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शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

नवंबर १५, अशोक अज्ञानी, गिरिमोहन गुरु, नर्मदा, दोहा, नवगीत, मुक्तिका

सलिल सृजन नवंबर १५
*
नेह-नर्मदा
*
नेह-नर्मदा रोज नहाया करती थी
घाट-नाव संबंध निभाया करती थी

वेणु मौन की दूर बजाया करती थी
प्यास रूह की नित्य बुझाया करती थी

हारे हुए हौसलों को दिन में भी वो
ख्वाब फतह के लाख दिखाया करती थी

नानक की बानी, कबीर की साखी औ'
विद्यापति के गीत सुनाया करती थी

मैं 'मावस के अँधियारे से डरता था
दीवाली वह विहँस मनाया करती थी

ठोस जमीं में जमा जड़ें वह बाँहों में
आसमान भर सुबह उगाया करती थी

कौन किसी का कभी हुआ है दुनिया में
वो कड़वा सच बता, बचाया करती थी

प्रीत अछूती पुरवैया के झोंके सी
आँचल में भर विजन डुलाया करती थी

देह विदेह अगेह सनेह सुवासित सी
चंदन चर्चित चित्त चुराया करती थी

मैं अमरीका रूस चीन की कोशिश सा
वो इसरो झण्डा फहराया करती थी

पलक उठे तो ऊषा; झुके पलक संध्या
पलक गिरा वह रात बुलाया करती थी

खन-खन ले पैजन में, छम-छम पैजन में
छलिया का छल विहँस; भुलाया करती थी

था बेदर-दीवार फलक, दुनिया सूनी
उम्मीदों की फसल उगाया करती थी


कमसिन थी लेकिन वो बहुत सयानी थी
भटकों को मंजिल दिखलाया करती थी

चैन मिले बेचैन बहुत वो हो जाती
बेचैनी झट गले लगाया करती थी

सँग 'सलिल' के आज नहीं तो कल होगी
सोच कीच से कमल खिलाया करती थी 
१५.११.२०२४ 
***
शोध लेख
भूमि सूक्त और भू तकनीकी
संजीव वर्मा सलिल'
युवा पीढ़ी ही नहीं अधिकांश वरिष्ठ अभियंता और भूतकनीकीविद् भी इस मिथ्या धारणा के शिकार हैं कि यह विधा/विषय पाश्चात्य जगत की देन है। भारत में वैदिक काल के बहुत पहले से भू अर्थात धरती तथा नदियों को माता और जल, वायु, अग्नि आदि प्रकृति उपादानों को देवता तथा आकाश को पिता कहा गया है। यह संबंध स्थापीर करने का मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि इन प्रकृतिं उपादानों का विवेकपूर्ण उपयोग किया जाए किंतु दोहन या शोषण न किया जाए, न ही उन्हें मलिन किया जाए। इस दृष्टि को खो देने के कारण अनेक विसंगतियों तथा समस्याओं ने इतना विकराल रूप धारण कर लिया है कि मानवता और जीवन के समाप्त होने का संकट मुंह बाए है। विडंबना यह कि तथाकथित उन्नत राष्ट्र भारत से प्रकृति को माता मान कर उसके साथ रहने की कला सीखने के स्थान पर चन्द्रमा और मंगल पर बसने के दिवा स्वप्न देख रहे हैं।
इस आलेख में पृथ्वी सूक्त में पृथ्वी के प्रति व्यक्त की गई मांगलिक भावनाओं का संकेत है। हर संरचना (स्ट्रक्चर) को वस्तु मानकर उसमें दैवी शक्ति का दर्शन कर उसके माध्यम से मानव सकल सृष्टि के कल्याण की दिव्य कामना करता भारतीय अभियांत्रिकी विज्ञान (वास्तु शास्त्र) भी भू तकनीकी के विषयों का प्रकृति के साथ तालमेल बैठा कर अध्ययन करता है।
