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बुधवार, 22 जनवरी 2025

शमी, खेजड़ी, प्रोसोपिस सिनेरेरिया, सुमरी, जांट, जांटी, सांगरी,कांडी

 रेतीले क्षेत्र में जीवन रक्षक शमी


थार के मरुस्थल एवं अन्य स्थानों में बहुत उपयोगी शमी वृक्ष को राजस्थान में खेजड़ी, जांट/जांटी, सांगरी, उत्तर प्रदेश में छोंकरा, पंजाब में जंड, सिंध में कांडी, गुजरात में सुमरी, तमिलनाडु में वण्णि, संयुक्त अरब अमीरात में घफ़, अंग्रेजी में यह प्रोसोपिस सिनेरेरिया कहा जाता है। यह वृक्ष जेठ के महीने में भी हरा रहता है। तेज गर्मी में जब रेगिस्तान में जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता तब यह पेड़ छाया देता है। जब खाने को कुछ नहीं होता है तब यह मनुष्यों और पशुओं का पेट भरता है। इसका चारा लूंग, फूल मींझर कहलाता है। इसके फल सांगरी की सब्जी बनाई जाती है। यह फल सूखने पर खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है। इसकी लकड़ी मजबूत होती है जो फर्नीचर बनाने और ईंधन के काम आती है। इसकी जड़ से हल बनता है। अकाल के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है। सन १८९९ में पड़े अकाल छपनिया के समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे थे। इस पेड़ के नीचे अनाज की पैदावार ज्यादा होती है। १९८३ से यह राजस्थान राज्य का राज्य वृक्ष है। राजस्थान में इसके नाम पर एक स्थान का नाम खेजड़ली है। राजस्थानी भाषा में कन्हैयालाल सेठिया की कविताएँ मींझर, खेजड़ी तथा खेजड़लो बहुत प्रसिद्ध हैं। ये थार के रेगिस्तान में पाए जाने वाले वृक्ष खेजड़ी के सम्बन्ध में है। इस कविता में खेजड़ी की उपयोगिता और महत्व का सुन्दर चित्रण किया गया है।
मींझर
कन्हैयालाल सेठिया
सौनेली मींझर लड़ालूम
रस पीवै भंवरा झूमझूम
सौनेली मींझर लड़ालूम।

सै मन मिलणै री बातां है
कुण कीं रै हाथां बाथां है ?
बा अलगोजै री गूंज उठी
सुण बिछड्यां हियां अमूझ उठी,

आंख्यां में सुपनां नाच गया
कर छननछून कर छननछून,
सौनेली मींझर लड़ालूम
सौनेली मींझर लड़ालूम।

दिन मधरा, मदवी रातां है
अै सुख बैरी री घातां है,
मन मौजां में तण उणमादी
नैणां ने दारू कुण प्यादी ?

कंठा रै मीठैे गीतां री
आभै में माची धमकधूम,
सौनेली मींझर लड़ालूम
सौनेली मींझर लड़ालूम।

फुलड़ां री झिलमिल पांतां है,
ज्यों रंगा भरी परातां है,
धरती रो रूप सुआ पंखी
तीतर री टोळ्यां उड़ किलखी,

बो बवै बायरो मद झीणो
धोरां रा गोरा गाल चूम,
सौनेली मींझर लड़ालूम
सौनेली मींझर लड़ालूम।
***
खेजड़ी 
खेजड़ी, रूत आयां पांघरसी

छांग्यो लूंग टाटड्यां तांई
नागी बूची कर दी,
लाज लूंट ली आं निमल्यां री
लूंठां जोरांमरदी,
भर्यै सियाळै डांफर पाळै
साव उधाड़ी ठरसी।
खेजड़ी, रूत आयां पांघरसी।

बै तपता बैसाख जेठ रा
महीनां मिनख भुलाया,
सावणियै रा सपनां देख्या
ईं री ठंडी छांयां,
पण कुदरत दातार, बापड़ी
फेर फूलसी फळसी।
खेजड़ी रूत आयां पांघरसी।

कूर कुंआड़ी रै के लागै
देखै काची पाकी ?
खुद रै कुळ नै विणसै लारै
लाग्यो डांडो डाकी,
घर रै भेदू बिनां काम अै
दूजो कुण कर सकसी ?
खेजड़ी, रूत आयाँ पांघरसी।
***
खेजड़लो
म्हौ मुरधर रो है सांचो
सुख दुख साथी खेजड़लो,
तिसां मरै पण छयां करै है
करड़ी छाती खेजड़लो,

