, अपने मन की पीर।।
३६.
दिल को छलनी कर गए, कटु वचनों के तीर।
चुप रहकर हम सह गए, फिर भी सारी पीर।।
३७.
सोचा कब परिणाम को, चढ़ा प्रेम का जोश।
अपना सब कुछ खो दिया, जब तक आया होश।।
३८.
दिन भर छत पर पकड़ते, धूपों के खरगोश।
बचपन जैसा अब नहीं, बचा किसी में जोश।।
३९.
सीखो मुझसे तुम जरा, कहता है इतिहास।
अनुभव से मैं हूँ भरा, कल को कर दूँ खास।।
४०.
आनेवाला कल अगर, करना चाहो खास।
एक बार देखो पलट, तुम अपना इतिहास।।
४१.
सौंपा हमने आपको, अपने मन का साज।
मन वीणा में देखिये, सरगम बजती आज।
४२.
गली -गली चलने लगे, महाभारती दाँव।
कुरुक्षेत्र में अब कहो, कहाँ मिलेगी छाँव।।
४३.
युद्ध छिड़ा चारों तरफ, मचा सब तरफ क्लेश।
कुरुक्षेत्र सा दिख रहा, अपना प्यारा देश।।
४४.
मन ने चिट्ठी लिख रखी, गुपचुप अपने पास।
फिर भी हर पल कर रहा, है उत्तर की आस।।
४५.
पाती ही बाँची गई, पढ़े न मन के भाव।
बीच भँवर में डूबती, रही प्रेम की नाव।।
४६.
साथ मिला जो आपका, महक उठे जज़्बात।
होठों तक आई नहीं, लेकिन मन की बात।।
४७.
मन-पंछी नादान है, उड़ने को तैयार।
जब-जब भी कोशिश करी, पंख कटे हर बार।।
४८.
प्रेम बीज बोए बहुत, खिला नहीं पर फूल।
जिस बगिया को सींचते, वहीँ चुभे हैं शूल।।
४९.
महक रहा मन-मोगरा, तन बगिया के बीच।
समय निठुर माली न क्यों, सलिल रहा है सींच??
५०.
वर्षा बरसी प्रेम की, भीगे तन-मन आज।
धीरे-धीरे आज सब, खुले प्रेम के राज।।
५१.
थाम हाथ मन का चलो, राहें हो खुशहाल।
जीवन जीना चाह लें, हम तो सालों साल।।
५२.
सूने मन में खिल रहे, आशाओं के फूल।
बीच भँवर में पात ज्यों, मिल लगते हैं कूल।।
५३.
बैठा था बहुरूपिया, डाले अपना जाल।
भोला मन समझा नहीं, उसकी गहरी चाल।
५४.
प्रेम संग मीठी लगे, सूखी रोटी-प्याज।
सुख से जीने का सुनो, एक प्रेम ही राज।।
५५.
प्रेम सहित मीठी लगे, सूखी रोटी प्याज।
सुख से जीने का सुनो, एक प्रेम है राज।।
५६.
गली-गली चलने लगे, महाभारती दाँव।
कहाँ मिले कुरुक्षेत्र में, पहले जैसी छाँव??
५७.
बहा रक्त कुरुक्षेत्र में, मचा भयंकर क्लेश।
मरघट जैसा हो गय , सारा भारत देश।।
५८.
कह दें मन की बात हम, पर समझेगा कौन?
बस इतना ही सोच कर, रह जाते हैं मौन।।
५९.
करो विदा हँस कर मुझे, जाऊँ मथुरा धाम।
राधा रूठोगी अगर, कैसे होगा काम??
६०.
कान्हा तुम छलिया बड़े, छलते हो हर बार।
भोली राधा का कभी, समझ सकोगे प्यार??
६१.
जो तुम यूँ चलते रहे, प्रेम डोर को थाम?
फिर इस जीवन में कहो, दुख का क्या है काम??
६२.
धुँआ-धुँआ सा दिख रहा, अब तो चारों ओर।
जीवन की इस राह का, दिखे न कोई छोर।
६३.
कह पाते हम किस तरह, हैं कितने हैं मजबूर?
जन्मों का है फासला, इसीलिए हैं दूर।।
६४.
चीरहरण होता यहाँ, देखा हर इक द्वार।
बहन बेटियों का सुनो, हो जाता व्यापार।।
६५.
बे-मतलब लेता यहाँ, कौन किसी का नाम।
दरवाज़े पर तब दिखे, जब पड़ता है काम।।
६६.
बोलो! कैसे सौंप दें, मन जब पाया श्राप?
मन से मन को जोड़कर, सुख पायेंगे आप??
६७.
कोई अब रखता नहीं, मन दरवाजे दीप।
गहन अँधेरा छा गया, टूटी मन की सीप।।
६८.
भूखा पेट न देखता, दिवस हुआ या रात?
आँतों को रोटी मिले, तब समझे वह बात।।
६९.
कड़वी यादें आज सब, नदिया दिये सिराय।
अच्छा-अच्छा गह चलो, यही बड़ों की राय।।
७०.
अपनी-अपनी ढपलियाँ, अपने-अपने राग।
अँधियारी दीवालियाँ, गूँगे होली-फ़ाग।
७१.
बौराया सावन फिरे, बाँट रहा सन्देश।
प्रेम लुटाता फिर रहा, धर प्रेमी का भेष।।
७२.
बूँदों की बौछार से, तन-मन जाता भीज।
कर सोलह श्रृंगार 'मन', आई सावन तीज।।
७३.
जग के छल सहते रहे, फिर भी देखे ख्वाब।
काँटों पर ही देखिये, खिलते सदा गुलाब।।
७४.
प्रेम बीज बोए बहुत, खिला नहीं पर फूल।
जिस बगिया को सींचते, वहीं चुभे हैं शूल।।
७५.
जीवन विष का है असर, नीले सारे अंग।
जिन जिनको अपना कहा, निकले सभी भुजंग।।
७६.
कागज पर लिखते रहे, अंतर्मनबात।
जग जिसको कविता कहे, पीड़ा की सौगात।।
७७.
ढलती बेरा में यहाँ, कब ले कोई नाम?
उगते सूरज को रहे, करते सभी सलाम।
७८.
ढूँढें बोलो किस तरह, कहाँ मिले आनन्द?
सब ही रखते हैं यहाँ, मन के द्वारे बन्द।।
७९.
दुख अपना देता रहा, जीवन का आनन्द।
सुख छलिया ठगता रहा, आया नहीं पसन्द।।
८०.
मुरझाये से हैं सभी, साथी फूल गुलाब।
पलकों में चुभने लगे, टूटे रूठे ख्वाब।।
८१ .
मेरे ग़म का आप 'मन', सुन लें ज़रा हिसाब।
जीने को कब चाहिए, जमजम वाला आब।।
८२.
जंगल-जंगल देखिये, बहका फिरे बसन्त।
टेसू दहके आग सा, जागी चाह अनन्त।।
८३.
जागो लो फिर आ गई, प्यारी सी इक भोर।
फूला-महका मोगरा, पंछी करते शोर।।
८४.
नस-नस में बहने लगा, अब वो बनकर पीर।
होंठो पर कुछ गीत हैं, आँखों में है नीर।।
८५.
रोजी-रोटी के लिए, तज आए थे गाँव।
कहाँ छुपाकर अब रखें, छालों वाले पाँव??
८६.
छाँव नहीं पाई कहीं, ऐसे मिले पड़ाव।
बीच भँवर में डोलती, जीवन की यह नाव।।
८७.
कैसी है यह ज़िन्दगी, पल-पल बदले रूप।
पल-दो पल की छाँव है, शेष समूची धूप।।
८८.
एक जुलाहा बैठ कर, स्वप्न बुने दिन-रैन।
मन बाहर झाँके नहीं, पाए कहीं न चैन।।
८९.
मिले नहीं हम आप से, मिले नहीं हैं नैन।
जब से मन में तुम बसे, कहीं न मन को चैन।
९०.
वारेंगे हम ज़िन्दगी, तुम पर सौ-सौ बार।
तेरी खातिर जी रहे, साँसे लिए उधार।
९१.
द्वारे पर बैठे लिए, अपने मन का दीप।
यादों के मोती सजे, नैनों की है सीप।।
९२.
बुझ जाएगा देखिये, आँखों का यह नूर।
मन दीपक बुझने लगा, होकर तुमसे दूर।।
९३.
मिलकर ही रौशन हुए, दीपक-बाती तेल।
जग उजियारा कर सके, तेरा-मेरा मेल।।
९४.
मैली तन-चादर हुई, सौ-सौ मन पर दाग।
तुझको कुछ अर्पित करूँ, मिला न ऐसा भाग।।
९५.
मालाएँ फेरीं बहुत, खूब जपा था नाम।
मन-भीतर छुपकर रहे, बड़ा अजब है श्याम।।
९६.
चिंगारी बाकी न थी, खूब कुरेदी राख।
मुरझाया हर पात था, मुरझाई थी शाख।।
९७.
गरल रोककर कण्ठ में, बाँट रहे मुस्कान।
ठोकर खा सीखे बहुत, जीवन का हम ज्ञान।।
९८.
उड़ अम्बर की ओर तू, ऐ मन! पंख पसार।
बैठे से मिलता नहीं, इस जीवन का सार।
९९.
चलने से थकना नहीं, चलना अच्छी बात।
बीतेंगे तू देखना, दुख के ये हालात।
१००.
आँखों ने पाई बहुत, आँसू की बरसात।
मेघों ने भी खूब दी, पीड़ा की सौगात।।
१०१.
मन की पीड़ा को मिली, मेघों से सौगात।
आँखों से बरसी बहुत, आँसू की बरसात।।
१०२.
बहा पसीना गाइये, आशाओं के गीत।
हो जाएगी एक दिन, उजियारे की जीत।।
१०३.
वाणी भी मीठी नहीं, कहे न मीठे बोल।
कड़वे इस संसार में, रे मन! मिसरी घोल।।
१०४.
सारा दिन खटती रहे, मिले नहीं आराम।
नारी जीवन में लिखा, काम काम बस काम।।
१०५.
पत्थर को पूजा बहुत, मिले नहीं भगवान।
मन-भीतर झाँका ज़रा, प्रभु के मिले निशान।।
१०६.
भूखे किसी गरीब घर, मने नहीं त्यौहार।
और अमीरों के यहाँ, हर दिन सजे बहार।।
१०७.
तन कोमल मिट्टी रचे, मन पाषाण कठोर।
ऊपर से भोले दिखें, अंदर बैठा चोर।।
१०८.
लोग मिले जो दोगले, रखना मत कुछ आस।
जो दो-दो सूरत रखें, उनका क्या विश्वास।।
१०९.
तेरह किसको चाहिए, कब चाहें हम तीन?
अपने साहस से करें, जीवन को रंगीन।।
११०.
पाँवों के छाले कहें, हमें न देखो आप।
बाकी है लम्बी डगर, झटपट लो 'मन' नाप।।
१११.
रिश्ते-नाते दे भुला, पद-कुर्सी का प्यार।
होता पद की आड़ में, रिश्तों का व्यापार।।
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९-९-१९७३।
सृजन विधा- गीत, दोहा, मुक्तक, ग़ज़ल आदि।
कार्यक्रम अधिकारी, अम्बुजा सीमेंट फाउंडेशन।
बलोदा बाज़ार, छतीसगढ़।
१.
अब हमको लगने लगे, प्यारे अपने गीत।
सपने नैनन में सजे, आप बने जो मीत।।
२.
कागज़ के टुकड़े हुए, उनके सारे नोट।
कर्मों से ज्यादा रही, क्यों नीयत में खोट।
३.
कहाँ छुपाकर हम रखें, तेरी ये तस्वीर।
भीग न जाये तू सनम, आँखों में है नीर।।
४.
ज़ख्मों पर मरहम नहीं, रखना तुम अंगार।
अनदेखी के दर्द पर, काम न आता प्यार।।
५.
दीप-शिखा बन हम जले, पाकर तेरा प्यार।
जान लुटाकर जी गए, यह जीवन का सार।।
६.
मन भीतर रखते छुपा, हमदम की तस्वीर।
बस ये ही तस्वीर है, जीने की तदबीर।।
७.
करी बागबानी बहुत, पर न खिल सके फूल।
क्या कोशिश में कमी, या कुदरत की भूल??
८.
करते शोषण मर्द तो, औरत क्यों बदनाम?
किसने मर्यादा लिखी, औरत के ही नाम??
९.
सबके अपने रंग है, अपने अपने रूप।
अपने-अपने सूर्य हैं, अपनी-अपनी धूप।।
११.
महँगाई के दौर में, सबसे सस्ती जान।
दो रोटी की चाह में, बिक जाता इंसान।।
११.
आँसू पलकों में लिए, हम बैठे चुपचाप।
मेरे दुख को भूल कर, रास रचाते आप।।
१२.
हमने तो बिन स्वार्थ के, किये सभी के काम।
हाथ न आया सुयश हम, मुफ़्त हुए बदनाम।।
१३.
मन को सींचा अश्रु से, पर मुरझाई बेल।
बहुत कठिन लगने लगा, जीवन का कटु खेल।।
१४.
बोलो कैसे निभ सके, पानी के सँग आग?
सुख सँग नाता है यही, डंसते बन कर नाग।
१५.
सूख गए आँसू सभी, आँखों में है प्यास।
बादल भी रूठे हुए, कौन बँधाए आस??
१६.
दुख-धागे चादर बुनी, पकड़े श्वांसें छोर।
सुख से कब सुलझी कहो, उलझी जीवन डोर??
१७..
हम सच बोलें तो उन्हें, क्यों आता है रोष?
अपने कर्मों का सदा, हमको देते दोष।।
१८.
अगिन शिकारी हैं छिपे, यहाँ लगाकर घात।
मन घबराता है बहुत, कौन बचाए तात??
१९.
अपने-गैरों की कहें, कैसे हो पहचान?
अपने धोखा कर रहे, मिले भले अनजान।।
२०.
ज़हर बुझे प्रिय के वचन, चुभते जैसे बाण।
इतनी पीड़ा सह हुए, हाय! प्राण निष्प्राण।।
२१.
चतुर समझता किंतु है, मन मूरख-नादान।
झूठे सारे रूप हैं, झूठी है सब शान।।
२२.
सूखे पोखर-ताल हैं, कहें किसे ये पीर?
और कहीं मिलता नहीं, आँखों में है नीर।।
२३.
फिर आएगी भोर कल, रखें जगाए आस।
बदलेंगे दिन ये कभी, बना रहे विश्वास।।
२४.
छिप न सके पंछी विवश, झरे पेड़ के पात।
निर्दय मौसम दे रहा, बड़े-बड़े आघात।।
२५.
सिर को पकड़े सोचता, बैठा एक गरीब।
कड़ी धूप से बच सकें, करे कौन तरकीब??
२६.