आधुनिक प्रगत प्रौद्यौगिकी के अंधाधुंध उपयोग के कारण ज़िंदगी में जहर घोलता इलेक्ट्रॉनिक कचरा भू वैज्ञानिकों और बहुतकनीकीविदों की चिंता का विषय है। इस कचरे तथा प्लास्टिक पदार्थों के पुनर्चक्रीकरण (रिसायकलिंग) तथा निष्पादन (डिस्पोजल) पर चर्चा करते हुए लेख का समापन किया गया है। लेख का उद्देश्य नव अभियंताओं में स्वस्थ दृष्टि तथा चिंतन का विकास करना है ताकि वे परियोजनाओं को क्रियान्वित करते समय इन खतरों के प्रति सजग रहें।
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[लेखक- संजीव वर्मा 'सलिल', डिप्लोमा सिविल, बी.ई, सिविल,एम्.आई.ई., एम्.आई.जी.एस., एम्.ए. (दर्शन शास्त्र, अर्थ शास्त्र), एल-एल.बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, से.नि. संभागीय परियोजना अभियंता, मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग। पूर्व महामंत्री इंजीनियर्स फोरम (भारत), अध्यक्ष आईजीएस जबलपुर चैप्टर। संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर। प्रख्यात कवि, कहानीकार, संपादक, समीक्षक, छन्दशास्त्री, समाजसेवी। अधिवक्ता उच्च न्यायालय मध्य प्रदेश। १२ पुस्तकें प्रकाशित। २०० से अधिक पुरस्कार व सम्मान।
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com]
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नवगीत
सुनो शहरियों!
*
सुनो शहरियों!
पिघल ग्लेशियर
सागर का जल उठा रहे हैं
जल्दी भागो।
माया नगरी नहीं टिकेगी
विनाश लीला नहीं रुकेगी
कोशिश पार्थ पराजित होगा
श्वास गोपिका पुन: लुटेगी
बुनो शहरियों !
अब मत सपने
खुद से खुद ही ठगा रहे हो
मत अनुरागो
संबंधों के लाक्षागृह में
कब तक खैर मनाओगे रे!
प्रतिबंधों का, अनुबंधों का
कैसे क़र्ज़ चुकाओगे रे!
उठो शहरियों !
बेढब नपने
बना-बना निज श्वास घोंटते
यह लत त्यागो
साँपिन छिप निज बच्चे सेती
झाड़ी हो या पत्थर-रेती
खेत हो रहे खेत सिसकते
इमारतों की होती खेती
धुनो शहरियों !
खुद अपना सिर
निज ख्वाबों का खून करो
सोओ, मत जागो
१५-११-२०१९
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कृति चर्चा -
'अपने शब्द गढ़ो' तब जीवन ग्रन्थ पढ़ो
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण - अपने शब्द गढ़ो, गीत-नवगीत संग्रह, डॉ. अशोक अज्ञानी, प्रथम संस्करण २०१९, आईएसबीएन ९७८-८१-९२२९४४-०-७, आकार २१ से.मी. x १४ से.मी., आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १३८, मूल्य १५०/-, प्रकाशक - न्यू आस्था प्रकाशन, लखनऊ। गीतकार संपर्क - सी ३८८७ राजाजीपुरम, लखनऊ १७, चलभाष ९४५४०८२१८१। ]
*