आसोजां रा तप्या तावड़ा
काचा लोहा पिलघळग्या,
पान फूल री बात करां के
बै तो कद ही जळबळग्या,

सूरज बोल्यो छियां न छोडूं
पण जबरो है खेजड़लो
सरणै आय’र छियां पड़ी है
आप बळै है खेजड़लोः

सगळा आवै कह कर ज्यावै
मरू रो खारो पाणी है,
पाणी क्यां रो अै तो आंसू
खेजड़लै ही जाणी है,

आंसू पीकर जीणो सीख्यो
एक जगत में खेजड़लो,
सै मिट ज्यासी अमर रवैलो
एक बगत में खेजड़लो,

गांव आंतरै नारा थकग्या
और सतावै भूख घणी,
गाड़ी आळो खाथा हांकै
नारां था रो मरै धणी,

सिंझ्या पड़गी तारा निकल्या
पण है सारो खेजड़लो,
‘आज्या’ दे खोखां रो झालो
बोल्यो प्यारो खेजड़लो,

जेठ मास में धरती धोळी
फूस पानड़ो मिलै नहीं,
भूखां मरता ऊंठ फिरै है
अै तकलीफां झिलै नहीं,
इण मौके भी उण ऊंठा नै
डील चरावै खेजड़लो,
अंग अंग में पीड़ भरी पण
पेट भरावै खेजड़लो,

म्हारै मुरधर रो है साचो
सुख दुख साथी खेजड़लो
तिसां मरै पण छियां करै है
करड़ी छाती खेजड़लो।
***
वास्तु के अनुसार शमी का पौधा शमी के पौधे से शनि की दृष्टि बनी रहती है। आँगन में शमी वृक्ष का सूखना शनि का प्रकोप दर्शाता है। शिव को प्रिय शामी का पौधा मुख्य द्वार से दाहिने हाथ पर लगा सकते हैं। इसे बगिया में पूर्व-पश्चिम दिशा में लगाना शुभ होता है। इसे दक्षिण में लगाने से घर में शांति, स्वास्थ्य और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। शमी का पौधा उत्तर दिशा में, शयन कक्ष में, छत पर लगाने से कँटीला होने के कारण मानसिक शांति भंग कर सकता है। इसे स्नानागार या पाकशाला के निकट न लगाएँ। वसन्त ऋतु में समिधा के लिए शमी की लकड़ी का प्रावधान किया गया है। इसी प्रकार वारों में शनिवार को शमी की समिधा का विशेष महत्त्व है। लंका विजय से पूर्व भगवान राम द्वारा शमी के वृक्ष की पूजा का उल्लेख मिलता है। दशहरे के दिन रावण दहन के बाद घर लौटते समय शमी के वृक्ष की पूजा करने तथा स्वर्ण के प्रतीक शमी के पत्ते लूट कर लाने की प्रथा है। नवरात्रि उत्सव में भगवान गणेश और देवी दुर्गा को शमी के पत्ते चढ़ाए जाते हैं। पांडवों द्वारा अज्ञातवास के अंतिम वर्ष में गांडीव धनुष इसी पेड़ में छुपाए जाने के उल्लेख मिलते हैं। शमी या खेजड़ी के वृक्ष की लकड़ी यज्ञ की समिधा के लिए पवित्र मानी जाती है। हर शनिवार को शमी वृक्ष के नीचे तेल का दीपक जलाना चाहिए। 

वैज्ञानिक वर्गीकरण: जगत: पादप, विभाग: माग्नोल्योप्सीदा, वर्ग: माग्नोल्योफ़ीता, गण: फ़ाबालेस् कुल: फ़ाबाकेऐस्, वंश: प्रोसोपीस् जाति: P. cineraria, द्विपद नाम Prosopis cineraria (प्रोसोपीस कीनेरार्या)। शमी का पौधा धूप में लगाएँ। शमी के पौधे के लिए उचित तापमान १० डिग्री से २० डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है। उत्तर भारत में यह पौधा फरवरी माह में अच्छी तरह से फलता फूलता है। तापमान बहुत ज्यादा रहताहो तो इसे किसी छायादार जगह पर ही लगा सकते हैं। इसे पानी की अधिक जरूरत नहीं होती है लेकिन किसी भी अन्य पौधे की तरह समय-समय पर इसमें पानी डालते रहें ताकि जड़ें न सूखें।