वसुधा तरसे नीर को, खो कर सब सिंगार।
मेघ नज़र आते नहीं, अम्बर के भी पार।।
२७.
थाम लिया पतवार खुद, चले सिंधु के पार।
मन में दृढ़ विश्वास ले, उतर गए मझधार।।
२८.
नीयत कब बदली कहो, बदले कपड़े रोज।
प्रेम हृदय में था नहीं, देखा हमने खोज।।
२९.
दुखे नहीं दिल आपसे, करी ऐसे कर्म।
कर्मों का फल भोगना, पड़ता समझो मर्म।।
३०.
दूजों को देखो नहीं, देखो अपने कर्म।
कुछ भी ऐसा मत करो, खुद पर आये शर्म।।
३१.
चंचल मन कब मानता, पल-पल उड़ता जाय।
छल से जब हो सामना, तब केवल पछताय।।
३२.
चंचलता अभिशाप है, रखना इसका ध्यान।
सोच-समझ कर चल सदा, सच को ले अनुमान।।
३३.
अब तक हमने था रखा, अपने मन पर धीर।
आँखों ने कह दी मगर, तुम से मन की पीर।।
३४.
सबके अपने दर्द हैं, कौन बँधाए धीर?
अपने-अपने दर्द हैं, अपनी-अपनी पीर।।
३५.
जाने क्या-क्या कह गया, बह नयनों से नीर।
हमने कब तुमसे कही, अपने मन की पीर।।
३६.
दिल को छलनी कर गए, कटु वचनों के तीर।
चुप रहकर हम सह गए, फिर भी सारी पीर।।
३७.
सोचा कब परिणाम को, चढ़ा प्रेम का जोश।
अपना सब कुछ खो दिया, जब तक आया होश।।
३८.
दिन भर छत पर पकड़ते, धूपों के खरगोश।
बचपन जैसा अब नहीं, बचा किसी में जोश।।
३९.
सीखो मुझसे तुम जरा, कहता है इतिहास।
अनुभव से मैं हूँ भरा, कल को कर दूँ खास।।
४०.
आनेवाला कल अगर, करना चाहो खास।
एक बार देखो पलट, तुम अपना इतिहास।।
४१.
सौंपा हमने आपको, अपने मन का साज।
मन वीणा में देखिये, सरगम बजती आज।
४२.
गली -गली चलने लगे, महाभारती दाँव।
कुरुक्षेत्र में अब कहो, कहाँ मिलेगी छाँव।।
४३.
युद्ध छिड़ा चारों तरफ, मचा सब तरफ क्लेश।
कुरुक्षेत्र सा दिख रहा, अपना प्यारा देश।।
४४.
मन ने चिट्ठी लिख रखी, गुपचुप अपने पास।
फिर भी हर पल कर रहा, है उत्तर की आस।।
४५.
पाती ही बाँची गई, पढ़े न मन के भाव।
बीच भँवर में डूबती, रही प्रेम की नाव।।
४६.
साथ मिला जो आपका, महक उठे जज़्बात।
होठों तक आई नहीं, लेकिन मन की बात।।
४७.
मन-पंछी नादान है, उड़ने को तैयार।
जब-जब भी कोशिश करी, पंख कटे हर बार।।
४८.
प्रेम बीज बोए बहुत, खिला नहीं पर फूल।
जिस बगिया को सींचते, वहीँ चुभे हैं शूल।।
४९.
महक रहा मन-मोगरा, तन बगिया के बीच।
समय निठुर माली न क्यों, सलिल रहा है सींच??
५०.
वर्षा बरसी प्रेम की, भीगे तन-मन आज।
धीरे-धीरे आज सब, खुले प्रेम के राज।।
५१.
थाम हाथ मन का चलो, राहें हो खुशहाल।
जीवन जीना चाह लें, हम तो सालों साल।।
५२.
सूने मन में खिल रहे, आशाओं के फूल।
बीच भँवर में पात ज्यों, मिल लगते हैं कूल।।
५३.
बैठा था बहुरूपिया, डाले अपना जाल।
भोला मन समझा नहीं, उसकी गहरी चाल।
५४.
प्रेम संग मीठी लगे, सूखी रोटी-प्याज।
सुख से जीने का सुनो, एक प्रेम ही राज।।
५५.
प्रेम सहित मीठी लगे, सूखी रोटी प्याज।
सुख से जीने का सुनो, एक प्रेम है राज।।
५६.
गली-गली चलने लगे, महाभारती दाँव।
कहाँ मिले कुरुक्षेत्र में, पहले जैसी छाँव??
५७.
बहा रक्त कुरुक्षेत्र में, मचा भयंकर क्लेश।
मरघट जैसा हो गय , सारा भारत देश।।
५८.
कह दें मन की बात हम, पर समझेगा कौन?
बस इतना ही सोच कर, रह जाते हैं मौन।।
५९.
करो विदा हँस कर मुझे, जाऊँ मथुरा धाम।
राधा रूठोगी अगर, कैसे होगा काम??
६०.
कान्हा तुम छलिया बड़े, छलते हो हर बार।
भोली राधा का कभी, समझ सकोगे प्यार??
६१.
जो तुम यूँ चलते रहे, प्रेम डोर को थाम?
फिर इस जीवन में कहो, दुख का क्या है काम??
६२.
धुँआ-धुँआ सा दिख रहा, अब तो चारों ओर।
जीवन की इस राह का, दिखे न कोई छोर।
६३.
कह पाते हम किस तरह, हैं कितने हैं मजबूर?
जन्मों का है फासला, इसीलिए हैं दूर।।
६४.
चीरहरण होता यहाँ, देखा हर इक द्वार।
बहन बेटियों का सुनो, हो जाता व्यापार।।
६५.
बे-मतलब लेता यहाँ, कौन किसी का नाम।
दरवाज़े पर तब दिखे, जब पड़ता है काम।।
६६.
बोलो! कैसे सौंप दें, मन जब पाया श्राप?
मन से मन को जोड़कर, सुख पायेंगे आप??
६७.
कोई अब रखता नहीं, मन दरवाजे दीप।
गहन अँधेरा छा गया, टूटी मन की सीप।।
६८.
भूखा पेट न देखता, दिवस हुआ या रात?
आँतों को रोटी मिले, तब समझे वह बात।।
६९.
कड़वी यादें आज सब, नदिया दिये सिराय।
अच्छा-अच्छा गह चलो, यही बड़ों की राय।।
७०.
अपनी-अपनी ढपलियाँ, अपने-अपने राग।
अँधियारी दीवालियाँ, गूँगे होली-फ़ाग।
७१.
बौराया सावन फिरे, बाँट रहा सन्देश।
प्रेम लुटाता फिर रहा, धर प्रेमी का भेष।।
७२.
बूँदों की बौछार से, तन-मन जाता भीज।
कर सोलह श्रृंगार 'मन', आई सावन तीज।।
७३.
जग के छल सहते रहे, फिर भी देखे ख्वाब।
काँटों पर ही देखिये, खिलते सदा गुलाब।।
७४.
प्रेम बीज बोए बहुत, खिला नहीं पर फूल।
जिस बगिया को सींचते, वहीं चुभे हैं शूल।।
७५.
जीवन विष का है असर, नीले सारे अंग।
जिन जिनको अपना कहा, निकले सभी भुजंग।।
७६.
कागज पर लिखते रहे, अंतर्मनबात।
जग जिसको कविता कहे, पीड़ा की सौगात।।
७७.
ढलती बेरा में यहाँ, कब ले कोई नाम?
उगते सूरज को रहे, करते सभी सलाम।
७८.
ढूँढें बोलो किस तरह, कहाँ मिले आनन्द?
सब ही रखते हैं यहाँ, मन के द्वारे बन्द।।
७९.
दुख अपना देता रहा, जीवन का आनन्द।
सुख छलिया ठगता रहा, आया नहीं पसन्द।।
८०.
मुरझाये से हैं सभी, साथी फूल गुलाब।
पलकों में चुभने लगे, टूटे रूठे ख्वाब।।
८१ .
मेरे ग़म का आप 'मन', सुन लें ज़रा हिसाब।
जीने को कब चाहिए, जमजम वाला आब।।
८२.
जंगल-जंगल देखिये, बहका फिरे बसन्त।
टेसू दहके आग सा, जागी चाह अनन्त।।
८३.
जागो लो फिर आ गई, प्यारी सी इक भोर।
फूला-महका मोगरा, पंछी करते शोर।।
८४.
नस-नस में बहने लगा, अब वो बनकर पीर।
होंठो पर कुछ गीत हैं, आँखों में है नीर।।
८५.
रोजी-रोटी के लिए, तज आए थे गाँव।
कहाँ छुपाकर अब रखें, छालों वाले पाँव??
८६.
छाँव नहीं पाई कहीं, ऐसे मिले पड़ाव।
बीच भँवर में डोलती, जीवन की यह नाव।।
८७.
कैसी है यह ज़िन्दगी, पल-पल बदले रूप।
पल-दो पल की छाँव है, शेष समूची धूप।।
८८.
एक जुलाहा बैठ कर, स्वप्न बुने दिन-रैन।
मन बाहर झाँके नहीं, पाए कहीं न चैन।।
८९.
मिले नहीं हम आप से, मिले नहीं हैं नैन।
जब से मन में तुम बसे, कहीं न मन को चैन।
९०.
वारेंगे हम ज़िन्दगी, तुम पर सौ-सौ बार।
तेरी खातिर जी रहे, साँसे लिए उधार।
९१.
द्वारे पर बैठे लिए, अपने मन का दीप।
यादों के मोती सजे, नैनों की है सीप।।
९२.
बुझ जाएगा देखिये, आँखों का यह नूर।
मन दीपक बुझने लगा, होकर तुमसे दूर।।
९३.
मिलकर ही रौशन हुए, दीपक-बाती तेल।
जग उजियारा कर सके, तेरा-मेरा मेल।।
९४.
मैली तन-चादर हुई, सौ-सौ मन पर दाग।
तुझको कुछ अर्पित करूँ, मिला न ऐसा भाग।।
९५.
मालाएँ फेरीं बहुत, खूब जपा था नाम।
मन-भीतर छुपकर रहे, बड़ा अजब है श्याम।।
९६.
चिंगारी बाकी न थी, खूब कुरेदी राख।
मुरझाया हर पात था, मुरझाई थी शाख।।
९७.
गरल रोककर कण्ठ में, बाँट रहे मुस्कान।
ठोकर खा सीखे बहुत, जीवन का हम ज्ञान।।
९८.
उड़ अम्बर की ओर तू, ऐ मन! पंख पसार।
बैठे से मिलता नहीं, इस जीवन का सार।
९९.
चलने से थकना नहीं, चलना अच्छी बात।
बीतेंगे तू देखना, दुख के ये हालात।
१००.
आँखों ने पाई बहुत, आँसू की बरसात।
मेघों ने भी खूब दी, पीड़ा की सौगात।।
१०१.
मन की पीड़ा को मिली, मेघों से सौगात।
आँखों से बरसी बहुत, आँसू की बरसात।।
१०२.
बहा पसीना गाइये, आशाओं के गीत।
हो जाएगी एक दिन, उजियारे की जीत।।
१०३.
वाणी भी मीठी नहीं, कहे न मीठे बोल।
कड़वे इस संसार में, रे मन! मिसरी घोल।।
१०४.
सारा दिन खटती रहे, मिले नहीं आराम।
नारी जीवन में लिखा, काम काम बस काम।।
१०५.
पत्थर को पूजा बहुत, मिले नहीं भगवान।
मन-भीतर झाँका ज़रा, प्रभु के मिले निशान।।
१०६.
भूखे किसी गरीब घर, मने नहीं त्यौहार।
और अमीरों के यहाँ, हर दिन सजे बहार।।
१०७.
तन कोमल मिट्टी रचे, मन पाषाण कठोर।
ऊपर से भोले दिखें, अंदर बैठा चोर।।
१०८.
लोग मिले जो दोगले, रखना मत कुछ आस।
जो दो-दो सूरत रखें, उनका क्या विश्वास।।
१०९.
तेरह किसको चाहिए, कब चाहें हम तीन?
अपने साहस से करें, जीवन को रंगीन।।
११०.
पाँवों के छाले कहें, हमें न देखो आप।
बाकी है लम्बी डगर, झटपट लो 'मन' नाप।।
१११.
रिश्ते-नाते दे भुला, पद-कुर्सी का प्यार।
होता पद की आड़ में, रिश्तों का व्यापार।।
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दोहा मंजूषा मन,
मंजूषा मन दोहा
भाषा सेतु
भाषा सेतु
एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा
बाङ्ला-हिंदी-गुजराती-छत्तीसगढ़ी
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएं और बरसे जिससे तन - मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इन्द्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना तो आईये आज एक ऐसा ही सुन्दर गीत सुनकर आनन्द लीजिए।
यह सुन्दर बांग्ला गीत लिखा है भानु सिंह ने.. गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर अपनी प्रेम कवितायेँ भानुसिंह के छद्म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
सावन गगने घोर घन घटा निशीथ यामिनी रे
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब अबला कामिनी रे।
उन्मद पवने जमुना तर्जित घन घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले निविड़ तिमिरमय कुञ्ज।
कह रे सजनी, ये दुर्योगे कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम बाँध ह चम्पकमाले।
गहन रैन में न जाओ, बाला, नवल किशोर क पास
गरजे घन-घन बहु डरपावब कहे भानु तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाये आधी रतिया रे
बाग़ डगर किस विधि जाएगी निर्बल गुइयाँ रे
मस्त हवा यमुना फुँफकारे गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि मग-वृक्ष लोटते थरथर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेजतरु घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***
भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है - देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं - हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बांसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
*
गुजराती में रूपान्तरण -
द्वारा कल्पना भट्ट, भोपाल
શ્રાવણ નભ ની આ અંધારી રાત રે
કેમે પહુંચે બાગ માં કોમળ નાર રે
મસ્ત હવા ફૂંકારે યમુના તીર રે
ગરજે વાદળ ,વરસે મેઘ અહીં રે
દામિની દમકે તરૂ તન કમ્પૅ થર થર રે
ઘન ઘન રીમઝીમ રીમઝીમ રીમઝીમ વરસે વાદળ સમૂહ રે
છે અંધારું ઘોર , તૂટી પડયા છે ઝાડ રે
જાણું છું આ બધું પણ જો ને aa નિષ્ઠુર કાન્હ ને
રાધા નામની મધુર તાણ વગાડતો આ છલિયો રે
સજાઓ મુને મુક્ત મણિ થી
લગાડો માથે એક કાળો દીઠડો રે
ક્ષુબ્ધ હૃદય છે ,લટ બાંધો ,ચંપો બાંધો સુહાથ રે
અરજ કરતો હૂં 'સલિલ' ભાવ ભારી રે
હૂં 'ભાનુ' છું પ્રભુ તમારો દાસ રે .