संवेदनाओं को अनुभव कर, अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की कला और विज्ञान जानकर प्रयोग करने ने ही मनुष्य को अन्य जीवों की तुलना में अधिक उन्नत और मानवीय सभ्यता को अधिक समृद्ध किया है। सभ्यता और संस्कृति के उन्नयन में साहित्य की महती भूमिका होती है। साहित्य वह विधा है जिसमें सबका हित समाहित होता है। जब साहित्य किसी वर्ग विशेष या विचारधारा विशेष के हित को लक्ष्यकर रचा जाता है तब वह अकाल काल कवलित होने लगता है। इतिहास साक्षी है कि ऐसा साहित्य खुद ही नष्ट नहीं होता, जिस सभ्यता और संस्कृति से जुड़ा होता है उसके पराभव का कारण भी बनता है। विविध पंथों, धर्मों, सम्प्रदायों, राजनैतिक दलों का उत्थान तभी तक होता है जब तक वे सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय को लक्ष्य मानते हैं। जैसे ही वे व्यक्ति या वर्ग के हित को साध्य मानने लगते हैं, नष्ट होने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाते है। इस सनातन सत्य का सम-सामयिक उदाहरण हिंदी साहित्य में प्रगतिशील कविता का उद्भव और पराभव है।
मानवीय अनुभूतियों की अभिव्यक्ति गद्य की तुलना में पद्य अधिक सहजता, सरलता और सरसता से कर पाता है। प्रकृति पुत्र मानव ने कलकल, कलरव, नाद, गर्जन आदि ध्वनियों का श्रवण और उनके प्रभावों का आकलन कर उन्हें स्मृति में संचित किया। समान परिस्थितियों में समान ध्वनियों का उच्चारण कर, साथियों को सजग-सचेत करने की क्रिया ने वाचिक साहित्य तथा अंकन ने लिखित साहित्य परंपरा को जन्म दिया जो भाषा, व्याकरण और पिंगल से समृद्ध होकर वर्तमान स्वरूप ग्रहण कर सकी। गीति साहित्य केंद्र में एक विचार को रखकर मुखड़े और अंतरे के क्रमिक प्रयोग के विविध प्रयोग करते हुए वर्तमान में गीत-नवगीत के माध्यम से जनानुभूतियों को जन-जन तक पहुँचा रही हैं।
इस पृष्ठभूमि में हिंदी में शोधोपाधि प्राप्त, शिक्षा जगत से जुड़े और वर्मन में प्राचार्य के रूप में कार्यरत डॉ. अशोक अज्ञानी के गीत-नवगीत संग्रह 'अपने शब्द गढ़ो' का पारायण एक सुखद अनुभव है। संकलन का शीर्षक ही रचनाकार और रचनाओं के उद्देश्य का संकेत करता है कि 'हुए' का अंधानुकरण न कर 'होना चाहिए' की दिशा में रचना कर्म को बढ़ना होगा। पुरातनता की आधारशिला पर नवीनता का भवन निर्मित किये बिना विकास नहीं होता। 'गीत' नवता का वरण कर जब 'नवगीत' का बाना धारण करता है तो समय के साथ उसे परिवर्तित भी करता रहता है। यह परिवर्तन कथ्य और शिल्प दोनों में होता है। अशोक जी दोनों आयामों में परिवर्तन के पक्षधर होते हुए भी 'कल' को नष्ट कर 'कल' बनाने की नासमझी से दूर रहकर 'कल' के साथ समायोजन कर 'कल' का निर्माण कर 'कल' प्राप्ति को साहित्य का लक्ष्य मानते हैं, वे मानव के 'कल' बनने के खतरे से चिंतित हैं। इन नवगीतों में यह चिंता यत्र-तत्र अन्तर्निहित है। 'सत्य की समीक्षा में' गीतकार कहता है-
झूठे का सर ऊँचा / कितने दिन रह पाया।
