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गुरुवार, 9 जनवरी 2025

पलाश, टेसू, किंशुक, छेवला, ढाक, फ्लेम ऑफ फॉरेस्ट, चूल, परसा

पलाश वाटिका
*
पूर्णिका
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मैं जिजीविषा जयी पलाश।
धरा बिछौना, छत आकाश।।
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तीनों देव विराजे मुझमें
विपदाओं का करता नाश।।
.
क्रांति-दूत जलता अंगारा
नव युग को नित रहा तराश।।
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जंगल में मंगल करता हूँ।
बाधाओं के तोड़ूँ पाश।।
.
फगुनौटी को रंग कुसुंबी
दे खुशियों की करूँ तलाश।।
.
रास रचाएँ कान्ह-राधिका
गोपी-गोप छाँह में काश।।
१२.१.२०२५
०००
नवगीत :
.
खिल-खिलकर
गुल झरे
पलाशों के।
हौसले
जवान हैं
हताशों के।।
.
ऊषा के
रंग में
नहाए से।
संध्या को
अंग से
लगाए से।।
खिलखिलकर
हँस पड़े
अलावों से,
हाथ लगे
जोकर ज्यों
ताशों के।।
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लजा रहे
गाल हुए
रतनारे।
बुला रहे
नैन मुँदे
कजरारे।।
मिट-मिटकर
बन रहे
नवाबों से,
शिथिल हुए
गात विवश
पाशों के।।
.
रक्ताभित
सुमन सुमन
सहे व्यथा।
कौसुंबी
रंग कहे
कान्ह कथा।।
शूल चुभन
गुल सहें
गुलाबों के।
हौसले
जवान हैं
निराशों के।।
२३.२.२०२५
०००
सॉनेट
पलाश
लाल-पीला क्रुद्ध-क्षुब्ध पलाश।
नाश तरु पर्वत नदी का देख।
क्षुब्ध जाने क्या विधाता लेख?
काल ही फैला रहा क्या पाश?
दुखी पर किंचित नहीं हताश।
हाय! होता भग्न अब ऋतु चक्र।
नियति की गति हो रही है वक्र।।
फेंटती प्रकृति मनुज ज्यों ताश।।
देख करता अदेखा इंसान।
मार-मरता आप हो हैवान।
बने दाना पर बहुत नादान।।
भाग्य अपना खुद सँवारे काश।
करे सबका ही न सत्यानाश।
रखे निर्मल सलिल भू आकाश।।
५-३-२०२३
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त्रिपदिक छंद हाइकु
विषय: पलाश
विधा: गीत
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लोकतंत्र का / निकट महापर्व / हावी है तंत्र
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मूक है लोक / मुखर राजनीति / यही है शोक
पूछे पलाश / जनता क्यों हताश / कहाँ आलोक?
सत्ता की चाह / पाले हरेक नेता / दलों का यंत्र
*
योगी बेहाल / साइकिल है पंचर / हाथी बेकार
होता बबाल / बुझी है लालटेन / हँसिया फरार
रहता साथ / गरीबों के न हाथ / कैसा षड़्यंत्र?
*
दलों को भूलो / अपराधी हराओ / न हो निराश
जनसेवी ही / जनप्रतिनिधि हो / छुए आकाश
ईमानदारी/ श्रम सफलता का / असली मंत्र
३०-३-२०१९
*
नवगीत
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दहकते पलाश
फिर पहाड़ों पर.