***
श्रावण नभ् नी आ अंधारी रात रे
केमे पहुंचे बाग़ मां कोमल नार रे
मस्त हवा फुंकारे यमुना तीर रे
गरजे वादळ, वरसे मेघ अहीं रे
दामिनी दमके तरु तन कम्पे थर थर रे
घन घन रिमझिम रिमझिम रिमझिम वरसे वादळ समूह रे
छे अंधारु घोर, टूटी पड्या छे झाड़ रे
जाणु छुं आ बधुं पण जो ने आ निष्ठुर कान्ह ने
राधा नाम नी मधुर तान वगाळतो आ छलियो रे
सजाओ मुने मुक्त मणि थी
लगाड़ो माथे एक काडो डिठडो रे
क्षुब्ध ह्रदय छे ,लट बांधो चम्पो बाँधो सुहाथ रे
अरज करतो हूँ 'सलिल' भाव भारी रे
हूँ ' भानु' छु प्रभु तमारो दास रे
***
छत्तीसगढ़ी रूपांतरण द्वारा ज्योति मिश्र, बिलासपुर
***
सावन आकास मां बादर छागे आधी रात ऱे।
बाड़ी रद्दा कोन जतन जाबे, तैं दूबर मितान रे।
बइहा हवा हे ,जमुना फुंकारे गरजत-बरसत हे मेघ।
चमकत हे बिजरी, रद्दा- पेड़ लोटत झुर-झुर कपथे सरीर।
घन-घन, झिमिर ,झिमिर, झिमिर बरसे बादर के झुण्ड।
साल अउ चार, ताड़-तेज बिरिख अब्बड़ अंधियारे हे बारी।
कइसे मितानिन ! अत्त मचात हे, काबर ये कन्हई।
बंसी बजाथे,"राधा" के नांव ले अब्बड़ दुखिया कन्हई।
मोती, जेवर जाथा पहिरा दे, काला चीन्हा लगा दे माथ।
मन ह ब्याकुल हे, गूंद चोटी पिरो,खोंच चंपा सुहात।
अंधियार रात, झन जाबे छोड़ कन्हाई मिले के आस।
गरजत हे बादर, भय भारी, सुरुज तोरे हे दास।
या
गरजत हे बादर, भय भारी, "भानु" तोरे हे दास।
***
बाङ्ला-हिंदी-गुजराती-छत्तीसगढ़ी
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएं और बरसे जिससे तन - मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इन्द्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना तो आईये आज एक ऐसा ही सुन्दर गीत सुनकर आनन्द लीजिए।
यह सुन्दर बांग्ला गीत लिखा है भानु सिंह ने.. गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर अपनी प्रेम कवितायेँ भानुसिंह के छद्म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
सावन गगने घोर घन घटा निशीथ यामिनी रे
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब अबला कामिनी रे।
उन्मद पवने जमुना तर्जित घन घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले निविड़ तिमिरमय कुञ्ज।
कह रे सजनी, ये दुर्योगे कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम बाँध ह चम्पकमाले।
गहन रैन में न जाओ, बाला, नवल किशोर क पास
गरजे घन-घन बहु डरपावब कहे भानु तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाये आधी रतिया रे
बाग़ डगर किस विधि जाएगी निर्बल गुइयाँ रे
मस्त हवा यमुना फुँफकारे गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि मग-वृक्ष लोटते थरथर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेजतरु घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***
भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है - देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं - हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बांसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
*
गुजराती में रूपान्तरण -
द्वारा कल्पना भट्ट, भोपाल
શ્રાવણ નભ ની આ અંધારી રાત રે
કેમે પહુંચે બાગ માં કોમળ નાર રે
મસ્ત હવા ફૂંકારે યમુના તીર રે
ગરજે વાદળ ,વરસે મેઘ અહીં રે
દામિની દમકે તરૂ તન કમ્પૅ થર થર રે
ઘન ઘન રીમઝીમ રીમઝીમ રીમઝીમ વરસે વાદળ સમૂહ રે
છે અંધારું ઘોર , તૂટી પડયા છે ઝાડ રે
જાણું છું આ બધું પણ જો ને aa નિષ્ઠુર કાન્હ ને
રાધા નામની મધુર તાણ વગાડતો આ છલિયો રે
સજાઓ મુને મુક્ત મણિ થી
લગાડો માથે એક કાળો દીઠડો રે
ક્ષુબ્ધ હૃદય છે ,લટ બાંધો ,ચંપો બાંધો સુહાથ રે
અરજ કરતો હૂં 'સલિલ' ભાવ ભારી રે
હૂં 'ભાનુ' છું પ્રભુ તમારો દાસ રે .
***
श्रावण नभ् नी आ अंधारी रात रे
केमे पहुंचे बाग़ मां कोमल नार रे
मस्त हवा फुंकारे यमुना तीर रे
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दामिनी दमके तरु तन कम्पे थर थर रे
घन घन रिमझिम रिमझिम रिमझिम वरसे वादळ समूह रे
छे अंधारु घोर, टूटी पड्या छे झाड़ रे
जाणु छुं आ बधुं पण जो ने आ निष्ठुर कान्ह ने
राधा नाम नी मधुर तान वगाळतो आ छलियो रे
सजाओ मुने मुक्त मणि थी
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क्षुब्ध ह्रदय छे ,लट बांधो चम्पो बाँधो सुहाथ रे
अरज करतो हूँ 'सलिल' भाव भारी रे
हूँ ' भानु' छु प्रभु तमारो दास रे
***
छत्तीसगढ़ी रूपांतरण द्वारा ज्योति मिश्र, बिलासपुर
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सावन आकास मां बादर छागे आधी रात ऱे।
बाड़ी रद्दा कोन जतन जाबे, तैं दूबर मितान रे।
बइहा हवा हे ,जमुना फुंकारे गरजत-बरसत हे मेघ।
चमकत हे बिजरी, रद्दा- पेड़ लोटत झुर-झुर कपथे सरीर।
घन-घन, झिमिर ,झिमिर, झिमिर बरसे बादर के झुण्ड।
साल अउ चार, ताड़-तेज बिरिख अब्बड़ अंधियारे हे बारी।
कइसे मितानिन ! अत्त मचात हे, काबर ये कन्हई।
बंसी बजाथे,"राधा" के नांव ले अब्बड़ दुखिया कन्हई।
मोती, जेवर जाथा पहिरा दे, काला चीन्हा लगा दे माथ।
मन ह ब्याकुल हे, गूंद चोटी पिरो,खोंच चंपा सुहात।
अंधियार रात, झन जाबे छोड़ कन्हाई मिले के आस।
गरजत हे बादर, भय भारी, सुरुज तोरे हे दास।
या
गरजत हे बादर, भय भारी, "भानु" तोरे हे दास।
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गुजराती,
छत्तीसगढ़ी,
बाङ्ला,
रवींद्रनाथ ठाकुर
चित्रगुप्त रहस्य
लेख :
चित्रगुप्त रहस्य:
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं:
परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्म देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है: '
चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.''
अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं.
आत्मा क्या है?
सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के नहीं।
चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं:
सभी जानते हैं कि परमात्मा और उनका अंश आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं।
चित्रगुप्त पूर्ण हैं:
अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आरम्भ तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। दूज पूजन के समय कोरे कागज़ पर चन्दन, केसर, हल्दी, रोली तथा जल से ॐ लिखकर अक्षत (जिसका क्षय न हुआ हो आम भाषा में साबित चांवल)से चित्रगुप्त जी पूजन कायस्थ जन करते हैं।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा।
चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण दोनों हैं:
चित्रगुप्त निराकार-निर्गुण ही नहीं साकार-सगुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिये वे साकार-सगुण रूप में प्रगट हुए वर्णित किये गए हैं। सकल सृष्टि का मूल होने के कारण उनके माता-पिता नहीं हो सकते। इसलिए उन्हें ब्रम्हा की काया से ध्यान पश्चात उत्पन्न बताया गया है. आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह.
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।।
परमब्रम्ह के अंश- कर, कर्म भोग परिणाम
जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।।
कर्म ही वर्ण का आधार श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः'
अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं।
स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिये मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया।
चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन प्रातः-संध्या में तथा विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन (जो सदा था, है और रहेगा) धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वह हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह खाने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं।
चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं:
सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं। सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य: आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में प्रति पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण (बोसान पार्टिकल) तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना।
यम द्वितीया पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिये 'ॐ' को सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिये उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।
बहुदेववाद की परंपरा:
इसके नीचे श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठायी जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु द्वारा सृष्टि के कल्याण के लिये विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार, विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ये देवी शक्तियां ज्ञान के विविध शाखाओं के प्रमुख हैं. ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है।
सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव पहले देवी-देवताओं के नाम लिखकर फिर दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये व्यक्त किया जाता है। पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम को देव के समीप रखकर उसकी पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियाँ अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन कोई सांसारिक कार्य (व्यवसायिक, मैथुन आदि) न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है।
'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है। उदारता तथा समरसता की विरासत यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। इसलिए उन्हें औरों से अधिक बुद्धिमान कहा गया है. चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा आदि देवी-देवताओं के साथ समाज सुधारकों दयानंद सरस्वती, आचार्य श्री राम शर्मा, सत्य साइ बाबा, आचार्य महेश योगी आदि का पूजन-अनुकरण किया जाता है। कायस्थ मानवता, विश्व तथा देश कल्याण के हर कार्य में योगदान करते मिलते हैं.
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चित्रगुप्त रहस्य
आदि शक्ति वंदना
आदि शक्ति वंदना
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
*
परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..
*
जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..
*
दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.
*
प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..
*
मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.
*
ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
**************
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
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पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
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अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
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परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..
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जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
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नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..
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दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.
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प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
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वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..