पुष्प कंटकों के ही / मध्य सदा मुस्काया।
प्रातिभ ही करते हैं / प्रतिभा का अभिनंदन
खुशियाँ है हड़ताली / निश्चित किरदार नहीं।
सामाजिक मंचों को / समता स्वीकार नहीं।
विकट परिस्थितियों का प्रक्षालन।
नवगीत को जन्म के तुरंत बाद से है 'वैचारिक प्रतिबद्धता' के असुर से जूझना पड़ रहा है। सतत तक न पहुँच सका साम्यवादी विचारधारा समर्थक वर्ग पहले कविता और फिर नवगीत के माध्यम से विसंगतियों के अतिरेकी चित्रण द्वारा जनअसंतोष को भड़काने का असफल प्रयास करता रहा है। अशोक जी संकेतों में कहते हैं- 'इस नदी में नीर कम / कीचड़ बहुत है।' वे चेताते हुए कहते हैं-
स्वार्थ के पन्ने पलटकर देख लेना
शीर्षक हरदम रहे है हाशिये पर।
पंथ पर दिनमान उसको मिले, जिसने
कर लिया विश्वास माटी के दिए पर...
... द्वन्द के पूजाघरों में मत भटकना
पूजने को एक ही कंकर बहुत है।
द्वन्द वाद के प्रणेताओं को अशोक जी का संदेश बहुत स्पष्ट है-
इस डगर से उस डगर तक / गाँव से लेकर शहर तक
छक रहे हैं लोग जी भरकर / चल रहे हैं प्यार के लंगर
आस्था की पूड़ियाँ हैं, रायता विश्वास का है।
ख्वाब सारे हैं पुलावी और गहि एहसास का है।
कामनाओं का है छोला, भावनाओं की मिठाई।
प्रेम के है प्लेट जिस पर कपट की कुछ है खटाई।
अशोक जी के नवगीतों में उनका 'शिक्षक' सामने न होकर भी अपना काम करता है। 'तनो बंधु' में कवि समाज को राह दिखाता है-
वीणा के सुर मधुरिम होंगे / तुम तारों सा तो तनो बंधु!
ज्ञापन-विज्ञापन का युग है / नूतन उद्घाटन का युग है
हर और खड़े हैं यक्ष प्रश्न / सच के सत्यापन का युग है
जनहित में जारी होने से पहले / खुद के तो बनो बंधु!
शिक्षक की दृष्टि समष्टिपरक होती है, वह एक विद्यार्थी को नहीं पूरी कक्षा को अध्ययन कराता है। यह समष्टिपरक चिंतन अशोक जी के नवगीतों में सर्वत्र व्याप्त है. वे श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित 'कर्मवाद' को अपने नवगीत में पिरोते हैं-
मन किसान जब लड़ा अकाल से / अकाल से
क्यारियाँ सँवर गयीं, कर्म की कुदाल से
फ़र्ज़ का न फावड़ा डरा / खेत हो गया हरा-भरा
विसंगतियों के अतिरेकी-छद्म चित्रण के खतरे के प्रति सजग अशोक जी इस विडंबना को बखूबी पहचानकर उसको चिन्हित करते हैं-
दोष दृश्य में है अथवा खुद दोष दृष्टि का है
गर्मी का मौसम, मौसम लग रहा वृष्टि का है
अर्थ देखकर अर्थ बदल डाले हैं शब्दों ने
विघटन लिए हुए यह कैसा सृजन सृष्टि का है
रोते हैं कामवर, नामवर मौज उड़ाते हैं
पोखर को सागर, सागर को पोखर कहते हैं
अशोक जी छंद को नवगीत का अपरिहार्य तत्व मानते हैं। साक्षी उनके नवगीत हैं। वे किसी छंद विशेष में गीत न रचकर, मात्रिक छंदों की जाती के विविध छंदों का प्रयोग विविध पंक्तियों में करते हैं। इससे कल बाँट भिन्न होने पर भी गीतों में छंद भंग नहीं होता। गीतकार समस्याओं का सम्यक समाधान निकलने का पक्षधर है-
