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सोमवार, 18 नवंबर 2024

नवंबर १७, सोमराजी, दिंडी, सगुण, कीर्ति,बाराबरसी, एकता-शक्ति, हास्य, दीपक अलंकार

सलिल सृजन नवंबर १७
*
पूर्णिका
विधाता की अदालत में, वकालत हो नहीं सकती।
वकालत हो जहाँ, सच्ची अदालत हो नहीं सकती।।
दलाली कोट काला पहिनकर सच को छिपाती है-
विलंबित न्याय से बढ़कर अदावत हो नहीं सकती।।
पराई दौलतों को ताककर कर मत हाय भरना रे!
दुख्तरे-नेक से बेहतर इनायत हो नहीं सकती।।
उमर बढ़ती तो कम होती लगावट है गलतफहमी
हदों में रह हरी हो तो कयामत हो नहीं सकती।।
नजर का खेल है यारों! मिले-झुक-उठ कहर ढाए
दिलों से बेहतर दिल को नियामत हो नहीं सकती।।
किसी को चूमना संवाद है सपनों का सपनों से।
दिलों में दूरियाँ रखकर मुहब्बत हो नहीं सकती।।
नहीं निर्जीव या बेजिस्म से कर आशिकी तौबा ।
'सलिल संजीव' बिन सच्ची सखावत हो नहीं सकती।।
***
स्मृति गीत 
० 
शांति सुमन मुरझा रहे, है नफरत का दौर। 
आम्र कुंज वीरान है, कैक्टस पर है बौर।। 
० 
व्याप गया है मौन, नवगीती दरबार में। 
पौधा अद्धा पौन, ग्रहण ग्रस रहे एक को।। 
खूं की प्यासी साँझ को, सूर्य हो गया कौर। 
शांति सुमन मुरझा रहे, है नफरत का दौर।। 
० 
नहीं आँख को आँख, सोहे फूटी आँख भी। 
नोच रहे हैँ पाँख, पाँख आप ही पाँख के।। 
पद-मद पाकर तृप्ति गुम, चाह हमेशा और। 
शांति सुमन मुरझा रहे, है नफरत का दौर।।  
(दोहा-सोरठा गीत) १७.११.२०२४ 
०००
छंदशाला ५२
दिंडी छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष, तमाल, सगुण व नरहरी छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, यति ९-१०, पदांत गुरु गुरु।
लक्षण छंद
ग्रह-दिशा यति रख, लिखो छंद दिंडी।
घर घर विराजे, शिव जी की पिंडी।।
गुरु गुरु नमन लें, वर दें बनें छंद।
रस-लय सुसज्जित, दे भाव आनंद।।
(संकेत-ग्रह नौ, दिशा दस)
उदाहरण
हे हरि! दया कर, भक्तों को तारो।
भव सिंधु पीड़ा, मिटाओ उबारो।।
हमें लो शरण में, सुनो प्रार्थनाएँ-
हरकर तिमिर सब, जगत को उजारो।।
१७-११-२०२२
•••
छंदशाला ५०
सगुण छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष व तमाल छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, पदादि ल, पदांत ज।
लक्षण छंद
सगुण-निर्गुण दोनों है ईश एक।
यह सच सब जानते जिनमें विवेक।।
लघु-जगण हों आदि-अंत साथ-साथ।
करें देशसेवा सभी उठा माथ।।
उदाहरण
गुनगुना रहे भ्रमर, लखकर बसंत।
हिल-मिलकर घूमते, कामिनी-कंत।।
महक मोगरा कहे, मैं भी जवान।
मन मोहे चमेली, सुनाकर गान।।
१२-११-२०२२
•••
卐 ॐ 卐
एकता और शक्ति गीत
*
बारा बरसी खटन गया
झट लै आया झंडा
तिरंगा फहराया
कि जन गण मन गाया
*
बारा बरसी खटन गया
सब दै रहे सलामी
गर्व से शीश तना
एक यह देश बना
*
बारा बरसी खटन गया
मिल मुट्ठी बन जाएँ
अँगुलियाँ अलग न हों
देश ताकतवर हो