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मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.
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ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
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बुधवार, 7 अक्टूबर 2020
दुर्गा-पूजा में सरस्वती
........... दुर्गा-पूजा में सरस्वती ...........
दुर्गापूजा में माँ दुर्गा की प्रतिमा के साथ भगवान शिव,गणेशजी,लक्ष्मीजी, सरस्वतीजी और कार्तिक जी की पूजा पूरे विधि-विधान के साथ की जाती है।
श्रीदुर्गासप्तशती पाठ(स्रोत,गीताप्रेस,गोरखपुर)के पंचम अध्याय में इस बात की चर्चा है कि महासरस्वती अपने कर कमलों घण्टा, शूल,हल,शंख,मूसल,चक्र,धनुष और बाण धारण करती है।शरद ऋतु के शोभासम्पन्न चन्द्रमा के समान जिनकी मनोहर कांति है,जो तीनों लोकों की आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्यों का नाश करने वाली है तथा गौरी के शरीर से प्राकट्य हुआ है।पंचम अध्याय के प्रारम्भ में ही निम्नलिखित एक श्लोक के द्वारा इस बात का ध्यान किया गया है।
श्लोक
योगी,दिव्यदर्शी,युगदृष्टा सद्गुरुजी के अनुसार ईश्वर की स्त्री प्रकृति के तीन आयाम,दुर्गा(तमस-निष्क्रियता),लक्ष्मी(रजस-जुनून,क्रिया),सरस्वती(सत्व-सीमाओं को तोड़ना,विलीन हो जाना)है।जो ज्ञान की वृद्धि के परे जाने की इच्छा रखते हैं,नश्वर शरीर से परे जाना चाहते हैं,वे सरस्वती की पूजा करते हैं।जीवन के हर पहलू को उत्सव के रूप में मनाना महत्वपूर्ण है।हर अच्छे चीज़ से जुड़े रहना अच्छी बात है।(स्रोत-यूट्यूब,गूगल)
इन बातों के अलाबा लोगों के विभिन्न मत हैं पर उनमें कहीं न कहीं कुछ समानताएं हैं और उपरोक्त तथ्यों से कुछ न कुछ मेल खाते हैं।एक अधिवक्ता मित्र श्री संजय चक्रवर्ती के अनुसार दुर्गापूजा में माँ के साथ उनके सभी सन्तान और पति की पूजा होती है क्योंकि दैत्यों के विनाश में इन देवी-देवताओं का भी साथ था।सभी देवताओं के एक साथ पूजा होने के कारण ही इस पूजा को महापूजा कहा गया है और साधारणतः महाषष्ठी, महासप्तमी,महाष्टमी,महानवमी,महादशमी के नाम से जाना जाता है।
पूजा पंडाल के एक पुजारी श्री काली पदो चटर्जी जी के अनुसार भगवान राम ने सिर्फ माँ दुर्गा की पूजा की थी।परन्तु कालांतर में ऐसा माना गया कि माँ दुर्गा अपने मायके आती हैं तो साथ में अपने संतान और पति को भी लातीं हैं या संतान उनसे मिलने आते हैं,इसलिए सबकी पूजा एक साथ की जाने लगी।
एक अनुभवी व्यक्ति श्री ठाकुर के अनुसार यह पूजा बहुत बड़ी पूजा है और इतने बड़े पूजा में देवी-देवताओं के आवाहन के लिए बुद्धि,ज्ञान,वाकशक्ति की आवश्यकता होती है इसलिए माँ सरस्वती की पूजा की जाती है।
अतः उपरोक्त सभी बातों को समग्र रूप से मिलाकर समझा जाये तो यह स्पष्ट होता है कि माँ दुर्गा की पूजा में अन्य देवी-देवताओं के साथ सरस्वती जी की पूजा बहुत ही महत्वपूर्ण और सार्थक है।
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दुर्गा-पूजा,
सरस्वती
भारत की भाषाएँ
भारत की भाषाएँ
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आधिकारिक भाषाएँ
संघ-स्तर पर हिन्दी, अंग्रेज़ी
भारत का संविधान आठवीं अनुसूची
असमिया, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, संथाली,तमिल, तेलुगू, उर्दू
केवल राज्य-स्तर
गारो, गुरुंग, खासी, कोकबोरोक, लेप्चा, लिंबू, मंगर, मिज़ो, नेवारी, राइ, शेर्पा, सिक्किमी, सुनवार, तमांग
प्रमुख अनौपचारिक भाषाएँ दस लाख से ऊपर बोली जाने वाली
अवधी, बघेली, बागड़ी, भीली, भोजपुरी, बुंदेली, छत्तिसगढ़ी, ढूंढाड़ी, गढ़वाली, गोंडी, हाड़ौती, हरियाणवी, हो, कांगडी, खानदेशी, खोरठा, कुमाउनी, कुरुख, लम्बाडी, मगही, मालवी, मारवाड़ी, मेवाड़ी, मुंडारी, निमाड़ी, राजस्थानी, सदरी, सुरुजपुरी, तुलु, वागड़ी, वर्हाड़ी
१ लाख – १० लाख बोली जाने वाली
आदी, अंगामी, आओ, दिमशा, हाल्बी, कार्बी, खैरिया, कोडावा, कोलामी, कोन्याक, कोरकू, कोया, कुई, कुवी, लद्दाखी, लोथा, माल्टो, मिशिंग, निशी, फोम, राभा, सेमा, सोरा, तांगखुल, ठाडो
2Veena Tanwar और विनाेद कुमार जैन वाग्वर
बंगाल में शारदा पूजा
बंगाल में शारदा पूजा
*
सनातन धर्म में भक्त और भगवान का संबंध अनन्य और अभिन्न है। एक ओर भगवान सर्वशक्तिमान, करुणानिधान और दाता है तो दूसरी ओर 'भगत के बस में है भगवान' अर्थात भक्त बलवान हैं। सतही तौर पर ये दोनों अवधारणाएँ परस्पर विरोधी प्रतीत होती किंतु वस्तुत: पूरक हैं। सनातन धर्म पूरी तरह विग्यानसम्मत, तर्कसम्मत और सत्य है। जहाँ धर्म सम्मत कथ्य विग्यान से मेल न खाए वहाँ जानकारी का अभाव या सम्यक व्याख्या न हो पाना ही कारण है।
परमेश्वर ही परम ऊर्जा
सनातन धर्म परमेश्वर को अनादि, अनंत, अजर और अमर कहता है। थर्मोडायनामिक्स के अनुसार 'इनर्जी कैन नीदर बी क्रिएटेड नॉर बी डिस्ट्रायडट, कैन बी ट्रांसफार्म्ड ओनली'। ऊर्जा उत्पन्न नहीं की जा सकती इसलिए अनादि है, नष्ट नहीं की जा सकती इसलिए अमर है, ऊर्जा रूपांतरित होती है इसलिए उसकी परिसीमन संभव नहीं इसलिए अनंत है, ऊर्जा कालातीत नहीं होती इसलिए अजर है। ऊर्जा ऊर्जा से उत्पन्न हो ऊर्जा में विलीन हो जाती है। पुराण कहता है
'ॐ पूर्णमद: पूर्ण मिदं पूर्णात पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते'
अर्थात
पूर्ण है वह पूर्ण है यह, पूर्ण ही रहता सदा
पूर्ण में से पूर्ण को यदि दें घटा, शेष तब भी पूर्ण ही रहता सदा।
पूर्ण और अंश का नाता ही परमात्मा और आत्मा का नाता है। अंश का अवतरण पूर्ण बनकर पूर्ण में मिलने हेतु ही होता है।
इसलिए सनातनधर्मी परमसत्ता को निरपेक्ष मानते हैं। कंकर कंकर में शंकर की लोक मान्यतानुसार कण-कण में भगवान है, इसलिए 'आत्मा सो परमात्मा'। यह प्रतीति हो जाए कि हर जीव ही नहीं जड़ चेतन' में भी उसी परमात्मा का अंश है, जिसका हम में है तो हम सकल सृष्टि को सहोदरी अर्थात एक माँ से उत्पन्न मानकर सबसे समता, सहानुभूति और संवेदनापूर्ण व्यवहार करें।
सबकी जननी एक है जो खुद के अंश को उत्पन्न कर, स्वतंत्र जीवन देती है। यह जगजननी ममतामयी ही नहीं है। वह दुष्टहंता भी है। उसके नौ रूपों का पूजन वन दुर्गा पर्व पर किया जाता है। दुर्गा सप्तशतीकार उसका वर्णन करता है-
सर्वमंगल मांगल्ये शिवा सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।
मत्स्य पुराण के अनुसार मत्स्य भगवान से त्रिदेवों और त्रिदेवियों की उत्पत्ति हुई जिन्हें सृष्टि का उत्पत्ति, पालन और विनाश का दायित्व मिला। ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्ण को सृष्टि का मूल मानता है। शिव पुराण रे अनुसार शिव सबके मूल हैं। मार्कण्डेय पुराण और दुर्गा सप्तशती शक्ति को महत्व दें, यह स्वाभाविक है।
बंगाल में शक्ति पूजा की चिरकालिक परंपरा है। संतानें माँ का आह्वान कर, स्वागत, पूजन, सत्कार, भजन तथा विदाई करती हैं। अंग्रेजी कहावत है 'चाइल्ड अज द फादर अॉफ मैन' अर्थात 'बेटा ही है बाप बाप का'। बंगाल में संतानें जगजननी को बेटी मानकर, उसके दो बेटों कार्तिकेय-गणेश व दो बेटियों शारदा-लक्ष्मी सहित उसकी मायके में अगवानी करती हैं। हिमवान पर्वतेश्वर हैं। उनकी बेटी दुर्गा स्वेच्छा से वैरागी शिव का वरण करती है।
बुद्धिमान गणेश और पराक्रमी कार्तिकेय उनके बेटे तथा ग्यान की देवी शारदा न समृद्धि का देवी लक्ष्मी उनकी बेटियाँ हैं। अन्य प्रसंग में सृष्टि परिक्रमा की स्पर्धा होने पर गणेश कार्तिकेय को हराकर अग्रपूजित हो जाते हैं। यहाँ धन पर ग्यान की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई है।
दुर्गा आत्मविश्वासी हैं, माता-पिता की अनिच्छा के बावजूद विरागी शिव से विवाहेतर उन्हें अनुरागी बना लेती हैं। एक बार कदम आगे बढ़ाकर पीछे नहीं हटातीं। लगभग १२०० वर्ष पुराने मार्कण्डेय पुराण के देवी महात्म्य में वे सिंहवाहिनी होकर महिषासुर का वध और रक्तबीज का रक्तपात करती हैं। पराक्रमी होते हुए भी वे लज्जाशील हैं। शिव से नृत्य स्पर्धा होने पर वे मात्र इसलिए पराजय स्वीकार लेती हैं कि शिव की तरह नृत्यमुद्रा बनाने पर अंग प्रदर्शन न हो जाए। उनका संदेश स्पष्ट है मर्यादा जय-पराजय से अधिक महत्वपूर्ण है, यह भी कि दाम्पत्य में हार ही जीत बन जाती है।
आरंभ में दुर्गा पूजन वासंती नवरात्रि में किया जाता था। कालांतर में विजयादशमी को पर्व रूप में मनाए जाने पर दुर्गा पूजन शारदीय नवरात से संलग्न हो गया ।
हिंदी में चरण
हिंदी में चरण
*
छू लो तो "चरण"
अड़ा दो तो "टाँग"
भारी हो जाए तो "पैर"
आगे बढ़ाना हो तो "क़दम"
राह में चिन्ह छोड़े तो "पद"
फूलने लगें तो "पाँव"
प्रभु के हों तो "पाद"
बाप की हो तो "लात"
गधे की पड़े तो "दुलत्ती"
घुंघरू बाँध दो तो "पग"
खाने के लिए "टंगड़ी"
खेलने के लिए "लंगडी"
हिन्दी शाश्वत है.
अड़ा दो तो "टाँग"
भारी हो जाए तो "पैर"
आगे बढ़ाना हो तो "क़दम"
राह में चिन्ह छोड़े तो "पद"
फूलने लगें तो "पाँव"
प्रभु के हों तो "पाद"
बाप की हो तो "लात"
गधे की पड़े तो "दुलत्ती"
घुंघरू बाँध दो तो "पग"
खाने के लिए "टंगड़ी"
खेलने के लिए "लंगडी"
हिन्दी शाश्वत है.
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हिंदी में चरण
मुक्तक
मुक्तक
*
चुप्पियाँ बहुधा बहुत आवाज़ करती हैं
बिन बताये ही दिलों पर राज करती हैं
बनीं-बिगड़ी अगिन सरकारें कभी कोई
आम लोगों का कहो क्या काज करती हैं?
*
*
चुप्पियाँ बहुधा बहुत आवाज़ करती हैं
बिन बताये ही दिलों पर राज करती हैं
बनीं-बिगड़ी अगिन सरकारें कभी कोई
आम लोगों का कहो क्या काज करती हैं?
*
दोहा सलिला
दोहा सलिला
*माँ जमीन में जमी जड़, पिता स्वप्न आकाश
पिता हौसला-कोशिशें, माँ ममतामय पाश
*
वे दीपक ये स्नेह थीं, वे बाती ये ज्योत
वे नदिया ये घाट थे, मोती-धागा पोत
*
गोदी-आंचल में रखा, पाल-पोस दे प्राण
काँध बिठा, अँगुली गही, किया पुलक संप्राण
*
ये गुझिया वे रंग थे, मिल होली त्यौहार
ये घर रहे मकान वे,बाँधे बंदनवार
*
शब्द-भाव रस-लय सदृश, दोनों मिलकर छंद
पढ़-सुन-समझ मिले हमें, जीवन का आनंद
*
नेत्र-दृष्टि, कर-शक्ति सम, पैर-कदम मिल पूर्ण
श्वास-आस, शिव-शिवा बिन, हम रह गये अपूर्ण
*
७.१०.२०१८
दोहा सलिला
दोहा सलिला
*
भूमिपुत्र क्यों सियासत, कर बनते हथियार।
राजनीति शोषण करे, तनिक न करती प्यार।।
*
फेंक-जलाएँ फसल मत, दें गरीब को दान।
कुछ मरते जी सकें तो, होगा पुण्य महान।।
*
कम लागत हो अधिक यदि, फसल करें कम दाम।
सीधे घर-घर बेच दें, मंडी का क्या काम?
*
मरने से हल हो नहीं, कभी समस्या मान।
जी-लड़कर ले न्याय तू, बन सच्चा इंसान।।
*
मत शहरों से मोह कर, स्वर्ग सदृश कर गाँव।
पौधों को तरु ले बना, खूब मिलेगी छाँव।।
*
*
भूमिपुत्र क्यों सियासत, कर बनते हथियार।
राजनीति शोषण करे, तनिक न करती प्यार।।
*
फेंक-जलाएँ फसल मत, दें गरीब को दान।
कुछ मरते जी सकें तो, होगा पुण्य महान।।
*
कम लागत हो अधिक यदि, फसल करें कम दाम।
सीधे घर-घर बेच दें, मंडी का क्या काम?
*
मरने से हल हो नहीं, कभी समस्या मान।
जी-लड़कर ले न्याय तू, बन सच्चा इंसान।।
*
मत शहरों से मोह कर, स्वर्ग सदृश कर गाँव।
पौधों को तरु ले बना, खूब मिलेगी छाँव।।
*
चिप्पियाँ Labels:
दोहा सलिला
प्रणति-गीत
प्रणति-गीत
*
शत-शत नमन पूज्य माँ-पापा
यह जीवन है
देन तुम्हारी.
*
वसुधा-नभ तुम, सूर्य-धूप तुम
चंद्र-चाँदनी, प्राण-रूप तुम
ममता-छाया, आँचल-गोदी
कंधा-अँगुली, अन्न-सूप तुम
दीप-ज्योति तुम
'मावस हारी
*
दीपक-बाती, श्वास-आस तुम
पैर-कदम सम, 'थिर प्रयास तुम
तुमसे हारी सब बाधाएँ
श्रम-सीकर, मन का हुलास तुम
गयी देह, हैं
यादें प्यारी
*
तुममें मैं था, मुझमें तुम हो
पल-पल सँग रहकर भी गुम हो
तब दीखते थे आँख खोलते
नयन मूँद अब दीखते तुम हो
वर दो, गहें
विरासत प्यारी
*
रहे महकती सींचा जिसको
तुमने वह
संतति की क्यारी
***
७.१०.२०१८
*
शत-शत नमन पूज्य माँ-पापा
यह जीवन है
देन तुम्हारी.