समाधान कब निकल सके हैं / विधि-विधान उलझाने से
सीमित संसाधन हैं फिर भी / छोटा सही निदान लिखें
वह अतीतजीवी भी नहीं है-
आखिर कब तक धनिया-होरी / के किस्से दोहरायेंगे
कलम कह रही वर्तमान का / कोई नव गोदान लिखें।
फ़ारसी अशआर की तरह अशोक जी के नवगीतों के मुखड़े अपना मुहावरा आप बनाते हैं। उन्हें गीत से अलग स्वतंत्र रूप से भी पढ़कर अर्थ ग्रहण किया जा -
किसी परिधि में जिसे बाँधना / संभव नहीं हुआ
उस उन्मुक्त प्रेम को ढाई / अक्षर कहते लोग।
खुली खिड़कियाँ, खुले झरोखे / खुले हैं दरवाज़े
आम आदमी की किस्मत का / ताला नहीं खुला
आ गए जब से किलोमीटर / खो गए हैं मील पत्थर
अनुप्रास, उपमा, रूपक, विरोधाभास, यमक आदि अलंकारों का यथास्थान उपयोग इन नवगीतों को समृद्ध करता है। मौलिक बिम्ब, प्रतीक यत्र-तत्र शोभित हैं। अशोक जी के नवगीतों का वैशिष्ट्य उनकी लयात्मक कहन है-
उनसे बोलो / पर इतना सच है
अपनी बोली-बानी जैसे / घर के बूढ़े लोग
बँधी पांडुलिपियाँ हों जैसे / फटही गठरी में
वैसे पड़ी हुई हैं दादी / गिरही कोठरी में
वैसे ही बेकार हो गयी / दादा की काठी
घर के कोने पड़ी हुई हो / ज्यों टुटही लाठी
सुनो-ना सुनो, गुनो-ना गुनो / मन की मर्जी है
किस्सा और कहानी जैसे / घर के बूढ़े लोग
'काल है संक्रांति का' और 'सड़क पर' नवगीत संग्रहों में मैंने लोकगीतों छंदो के आधार पर नवगीत कहे हैं। अशोक जी भी इसी राह के राही हैं। वे लोकोक्तियों और मुहावरों को कच्ची मिट्टी की तरह उपयोग कर अपने गीतों में ढाल लेते हैं। लोकमंच का कालजयी खेल 'कठपुतली' अशोक जी के लिए मानवीय संवेदनाओं का जीवंत दस्तावेज बन जाता है -
बीत गए दिन लालटेन के / रहा न नौ मन तेल
आखिर कब तक खेलेंगे हम / कठपुतली का खेल
नेता बन बैठा दलगंजन / जमा रहा है धाक
गाजर खां ने भी दे डाली / हमको तीन तलाक
गौरैया सा जीवन अपना / सबके हाथ गुलेल
आखिर कब तक खेलेंगे हम / कठपुतली का खेल
शिव प्रसाद लाल जी ने ठीक ही आकलन किया है कि अशोक जी की काव्य प्रतिभा शास्त्रों की परिचारिका नहीं, खेत-खलिहानों से होकर निकली है। अशोक जी अपने गीतों में प्रयुक्त भाषा के शाहकार हैं। 'रट्टू तोता बहुत बने / अब अपने गढ़ो, शोध की इतिश्री नहीं करना / कुछ अभी संदर्भ छूटे हैं, तुम हमारे गाँव आकर क्या करोगे? / अब अहल्या सी शिलायें भी नहीं हैं, प्यार की छिछली नदी में मत उतरना / इस नदी में नीर कम कीचड़ बहुत है' जैसी पंक्तियाँ पाठक की जुबान पर चढ़ने का माद्दा रखती हैं।
'अनपढ़ रामकली' अशोक जी की पहचान स्थापित करनेवाला नवगीत है-
रूप-राशि की हुई अचानक / चर्चा गली-गली
जिस दिन से गयी आधुनिक / अनपढ़ रामकली
चाँदी लुढ़की, सोना लुढ़का / लुढ़क गया बाज़ार
रामकली की एक अदा पर / उछल पड़ा व्यापार