*
बारा बरसी खटन गया
स्वच्छता रखें सभी
स्वस्थ तन-मन भी हो
नित नव सपने बो
*
बारा बरसी खटन गया
जहाँ हैं कर मेहनत
बनाएँ देश नया
झुके सारी दुनिया
***
हास्य मुक्तक
नम आँख देखकर हमारी आँख नम हुई
दिल से करी तारीफ मगर वह भी कम हुई
छत पर दिखी ज्यों फुलझड़ी, अनार मैं हुआ
कैसा गज़ब है एक ही पल में वो बम हुई
*
गृह लक्ष्मी से कहा 'आज है लछमी जी का राज
मुँहमाँगा वरदान मिलेगा रोक न मुझको आज'
घूर एकटक झट बोली वह-"भाव अगर है सच्चा
देती हूँ वरदान रही खुश कर प्रणाम नित बच्चा"
***
हास्य कविता
मेहरारू बोली 'ए जी! है आज पर्व दीवाली
सोना हो जब, तभी मने धनतेरस वैभवशाली'
बात सुनी मादक खवाबों में तुरत गया मन डूब
मैं बोला "री धन्नो! आ बाँहों में सोना खूब"
वो लल्ला-लल्ली से बोली "सोना बापू संग
जाती हूँ बाजार करो रे मस्ती चाहे जंग"
हुई नरक चौदस यारों ये चीखे, वो चिल्लाए
भूख इसे, हाजत उसको कोई तो जान बचाए
घंटों बाद दिखी घरवाली कई थैलों के संग
खाली बटुआ फेंका मुझ पर, उतरा अपना रंग
१७.११.२०२०
***
नवगीत
दिल्लीवालो!
*
दिल्लीवालो!
भोर हुई पर
जाग न जाना
घुली हवा में प्रचुर धूल है
जंगल काटे, पर्वत खोदे
सूखे ताल, सरोवर, पोखर
नहीं बावली-कुएँ शेष हैं
हर मुश्किल का यही मूल है
बिल्लीवालो!
दूध विषैला
पी मत जाना
कल्चर है होटल में खाना
सद्विचार कह दक़ियानूसी
चीर-फाड़कर वस्त्र पहनना
नहीं लाज से नज़र झुकाना
बेशर्मों को कहो कूल है
इल्लीवालो!
पैकिंग बढ़िया
कर दे जाना
आज जुडो कल तोड़ो नाता
मनमानी करना विमर्श है
व्यापे जीवन में सन्नाटा
साध्य हुआ केवल अमर्ष है
वाक् न कोमल तीक्ष्ण शूल है
किल्लीवालो!
ठोंको ताली
बना बहाना
१७-११-२०१९
***
दोहा सलिला
लट्टू पर लट्टू हुए, दिया न आया याद
जब बिजली गुल हो गई, तब करते फरियाद
*
उग, बढ़, झर पत्ते रहे, रहे न कुछ भी जोड़
सीख न लेता कुछ मनुज, कब चाहे दे छोड़
*
लोकतंत्र में धमकियाँ, क्यों देते हम-आप.
संविधान की अदेखी, दंडनीय है पाप.
*
१७.११.२०१७
***
कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं २
*
गीत
फ़साना
(छंद- दस मात्रिक दैशिक जातीय, षडाक्षरी गायत्री जातीय सोमराजी छंद)
[बहर- फऊलुन फऊलुन १२२ १२२]
*
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हें देखता हूँ
तुम्हें चाहता हूँ
तुम्हें माँगता हूँ
तुम्हें पूजता हूँ
बनाना न आया
बहाना बनाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हीं जिंदगी हो
तुम्हीं बन्दगी हो
तुम्हीं वन्दना हो
तुम्हीं प्रार्थना हो
नहीं सीख पाया
बिताया भुलाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हारा रहा है
तुम्हारा रहेगा
तुम्हारे बिना ना
हमारा रहेगा
कहाँ जान पाया
तुम्हें मैं लुभाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
१७-११-२०१६
***
शब्द चर्चा- सैलाब या शैलाब?