*
वसुधा-नभ तुम, सूर्य-धूप तुम
चंद्र-चाँदनी, प्राण-रूप तुम
ममता-छाया, आँचल-गोदी
कंधा-अँगुली, अन्न-सूप तुम
दीप-ज्योति तुम
'मावस हारी
*
दीपक-बाती, श्वास-आस तुम
पैर-कदम सम, 'थिर प्रयास तुम
तुमसे हारी सब बाधाएँ
श्रम-सीकर, मन का हुलास तुम
गयी देह, हैं
यादें प्यारी
*
तुममें मैं था, मुझमें तुम हो
पल-पल सँग रहकर भी गुम हो
तब दीखते थे आँख खोलते
नयन मूँद अब दीखते तुम हो
वर दो, गहें
विरासत प्यारी
*
रहे महकती सींचा जिसको
तुमने वह
संतति की क्यारी
***
७.१०.२०१८
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पापा,
प्रणति-गीत,
माँ
हिंदी व भारती
हिंदी व भारती
हिंदी का दूसरा नाम भारती है परन्तु हिंदी से अधिक ब्यापक रूप में व्यवहृत है भारती शब्द । सामान्य रूप में
हिंदी भारत का सबसे बड़ी भाषा हे और भारती भारत के भाषा-समूह पर दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है। हिन्दी शब्द की व्युपत्ति भारत के उत्तर–पश्चिम में प्रवाहमान सिंधु नदी से सम्बन्धित है। अधिकांश विदेशी यात्री और आक्रान्ता उत्तर–पश्चिम सिंहद्वार से ही भारत आए। भारत में आने वाले इन विदेशियों ने जिस देश के दर्शन किए, वह 'सिंधु' का देश था। ईरान (फ़ारस) के साथ भारत के बहुत प्राचीन काल से ही सम्बन्ध थे और ईरानी 'सिंधु' को 'हिन्दु' कहते थे। (सिंधु - हिन्दु, स का ह में तथा ध का द में परिवर्तन - भाषा प्रवृत्ति के अनुसार ध्वनि परिवर्तन होतिहे )। हिन्दू शब्द संस्कृत में भी प्रचलित है परंतु यह संस्कृत के 'सिन्धु' शब्द से विकसित है। हिन्दू से 'हिन्द' बना और फिर 'हिन्द' में फ़ारसी भाषा के सम्बन्ध कारक प्रत्यय 'ई' लगने से 'हिन्दी' बन गया। 'हिन्दी' शब्द का विकास कई चरणों में हुआ- सिंधु→ हिन्दु→ हिन्द+ई→ हिन्दी।
'हिन्दी' का अर्थ है—'हिन्द का'। इस प्रकार हिन्दी शब्द की उत्पत्ति हिन्द देश के निवासियों के अर्थ में हुई। आगे चलकर यह शब्द 'हिन्दी की भाषा' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। पुरे हिन्द यानि भारत की भाषा ।
'हिन्दी' शब्द मूलतः फ़ारसी का है न कि 'हिन्दी' भाषा का। यह ऐसे ही है जैसे बच्चा हमारे घर जनमे और उसका नामकरण हमारा पड़ोसी करे। कुछ कट्टर हिन्दी प्रेमी 'हिन्दी' शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दी भाषा में ही दिखाने की कोशिश करते हैं, जैसे - हिन (हनन करने वाला) + दु (दुष्ट)= हिन्दू अर्थात् दुष्टों का हनन करने वाला हिन्दू और उन लोगों की भाषा 'हिन्दी'; हीन (हीनों)+दु (दलन)= हिन्दू अर्थात् हीनों का दलन करने वाला हिन्दू और उनकी भाषा 'हिन्दी'। चूँकि इन व्युत्पत्तियों में प्रमाण कम, अनुमान अधिक है, इसलिए सामान्यतः इन्हें स्वीकार नहीं किया जाता।
'हिन्दी' शब्द के दो अर्थ हैं— 'हिन्द देश के निवासी' (यथा— हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा— इक़बाल) और 'हिन्दी की भाषा'। हाँ, यह बात अलग है कि अब यह शब्द दो आरम्भिक अर्थों से पृथक हो गया है। इस देश के निवासियों को अब कोई हिन्दी नहीं कहता, बल्कि भारती , भारतवासी, हिन्दुस्तानी आदि कहते हैं। दूसरे, इस देश की व्यापक भाषा के अर्थ में भी अब 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग नहीं होता, क्योंकि भारत में अनेक भाषाएँ हैं, जो सब 'हिन्दी' नहीं कहलाती हैं। बेशक ये सभी 'हिन्द' की भाषाएँ हैं, लेकिन केवल 'हिन्दी' नहीं हैं। उन्हें हम पंजाबी, बांग्ला, असमिया, उड़िया, मराठी आदि नामों से पुकारते हैं। इसलिए 'हिन्दी' की इन सब भाषाओं के लिए 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता। व्यापक अर्थ में देश की भाषा के भारती कहा जाता हे । भारती की तरह
हिन्दी' शब्द भाषा विशेष का वाचक नहीं है, बल्कि यह भाषा समूह का नाम है। हिन्दी भाषा समूह किन्तु छोटे समुह का नाम है, उसमें आज के हिन्दी प्रदेश/क्षेत्र की 5 उपभाषाएँ तथा 17 बोलियाँ शामिल हैं। बोलियों में ब्रजभाषा, अवधी एवं खड़ी बोली को आगे चलकर मध्यकाल में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।
हिंदीको भारत की राष्ट्रभाषा का दर्ज मिला है । यह दर्जा दिए जाने के समय कुछ सर्ते दिए गए थे ... 15 बर्षो के भीतर हिंदी में सभी भारती भाषाओ के शब्दों को समिश्रित किये जाने की दवित्व दियागया । ताकि हिंदी शब्द का अर्थ ब्यापक हो सके , नाकि आंचलिक भाषा के रूप में ही जाना जाये ।
परन्तु हिंदी को अबतक सभी भारती भाषाओ की समग्र रूप के तौर पर बिकसित नहीं किया जसका हे । इसके लिए हमारे लोगो की अनाग्रह एक मात्र कारन हे । परन्तु भारती पुरे भारत की भाषाओँ की सामग्रिक रूप ही हे । एक सहलिपि का व्यवहार भारती को ब्यापक रूप से भारत का भाषा बना सकता हे ।
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हिंदी व भारती
रायबहादुर हीरा लाल राय
लेख-
रायबहादुर हीरा लाल राय की काव्य प्रतिभा और दमोह दीपक
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सनातन सलिला नर्मदा के तट पर साधकों की परंपरा चिर काल से अंकुरित, पुष्पित और पल्लवित होती रही है। साधना भूमि नर्मदा के तट पर महादेव, उमा, जमदग्नि, परशुराम, अगस्त्य, विश्वामित्र , दत्तात्रेय, जाबालि, नरहरिदास, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश 'ओशो', पदमश्री रामकिंकर उपाध्याय आदि ने विश्वव्यापी ख्याति अर्जित की है। प्रशासनिक और सामाजिक क्षेत्र में जिन नरनहरों ने इस क्षेत्र की कीर्ति पताका फहराई उनमें रायबहादुर हीरालाल राय अग्रगण्य हैं। डॉ. राय की ख्याति मुख्यत: प्रशासक तथा पुरातत्वविद के रूप में है किन्तु शिक्षा तथा साहित्य के विकास में भी उनहोंने महती भूमिका का निर्वहन किया है। काव्य संस्कार उन्हें विरासत में प्राप्त हुआ था। ग्राम सूपा (महोबा उ.प्र) से बिलहरी (ऐतिहासिक पुष्पावती) नगरी में आकर बसे कालूराम के पुत्र रूप में जन्में नारायण दास मुड़वारा में जा बसे। वे अपने समय के प्रसिद्ध रामायणी थे। रामचरित मानस का सुमधुर स्वर में पाठ तथा विद्वतापूर्ण व्याख्या करने में उनका दूर-दूर तक सानी न था। हैहय वंशी क्षत्रिय होने पर भी उन्हें सामान्यत: ब्राम्हणों को प्राप्त पदवी 'पाठक' प्राप्त थी। नारायणदास के पुत्र मनबोधराम में मानस की व्याख्या हेतु आवश्यक पांडित्य न होने पर भी अगाध रूचि थी। अत:, वे अपने हाथ से लिखकर मानस की प्रतियाँ तैयार कर दान किया करते थे। 'पुस्तक दान महादान' उनके जीवन का मूलमन्त्र बन गया था। अल्प शिक्षित होने पर भी उन्हें सुख-समृद्धि और सन्तोष की कमी न थी। कई सन्तानों के अल्प जीवी होने के पश्चात् प्राप्त अंतिम पुत्र को जीवनरक्षा हेतु ईश्वरार्पण कर उन्होंने उनका नाम भी ईश्वरदास ही रखा। ईश्वर ने अपने दास को दीर्घजीवी भी किया। एकमात्र संतान ईश्वरदास (संवत १९०४-१९६९) का लाड-प्यार खूब मिला फलत: वे प्राथमिक से अधिक शिक्षा न पा सके। इसकी कसक उन्होंने अपने २ पुत्रों हीरालाल और गोकुलप्रसाद को उच्च शिक्षित कर मिटाई। हीरालाल जी (जन्म आश्विन शुक्ल चतुर्थी संवत १९२४ विक्रम तदनुसार १ अक्टूबर सन १८६७ ई.) ने प्रथम काव्य-सुमन अट्ठाइस मात्रिक यौगिक जातीय छंद में लिखा पद अपनी माता-पिता को ही समर्पित किया-
सुमिरि जस मन न समाय हुलास
शुभ श्री कमला मातु हमारी, पितु श्री ईश्वरदास।।
कटनी तट सोहै अति सुंदर, मुड़वारा रह वास।
दोउन को दोऊ कर जोरे, प्रणमत दोई दास ।। १
मुरवारा एंग्लो वर्नाक्यूलर मिडिल स्कूल में अपनी बाल-प्रतिभा से शिक्षकों और निरीक्षकों को चकित करनेवाले हीरालाल ने सन १८८१ में माध्यमिक, १८८३ में एंट्रेंस, तथा १८८८ में बी.ए. शिक्षा प्राप्त कर गवर्नमेंट कॉलिजिएट हाई स्कूल में अध्यापक पदार्थ विज्ञान के रूप में अपने व्यक्तित्व का विकास आरम्भ किया। इस काल तक हीरालाल राय का काव्य-प्रेम काव्य पढ़ने, समझने और रसानंद लेने तक सीमित था। १७ जनवरी सन १८९१ को सागर जिले में डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स नियुक्त होने पर उन्होंने ग्राम्यांचलों में शिक्षा के प्रसार हेतु अपने काव्य-प्रेम को औजार की तरह प्रयोग किया। उन्होंने स्कूल-कांफ्रेंसों में, शिक्षकों हेतु विषय-चयन में तथा विद्यार्थियों के लिए पाठ्य सामग्री के सृजन में कविताओं का प्रचुरता से प्रयोग किया। आपके संबोधनों में काव्यात्मक उद्धरणों का यथास्थान-यथोचित प्रयोग होता था। इससे वे सामान्य जनों हेतु सहज ग्राह्य हो जाते थे। विषय सामग्री को शुष्क तथा नीरस होने से बचाने के लिए प्रयुक्त काव्यांश सहज स्मरणीय भी होते थे। फलत:, शिक्षक और विद्यार्थी दोनों की जुबान पर पाठ्य सामग्री का काव्य रूप सहज ही चढ़ जाता था।
अशिक्षित व अल्प शिक्षित जन विशेषकर कन्याएँ तथा महिलाएँ जिन्हें पढ़ाने का चलन कम था, सुन कर शिक्षा सामग्री स्मरण कर पातीं तथा समझ कर अन्यों को बता पातीं। सरस पाठ्य सामग्री ने शिक्षा प्रति सामान्य जान के मन में आकर्षण उत्पन्न किया और डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स को निर्धारित से पर्याप्त अधिक संख्या में विद्यालय आरम्भ करने और विद्यालयों में अपेक्षा से अधिक विद्यार्थी भर्ती कराने में सफलता मिली। डॉ. राय ने काव्यात्मक सामग्री का सम्यक प्रयोग कर कन्या विद्यालयों की स्थापना तथा कन्या छात्राओं के प्रवेश में भी आशातीत सफलता पायी। यहाँ तक की इन छात्राओं में से अनेक काव्य-रचना कर्म में भी प्रवीण हुईं। इन परिणामों से काव्य-सामग्री की उपादेयता व प्रासंगिकता के प्रीति सशंकित रहनेवाले महानुभावों को तो सबक मिला ही, अरबी-फ़ारसी मिश्रित हिंदी का प्रचलन कम हुआ और आधुनिक हिंदी को जड़ें जमने में सहायता मिली।
सागर की असाधारण सफलता देखकर सरकार ने हीरालाल जी को सन १८९६ में एजेंसी इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स के पद पर रायपुर छत्तीसगढ़ पदस्थ किया। यहाँ कुछ क्षेत्र में उड़िया तथ अन्य आदिवासी भाषाएँ चलन में थीं। आपका भाषा तथा काव्य से लगाव इतना प्रगाढ़ था की अपने एक उड़िया स्कूल का निरीक्षण करने के पूर्व एक रात में उड़िया भाषा सीखी तथा कवितायें कण्ठस्थ कर लीं ताकि निरीक्षण के समय सुनकर जाँच सकें। आ व १८९९ के अकालों व १९०१ की जनगणना के कार्यों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को समर्पण भाव से निभाकर उच्चाधिकारियों से प्रशस्ति पाने के आबाद हीरालाल जी को सुपरिंटेंडेंट इथिनॉग्राफी (मनुष्य विज्ञानं) तथा गजेटियर तैयार करने का दायित्व सौंपा गया। आपने पुरातात्विक सामग्री शिलालेखों को तलाशा और पढ़ाजिनमें से अनेक काव्य में थे। सन १९११ - १२ में आपने मध्यप्रांत और बरार के शिला और ताम्र लेखों की वर्णनात्मक सूची' तैयार कर ख्याति पाई। इसके समानातर आपने भाषाओँ पर भी काम किया और १८ भाषाएँ (हिंदी, बुन्देली, बघेली, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू, छत्तीसगढ़ी, उड़िया, मुड़िया, मारिया, कोरकू, गोंडी, परजा, हल्बी, गड़वा, कोलमी, नहली, निमाड़ी) सीखीं।