एकाएक बन गयी काजू / घर की मूँगफली
जिस दिन से गयी आधुनिक / अनपढ़ रामकली
धरम भूलने लगीं कंठियाँ / गये जनेऊ टूट
पान लिए मुस्कान मिली तो / मची प्रेम की लूट
ऊँची दूकानों को छोटी / गुमटी बहुत खली
जिस दिन से गयी आधुनिक / अनपढ़ रामकली
नवगीतों के कथ्याधारित विविध प्रकार इस संकलन में देखे जा सकते हैं। लक्षणा, व्यंजना तथा अमिधा तीनों अशोक जी के द्वारा यथास्थान प्रयोग की गयी हैं। 'अपने शब्द गढ़ो' का रचयिता गीत-नवगीत को भारत-पाकिस्तान नहीं, गंगा-जमुना मानता है। इन नवगीतों में पाठक के मन तक पहुँचने की काबलियत है।
*********
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com
१५.११.२०१९
***
गीत
*
जो चाहेंगे
वह कर लेंगे
छू लेंगे
कदम रोक ले
नहीं कहीं भी
कोई ऐसा पाश।
*
शब्द
निशब्द
देख तितली को
भरते नित्य उड़ान।
रुकें
चुकें झट
क्यों न जूझते
मुश्किल से इंसान?
घेर
भले लें
शशि को बादल
उड़ जाएँगे हार।
चटक
चाँदनी
फैला भू पर
दे धरती उजियार।
करे सलिल को
रजताभित मिल
बिछुड़ न जाए काश।
कदम रोक ले
नहीं कहीं भी
कोई ऐसा पाश।
*
दर्द
न व्यापे
हृदय न कांपे
छू ले नया वितान।
मोह
न रोके
द्रोह न झोंके
भट्टी में ईमान।
हो
सच व्यक्त
ज़िंदगी का हर
जयी तभी हो गीत।
हर्ष
प्रीत
उल्लास बिना
मर जाएगा नवगीत।
भूल विसंगति
सुना सुसंगति
जीवित हो तब लाश।
कदम रोक ले
नहीं कहीं भी
कोई ऐसा पाश।
१४-११-२०१९
***
गीत
'बादलों की कूचियों पर'
*
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
भूमि बीज जड़ पींड़ पर
छंद कहो डालियों पर
झूम रही टहनियों पर
नाच रही पत्तियों पर
मंत्रमुग्ध कलियों पर
क्यारियों-मालियों पर
गीत रचो बिजलियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*
श्वेत-श्याम रंग मिले
लाल-नील-पीत खिले
रंग मिलते हैं गले
भोर हो या साँझ ढले
बरखा भिगा दे भले
सर्दियों में हाड़ गले
गर्मियों में गात जले
ख्वाब नयनों में पले
लट्टुओं की फिरकियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*
अब न नफरत हो कहीं
हो अदावत भी नहीं
श्रम का शोषण भी नहीं
लोभ-लालच भी नहीं
रहे बरकत ही यहीं
हो सखावत ही यहीं
प्रेम-पोषण ही यहीं
हो लगावट ही यहीं
ज़िंदगी की झलकियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
***
गीत
मनुहार
.
कर रहे मनुहार कर जुड़ मान भी जा
प्रिये! झट मुड़ प्रेम को पहचान भी जा
जानता हूँ चाहती तू निकट आना
फ़ेरना मुँह है सुमुखि! केवल बहाना
बाँह में दे बाँह आ गलहार बन जा
बनाकर भुजहार मुझ में तू सिमट जा
अधर पर धर अधर आ रसलीन होले
बना दे रसखान मुझको श्वास बोले
द्वैत तज अद्वैत रसनिधि वरण कर ले
तार दे मुझको शुभांगी आप तर ले
१५.११.२०१७
***
कृति चर्चा:
गिरिमोहन गुरु के नवगीत : बनाते निज लीक-नवरीत