सही शब्द ’सैलाब’ ही है -’शैलाब ’ नहीं
’सैलाब’[ सीन,ये,लाम,अलिफ़,बे] -अरबी/फ़ारसी का लफ़्ज़ है अर्थात ’उर्दू’ का लफ़्ज़ है जो ’सैल’ और ’आब’ से बना है
’सैल’ [अरबी लफ़्ज़] मानी बहाव और ’आब’[फ़ारसी लफ़्ज़] मानी पानी
सैलाब माने पानी का बहाव ही होता है मगर हम सब इसका अर्थ अचानक आए पानी के बहाव ,जल-प्लावन.बाढ़ से ही लगाते है
सैल के साथ आब का अलिफ़ वस्ल [ मिल ] हो गया है अत: ’सैल आब ’ के बजाय ’सैलाब’ ही पढ़ते और बोलते है ।हिन्दी के हिसाब से इसे आप ’दीर्घ सन्धि’ भी कह सकते है’
चूँकि ’सैल’ मानी ’बहाव’ होता है तो इसी लफ़्ज़ से ’सैलानी’ भी बना है -वह जो निरन्तर सैर तफ़्रीह एक जगह से दूसरी जगह जाता रहता है।
आँसुओं की बाढ़ को सैल-ए-अश्क भी कहते है
हिन्दी के ’शैल’ से आप सब लोग तो परिचित ही हैं।
***
अलंकार सलिला: ३१
दीपक अलंकार
*
दीपक वर्ण्य-अवर्ण्य में, देखे धर्म समान।
धारण करता हो जिसे, उपमा संग उपमान।।
जहाँ वर्ण्य (प्रस्तुत) और अवर्ण्य (अप्रस्तुत) का एक ही धर्म स्थापित किया जाये, वहाँ दीपक अलंकार होता है।
अप्रस्तुत एक से अधिक भी हो सकते हैं।
तुल्ययोगिता और दीपक में अंतर यह है कि प्रथम में प्रस्तुत और प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत और अप्रस्तुत का धर्म
समान होता है जबकि द्वितीय में प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों का समान धर्म बताया जाता है।
जब प्रस्तुत औ' अप्रस्तुत, में समान हो धर्म।
तब दीपक जानो 'सलिल', समझ काव्य का मर्म।।
यदि प्रस्तुत वा अप्रस्तुत, गहते धर्म समान।
अलंकार दीपक कहे, वहाँ सभी मतिमान।।
दीपक वर्ण्य-अवर्ण्य के, देखे धर्म समान।
कारक माला आवृत्ति, तीन भेद लें जान।।
उदाहरण:
१. सोहत मुख कल हास सौं, अम्ल चंद्रिका चंद्र।
प्रस्तुत मुख और अप्रस्तुत चन्द्र को एक धर्म 'सोहत' से अन्वित किया गया है।
२. भूपति सोहत दान सौं, फल-फूलन-उद्यान।
भूपति और उद्यान का सामान धर्म 'सोहत' दृष्टव्य है।
३. काहू के कहूँ घटाये घटे नहिं, सागर औ' गन-सागर प्रानी।
प्रस्तुत हिंदवान और अप्रस्तुत कामिनी, यामिनी व दामिनी का एक ही धर्म 'लसै' कहा गया है।
४. डूँगर केरा वाहला, ओछाँ केरा नेह।
वहता वहै उतावला, छिटक दिखावै छेह।।
अप्रस्तुत पहाड़ी नाले, और प्रस्तुत ओछों के प्रेम का एक ही धर्म 'तेजी से आरम्भ तथा शीघ्र अंत' कहा है।
५. कामिनी कंत सों, जामिनी चंद सोन, दामिनी पावस मेघ घटा सों।
जाहिर चारहुँ ओर जहाँ लसै, हिंदवान खुमान सिवा सों।।
६. चंचल निशि उदवस रहैं, करत प्रात वसिराज।
अरविंदन में इंदिरा, सुन्दरि नैनन लाज।।
७. नृप मधु सों गजदान सों, शोभा लहत विशेष।
अ. कारक दीपक:
जहाँ अनेक क्रियाओं में एक ही कारक का योग होता है वहाँ कारक दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. हेम पुंज हेमंत काल के इस आतप पर वारूँ।
प्रियस्पर्श की पुलकावली मैं, कैसे आज बिसारूँ?