लाभ: आँतों में पाए जाने वाले कीड़ों को खत्म करने के लिए शमी के पत्तों का रस बनाकर आप इसे पी सकते हैं। शमी के पत्ते मधुमेह के इलाज में मददगार होते हैं। शमी के पौधे के उपयोग से शरीर के भीतर के विषाक्त तत्वों का नाश करने में मदद मिलती है। शमी के पेड़ की छाल अल्सर आदि को खत्म करती है।  छाल पीसकर पीने पर खाँसी और गले की खराश में तुरंत आराम मिलता है। मेडिकल जगत में सिजोफ्रेनिया और बहुत से मानसिक रोगों के लिए भी इस पौधे से दवाइयाँ बनाई जाती हैं। यह शरीर को ताजगी और ऊर्जा प्रदान करता है। शमी का पौधा वातावरण को शुद्ध कर ऑक्सीजन का स्तर और हवा की ताजगी बढ़ाता है। शमी का पौधा कीटों को दूर करने में भी सहायक होता है। इसके आसपास मच्छरों और अन्य कीटों का प्रभाव कम होता है। यह धन-समृद्धि और सुख-शांति दायक है। शमी के सेवन से कब्ज, वमन, सिरदर्द, पेट में जलन आदि होने की संभावना देखते हुए कुशल चिकित्सक की देख-रेख में ही उपयोग कीजिए।
००० 
[19:35, 22/1/2025] संजीव सलिल: शमी
विश्वंभरनाथ उपाध्याय
मैं शमी का दरख़्त!
मैं नहीं चाहता था, शुभ-शकुन के लिए 
मेरा वजूद काम आए
मेरी छाया में बैठ कर कोई जोड़ा
एक दूसरे को बेवक़ूफ़ बनाए!
मैं त्यक्त और निषिद्ध
इस खड्ड में अजनबी अछूत-सा खड़ा था
कुछ अनहोना नहीं देखा, जिसे कहूँ
सब पूर्वनिश्चित, पूर्वघोषित, लकीर के फ़क़ीर
मैं मगन अपने में
एक 'बस यों ही' जैसा भाव
सूरज निकल या सनीचर
सूखा हो या गुल-ओ-बुलबुल के चाव
काल यों ही कूदता रहे कंगारू-सा
या किसी भद्र की शिष्टगति अपनाए
इधर से गुज़रता कोई अलाप छेड़े
या चीख़ छोड़ जाए
मैं न मोम था, न पत्थर
एक अंत्यज पौधा था, रुख़
जो है और नहीं भी है
गंदगी में गर्वीला, दुर्गंध में दुर्दांत!
सोचा था औघट-घाट के बमररक्कस-सा पड़ा
लेकिन मैं भी दंतकथा से सताया गया

कहा गया, शमी निर्लिप्त है
और निर्लिप्त ही लिप्सा पूरी कर सकता है!
मेरी डालों पर कुँआरे कपड़े बाँध कर
मुरादें माँगी जाने लगीं
दूध और पूत के शेख़चिल्ली सपनों में डूबीं
दरख़्वास्ते लगाई जाने लगीं
परीज़ाद लुक-छिप कर आने लगे
निर्वासित पांडव मुझ पर मुर्दे टाँग कर

अपने हथियार छिपाने लगे!
मैं इनसे उदासीन रह कर
अपनी जड़ों पर जमा रह सकता था
लेकिन इस हकलाती पीढ़ी का क्या करूँ
जो मुझसे ज़हर नहीं, दुआ माँगती है?
सोचता हूँ पांडवों के शस्त्र
इन बघनख बालकों को दे दूँ
हो सकता है गदा देखकर कोई भीम हो जाए