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: गिरिमोहन गुरु के नवगीत, नवगीत संग्रह, गिरिमोहन गुरु, संवत २०६६, पृष्ठ ८८, १००/-, आकर डिमाई, आवरण पेपरबैक दोरंगी, मध्य प्रदेश तुलसी अकादमी ५० महाबली नगर, कोलार मार्ग, भोपाल, गीतकार संपर्क:शिव संकल्प साहित्य परिषद्, गृह निर्माण कोलोनी होशंगाबाद ]
*
विवेच्य कृति नर्मदांचल के वरिष्ठ साहित्यकार श्री गिरिमोहन गुरु के ६७ नवगीतों का सुवासित गीतगुच्छ है जिसमें से कुछ गीत पूर्व में 'मुझे नर्मदा कहो' शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं। इन गीतों का चयन श्री रामकृष्ण दीक्षित तथा श्री गिरिवर गिरि 'निर्मोही' ने किया है। नवगीत प्रवर्तकों में से एक डॉ. शंभुनाथ सिंह, नवगीत पुरोधा डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' आदि ९ हस्ताक्षरों की संस्तुति सज्जित यह संकलन गुरु जी के अवदान को प्रतिनिधित्व करता है। डॉ. दया कृष्ण विजयवर्गीय के अनुसार इन नवगीतों में 'शब्द की प्रच्छन्न ऊर्जा को कल्पना के विस्तृत नीलाकाश में उड़ाने की जो छान्दसिक अबाध गति है, वह गुरूजी को नवगीत का सशक्त हस्ताक्षर बना देती है।
डॉ. शंभुनाथ सिंह ने नवगीत के वर्ण्य विषयों में धर्म-आध्यात्म-दर्शन, प्रेम-श्रृंगार तथा प्रकृति चित्रण की वर्जना की थी। उन्होंने युगबोधजनित भावभूमि तथा सर्वत्र एक सी टीस जगानेवाले पारंपरिक छंद-विधान को नवगीत हेतु सर्वाधिक उपयुक्त पाया। महाप्राण निराला द्वारा 'नव गति, नव ले, ताल-छंद नव' के आव्हान के अगले कदम के रूप में यह तर्क सम्मत भी था किन्तु किसी विधा को आरम्भ से ही प्रतिबंधों में जकड़ने से उसका विकास और प्रगति प्रभावित होना भी स्वाभाविक है। एक विचार विशेष के प्रति प्रतिबद्धता ने प्रगतिशील कविता को जन सामान्य से काट कर विचार धारा समर्थक बुद्धिजीवियों तक सीमित कर दिया। नवगीत को इस परिणति से बचाकर, कल से कल तक सृजन सेतु बनाते हुए नव पीढ़ी तक पहुँचाने में जिन रचनाधर्मियों ने साहसपूर्वक निर्धारित की थाती को अनिर्धारित की भूमि पर स्थापित करते हुए अपनी मौलिक राह चुनी उनमें गुरु जी भी एक हैं।
नवगीत के शिल्प-विधान को आत्मसात करते हुए कथ्य के स्तर पर निज चिंतन प्रणीत विषयों और स्वस्फूर्त भंगिमाओं को माधुर्य और सौन्दर्य सहित अभिव्यंजित कर गुरु जी ने विधा को गौड़ और विधा में लिख रहे हस्ताक्षर को प्रमुख होने की प्रवृत्ति को चुनौती दी। जीवन में विरोधाभासजनित संत्रास की अभिव्यक्ति देखिए-
अश्रु जल में तैरते हैं / स्वप्न के शैवाल
नाववाले नाविकों के / हाथ है जाल
.
हम रहे शीतल भले ही / आग के आगे रहे
वह मिला प्रतिपल कि जिससे / उम्र भर भागे रहे
वैषम्य और विडंबना बयां करने का गुरु जी अपना ही अंदाज़ है-
घूरे पर पत्तलें / पत्तलों में औंधे दौने
एक तरफ हैं श्वान / दूसरी तरफ मनुज छौने