किन्तु शिशिर में ठंडी साँसें, हाय! कहाँ तक धारूँ?
तन जारूँ, मन मारूँ पर क्या मैं जीवन भी हारूँ।।
२. इंदु की छवि में, तिमिर के गर्भ में,
अनिल की ध्वनि में, सलिल की बीचि में।
एक उत्सुकता विचरती थी सरल,
सुमन की स्मृति में, लता के अधर में।।
३. सुर नर वानर असुर में, व्यापे माया-मोह।
ऋषि मुनि संत न बच सके, करें-सहें विद्रोह।।
४. जननी भाषा / धरती गौ नदी माँ / पाँच पालतीं।
५. रवि-शशि किरणों से हरें
तम, उजियारा ही वरें
भू-नभ को ज्योतित करें।
आ. माला दीपक:
जहाँ पूर्वोक्त वस्तुओं से उत्तरोक्त वस्तुओं का एकधर्मत्व स्थापित होता है वहाँ माला दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. घन में सुंदर बिजली सी, बिजली में चपल चमक सी।
आँखों में काली पुतली, पुतली में श्याम झलक सी।।
प्रतिमा में सजीवता सी, बस गर्भ सुछवि आँखों में।
थी एक लकीर ह्रदय में, जो अलग रही आँखों में।।
२. रवि से शशि, शशि से धरा, पहुँचे चंद्र किरण।
कदम-कदम चलकर करें, पग मंज़िल का वरण।।
३. ध्वनि-लिपि, अक्षर-शब्द मिल करें भाव अभिव्यक्त।
काव्य कामिनी को नहीं, अलंकार -रस त्यक्त।।
४. कूल बीच नदिया रे / नदिया में पानी रे
पानी में नाव रे / नाव में मुसाफिर रे
नाविक पतवार ले / कर नदिया पार रे!
५. माथा-बिंदिया / गगन-सूर्य सम / मन को मोहें।
इ. आवृत्ति दीपक:
जहाँ अर्थ तथा पदार्थ की आवृत्ति हो वहाँ पर आवृत्ति दीपक अलंकार होता है।इसके तीन प्रकार पदावृत्ति दीपक,
अर्थावृत्ति दीपक तथा पदार्थावृत्ति दीपक हैं।
क. पदावृत्ति दीपक:
जहाँ भिन्न अर्थोंवाले क्रिया-पदों की आवृत्ति होती है वहाँ पदावृत्ति दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. तब इस घर में था तम छाया,
था मातम छाया, गम छाया,
-भ्रम छाया।
२. दीन जान सब दीन, नहिं कछु राख्यो बीरबर।
३. आये सनम, ले नयन नम, मन में अमन,
तन ले वतन, कह जो गए, आये नहीं, फिर लौटकर।
ख. अर्थावृत्ति दीपक:
जहाँ एक ही अर्थवाले भिन्न क्रियापदों की आवृत्ति होती है, वहाँ अर्थावृत्ति दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. सर सरजा तब दान को, को कर सकत बखान?