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हुलस रहा फागुन
बौराया है
बौराया अमुआ
इतराया है
मदिराया महुआ
खिल झाड़ों पर
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विजया को घोंटता
कबीरा है
विजया के भाल पर
अबीरा है
ढोलक दे थपकियाँ
किवाड़ों पर
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नखरैली पिचकारी
छिप जाती
हाथ में गुलाल के
नहीं आती
पसरे निर्लज्ज हँस
निवाड़ों पर
२२.२.२०१५
***
हाइकु का रंग पलाश के संग
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करे तलाश
अरमानों की लाश
लाल पलाश
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है लाल-पीला
देखकर अन्याय
टेसू निरुपाय
*
दीन न हीन
हमेशा रहे तीन
ढाक के पात
*
आप ही आप
सहे दुःख-संताप
टेसू निष्पाप
*
देख दुर्दशा
पलाश हुआ लाल
प्रिय नदी की
*
उषा की प्रीत
पलाश में बिम्बित
संध्या का रंग
*
फूल त्रिनेत्र
त्रिदल से पूजित
ढाक शिवाला
*
पर्ण है पन्त
तना दिखे प्रसाद
पुष्प निराला
*
मनुजता को
पत्र-पुष्प अर्पित
करे पलाश
*
होली का रंग
पंगत की पत्तल
हाथ का दौना
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पहरेदार
विरागी तपस्वी या
प्रेमी उदास
३०-५-२०१५
*
लेख 
 जिजीविषा जयी पलाश 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
धार्मिक महत्व 
                   लोक मान्यता के अनुसार पवित्र पलाश पेड़ की उत्पत्ति सोमरस में डूबे एक बाज के गिरे हुए पंख से हुई है। पलाश पेड़ को लेकर एक कथा प्रचलित है जिसमें माता पार्वती ने ब्रह्म देव को पलाश वृक्ष बनने का श्राप दिया था। इस पेड़ का धार्मिक महत्व इसके पत्तों के त्रिकोणीय गठन से शुरू होता है, जिसमें पत्ते के मध्य भाग में भगवान विष्णु, बाईं और ब्रह्मा जी और दाईं ओर महादेव का प्रतिनिधित्व करता है। शास्त्रों में पलाश के पेड़ को देवताओं का कोषाध्यक्ष कहा गया है। साथ ही इसे चंद्रमा का प्रतीक माना गया है क्योंकि इसके फूल के मध्य भाग में चंद्रमा का खूबसूरत दृश्य दिखाई देता है। धार्मिक मान्यता है कि सफेद पलाश के फूल, पत्ते और छाल भगवान शिव को बेहद प्रिय है। इसके फूल का उपयोग न सिर्फ भगवान के श्रृंगार के लिए किया जाता है बल्कि, इसके पत्तों और फूलों से महाकाल का अभिषेक भी किया जाता है। पलाश के पत्ते में भगवान को चढ़ाया हुआ भोग स्वर्ण पात्र में चढ़ा हुआ प्रसाद के समान होता है। पलाश का उल्लेख ऋग्वेद और यजुर्वेद आदि संस्कृत ग्रंथों में है। शुक्ल यजुर्वेद के पहले श्लोक में पलाश वृक्ष का उल्लेख है। श्रोत्रसूत्रों में कई यज्ञ-पात्रों के इसी की लकड़ी से बनाने की विधि है। गृह्वासूत्र के अनुसार उपनयन के समय में ब्राह्मणकुमार को इसी की लकड़ी का दंड ग्रहण करने की विधि है। पलाश वृक्ष की शाखा को अध्वर्यु पुजारी द्वारा काटा और छाँटा जाता है, जो अमावस्या या पूर्णिमा से एक दिन पहले बलि का व्यावहारिक हिस्सा निभाते हैं, और इसका उपयोग बछड़ों को उन गायों से दूर भगाने के लिए करते हैं जिनका दूध अगले दिन के विशेष समारोह के लिए प्रसाद का हिस्सा बनना था। पलाश के पत्ते को स्वर्ण के समान माना गया है। 