गांडीव पाकर गुडाकेश बन जाए
इनका जीवन एक निर्लज्ज चीरहरण है
इनकी द्रौपदियों की चोटियाँ नहीं बँधतीं
जली-कटी दास्तानें सुनाते हैं दिन-रात मुझे
कृष्ण का प्रतीक समझकर
और सचमुच मैं महाभारत रचाने की संभावना में
संपृक्त, संकल्प में सनकता
चुनौती सख़्त!
०००
मैं शमी हूँ
सुनील कुमार महला
०                                                                                                                                                                                                            मरूस्थल की आन,बान और शान हूँ
मैं शमी(खेजड़ी) हूँ...!
वैशाख,
जेठ(ज्येष्ठ मास) की तपती दुपहरी में
लू के थपेड़ों को सहकर
मैं डगमगाती नहीं
हरितिमा से ओतप्रोत,
सावन के सपने मुझमें हैं
क्योंकि
मैं बन जाती हूँ,
रेगिस्तानी प्राणियों का कड़ी धूप में
सहारा...!
ढ़ोर बुझा लेते हैं जठराग्नि
मेरी लूंग(हरे छोटे पत्ते) से,
मेरे मींझर (फूल)
बढ़ाते शोभा मरू की,
मेरे फल सांगरी की सब्जी की बात निराली है,
शादी-ब्याह में,
चाव से ढ़ूढ़ी जाती,
स्वाद से भरपूर
सांगरियों की सब्जी आज मिलती कहाँ है ?
तपते सूरज की गरमी से सांगरियां,
बन जाती जब खोखा...!
सूखा मेवा हो जैसे...आदमी हो या ढ़ोर
सबकी जबान पे चढ़ जाते मेरे खोखे...!
मेरी जड़ से हलधर बना लेते हल,
मेरी लकड़ी से बने हल की नोंक से
लिखी जाती फिर इस मरूधरा की तस्वीर,
लिखे जाते यहाँ गीत खुशहाली के
मैं शमी हूँ...!
याद है ! छपनिया अकाल में भी
जीने का मैं शमी वृक्ष ही बनी थी,
मनुष्य मात्र का एकमात्र सहारा,
तब
मेरी छाल को खाकर जिंदा रहे थे मनुष्य...!
मैं जानती हूँ दर्द, नहीं मैं बे-दर्द
मरूस्थल की इन हवाओं से
गूंजते तूफानों से,
मैं लड़ी हूँ, भिड़ी हूँ
मैं शमी हूँ...!
मैं जानती हूँ, पहचानती हूँ हरेक दर्द
मरू की दुनिया के...!
मरू होना बांझ होना है, बंजर होना है
लेकिन
जब तक मैं हूँ... मेरे अस्तित्व से
बना रहेगा
ऐ मानव ! तुम्हारा भी अस्तित्व...!
तुम तो ऐ मानव !
दशहरे के दिन मुझे पूजते हो,
मेरी अनेक औषधीय विशेषताएं हैं...!
यज्ञ में भी मैं(मेरी लकड़ी) काम आती हूँ,
मीठे धोरों का मैं चूमूं गाल
मैंनें मरू धरती का रस पीया
मरू खातिर ही मैं जीवित हूँ
आंखों में मेरे सपने नाचें,
बादल मेरे संग-संग हैं भागे
मैं मरू की अलगोजे सी गूंज,
मैं मरूभूमि का श्रंगार, मरूधर देश में...!
तुम्हें क्यों नहीं है मेरी दरकार ...?
कैसे भुला सकते हो तुम ?
मेरे बलिदान को...?
मैं शमीं कर रही आह्वान पर आह्वान
छपनिया में ग़र
मैं नहीं बुझाती तुम्हारी जठराग्नि, ऐ मरूवासी
अस्तित्व नहीं होता शायद
तुम्हारा...! क्या होता तुम्हारा ग़र मैं नहीं होती ?
क्या तुमने कभी सोचा है, समझा है ?
मेरे होने का मतलब ?
तुम जिंदा हो तो
यह परोपकार मेरा है तुम पर
और आज तुम हो गए हो..
निर्दयी, निर्लज्ज...!
विकास और तकनीकी के इस दौर में
तू ऐ मानव ! हो गया है स्वार्थी, लालची
चला रहा है मुख पर आरी, कुल्हाड़े...!
कंक्रीट की दीवारों ने रौंद डाला है
मेरे अस्तित्व को
लेकिन याद रख, यह तेरा विकास नहीं है,
यह विनाश है
कोरा विनाश, सत्यानाश...!
ग़र मुझे दर्द होगा
तो यह दर्द वास्तव में तेरा दर्द है...!
चलते चलते बस इतना जरूर याद रखना
मैं शमी हूँ, मैं जीवन श्वास हूँ, मरू पारिस्थितिकी की जान हूँ...!
युगों युगों से इस मरूधर की पहचान हूँ...!
०००

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