दमोह जिले का गजेटियर तैयार करते समय आपने पुरातत्व और प्रशासन जैसे शुष्क और नीरस विषयों की सामग्री प्रस्तुत करते समय स्वरचित दोहे तथा अन्य काव्य रचनाओं का प्रचुरता से प्रयोग किया। डॉ. राय ने सन १९१७ में प्रकाशित 'दमोह-दीपक' का श्री गणेश और समापन ही नहीं अधिकांश अध्यायों (वर्तिकाओं) का आरम्भ भी संस्कृत ग्रन्थों की परम्परानुसार दोहा छंद से किया है। प्रथम वर्तिका के आदि में अर्ध सम मात्रिक द्विपदीय पयोधर दोहा (१२ गुरु, २४ लघु) छंद से है जिसमें १३-११ पर यति का विधान है -
बरसत को कूरा जमो, घर भीतर अँधियार।
आलस तज अब देखिए, लै दीपक उजियार।। - मुखपृष्ठ
प्रथम वर्तिका के आरंभ में दमोह जिले की सीमा-वर्णन चौबीस मात्रिक नर दोहे (गुरु, १८ लघु) में होना डॉ. राय के काव्य-रचना-कौशल का परिचायक है-
पीठ ऊँटिया पूरबै, उत्तर बघमुख मूँछ।
पच्छिम को पग शूकरी, दक्खिन बाड़ी पूँछ।। -- पृष्ठ १
द्वितीय वर्तिका के आरम्भ में दमोह का इतिहास तीस मात्रिक छंद में है जिसमें १५-१५ पर यति तथा चरणान्त में गुरु-लघु का विधान है -
आदि गुप्त कलचुरि पड़िहार। चंदेला गोहिल्ल निहार।।
तुगलक खिलजी गोंड मुगल्ल। बुंदेला मरहट्ठा दल्ल।।
डेढ़ सहस बरसें किय भोग। तब फिरंगि को आयो योग ।। -- पृष्ठ ४
ऐतिहासिक जानकारियों के साथ यत्र-तत्र संस्कृत, उर्दू, बुन्देली के विविध ग्रन्थों से दिए गए पद्य-उद्धरण डॉ. राय के विषाद अध्ययन तथा गहन समझ का प्रमाण हैं। तृतीय वर्तिका के आरंभ में दमोह निवासी जातियों का परिचय देता नर दोहा दमोह जिले में दस जातियों की बहुलता बताता है -
चमरा, लोधी, गोंड़ अरु, कुर्मी, विप्र, अहीर।
काछी, ढीमर, बानिया, ठाकुर- दस की भीर।। -- पृष्ठ ३१
चतुर्थ वर्तिका में दमोह जिले की कृषि, जंगल, तथा वन्य प्राणियों की जानकारी देने के लिए भी डॉ. राय ने पुनः एक पयोधर दोहा रचा है-
अर्ध माँहि कृषि, अर्ध में, है जंगल विस्तार।
नाहर, तिंदुवा, रीछ जहँ, मृग सँग करत विहार।। -- पृष्ठ ४१
उद्योग-धंधे और व्यापार किसी स्थान और जन-जीवन की समृद्धि तथा विकास की रीढ़ की हड्डी होते हैं। दमोह-दीपक की पंचम वर्तिका में डॉ. राय बत्तीस मात्रिक चौपाई छंद जिसमें १६-१६ पर यति है, का प्रयोग कर इन जानकारी का संकेत करते हैं -
लाख अढ़ाइक नर अरु नारी। पालत जिव कर खेती-बारी।
लाखक करके उद्यम नाना। दौड़-धूप कर पावत खाना ।। -- पृष्ठ ४७
आपद-विपदा जीवन का अभिन्न अंग हैं। षष्ठ वर्तिका में दमोहवासियों द्वारा झेली गयी प्रमुख विपदाओं का उल्लेख गयन्द दोहा (१३ गुरु, २२ लघु) छंद में है -
चार विपत व्यापी अधिक, ई दमोह के लोग।
ठग, भुमियावट, काल अरु, प्राणघातकी रोग।। -- पृष्ठ ५३
शासन-प्रशासन की गतिविधियों पर केंद्रित सप्तम वर्तिका का शुभारम्भ डॉ. राय ने चौबीस मात्रिक सोरठा (११- १३ पर यति) छंद से किया है -
फौजदारि अरु माल, दीवानी सह तीन हैं।
शासन अंग विशाल, आज काल के समय में।। -- पृष्ठ ६५
बत्तीस मात्रिक चौपाई छंद (१६-१६ पर यति) में अष्टम वर्तिका का आरंभ कर डॉ. राय दमोह जिले के प्रमुख कस्बों का उल्लेख करते हैं -
ज़ाहिर ठौर ज़िले बिच नाना। तिनको अब कछु सुनहु बखाना।
वर्णाक्षर के क्रम अनुसारा। कहब कथा कछु कर विस्तारा।। -- पृष्ठ ७१
डॉ. राय ने दमोह दीपक का समापन बल (११ दूर, २६ लघु) दोहा छंद में किया है।
दम में निशितम देख के, अष्टवार्तिक दीप।
लेस सिरावत ताहि अब, समुझि प्रभात समीप।।
दमोह-दीपककार ने विषयवस्तु के अनुरूप काव्य पंक्तियों का प्रणयन कर जहाँ अपनी रचना-सामर्थ्य का परिचय दिया है वहीं पूर्ववर्ती तथा समकालिक कवियों की उपयुक्त काव्यपंक्तियों का उदारतापूर्वक उपयोग कर विषय को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। अन्य कवियों की कृतियों / रचनाओं से उद्धरण लेते समय उनके नामों का उल्लेख करने की सजगता और सौजन्यता डॉ. राय ने प्रदर्शित की है तथापि कहीं-कहीं अपवाद हैं जो सम्बंधित रचना के रचनाकार की जानकारी न मिल पाने के कारण हो सकती है।
द्वितीय वर्तिका के अंतर्गत जटाशंकर से प्राप्त लगभग १४ वीं सदी के राजस्थानी भाषा के लेख सारांश डॉ.राय ने प्रस्तुत किया है-
जो चित्तोड़ह जुझि (ज्झि) अउ, जिण ढिली (ल्ली) दलु जित्त।
सो सुपसंसहि रभहकइ हरिसराअ तिअ सुत्त।। - कच्छप दोहा (८ गुरु, ३२ लघु)
खेदिअ गुज (ज्ज) र गौदहइ, कीय अधि (धी) अं मार।
विजयसिंह किट संमलहु, पौरिस कह संसार।। - कच्छप दोहा (८ गुरु, ३२ लघु)
बटियागढ़ से प्राप्त संवत १३८५ (सन १३२८) के शिलालेख में तुगलकवंशीय महमूद संबंधी संस्कृत लेख के साथ डॉ. राय ने उसका हिंदी अनुवाद भी प्रस्तुत किया है -
अस्ति कलियुगे राजा शकेंद्रो वसुधाधिप:।
योगिनीपुरमास्थाय यो भुंक्ते सकलां महीम।।
सर्वसागरपर्यन्तं वशीचक्रे नराधिपान।
महमूद सुरत्राणों नाम्ना शूरोभिनन्दतु।। - पृष्ठ १३
कलियुग में पृथ्वी का मालिक शकेंद्र (मुसलमान राजा) है जो योगिनीपुर (दिल्ली) में रहकर तमाम पृथ्वी का भोग करता है और जिसने समुद्र पर्यन्त सब राजाओं को अपने वश भवन कर लिया है। उस शूरवीर दुल्तान महमूद का कल्याण हो।
इसी वर्तिका में आगे बुंदेला छत्रसाल का वर्णन करते हे डॉ. राय ने महाकवि भूषण लिखित पंक्तियाँ उद्धृत की हैं-
चाक चक चमूके अचाक चक चहूँ ओर,
चाक की फिरत धाक चम्पत के लाल की।
भूषण भनत पादसाही मारि जेर किन्ही,
काऊ उमराव ना करेरी करवाल की।।........ - पृष्ठ २४
सन १८५४ के तीसरे भीषण अकाल के वर्णन के बाद डॉ. राय ने गढ़ोला निवासी कवि भावसिंह लोधी रचित ४ पृष्ठीय कविता ज्यों की त्यों दी है जिसमें इस विपद एक दारुण वर्णन है। कुछ पंक्तियाँ देखें-
अगहन बरसे पूस में, भरी परै तुसार।
माहु दिनन में, गिरूआ करे पसार।।
गेहूं पिसी गवोटे आई। तब गिरूआ ने दइ पियराई।।
रचे पतउआ डाँड़ी लाल, पेड़ो रच गयो बच गई बाल।। ....... पृष्ठ ५५ -५८
अंतिम वर्तिका में बाँसा कलाँ की जानकारी में लाल कवि कृत 'छत्रप्रकाश' से लंबा वर्णन प्रस्तुत किया गया है। कुछ पंक्तियों का आनंद लें -
दांगी केशोराइ तहां कौ। ज़ाहिर जोर मवासी बांकौ ।।
बाँचि बरात डारि उहि दीनी। तुरतै तमकि तेग कर लीन्हीं।।
फिरी बरात बुंदेला जानी। तब बाँसा पर फ़ौज पलानी ।।
ठिल्यौ बुँदेला बम्ब दै, बांसा घेरयो जाइ ।।
त्योंही सन्मुख रन पिल्यो, दांगी बड़ी बलाइ।। ...... पृष्ठ ९४-९५
मोहना के लगभग ७०० वर्ष पुराने ध्वस्त प्रायः शिव मन्दिर की सुंदर मूर्तियों संबंधी लोक-प्रचलित काव्य-पंक्तियों का आनंद लें-
गणपति आठौ मातर:, ब्रम्हा शंभु रमेश।
नवगह तिनके बीच में, बाजू भैरव वेष।।
गंगा-जमुना देहरी, कीरतिमुख तल मांहिं।
मुहनामठ चौखट लिखे, इतने देव दिखाहिं।।
डॉ. राय रचित कोई स्वतन्त्र काव्य ग्रन्थ अथवा काव्य रचनाएँ न होने से उनके कवि होने में यह शंका हो सकती है अथवा यह प्रश्न किया जा सकता है कि दमोह दीपक में प्रयोग की गयी अन्य कवियों की पंक्तियों की तरह शेष पंक्तियाँ भी डॉ. राय रचित न हों। इस शंका का निराकरण सहज ही हो सकता है। दृष्टव्य है कि अपवाद छोड़कर डॉ. राय ने अन्य कवियों की पंक्तियों का उनका कृति का नाम देने की सजगता बरती है। अन्य कवियों के रचनाएँ किसी प्रसंग में उपयुक्त होने पर ही ली गयी हैं। कृति की रूपरेखा निर्धारण कर लिखी जाती समय अध्यायों की विषयवस्तु किसी अन्य को ज्ञात नहीं हो सकती, अत: किसी अन्य द्वारा अध्याय की परिचयात्मक पंक्तियाँ लिखी जाना संभव नहीं हो सकता। यदि लेखक ने विषयवस्तु की जानकारी देकर पंक्तियाँ लिखई होतीं तो वह रचनाकार के नाम का यथास्थान उल्लेख अवश्य करता। एक अन्य प्रमाण उद्धरणों की भाषा भी है। डॉ. राय द्वारा रचित पंक्तियों की भाषा उनके जीवनकाल में प्रचलित आधिनिक हिंदी का आरम्भिक रूप है और यह उनकी सभी पंक्तियों में एक सी है जबकि अन्य कवियों की पंक्तियों की भाषा डॉ. राय रचित पंक्तियों से सर्वथा भिन्न देशज या संस्कृतनिष्ठ या उर्दू मिश्रित है। डॉ. राय रचित स्वतंत्र काव्य कृति न होने का करण उनकी अतिशय व्यस्तता, बीमारी तथा प्रशासनिक दायित्व ही हो सकता है।
डॉ. राय रचित काव्य पंक्तियों से उनकी छंदशास्त्र संबंधी सामर्थ्य में किंचित भी सन्देह नहीं रहता। डॉ. राय ने दोहा, चौपाई और सोरठा छंदों का प्रयोग किया है। छंद-विधान ( संख्या, चरण संख्या, मात्रा संख्या, गति-यति, तुकांत नियम, लय, विराम चिन्ह आदि), भाषा शैली, सम्यक बिम्ब और प्रतीक आदि यह बताते हैं की डॉ. राय कुशल प्रशासक तथा ख्यात पुरातत्वविद होने के साथ-साथ कुशल तथा समर्थ कवि भी हैं. उनकी समस्त रचनाओं को एकत्र कर स्वतंत्र कृति प्रकाशित की जा सके तो डॉ. राय के व्यक्तित्व के अनछुए पहलू को सामने सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकेगी।
*****
सहायक ग्रन्थ-
१. हैहय क्षत्री मित्र, हीरालाल अंक, जनवरी-फरवरी १९३६ में प्रकाशित लेख।
२. दमोह-दीपक, - राह बहादुर हीरालाल राय, १९१७।
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हीरालाल राय
मुंडन संस्कार
मुंडन संस्कार
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हिंदू धर्म के अनुसार १६ मुख्य संस्कारों में से एक संस्कार मुंडन भी है। शिशु जब जन्म लेता है तब उसके सिर पर गर्भ के समय से ही कुछ केष पाए जाते हैं जो अशुद्ध माने जाते हैं। हिंदू धर्म के अनुसार मानव जीवन ८४ लाख योनियों के बाद मिलता है। पिछले सभी जन्मों के ऋणों को उतारने तथा पिछले जन्मों के पाप कर्मों से मुक्ति के उद्देश्य से उसके जन्मकालीन केश काटे जाते हैं।
मुंडन के वक्त कहीं-कहीं शिखा छोड़ने का भी प्रयोजन है, जिसके पीछे मान्यता यह है कि इससे दिमाग की रक्षा होती है। इससे राहु ग्रह की शांति होती है, जिसके फलस्वरूप सिर ठंडा रहता है।
मुंडन से लाभ :
बाल कटवाने से शरीर की अनावश्यक गर्मी निकल जाती है, दिमाग व सिर ठंडा रहता है व बच्चों में दाँत निकलते समय होने वाला सिर दर्द व तालु का काँपना बंद हो जाता है। शरीर पर और विशेषकर सिर पर विटामिन-डी (धूप के रूप) में पड़ने से कोशिकाएँ जाग्रत होकर खून का प्रसारण अच्छी तरह कर पाती हैं जिनसे भविष्य में आने वाले केश बेहतर होते हैं।
संस्कार कर्म :
सर्व प्रथम शिशु अथवा बालक को गोद में लेकर उसका चेहरा हवन की अग्नि के पश्चिम में किया जाता है। पहले कुछ केश पंडित के हाथ से और फिर नाई द्वारा काटे जाते हैं।
इस अवसर पर गणेश पूजन, हवन, आयुष्य होम आदि पंडित जी से करवाया जाता है। फिर बाल काटने वाले को, पंडित आदि को आरती के पश्चात् भोजन व दान दक्षिणा दी जाती है।
कब-कहाँ?