                            शाक्तमतीय राजा वत्सराज की कामसिद्धिस्तुति (वामकेश्वरीस्तुति) में पलाश का अर्थ "ढाक" (पौधा) है, जो देवी नित्या की पूजा के माध्यम से मार्गदर्शन करता है। तदनुसार देवी  मुझ पर अपनी कृपा बरसाएँ मैं प्रार्थना करता हूँ। वे अपने हाथों में माला और पुस्तक रखती हैं, उनका रंग पूर्णिमा के समान निर्मल है, और वे संपूर्ण ज्ञान का प्रतीक हैं। मैं रति के प्रिय पति, सुंदर मन-जनित [भगवान कामदेव] की वंदना करता हूँ। वे धनुष और फूलों के बाण धारण करते हैं और उनका रंग ढाक (पलाश-पाताल ) की पंखुड़ियों जैसा है। मैं प्रीति के प्रिय पति के पास जाती हूँ, जो पूर्ण चन्द्रमा की तरह मुड़ा हुआ है, जो समृद्धि के लिए श्रीचक्र को खींचने के लिए देवियों की अँगूठी के आधार के रूप में कार्य करता है। श्री हरिभक्तिविलास १६.६० के अनुसार "ब्रह्मा नाम से पुकारा जानेवाला पलाश वृक्ष सभी इच्छाओं को पूरा करता है। कार्तिक माह के दौरान तिल का दान करना, पवित्र नदी में स्नान करना, भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व के बारे में बात करना, भक्तों की सेवा करना और पलाश के पत्ते की थाली से प्रसाद खाना, ये सभी मोक्ष प्रदान करते हैं"।
                    बौद्ध धर्म में पलास ("ईर्ष्यापूर्ण प्रतिद्वंद्विता") सोलह उपकिलेसा (सूक्ष्म अशुद्धियों) में से एक को संदर्भित करता है । ५ वीं शताब्दी (या पूर्व) के कृषि विषयक ग्रंथ 'वज्रतुंडसमयकल्पराज' के अनुसार, भगवान वैश्रवण के निवास के आसपास  सूखे के समय कमल झील में, सभी वन्य फूल, फल, और पलाश आदि वृक्षों के पत्ते सूख गए थे। मछली, मकर, तिमिंगल, मगरमच्छ, मधुमक्खियां तथा अन्य अनेक जल-जन्य प्राणी जल से वंचित हो गए और जब थोड़ा-सा जल रह गया तो वे दसों दिशाओं में भाग गए, घबराए हुए, दुखी हृदय के साथ भागने लगे, क्योंकि उनका जीवन बाधित हो गया था और बर्बाद हो गया था। बौद्ध धर्म की वज्रयान (तांत्रिक) शाखा में सुसिद्धिकार सूत्र के अध्याय १२ (भोजन अर्पित करना) के अनुसार, “जब आप भोजन अर्पित करना चाहते हैं, तो सबसे पहले जमीन को साफ करें, चारों ओर सुगंधित पानी छिड़कें, जमीन पर साफ किए गए कमल,पलाश (ढाक) और दूधिया पेड़ों के पत्ते या नया सूती कपड़ा  बिछाकर अर्पण किए जानेवाले बर्तन रखें”।
 

   
                जैन 
दिगंबर परंपरा के अनुसार पलाश  चैत्य -वृक्ष का नाम है जिसके नीचे जैन प्रतिमा विज्ञान में अक्सर श्रेयांस के माता-पिता को दर्शाया जाता है। श्वेतांबर परंपरा के अनुसार इस वृक्ष को तिन्दुगा के नाम से जाना जाता है। चैत्य शब्द का अर्थ है "पवित्र तीर्थस्थल", जैन धर्म में तीर्थयात्रा और ध्यान का एक महत्वपूर्ण स्थान। ऐसे चैत्य -वृक्षों वाली मूर्तियों में आम तौर पर एक पुरुष और एक महिला जोड़े को एक पेड़ के नीचे बैठे हुए दिखाया जाता है, जिसमें महिला की गोद में एक बच्चा होता है। सामान्यत: पेड़ के शीर्ष पर एक बैठी हुई जिन आकृति होती है। 
ज्योतिष-वास्तु एवं आर्थिक महत्व 
                    ज्योतिष शास्त्रों में ग्रह-दोष निवारणतथा ग्रह-शांति हेतु पलाश के वृक्ष का महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है। पलाश पूर्वा-फाल्गुनी नक्षत्र से जुड़ा है। पलाश लगाने और सींचने से आयु वृद्धि होती है।  विष्णुधर्मोत्तरपुराण में, वास्तुकार को शुभ दिन में मंदिरों के लिए एकत्रित की जानेवाली उपयुक्त लकड़ियों में पलाश का भी नाम है। ज्ञातधर्मकथा-सूत्र में पलाश को भवन, सीढ़ी, खंबे, बाड़ आदि के निर्माण तथा साज-सज्जा हेतु उपयुक्त लकड़ियों में रखा गया है। बृहतकल्पसूत्र में पलाश के फूल को उद्यान, सज्जा तथा व्यवसाय हेतु उपयोगी बताया गया है। ११वीं शताब्दी में हेमचंद्र रचित त्रिषष्टीशलाकापुरुषचरित्र के अध्याय १.१ [ आदिश्वर-चरित्र ] के अनुसार पलाश के पत्तों का उपयोग पंखे तथा छत में वर्णित है।विष्णुधर्मोत्तरपुराण में पलाश  का उल्लेख चित्रकला की प्राचीन भारतीय परंपरा में पाँच द्वितीयक या मिश्रित रंगों के निर्माण तथा प्रतिमा निर्माण के संदर्भ में है। 