बढ़त नदी गन दान जल उमड़त नद गजदान।।
२. तोंहि बसंत के आवत ही मिलिहै इतनी कहि राखी हितू जे।
सो अब बूझति हौं तुमसों कछू बूझे ते मेरे उदास न हूजे।।
काहे ते आई नहीं रघुनाथ ये आई कै औधि के वासर पूजे।
देखि मधुव्रत गूँजे चहुँ दिशि, कोयल बोली कपोतऊ कूजे।।
३. तरु पेड़ झाड़ न टिक सके, झुक रूख-वृक्ष न रुक सके,
तूफान में हो नष्ट शाखा-डाल पर्ण बिखर गये।
ग. पदार्थावृत्ति दीपक:
जहाँ पद और अर्थ दोनों की आवृत्ति हो वहाँ,पदार्थावृत्ति दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण
१. संपत्ति के आखर तै पाइ में लिखे हैं, लिखे भुव भार थाम्भिबे के भुजन बिसाल में।
हिय में लिखे हैं हरि मूरति बसाइबे के, हरि नाम आखर सों रसना रसाल में।।
आँखिन में आखर लिखे हैं कहै रघुनाथ, राखिबे को द्रष्टि सबही के प्रतिपाल में।
सकल दिशान बस करिबे के आखर ते, भूप बरिबंड के विधाता लिखे भाल में।।
२.
दीपक अलंकार का प्रयोग कविता में चमत्कार उत्पन्न कर उसे अधिक हृद्ग्राही बनाता है।।
***
नव गीत
*
मानवासुर!
है चुनौती
हमें भी मारो।
*
हम नहीं हैं एक
लेकिन एक हैं हम।
जूझने को मौत से भी
हम रखें दम।
फोड़ते हो तुम
मगर हम बोलते हैं
गगन जाए थरथरा
सुन बोल 'बम-बम'।
मारते तुम निहत्थों को
क्रूर-कायर!
तुम्हारा पुरखा रहा
दनु अंधकासुर।
हम शहादत दे
मनाते हैं दिवाली।
जगमगा देते
दिया बन रात काली।
जानते हैं देह मरती
आत्मा मरती नहीं है।
शक्ल है
कितनी घिनौनी, जरा
दर्पण तो निहारो
मानवासुर!
है चुनौती
हमें भी मारो।
*
मनोबल कमजोर इतना
डर रहे परछाईं से भी।
रौंदते कोमल कली
भूलो न सच तुम।
बो रहे जो
वही काटोगे हमेशा
तडपते पल-पल रहोगे
दर्द होगा पर नहीं कम।
नाम मत लो धर्म का
तुम हो अधर्मी!
नहीं तुमसे अधिक है
कोई कुकर्मी।
जब मरोगे
हँसेगी इंसानियत तब।
शूल से भी फूल
ऊगेंगे नए अब ।
निरा अपना, नया सपना
नित नया आकार लेगा।
किन्तु बेटा भी तुम्हारा
तुम्हें श्रृद्धांजलि न देगा
जा उसे मारो।
मानवासुर!