उत्तर भारत में अधिकतर गंगा तट पर, दुर्गा मंदिरों के प्रांगण में तथा दक्षिण भारत में तिरुपति बालाजी मंदिर तथा गुरुजन देवता के मंदिरों में मुंडन संस्कार किया जाता है।
संस्कार के बाद केशों को दो पुड़ियों के बीच रखकर जल में प्रवाहित कर दिया जाता है। कहीं-कहीं केश वैसे ही विसर्जित कर दिए जाते हैं।
जब सूर्य मकर, कुंभ, मेष, वृष तथा मिथुन राशियों में हो, तब मुंडन शुभ माना जाता है। परंतु बड़े लड़के का मुंडन जब सूर्य वृष राशि पर हो और मां 5 माह की गर्भवती हो, तब उस वर्ष नहीं करना चाहिए।
संस्कार भास्कर के अनुसार :
गर्भाधान मतश्र्च पुंसवनकं सीमंत जातामिधे नामारण्यं सह निष्क्रमेण च तथा अन्नप्राशनं कर्म च।
चूड़ारण्यं व्रतबन्ध कोप्यथ चतुर्वेद व्रतानां पुरः, केशांतः सविसिर्गकः परिणयः स्यात षोडशी कर्मणाम्''॥
जन्म के पश्चात् प्रथम वर्ष के अंत या फिर तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष की समाप्ति के पूर्व शिशु का मुंडन संस्कार करना आमतौर पर प्रचलित है क्योंकि हिंदू धर्म शास्त्र के अनुसार एक वर्ष से कम उम्र में मुंडन करने से शिशु के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। साथ ही अमंगल होने का भय बना रहता है।
कुल परंपरा के अनुसार मुंडन संस्कार :
कुल परंपरा के अनुसार प्रथम, तृतीय, पंचम या सप्तम वर्ष में भी मुंडन संस्कार करने का विधान है। शास्त्रीय एवं पौराणिक मान्यताएं यह हैं कि शिशु के मस्तिष्क को पुष्ट करने, बुद्धि में वृद्धि करने तथा गर्भावस्था की अशुचियों को दूर कर मानवतावादी आदर्शों को प्रतिष्ठापित करने हेतु मुंडन संस्कार किया जाता है। इसका उद्देश्य बुद्धि, विद्या, बल, आयु और तेज की वृद्धि करना है।
देवस्थान और तीर्थ स्थल पर मुंडन का महत्व :
मुंडन संस्कार किसी देवस्थल या तीर्थ स्थल पर इसलिए कराया जाता है कि उस स्थल के दिव्य वातावरण का लाभ शिशु को मिले तथा उसके मन में सुविचारों की उत्पत्ति हो।
आश्वालायन गृह सूत्र के अनुसार :
मुंडन संस्कार से दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है। शिशु सुंदर तथा कल्याणकारी कार्यों की ओर प्रवृत्त होने वाला बनता है।
तेन ते आयुषे वयामि सुश्लोकाय स्वस्तये'। -आश्वलायन गृह्यसूत्र 1/17/12
जिस शिशु का मुंडन संस्कार सही समय एवं शुभ मुहूर्त में नहीं किया जाता है उसमें बौद्धिक विकास एवं तेज शक्ति का अभाव पाया जाता है। इसलिए शिशु का मुंडन शास्त्रीय विधि से अवश्य किया जाना चाहिए।
मुंडन संस्कार वस्तुतः मस्तिष्क की पूजा अभिवंदना है। मस्तिष्क का सर्वश्रेष्ठ उपयोग करना ही बुद्धिमत्ता है। शुभ विचारों को धारण करने वाला व्यक्ति परोपकार या पुण्य का लाभ पाता है और अशुभ विचारों को मन में भरे रहने वाला व्यक्ति पापी बनकर ईश्वर के दंड और कोप का भागी बनता है। यहां तक कि अपनी जीवन प्रक्रिया को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है। इस तरह मस्तिष्क का सदुपयोग ही मुंडन संस्कार का वास्तविक उद्देश्य है।
नारद संहिता के अनुसार :
तृतीये पंचमाव्देवा स्वकुलाचारतोऽपि वा।
बालानां जन्मतः कार्यं चौलमावत्सरत्रयात्॥
बालकों का मुंडन जन्म से तीन वर्ष से पंचम वर्ष अथवा कुलाचार के अनुसार करना चाहिए।
सौम्यायने नास्तगयोर सुरासुर मंत्रिणेः।
अपर्व रिक्ततिथिषु शुक्रेक्षेज्येन्दुवासरे॥
मुंडन संस्कार सूर्य की उत्तरायण अवस्था तथा गुरु और शुक्र की उदितावस्था में, पूर्णिमा, रिक्ता से मुक्त तिथि तथा शुक्रवार, बुधवार, गुरुवार या चंद्रवार को करना चाहिए।
दस्त्रादितीज्य चंद्रेन्द्र भानि शुभान्यतः।
चौल कर्मणि हस्तक्षोत्त्रीणि त्रीणिच विष्णुभात॥
पट्ठबंधन चौलान्न प्राशने चोपनायने।
शुभदं जन्म नक्षत्रशुभ्र त्वन्य कर्मणि॥
अर्थात चौलकर्म (मुंडन) संस्कार के लिए अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, मृगशिरा, ज्येष्ठा, रेवती, हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा तथा शतभिषा नक्षत्र शुभ हैं।
धर्म सिंधु के अनुसार :
जन्म मास और अधिक मास (मलमास) तथा ज्येष्ठ पुत्र का ज्येष्ठ महीने में मुंडन करना अशुभ कहा गया है।
बालक की माता गर्भवती हो और बालक की उम्र पांच वर्ष से कम हो तो मुंडन नहीं करना चाहिए। माता गर्भवती हो और बालक की उम्र 5 वर्ष से अधिक हो तो मुंडन संस्कारा चाहिए। यदि माता को 5 महीने से कम का गर्भ हो, तो मुंडन हो सकता है।
यदि माता रजस्वला हो, तो उसकी शांति करवाकर मुंडन संस्कार करना चाहिए।
माता-पिता के देहांत के बाद विहित समय (छह महीने बाद) उत्तरायण में मुंडन करना चाहिए। मुंडन से पूर्व नांदी मुख श्राद्ध का भी वर्णन है। किसी प्रकार का सूतक होने पर मुंडन वर्जित है। मुंडन के बाद तीन महीने तक पिंड दान अथवा तर्पण वर्जित है। परंतु क्षयाह श्राद्ध वर्जित नहीं है।
मुंडन के समय बालक को वस्त्राभूषणों से विभूषित नहीं करना चाहिए। स्मरणीय है कि चूड़ाकरण (मुंडन) में तारा का प्रबल होना चंद्रमा से भी अधिक आवश्यक है।
विवाहे सविता शस्तो व्रतबंधे बृहस्पतिः।
क्षौरे तारा विशुद्धिश्र्च शेषे चंद्र बलं बलम्॥'' - ज्योतिर्निबंध
निर्णय सिंधु के अनुसार :
गर्भाधान के तीसरे, पांचवें तथा दूसरे वर्ष में भी मुंडन किया जाता है। परंतु जन्म से तीसरे वर्ष में श्रेष्ठ और जन्म से पांचवें या सातवें वर्ष में मध्यम माना जाता है।
पारिजात में बृहस्पति का कहना है कि सूर्य उत्तरायण हो, विशेषकर सौम्य गोलक हो; तो शुक्ल पक्ष में मुंडन कराना श्रेष्ठ और कृष्ण पक्ष की पंचम तिथि तक सामान्य माना गया है।
वशिष्ठ के अनुसार तिथि २, ३, ५, ७, १०, ११ या १३ को मुंडन कराना चाहिए।
नृसिंह पुराण के अनुसार तिथि १, ४, ६, ८, १२, १४, १५ या ३० को मुंडन कर्म निंदित है।
वशिष्ठ के अनुसार रविवार, मंगलवार और शनिवार मुंडन के लिए वर्जित हैं। हालांकि ज्योतिर्बंध में बृहस्पति का वचन है कि पाप ग्रहों के वार में ब्राह्मणों के लिए रविवार, क्षत्रियों के लिए मंगलवार तथा वैश्यों और शूद्रों के लिए शनिवार शुभ है।
जन्म नक्षत्र में मुंडन कर्म हो, तो मरण और अष्टम चंद्र के समय हो, तो नाक में विकार कहा गया है।
मुंडन संस्कार मुहूर्त :
जन्म या गर्भाधान से १, ३, ५, ७ इत्यादि विषम वर्षों में कुलाचार के अनुसार, सूर्य की उत्तरायण अवस्था में जातक का मुंडन संस्कार करना चाहिए।
शुभ महीना :
चैत्र (मीन संक्रांति वर्जित), वैशाख, ज्येष्ठ (ज्येष्ठ पुत्र हेतु नहीं), आषाढ़ (शुक्ल 11 से पूर्व), माघ तथा फाल्गुन। जन्म मास त्याज्य।
शुभ तिथि :
शुक्ल पक्ष - २, ३, ५, ७, १०, ११, १३
कृष्ण पक्ष - पंचमी तक
शुभ दिन :
सोमवार, बुधवार, गुरुवार, श्ुाक्रवार
शुभ नक्षत्र :
अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, चित्रा, स्वाति, ज्येष्ठा, अभिजित, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, रेवती (जन्मर्क्ष शुभ तथा विद्धर्क्ष वर्ज्य)।
शुभ योग :
सिद्धि योग, अमृत योग, सर्वार्थ सिद्धि योग, राज्यप्रद योग।
शुभ राशि एवं लग्न अथवा नवांश लग्न :
वृष, मिथुन, कर्क, वृश्चिक, धनु, मीन शुभ हैं। इस लग्न के गोचर में भाव १, ४, ७, १० एवं ५, ९ में शुभ ग्रह तथा भाव ३, ६, ११ में पाप ग्रह के रहने से मुंडन का मुहूर्त शुभ माना जाता है।
परंतु मुंडन का लग्न जन्म राशि जन्म लग्न को छोड़कर होना चाहिए। ध्यान रहे, चंद्र भाव ४, ६, ८, १२ में नहीं हो।
ऋषि पराशर के अनुसार मुंडन जन्म मास और जन्म नक्षत्र को छोड़ कर करना चाहिए।
समस्त शुभ कार्यों में त्याज्य :
जन्म नक्षत्र, जन्म तिथि, जन्म मास, श्राद्ध दिवस (माता-पिता का मृत्यु दिन) चित्त भंग, रोग।
क्षय तिथि, वृद्धि तिथि, क्षय मास, अधिक मास, क्षय वर्ष, दग्धा तिथि, अमावस्या तिथि।
विष्कुंभ योग की प्रथम ५ घटिकाएँ, परिघ योग का पूर्वार्द्ध, शूल योग की प्रथम ७ घटिकाएँ, गंड और अति गंड की ६ घटिकाएँ एवं व्याघात योग की प्रथम ८ घटिकाएँ, हर्षण और व्रज योग की ९ घटिकाएँ तथा व्यतिपात और वैधृति योग समस्त शुभकार्यों के लिए त्याज्य हैं। मतांतर से विष्कुंभ की ३, शूल की ५, गंड और अति गंड की ७, तथा व्याघात और वज्र की ९ घटिकाएँ शुभ कार्यों में त्याज्य हैं।
महापात के समय में भी कार्य न करें।
तिथि, नक्षत्र और लग्न इन तीनों प्रकार का गंडांत का समय
भद्रा (विष्टीकरण)
तिथि, नक्षत्र तथा दिन के परस्पर बने कई दुष्ट योगों की तालिका :
उपर्युक्त योगों का भी शुभ कार्य में त्याग करना चाहिए।
पाप ग्रह युक्त, पाप भुक्त और पाप ग्रह विद्ध नक्षत्र एवं नक्षत्रों की विष संज्ञक घटिकाएँ।
पाप ग्रह युक्त चंद्र, पाप युक्त लग्न का नवांश।
जन्म राशि, जन्म लगन से अष्टम लग्न, दुष्ट स्थान ४, ८, १२ का चंद्र और क्षीण चंद्र वर्जित है।
लग्नेश ६, ८, १२ न हो, जन्मेश और लग्नेश अस्त नहीं हों, पाप ग्रहों का कर्तरी योग भी वर्जित है।
मासांत दिन, सभी नक्षत्रों के आदि की २ घटिकाएँ, तिथि के अंत की एक घटी और लग्न के अंत की आधी घड़ी शुभ कार्यों में वर्जित है।
जिस नक्षत्र में ग्रह या पापी ग्रहों का युद्ध हुआ हो वह शुभ कार्यों में छह महीने तक नहीं लेना चाहिए। ग्रहों की एक राशि तथा अंश, कलादि सम होने पर ग्रह युद्ध कहा जाता है।
ग्रहण के पहले ३ दिन और बाद के ६ दिन वर्जित हैं। ग्रहण नक्षत्र वर्जित, ग्रहण खग्रास हो तो उस नक्षत्र में छह मास, अर्द्धग्रास हो तो ३ मास, चौथाई ग्रहण हो, तो 1 मास तथा उदयोदय और अस्तास्त हो, तो ३ दिन पहले और ३ दिन बाद तक कोई शुभ कार्य न करें।
गुरु शुक्र का अस्त, बाल्य, वृद्धत्व, गुर्वादित्य समय भी शुभ कार्यों में त्याज्य हैं। बाल्य और वृद्धत्व के ३ दिन वर्जनीय हैं।
कृष्ण पक्ष १४ के चंद्र वार्द्धिक्य, अमावस के अस्त और शुक्ल एकम् के बाल्य चंद्र के समय भी शुभ कार्य न करें।
रिक्ता तिथियां (४, ९, १४), दग्धा तिथियां, भद्रा युक्त तिथियां, व्यतिपात और वैधृति एवं अर्द्धप्रहरा युक्त समय शुभ कार्यों एवं खासकर मुंडन के लिए वर्जित हैं।
अतः जीवन के आरंभ काल में जो बाल जन्म के साथ उत्पन्न होते हैं, वे पशुता के सूचक माने जाते हैं। इन्हें शुभ मुहूर्त में बाल कटाने से जहाँ वह पशुता समाप्त होती है वहीं मानवोचित गुणों की प्रखरता के साथ बुद्धि और ज्ञान की भी वृद्धि होती है।
""मुंडन संस्कार कराने से लाभ, न कराने से दोष'':
मुंडन संस्कार का धार्मिक महत्व तो है ही, विज्ञान की दृष्टि से भी यह संस्कार अति आवश्यक है, क्योंकि शरीर विज्ञान के अनुसार यह समय बालक के दाँत आदि निकलने का समय होता है। इस कारण बालक को कई प्रकार के रोग होने की संभावना रहती है। अक्सर इस समय बालक में निर्बलता, चिड़चिड़ापन आदि उत्पन्न और उसे दस्तों तथा बाल झड़ने की शिकायत लगती है। मुंडन कराने से बालक के शरीर का तापमान सामान्य हो जाने से अनेक शारीरिक तथा स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं जैसे फोड़े, फुंसी, दस्तों आदि से बालक की रक्षा होती है। यजुर्वेद के अनुसार यह संस्कार बल, आयु, आरोग्य तथा तेज की वृद्धि के लिए किए जाने वाला अति महत्वपूर्ण संस्कार है। महर्षि चरक ने लिखा है-
पौष्टिकं वृष्यमायुष्यं शुचि रूपविराजनम्।
केशश्यक्तुवखदीनां कल्पनं संप्रसाधनम्॥''
मुंडन संस्कार, नाखून काटने और बाल सँवारने तथा बालों को साफ रखने से पुष्टि, वृष्यता, आयु, पवित्रता और सुंदरता की वृद्धि होती है।
मुंडन संस्कार को दोष परिमार्जन के लिए भी परम आवश्यक माना गया है। गर्भावस्था में जो बाल उत्पन्न होते हैं उन सबको दूर करके मुंडन संस्कार के द्वारा बालक को संस्कारित शिक्षा के योग्य बनाया जाता है। इसीलिए कहा गया है कि मुंडन संस्कार के द्वारा अपात्रीकरण के दोष का निवारण होता है।
मुंडन संस्कार की शास्त्रोक्त विधि'
मुंडन संस्कार के देवता प्रजापति हैं तथा अग्नि का नाम शुचि है।
सामग्री के रूप में गाय का दूध, दही, घी, कलावा, गुँथा आटा, एक साथ तीन-तीन बाँधे हुए २४ कुश, ठंडा-गर्म पानी, सेही का काँटा, काँसे की थाली, रक्त वृषभ का गोबर, लौह और ताम्र मिश्रित छुरा तथा अन्य सर्वदेव पूजा की प्रचलित सामग्री का उपयोग किया जाए।
शुभ दिन तथा शुभ मुहूर्त में माता-पिता स्वयं स्नानादि से निवृत्त होकर शुद्ध और स्वच्छ वस्त्रादि धारण करें। बालक को भी दो शुद्ध उत्तम वस्त्र पहनाएं तथा बालक को मुंडन के पश्चात पहनाने हेतु नए वस्त्र भी रखें।
मुंडन संस्कार में प्रयोग आने वाली सामग्री इस प्रकार है- शीतल एवं गुनगुना गरम पानी, मक्खन, शुद्ध घी, दूध, दही, कंघी, कुश, उस्तरा, गोचर, काँसे का पात्र, शैली, मौली, अक्षत, पुष्प, दूर्वा, दीपक, नैवेद्य, ऋतुफल, चंदन, शुद्ध केशर, रुई, फूलमाला, चार प्रकार के रंग, हवन सामग्री, समिधा, उड़द दाल, पूजा की साबुत सुपारी, श्रीफल, देशी पान के पत्ते, लौंग, इलायची, देशी कपूर, मेवा, पंचामृत, मधु, चीनी, गंगाजल, कलश, चौकी, तेल, प्रणीता पात्र, प्रोक्षणी पात्र, पूर्णपात्र, लाल या पीला कपड़ा, सुगंधित द्रव्य, पंच पल्लव, पंचरत्न, सप्तमृत्तिका, सर्वौषधि, वरण द्रव्य, धोती, कुर्ता, माला, पंचपात्र, गोमुखी, खड़ाऊं आदि कपड़ा वेदी चंदोया का, रेत या मिट्टी, सरसों, आसन, थाली, कटोरी तथा नारियल।
चूड़ाकर्म से पूर्व ब्राह्म मुहूर्त में मंडप में कांस्य पात्र में रक्त बैल का गोबर तथा दूध अथवा दही डाला जाता है। इसके पश्चात् उसे स्वच्छ वस्त्र से ढका जाता है। फिर उसी स्थान पर क्षुर, २७ कुश और तीन शल्लकी कंट रखना चाहिए। फिर पीले वस्त्र से बालक के सिर में बाँधने के लिए दूर्वा, सरसों, अक्षतयुक्त पाँच पोटलिकाएँ आदि लाल मौली से बाँधकर रखे जाते हैं। फिर बालक को स्नान करवाकर माता की गोद में बैठाया जाता है व पिता से आचार्य के द्वारा पूजन प्रारंभ कराया जाता है। संकल्प करवाकर देवताओं का पूजन कर बालक के दक्षिण दिशा के बालों को शल्लकी कंट से तीन भागकर पुनः एक बनाकर पाँच विनियोग किया जाता है। इस प्रकार प्रतिष्ठित कर दक्षिण के क्रम से सिर में पोटलिका को आचार्य द्वारा बाँधा जाता है।
यह संस्कार आयु तथा पराक्रम की प्राप्ति के लिए किया जाता है। चूड़ाकर्म में बालक के कुल धर्मानुसार शिखा रखने का विधान है। यह संस्कार बालक के तीसरे या पांचवें विषम वर्ष में शुभ दिन में जब चंद्र तारा अनुकूल हों तब यजमान को आचार्य के द्वारा कराना चाहिए। यजमान द्वारा पुनः संकल्प कर देवताओं का पूजन करना चाहिए, पश्चात् ब्राह्मण को ÷वृतोऽस्मि' कहें। चूड़ाकरण संस्कार में कुश कंडिका होम पूर्ववत् कर सभ्य नाम से अग्नि का पूजन करें। आज्याहुति, व्याहृति होम, प्रायश्चित होम पूर्ववत् करें। होम के पश्चात् पूर्ण पात्र संकल्प करें। तत्पश्चात् यजमान द्वारा ब्राह्मण को सामग्री दान देकर पिता गर्म जल से शिशु या बालक के केश को धोएँ।
पुनः दही और मक्खन से बाल धोकर दक्षिण क्रम से ठंडे व गरम जल से पुनः धोना चाहिए। इस प्रकार मिश्रोदक से धोकर दक्षिण भाग को जूटिका को शल्ल की कंट से तीन भाग कर प्रत्येक में एक-एक कुश लगाना चाहिए।
कुशयुक्त बालों को बाएँ हाथ में रखकर दाहिने हाथ में क्षुर ग्रहण कर विनियोग करना चाहिए। पश्चात् क्षुर को ग्रहण करना चाहिए। फिर जूटिका को एकत्र कर दक्षिण में केश छेदन के लिए विनियोग कर छोड़ना चाहिए। तीन कुश सहित बाल काटकर काँसे की थाली में रक्त वृषभ के गोबर के ऊपर रखना चाहिए। पुनः पश्चिमादि जूटिकाओं को भी पूर्वोक्त मंत्रों द्वारा धोकर एकत्र करना चाहिए। फिर पश्चिम के बाल काटने का विनयोग करते हुए बाल काटकर गोबर के ऊपर रखना चाहिए। पुनः पूर्व के बालों को विनियोग कर पूर्व गोबर के ऊपर रखना चाहिए। पुनः पूर्व के बालों को विनियोग कर पूर्व के बाल काटकर उत्तर के बालों को काटने का विनियोग कर मध्य में गोपद तुल्य गोलाकर बाल शिखा के लिए छोड़कर अन्य बालों को काटकर सब बालों को गोबर में रखकर जल स्थान, गौशाला या तालाब में रखना चाहिए। पुनः स्नान कर पूर्णाहुति करना चाहिए। पश्चात् क्षुर से त्र्यायुष निकालकर धारण हेतु विनियोग कर दाहिने हाथ की अनामिका और अंगुष्ठ से आचार्य द्वारा यजमान को सपरिवार त्र्यायुष लगाया जाना चाहिए पश्चात् आचार्य द्वारा भोजनोपरांत यजमान को आशीर्वाद दिया जाना चाहिए।
*
संस्मरण: सादगी और ईमानदारी की मिसाल राजेंद्र प्रसाद जी महादेवी वर्मा
संस्मरण:
सादगी और ईमानदारी की मिसाल राजेंद्र प्रसाद जी
महादेवी वर्मा
*
कवियत्री महादेवी वर्मा जी का एक संस्मरण जो उन्होंने प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद जी के सादगी और कर्तव्यबोध के बारे में लिखा है ...