                    ७७९ ईस्वी में रचित कुवलयमाला में उद्योतनसूरी के अनुसार प्राचीन भारत में पलाश वृक्ष (ब्यूटिया फ्रोंडोसा ) के फूलों का व्यापार आम तौर पर विदेशी व्यापारियों के साथ किया जाता था। सोमदेव द्वारा कथासरित्सागर (१० वीं शताब्दी) में पलाश का उल्लेख हमेशा उसके पत्तों के विशिष्ट गहरे हरे रंग के लिए है।
पलाश उत्तर प्रदेश एवं झारखंड का राजकीय पुष्प है। भारत सरकार ने पलाश पर डाक टिकिट जारी किया है। 
नाम  
                    संस्कृत भाषा का शब्द 'पलाश' दो शब्दों से मिलकर बना है- 'पल' और 'आश'। पल का अर्थ है- 'मांस' और अश का अर्थ है- 'खाना', अर्थात् 'पलाश' का अर्थ हुआ- 'ऐसा पेड़ जिसने माँस खाया हुआ है'। खिले हुए लाल फूलों से लदे हुए पलाश की उपमा संस्कृत लेखकों ने युद्ध भूमि से दी है। इसका 'ब्यूटिया' नाम १८ वीं सदी के वर्गिकी के एक संरक्षक ब्यूट के अर्ल जोहन की स्मृति में रखा गया था। मोनोस्पर्मा ग्रीक भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- 'एक बीज वाला'। पलाश का वैज्ञानिक नाम 'ब्यूटिया पार्वीफ्लोरा' है। 'ब्यूटिया सुपरबा' और 'ब्यूटिया पार्वीफ्लोरा' नाम से इसकी कुछ अन्य जतियाँ भी पाई जाती हैं। भारतीय पलाश की प्रजाति ब्यूटिया मोनोस्पर्मा है। इसे किंशुक, पर्ण, याज्ञिक, रक्तपुष्पक, क्षारश्रेष्ठ, वात-पोथ, ब्रह्मवृक्ष, ब्रह्मोपनेता, समिद्धर, करक, त्रिपत्रक, ब्रह्मपादप, पलाशक, त्रिपर्ण, रक्तपुष्प, पुतद्रु, काष्ठद्रु, बीजस्नेह, कृमिघ्न, वक्रपुष्पक, सुपर्णी, पलाश  आदि (संस्कृत) ढाक, छेवला या टेसू (हिंदी), 'खाखरी' या 'केसुदो' (गुजराती), 'केशु' (पंजाबी), 'पोलाशी' (बांग्ला), 'परसु' या 'पिलासू' (तमिल),  'पोरासू' (ओड़िया), 'मुरक्कच्यूम' या 'पलसु' (मलयालम), 'मोदूगु' (तेलुगु), 'पांगोंग' (मणिपुरी), पलस' (मराठी) तथा बास्टर्ड टीक (अंग्रेजी) नामों से भी जाना जाता है। 

प्रकार  

                    पलाश तीन रूपों में पाया जाता है- वृक्ष, क्षुप (झाड़ी) और लता।  'लता पलाश' के दो प्रकार होते हैं। एक में लाल रंग के तथा दूसरे में सफ़ेद रंग के फूल खिलते हैं। सफेद पुष्पों वाले लता पलाश को औषधीय दृष्टिकोण से अधिक उपयोगी माना जाता है।  लाल, पीले, पीले पुष्पों वाला पलाश भी पाया जाता है।  आदि भी कहा जाता है। यह दक्षिण एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया के उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में बांग्लादेश, भारत, नेपाल , पाकिस्तान , श्रीलंका , म्यांमार , थाईलैंड , लाओस , कंबोडिया , वियतनाम , मलेशिया और पश्चिमी इंडोनेशिया में उगता है। पलाश के चमकीले नारंगी-पीले रंग के फूल फागुन के अंत और चैत के आरंभ में खिलते हैं और अंगार की तरह दिखते हैं। उस समय पत्ते झड़ जाते हैं और पेड़ फूलों से लद जाता है जो दर्शनीय होता है। फूल झड़ जाने पर चौड़ी चौ़ड़ी फलियाँ  'पलास पापड़ा' या 'पलास पापड़ी' और गोल-चपटे 'पलास-बीज' होते हैं। पलाश के मझोलाकारी पेड़ की शाखाएँ राख के रंग की होती हैं। सींक पर तीन पत्तियाँ होती हैं। यह मैदानों और जंगलों ही में नहीं, ४००० फुट ऊँची पहाड़ियों की चोटियों पर भी मिलता है।  पलाश के पत्ते गोल और बीच में कुछ नुकीले होते हैं जिनका रंग पीठ की ओर सफेद और सामने की ओर हरा होता है। इसकी छाल मोटी और रेशेदार होती है। लकड़ी टेढ़ी-मेढ़ी होती है। कठिनाई से चार पाँच हाथ सीधी मिलती है। इसका फूल छोटा, अर्धचंद्राकार और गहरा लाल होता है
उपयोग 
 