है चुनौती
हमें भी मारो।
***
लघुकथा:
सहिष्णुता
*
'हममें से किसी एक में अथवा सामूहिक रूप से हम सबमें कितनी सहिष्णुता है यह नापने, मापने या तौलने का कोई पैमाना अब तक ईजाद नहीं हुआ है. कोई अन्य किसी अन्य की सहिष्णुता का आकलन कैसे कर सकता है? सहिष्णुता का किसी दल की हार - जीत अथवा किसी सरकार की हटने - बनने से कोई नाता नहीं है. किसी क्षेत्र में कोई चुनाव हो तो देश असहिष्णु हो गया, चुनाव समाप्त तो देेश सहिष्णु हो गया, यह कैसे संभव है?' - मैंने पूछा।
''यह वैसे हो संभव है जैसे हर दूरदर्शनी कार्यक्रमवाला दर्शकों से मिलनेवाली कुछ हजार प्रतिक्रियाओं को लाखों बताकर उसे देश की राय और जीते हुए उम्मीदवार को देश द्वारा चुना गया बताता है, तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती जबकि सब जानते हैं कि ऐसी प्रतियोगिताओं में १% लोग भी भाग नहीं लेते।'' - मित्र बोला।
''तुमने जैसे को तैसा मुहावरा तो सुना ही होगा। लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने ढेरों वायदे किये, जितने पर उनके दलाध्यक्ष ने इसे 'जुमला' करार दिया, यह छल नहीं है क्या? छल का उत्तर भी छल ही होगा। तब जुमला 'विदेशों में जमा धन' था, अब 'सहिष्णुता' है. जनता दोनों चुनावों में ठगी गयी।
इसके बाद भी कहीं किसी दल अथवा नेता के प्रति उनके अनुयायियों में असंतोष नहीं है, धार्मिक संस्थाएँ और उनके अधिष्ठाता समाज कल्याण का पथ छोड़ भोग-विलास और संपत्ति - अर्जन को ध्येय बना बैठे हैं फिर भी उन्हें कोई ठुकराता नहीं, सब सर झुकाते हैं, सरकारें लगातार अपनी सुविधाएँ और जनता पर कर - भार बढ़ाती जाती हैं, फिर भी कोई विरोध नहीं होता, मंडियां बनाकर किसान को उसका उत्पाद सीधे उपभोक्ता को बेचने से रोका जाता है और सेठ जमाखोरी कर सैंकड़ों गुना अधिक दाम पर बेचता है तब भी सन्नाटा .... काश! न होती हममें या सहिष्णुता।'' मित्र ने बात समाप्त की।
***
नव गीत :
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
*
कहता है इतिहास
एक साथ लड़ते रहे
दानव गण सायास।
.
निर्बल को दे दंड
पाते थे आनंद वे
रहे सदा उद्दंड।
.
नहीं जीतती क्रूरता
चाहे जितने जुल्म कर
संयम रखती शूरता।
.
रात नहीं कोई हुई
जिसके बाद न भोर
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
*
उठो, जाग, हो एक
भिड़ो तुरत आतंक से
रखो इरादे नेक।
.
नहीं रिलीजन, धर्म
या मजहब आतंक है
मिटा कीजिए कर्म।
.
भुला सभी मतभेद
लड़, वरना हों नष्ट सब
व्यर्थ न करिए खेद।
.
कटे पतंग न शांति की
थाम एकता डोर
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
१६-११-२०१५
***
छंद सलिला :
*
कीर्ति छंद
छंद विधान:
द्विपदिक, चतुश्चरणिक, मात्रिक कीर्ति छंद इंद्रा वज्रा तथा उपेन्द्र वज्रा के संयोग से बनता है. इसका प्रथम चरण उपेन्द्र वज्रा (जगण तगण जगण दो गुरु / १२१-२२१-१२१-२२) तथा शेष तीन दूसरे, तीसरे और चौथे चरण इंद्रा वज्रा (तगण तगण जगण दो गुरु / २२१-२२१-१२१-२२) इस छंद में ४४ वर्ण तथा ७१ मात्राएँ होती हैं.
उदाहरण:
१. मिटा न क्यों दें मतभेद भाई, आओ! मिलाएं हम हाथ आओ
आओ, न जाओ, न उदास ही हो, भाई! दिलों में समभाव भी हो.
२. शराब पीना तज आज प्यारे!, होता नहीं है कुछ लाभ सोचो
माया मिटा नष्ट करे सुकाया, खोता सदा मान, सुनाम भी तो.
३. नसीहतों से दम नाक में है, पीछा छुड़ाएं हम आज कैसे?
कोई बताये कुछ तो तरीका, रोके न टोके परवाज़ ऐसे.
१६-११-२०१३
***
हास्य मुक्तक
नम आँख देखकर हमारी आँख नम हुई
दिल से करी तारीफ मगर वह भी कम हुई
हमने जलाई फुलझड़ी 'सलिल' ये क्या हुआ
दीवाला हो गया है वो जैसे ही बम हुई.
१६-११-२०१३
***

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