महादेवी वर्मा जी के शब्दों में :--
" मै एक बार राजेन्द्र प्रसाद जी के धर्मपत्नी जी के साथ राष्ट्रपति भवन में बैठी थी .. वो खुद खाना पका भी रही थी .. वो थाली के चावल बीनते मेरे से बात कर रही थी ... फिर जैसे ही उन्हें पता चला की मै इलाहबाद से हूँ तो उन्होंने मेरे से भोजपुरी में कहा " ये बहिनी हमके चाउर बीनले में बड़ा समय लालेगा .. राऊआ तो इलाहबाद के हई त एक ठो सुपा जवन यूपी अउर बिहार में मिलेला ऊ भेजवा देती त हमके बड़ा आराम रहत"
मतलब "बेटी मुझे चावल बीनने में बहुत समय लगता है ..आप तो इलाहबाद की है तो क्या आप मेरे लिए एक सुपा जो पूर्वी यूपी और बिहार में मिलता है वो भिजवा सकती है ?
महादेवी जी ने कहा क्यों नही .. फिर दो दो हप्तो के बाद दस सुपे लेकर उनके पास गयी .. संयोग से उस समय राजेन्द्र प्रशाद जी भी बैठे थे .. उनकी धर्मपत्नी जी ने सूप ले लिए ..
फिर जानते है बाद में क्या हुआ ??
राजेन्द्र प्रशाद जी के वो सारे सूप राष्ट्रपति भवन के सरकारी मालखाने में जमा करवा दिया ..और अपने धर्मपत्नी जी के कहा की तुम राष्ट्रपति की पत्नी हो तुमको जो भी भेंट मिलेगा वो सरकार का है हमारा नही ..
आज भी वो सारे सूप राष्ट्रपति भवन के मालखाने में रखे है ... और दर्शक एक बार उन्हें देखकर सोच में पड़ जाते है की आखिर ये सूप यहाँ क्यों रखे है
जीतेन्द्र प्रताप जी के सौजन्य से...!!
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डॉ. राजेंद्र प्रसाद,
महादेवी वर्मा,
संस्मरण
Poetic Currency - Dr. Sadhna Verma - Er. Sanjiv Verma
Poetic Currency : An Instrument of Social Change
Dr. Sadhna Verma - Er. Sanjiv Verma
*
In English literature free verse is most preferred form in poetry. Formlessness in poetry facilitates the poet to express himself without worrying for prosodic particulars (meter, rhythm, and rhyme etc.). The global poetics is placing increasing imphasis on the mind poem in place of the page poem. The spark of a poem ignites in the mind of poet / reader as oppose to the shape it takes on the page.
English being a global language has many different lingual forms, vocabulary and pronunciation in different parts of the world. Hence, English poetry in different nations have different influences of local dialectics end poetry forms. Main forms of page poems are Acristic Poem, ABC Poem, Cinquain Poem, Circle Poem, Concrete Poem, Couplet Poe, Diamante, Haiku, Limerick, Name Poem, Ode, Parody Poem, Quatrain Poem, Sonnets, Who-What-When-Whwre-Why Poem etc. Poets try to follow local poetry forms in English as for as possible though can't follow completely in all aspects.
Historicity in poetry is not same in different parts of the globe, is differs and effects the English poetry in different ways. For example while writing English Doha the Gan-niyam of Hindi pingal can not be followed, though in couplets padant-tukant (similar pronunciation in the end of lines) can be followed up to some extent. Similarly in English Gazal radeef (padant) can be maintained up to some extent but to maintain kafiyaa (tukant) is not always possible. Free verse facilitates the poet to concentrate over the thoughts and style.
Modern English Poetry represents the disordering and mixing of styles. One may call it fusion as in the field of music & dance as oppose to pure forms different mixed forms are more popular. In Chinese poetry Hu Bashi the first proponent of Chinese Poetry drawn following guidelines in 1917.
1. Substance
2. Do not imitate ancients
3. Observe grammer
4. Do not groan when not sick
5. Get rid of cliches & formulaic expressions
6. Do not use illusion
7. Do not observe parellelism
8. Do not avoid colloquial words & expressions.
In present times grammer bent beyond it's traditional constraints, substance depends on poet's sensibilities.
In America L=A=N=G=U=A=G=E school redefined the semantic presentations of poetry and said Poetry is a materialization of language. According to Jean-Paul Satre 'Language is meant not for poetry in which words are treated as things but is meant for grasping the world, bringing it under control and redeeming it.
French poet Mallarme claimed that a poem is nothing but the words. Burns is in between the two opposite camps - fir him poetry is a means of resisting the cognitive appropriation of language.
American critic Elder Olson rightly observed: 'The chair is not wood but wooden, poetry is not words but verbal.' If so then it is possible to translate or reincarnate a poem in another language and it becomes possible for a poem to to be adopted to newer forms. This is present functionalist and not formalist view of poetry. Here poetry becomes a tool in bringing social, economic and political changes to masses inspite being study material for few.
Poetry in modern age is not only a literal activity but also a means of social, political and economic reforms. In a country like India Poetry reaches from the richest class of society to the poorest one at a time and leave different effects on different classes of the people. In this age of economic and social revolution poetic currency i.e. currency of thoughts works efficiently in ways more than one. It is most powerful instrument of intellectual trade and sociopolitical change. In the same time it is an art that must be current with times. In present era of social-political-economic reforms and changes the poetic currency must be at par with time. In this era of multidimensional activities and developments across the sphere as well as across the nation the role of poetic currency becomes most powerful. Hence, the poetry must reflect multiplicity of the social, economic, religious, cultural and political heritage and requirements at the same time.
The effect of poetic currency can very easily be seen and valued in the mass meetings of different leaders and public representatives. As compare to individualism in prose fiction, the poetic current cuts the bindings and make the public feel togetherness. This is what make difference in the addresses of a party leader without public base and a mass leader with public base. Time witnessed this poetic essence at the most in Netaji, Nehruji and Atalji whereas minimum with Devegaudaji and Soniaji. Present dynamic prime minister Modiji added a new dimension to it. In place of poetic slogans (Indepence is our birth right -Lokmanya Tilak, Jay Hind -Netaji, Satyamev jayate- Nehru, Jay Jawan Jay Kisan -Shastri ji, Garibi Hatao -Indira ji). Modiji added poetic equations to it as and when required. For example 3Ss = Speed, Space & Scope, 3Ps = Population, Power & Project, 3 Ds = Democracy, Demography & Demand.
In present socio-political scenerio the poetic currency bridges the gap in between the policy maker Government and the ultimate objects common people.
-----------
Writers:
1. Dr. Sadhna Verma, MA, PhD, Asstt. Professor, Deptt. of Economics, Govt. Mahakaushal Autonomous College for Arts & Commerce, Jabalpur, m. 8085387320.
2. Er. Sanjiv Verma 'Salil', DCE, BE, MIE, MA (Economigs & Philosophy), LL.B., Dip. Journalism, Ex. Divisional Project Engineer MPPWD. -samanvayam, 204 Vijay Apartment, Napier town Jabalpur 482001, m. 94251 83244 Email: salil.sanjiv@gmail.com
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Poetic Currency
POEM O MY FRIEND
POEM
O MY FRIEND
SANJIV VERMA "SALIL"
*
Dearest!
come along
live with me
share the joys and
sorrows of life.
Hand in hand and
the head held high
let's walk together
to win the ultimate goal.
I admit
I'm quite alone and
weak without you.
You are no better
without me.
But remember
to get Shiva
Shav becomes Shiv
and sings the song of creation
HE adorns this universe
Himself.
Bulid a new future
as soon as
reaches the Goal
select a new one.
You created a universe
out of nothing
and tended your breath
with untiring love.
Even when it was
Amavasya- the darkest night
you worshipped full moon.
Always wished more
and more achievements
to set new goals.
Collect all your sources
and sing the songs
of new creation.
Keep on hoping
again and again.
Develop a thirst
and finally be contended.
Let your arms be
as vast as sky,
you only need to advance
and the formless
will assume form
to create a new universe.
O Dearest!
Come along.
***
7-10-2014
Acharya Sanjiv Verma 'Salil'
Samanvayam
204 Vijay Apartment, Napier Town
Jabalpur 482001
salil.sanjiv@gmail.com
94251 83244
O MY FRIEND
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Dearest!
come along
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Hand in hand and
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let's walk together
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I admit
I'm quite alone and
weak without you.
You are no better
without me.
But remember
to get Shiva
Shav becomes Shiv
and sings the song of creation
HE adorns this universe
Himself.
Bulid a new future
as soon as
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select a new one.
You created a universe
out of nothing
and tended your breath
with untiring love.
Even when it was
Amavasya- the darkest night
you worshipped full moon.
Always wished more
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to set new goals.
Collect all your sources
and sing the songs
of new creation.
Keep on hoping
again and again.
Develop a thirst
and finally be contended.
Let your arms be
as vast as sky,
you only need to advance
and the formless
will assume form
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O Dearest!
Come along.
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94251 83244
सलिल के प्रति
Kumar Rajesh
संजीव वर्मा 'सलिल' के प्रति
7 अक्तूबर 2011 ·
*
Ankho ka anjan hai,
Maathe ka chandan hai,,
Mitra tumhara vandan hai,
Shat-Shat abhinandan hai,,
Abhinandan hai abhinandan hai,,1
Krishna-Sudama bandhan hai,
Hriday se hriday ka spandan hai,,
Mitra tumhara vandan hai,
Shat-Shat abhinandan hai,,
Abhinandan hai abhinandan hai,,2
Nand-Yashoda nandan hai,
Har daal Kadamb ki kundan hai,
Mitra tumhara vandan hai,
Shat-Shat abhinandan hai,,
Abhinandan hai abhinandan hai,,3
Man se man ka ranjan hai,
Sukh-dukh ka avalamban hai,,
Mitra tumhara vandan hai,
Shat-Shat abhinandan hai,,
Abhinandan hai abhinandan hai,,4
Kanak sa kanchan hai,
Saras subodh prabhanjan hai,
Mitra tumhara vandan hai,
Shat-Shat abhinandan hai,,
Abhinandan hai abhinandan hai,,5
संजीव वर्मा 'सलिल' के प्रति
7 अक्तूबर 2011 ·
*
Ankho ka anjan hai,
Maathe ka chandan hai,,
Mitra tumhara vandan hai,
Shat-Shat abhinandan hai,,
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Shat-Shat abhinandan hai,,
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Saras subodh prabhanjan hai,
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Shat-Shat abhinandan hai,,
Abhinandan hai abhinandan hai,,5
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सलिल के प्रति - कुमार राजेश
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