                  पलाश के पेड़ के बीज, फूल, पत्ते, छाल, जड़, और लकड़ी सभी उपयोगी हैं। पलाश के फूलों का इस्तेमाल रंग बनाने में किया जाता है। पलाश के पेड़ से निकलनेवाला लाल कसैला गोंद सूखने पर "ब्यूटिया गम" या "बंगाल किनो" नामक कठोर पदार्थ में बदल जाता है, इसमें गैलिक और टैनिक एसिड प्रचुर मात्रा में होते हैं। यह चमड़ा उद्योग के लिए मूल्यवान है। इसके पत्ते  पत्तल, दोने, बीड़ी आदि के बनाने के काम आते हैं। यह पेड़ लाख कीट (लैसीफर लैका) के लिए एक महत्वपूर्ण मेज़बान के रूप में कार्य करता है जो शेलैक बनाता है । यह किसी भी लाख के पेड़ की तुलना में प्रति हेक्टेयर सबसे अधिक लाख की छड़ें पैदा करता है। छाल से एक लाल रंग का स्राव निकलता है, जो में कठोर हो जाता है। छाल से एक प्रकार का रेशा निकलता है जिसको जहाज के पटरों की दरारों में भरकर भीतर पानी आने की रोक की जाती है। जड़ की छाल से जो रेशा निकलता है उसकी रस्सियाँ बटी जाती हैं । दरी और कागज भी इससे बनाया जाता है। पलाश की मोटी डालियों और तनों को जलाकर कोयला तैयार करते हैं। फूल उबालने से निकले ललाई लिए पीले रंग (कुसुंबी) से होली पर रंग खेल जाता है। फली की बुकनी कर लेने से वह भी अबीर का काम देती है । 
आयुर्वेदिक औषधि 
                    आयुर्वेद के अनुसार पलाश का फूल स्वादु, कड़वा, गरम, कसैला, वातवर्धक शीतज, चरपरा, मलरोधक, तृषा, दाह, पित्त कफ, रुधिरविकार, कुष्ठ और मूत्रकृच्छ का नाशक; फल रूखा, हलका गरम, पाक में चरपरा, कफ, वात, उदररोग, कृमि, कुष्ठ, गुल्म, प्रमेह, बवासीर और शूल का नाशक होता है। पलाश के बीज को स्निग्ध, चरपरा, गरम, कफ और कृमि का नाशक और गोंद को मलरोधक, ग्रहणी, मुखरोग, खाँसी और पसीने को दूर करनेवाला बताया गया है। कौशिकसूत्र में पलाश पेस्ट का प्रयोग जलोदर (पेट में सूजन) के लिए वर्णित है। बृहत्रयी में पलाश का प्रमुख रूप से प्रमेह या डायबिटीज, अपतानक (Emprosthotonus), अर्श या पाइल्स, अतिसार या दस्त, रक्तपित्त (कान-नाक से खून बहना), कुष्ठ आदि की चिकित्सा में प्रयोग मिलता है। ७ वीं शताब्दी के माधवा चिकित्सा अध्याय २ के अनुसार, अतिसार (दस्त) के उपचार में इसका उपयोग किया जाता है । अतिसार में प्रतिदिन तीन या अधिक ढीला, तरल, सामान्य से अधिक मल होता है। १  चम्मच पलाश बीज के काढ़े में १  चम्मच बकरी का दूध मिलाकर खाना खाने के बाद दिन में तीन बार सेवन करने से अतिसार में लाभ होता है। इस समय में बकरी का उबला हुआ ठंडा दूध और चावल ही लेना चाहिए।१० वीं शताब्दी के सौरपुराण के अनुसार, कृष्णष्टमी व्रत के लिए श्रावण और भाद्रपद महीनों में दाँत सफाई के लिए पलास की लकड़ी का उपयोग किया जाता है। १५ वीं शताब्दी में वासुदेव द्वारा रचित योगसारसंग्रह (योगसार-संग्रह) में औषधीय नुस्खों में पलाश का उल्लेख है। कश्यप संहिता के अनुसार विष निवारण हेतु अन्य वनस्पतियों के साथ पलाश का उल्लेख है। ग्रंथ 'भोजन कुटूहल' (१७ वीं शताब्दी) के अनुसार पलाश-पात्र में अथवा पलाश के ईंधन में उबाला गया पानी कफ-वात-पीनसंघ्न, रुचि और बृहण (कफ और वात) घटाता है, पीनसा रोग ठीक कर स्वाद में सुधार करता है। पलाश का फूल प्यास तथा कफ-पित्त घटानेवाला, उत्तेजना बढ़ानेवाला, डायबिटीज नियंत्रित करनेवाला होता है। पलाश के फल स्तम्भक व प्रमेहघ्न होते हैं। पलाश की गोंद एसिडिटी ह्रासक, शक्तिवर्धक तथा मुखरोग व खाँसी में फायदेमंद होती है। पलाश के पत्ते सूजन तथा वेदना को कम करते हैं। पञ्चाङ्ग कफ-वात को कम करने वाला होता है। पलाश की जड़ का रस रतौंधी और नेत्र के सूजन को कम कर नेत्र-ज्योति बढ़ाता है। पलाश का तना काम शक्ति बढ़ाता है। पलाश जड़ की छाल दर्द निवारक, अर्श या बवासीर तथा व्रण या अल्सर में फायदेमंद होता है।
                    पलाश की ताजी जड़ों का अर्क एक-एक बूँद आँखों में डालते रहने से मोतियाबिंद, रतौंधी आदि नेत्र रोगों में राहत मिलती है।ज्यादा गर्मी, ज्यादा ठंड या किसी बीमारी के साइड इफेक्ट के कर्ण नाक से रक्त-स्राव (नकसीर) हो तो  १०० मिली ठंडे पानी में भीगे हुए ५-७ पलाश फूल छानकर सुबह थोड़ी मिश्री मिलाकर पीने से  लाभ होता है। गलगंड या घेंघा (गोइटर) हो तो पलाश की जड़ को घिसकर कान के नीचे लेप करें। पलाश की ताजी जड़ का रस निकालकर अर्क की ४-५ बूँदें पान के पत्ते में रखकर खाने से भूख बढ़ती है।  उदरशूल, अफारा आदि में पलाश की छाल और शुंठी का काढ़ा या पलाश के पत्ते का काढ़ा ३०-४० मिली दिन में दो बार पीने से आराम मिलता है। एक चम्मच पलाश बीज चूर्ण दिन में दो बार खाने से पेट के सब कीड़े मरकर बाहर आ जाते हैं। पलाश के बीज, निशोथ, किरमानी अजवायन, कबीला तथा वायविडंग को समान मात्रा में मिलाकर ३ ग्राम गुड़ के साथ खिलाने से सब प्रकार के कृमि नष्ट हो जाती है। २ ग्राम पलाश पञ्चाङ्ग की भस्म को गुनगुने घी के साथ पिलाने से रक्तार्श (खूनी बवासीर) में बहुत लाभ होकार,  लगातार सेवन करने से मस्से सूख जाते हैं। पलाश के पत्रों में घी की छौंक लगाकर दही की मलाई के साथ सेवन करने से बवासीर में लाभ होता है। पलाश के फूलों को उबाल-पीस-सुखाकर पेडू पर बाँधने से मूत्रकृच्छ्र (मूत्र करते वक्त दर्द या जलन होना, मूत्र रुक-रुक कर आना, मूत्र कम होना) तथा सूजन में बहुत  लाभ होता है।२०  ग्राम पलाश पुष्प रात भर २०० मिली ठंडे पानी में भिगोकर सुबह थोड़ी मिश्री मिलाकर पिलाने से गुर्दे का दर्द तथा मूत्र के साथ रक्त का आना बंद हो जाता है। पलाश की सूखी हुई कोपलें, गोंद, छाल और फूलों को मिलाकर चूर्ण बना लेना चाहिए। इस चूर्ण में समान मात्रा में मिश्री मिलाकर ४  ग्राम चूर्ण  प्रतिदिन दूध के साथ सुबह शाम सेवन करने से मूत्रकृच्छ्र (मूत्र त्याग में कठिनता) में लाभ होता है।
                    पलाश की कोंपलों को छाया में सुखाकर कूट-छानकर गुड़ मिलाकर, ९ ग्राम सुबह सेवन करने से प्रमेह में लाभ होता है। पलाश की जड़ों के रस में ३ दिन तक गेहूँ के दानों को भिगो-पीसकर हलवा बनाकर खाने से प्रमेह, शीघ्र पतनऔर कामेन्द्रिय शैथिल्य में लाभ होता है। ५ बूँद पलाश मूल अर्क दिन में दो बार सेवन करने से अनैच्छिक वीर्यस्राव रुकता है और कामशक्ति प्रबल होती है। ४ बूँद पलाश बीज तेल कामेन्द्रिय के ऊपर (सीवन सुपारी छोड़कर) मालिश करने से कुछ ही दिनों में सब प्रकार की नपुंसकता दूर होती है और प्रबल कामशक्ति जागृत होती है। १० ग्राम पलाश बीज, २० ग्राम शहद और १० ग्राम घी को घोटकर, इसमें रूई को भिगोकर बत्ती बनाकर संभोग से तीन घण्टे पहले योनि में रखने से गर्भधारण नहीं होता। पलाश, कुसुम्भ के फूल तथा शैवाल को मिलाकर काढ़ा बनायें, ठंडा होने पर १५ मिली काढ़े में मिश्री मिलाकर पिलाने से पित्त प्रमेह में लाभ होता है। पलाश के फूलों की पुल्टिस बनाकर नाभि के नीचे बाँधने से अंडकोष की सूजन कम होती है। पलाश की छाल पीसकर ४ ग्राम  जल के साथ दिन में दो बार देने से अंडवृद्धि में लाभ होता है।  पलाश के बीज महीन पीसकर मधु के साथ मिलाकर दर्द वाले स्थान पर लेप करने से संधिवात या अर्थराइटिस में लाभ होता है। पलाश के पत्तों की पुल्टिस बाँधकर ५ ग्राम पलाश जड़ की छाल का चूर्ण बनाकर उसको दूध के साथ पीने से बंदगाँठ में लाभ होता है। १०० मिली पलाश की जड़ के रस में समान मात्रा में सफेद सरसों का तेल मिलाकर दो चम्मच सुबह-शाम पीने से श्लीपद रोग या हाथीपाँव में लाभ होता है। घाव सूख नहीं रहा है तो पलाश की गोंद का चूर्ण छिड़कने से जल्दी ठीक होता है।पलाश बीज से बने तेल को लगाने से कुष्ठ में लाभ होता है। दूध में उबाले हुए पलाश बीज, गंधक तथा चित्रक सुखाकर  सूक्ष्म चूर्ण बनाकर, २ ग्राम प्रतिदिन, १ मास तक जल के साथ लेने से मण्डल कुष्ठ में अतिशय लाभ होता है। पलाश बीज नींबू के रस के साथ पीसकर लगाने से दाद-खुजली ठीक होती है। पलाश जड़ पीसकर ५ बूँद नाक में टपकाने से मिर्गी का दौरा बंद हो जाता है। पलाश-पत्तों को पीस कर लेप करने से दाह (ज्वर) तथा जलन में लाभ होता है। ठंडे जल में पिसे हुए पलाश बीज का लेप सूजन कम करता है। पलाश के फूलों की पुल्टिस बनाकर बाँधने से सूजन घटती है।पलाशबीज का रस दूध के साथ पीसकर बिच्छू काटने के स्थान पर लेप करने से दर्द तथा विष का प्रभाव कम होता है।
                    पलाश-बीज में पेट के कीड़े मारने का गुण होता है। इसकी पतली डालियों को उबालकर एक प्रकार का कत्था तैयार किया जाता है जो कुछ घटिया होता है और बंगाल में अधिक खाया जाता है। पलाश से प्राप्त गोंद (कमरकस) का उपयोग कुछ खाद्य व्यंजनों में किया जाता है। इसके बीजों को नींबू के रस के साथ पीस कर खुजली तथा एक्ज़िमा तथा दाद जैसी परेशानियाँ दूर करने में काम में लिया जाता है। शहद के साथ पेस्ट बना कर अथवा पीस कर पाउडर की तरह सेवन करने से पेट में मौजूद कीड़ों से मुक्ति के लिये इसे उपयोगी पाया गया है। त्वचा के छालों तथा सूजन पर इसके पत्तों को लगाने से बहुत आराम मिलता है। इसकी पत्तियाँ 'रक्त शर्करा' (ब्लड शुगर) को कम करती है तथा 'ग्लुकोसुरिया' को नियंत्रित करती है, इसलिये मधुमेह की बीमारी में यह ख़ासा आराम देती हैं। पत्तियों के काढ़े को डोश के रूप में ल्युकोरिया की बीमारी में भी काम में लिया जाता है। गले की ख़राश, जकड़न में पत्तियों को पानी के साथ उबाल कर माउथवाश की तरह काम में लेने से बहुत आराम मिलता है। पलाश के शरबत के सेवन से शरीर को गर्मी सहन करने की शक्ति मिलती है।
साहित्य में पलाश  
                    संस्कृत और हिंदी के कवियों ने पलाश के सौंदर्य पर कितनी ही उत्तम उत्तम कविताएँ की हैं। संस्कृत में, फूल का व्यापक रूप से वसंत के आगमन और प्रेम के रंग के प्रतीक के रूप में उपयोग किया जाता है। एक पुराण कथा के अनुसार भगवान शिव और पार्वती का एकांत भंग करने के कारण अग्नि देव को शाप ग्रस्त होकर पृथ्वी पर पलाश के वृक्ष में जन्म लेना पड़ा। महाभारत, भागवत, कुमारसंभव, किरातार्जुनीयम्, शिशुपाल वध आदि में पलाश का उल्लेख है। पुष्पित पलाश वृक्ष के संबंध में महाकवि कालिदास की कल्पना बहुत ही सरस है। वे लिखते हैं- "वसंत काल में पवन के झोंकों से हिलती हुई पलाश की शाखाएँ वन की ज्वाला के समान लग रहीं थीं और इनसे ढकी हुई धरती ऐसी लग रही थी, मानो लाल साड़ी में सजी हुई कोई नववधू हो।" कालिदास के कुमारसम्भवम् में तपस्या करती पार्वती के सामने ब्रह्मचारी-रूप में शंकर प्रकट होते हैं।
अथाजिनाषाढ़धरः प्रगल्भवागज्वलन्निव ब्रह्ममयेन तेजसा।
विवेश कश्चिज्जटिलस्तपोवनं शरीरबद्धः प्रथमाश्रमो यथा।।
( इसी बीच एक दिन ब्रह्मचर्य के तेज से चमकता हुआ-सा हरिण की छाल ओढ़े और पलाश (ढाक) का दण्ड हाथ में लिए हुए , गठीले शरीरवाला और चतुराई के साथ बोलनेवाला एक जटाधारी ब्रह्मचारी उस तपोवन में आया। वह ऐसा जान पड़ता था कि साक्षात् ब्रह्मचर्याश्रम ही उठा चला आ रहा हो। )
कालिदास का यह श्लोक हमें बताता है कि 'आषाढ़' पलाश को भी कहते हैं। शंकर जब पार्वती के सामने प्रस्तुत होते हैं , तो उनके हाथ में पलाश का दण्ड दिखाया गया है , जो ब्रह्मचारी लेकर चला करते थे।

गीत गोविंद में जयदेव ने इन फूलों की तुलना कामदेव व उनके लाल नाखूनों से की है, जिनसे वे प्रेमियों के दिलों को घायल कर देते हैं। यह कल्पना और भी अधिक उपयुक्त है क्योंकि फूलों की तुलना किंशुकजाले से की गई है। पूरी तरह से पत्ती रहित पेड़ में, फूल एक जाल की तरह दिखते हैं। निम्नलिखित छंद का अनुवाद बारबरा स्टोलर मिलर द्वारा किया गया है।  किमसुका फूलों के लिए, वह सामान्य नाम "ज्वाला वृक्ष की पंखुड़ियाँ" का उपयोग करती है-
मृगमदसौरभर्भसवश्वनदवदलमलतमले।
यौजनहृदयविदारनमनसिजनखरुचिकिंशुकजाले॥
                    तमला वृक्ष की ताजी पत्तियाँ मृग कस्तूरी की तीव्र गंध को अवशोषित करती हैं। ज्वाला वृक्ष की पंखुड़ियाँ, प्रेम की चमकती हुई कीलें, युवा हृदयों को चीरती हैं।  
                    भारत की विभिन्न भाषाओं और लोक साहित्य में इस पुष्प और वृक्ष के मोहक वर्णन मिलते हैं।  इसके एक ही वृंत पर तीन पत्ते निकलते हैं। माना जाता है कि हिन्दी का प्रसिद्ध मुहावरा "ढाक के तीन पात" इसी से बना है। 
                    नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं और गीतों के ज़रिए , जिन्होंने इसके चमकीले नारंगी रंग के फूल की तुलना आग से की थी। शांतिनिकेतन में , जहाँ टैगोर और विशालनारायण रहते थे, यह फूल वसंत के उत्सव का एक अनिवार्य हिस्सा बन गया है। इस पौधे ने पलाशी शहर को अपना नाम दिया है , जो वहाँ लड़ी गई ऐतिहासिक प्लासी की लड़ाई के लिए प्रसिद्ध है। 
                    खुशवंत सिंह की किताब ए हिस्ट्री ऑफ़ द सिख्स वॉल्यूम १ में पंजाब के परिदृश्य के वर्णन में जंगल की लौ का उल्लेख किया गया है । वे लिखते हैं, "जबकि मार्गोसा अभी भी अपनी भंगुर गेरू की पत्तियों के साथ धरती को बिखेर रहा है, रेशमी कपास, मूंगा और जंगल की लौ चमकीले लाल, लाल और नारंगी रंग के फूलों में फूट पड़ी है।" इस पेड़ का संदर्भ अक्सर पंजाबी साहित्य में पाया जाता है। पंजाबी कवि हरिंदर सिंह महबूब ने अपनी कविताओं में इसके प्रतीकवाद का इस्तेमाल किया। 
                    रुडयार्ड किपलिंग की लघु कहानी बियॉन्ड द पेल (१८८८ में प्रकाशित प्लेन टेल्स फ्रॉम द हिल्स में शामिल) में , उन्होंने ढाक के बारे में कहा: ढाक के फूल का अर्थ अलग-अलग तरह से "इच्छा", "आना", "लिखना" या "खतरा" होता है, जो इसके साथ जुड़ी अन्य चीजों के अनुसार होता है। इस पेड़ को जंगल बुक की कहानी टाइगर! टाइगर! में भी दिखाया गया है। 
            आधुनिक काल में भी अनेक कृतियाँ, जैसे- रवीन्द्रनाथ त्यागी का व्यंग्य संग्रह- 'पूरब खिले पलाश', मेहरून्निसा परवेज का उपन्यास 'अकेला पलाश', मृदुला बाजपेयी का उपन्यास 'जाने कितने रंग पलाश के', नरेन्द्र शर्मा की 'पलाश वन', नचिकेता का गीत संग्रह 'सोये पलाश दहकेंगे', देवेन्द्र शर्मा इंद्र का दोहा संग्रह 'आँखों खिले पलाश', उपन्यास ढाक के तीन पात- मलय जैन,  काव्य संग्रह-यादों के पलाश- डॉ. संगीता भारद्वाज 'मैत्री', कहानी पलाश के फूल- अमरकांत आदि टेसू या पलाश की प्रकृति को ही केन्द्र में रखकर लिखी गई हैं। पलाश को केंद्र में रखकर आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने गीत, गजल, सॉनेट, हाइकु, दोहे, सोरठे आदि लिखे हैं। 
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