अनुभूति की ताजगी, अभिव्यक्ति की सादगी तथा सुंस्कृत भाषा की बानगी गुरु के नवगीतों की जान है। उनके नवगीत निराशा में आशा, बिखराव में सम्मिलन, अलगाव में संगठन और अनेकता में एकता की प्रतीति कर - करा पाते हैं-
लौटकर फिर आ रही निज थान पर / स्वयं बँधने कामना की गाय
हृदय बछड़े सा खड़ा है द्वार पर / एकटक सा देखता निरुपाय
हौसला भी एक निर्मम ग्वाल बन / दूध दुहने बाँधता है, छोड़ता है
छंद-विधान, बिम्ब, प्रतीक, फैंटेसी, मिथकीय चेतना, प्रकृति चित्रण, मूल्य-क्षरण, वैषम्य विरोध और कुंठा - निषेध आदि को शब्दित करते समय गुरु जी परंपरा की सनातनता का नव मूल्यों से समन्वय करते हैं।
कृषक के कंधे हुए कमजोर / हल से हल नहीं हो पा रही / हर बात
शहर की कृत्रिम सडक बेधड़क / गाँवों तक पहुँच / करने लगी उत्पात
गुरु जी के मौलिक बिम्बों-प्रतीकों की छटा देखे-
इमली के कोचर का गिरगिट दिखता है रंगदार
शाखा पर बैठी गौरैया दिखती है लाचार
.
एक अंधड़ ने किया / दंगा हुए सब वृक्ष नंगे
हो गए सब फूल ज्वर से ग्रस्त / केवल शूल चंगे
.
भैया बदले, भाभी बदले / देवर बदल गए
वक्त के तेवर बदल गए
.
काँपते सपेरों के हाथ साँपों के आगे
झुक रहे पुण्य, स्वयं माथ, पापों के आगे
सामाजिक वैषम्य की अभिव्यक्ति का अभिनव अंदाज़ देखिये-
चाँदी के ही चेहरों का स्वागत होता झुक-झुक
खड़ा भोज ही, बड़ा भोज, कहलाने को उत्सुक
फिर से हम पश्चिमी स्वप्न में स्यात लगे खोने
.
सपने में सोन मछरिया पकड़ी थी मैंने
किन्तु आँख खुलते ही
हाथ से फिसल गयी
.
इधर पीलिया उधर खिल गए
अमलतास के फूल
.
गुरु के नवगीतों का वैशिष्ट्य नूतन छ्न्दीय भंगिमाएँ भी है। वे शब्द चित्र चित्रित करने में प्रवीण हैं।
बूढ़ा चाँद जर्जरित पीपल
अधनंगा चौपाल
इमली के कोचर का गिरगिट
दिखता है रंगदार
नदी किनारेवाला मछुआ
रह-रह बुनता जाल
भूखे-प्यासे ढोर देखते
चरवाहों की और
भेड़ चरानेवाली, वन में
फायर ढूंढती भोर
मरना यदि मुश्किल है तो
जीना भी है जंजाल
गुरु जी नवगीतों में नवाशा के दीप जलाने में भी संकोच नहीं करते-
एक चिड़िया की चहक सुनकर
गीत पत्तों पर लगे छपने
.
स्वप्न ने अँगड़ाइयाँ लीं, सुग्बुआऎ आस
जिंदगी की बन गयी पहचान नूतन प्यास
छंदों का सधा होना उनके कोमल-कान्त पदावली सज्जित नवगीतों की माधुरी को गुलाबजली सुवास भी देता है। प्रेम, प्रकृति और संस्कृति की त्रिवेणी इन गीतों में सर्वत्र प्रवाहित है।
जग को अगर नचाना हो तो / पहले खुद नाचो, मौसम के अधरों पर / विश्वासी भाषा, प्यासों को देख, तृप्ति / लौटती सखेद, ले आया पावस के पत्र / मेघ डाकिया, अख़बारों से मिली सुचना / फिर बसंत आया जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक को गुनगुनाने के लिए प्रेरित करती हैं। नवगीतों को उसके उद्भव काल में निर्धारित प्रतिबंधों के खूँटे से बांधकर रखने के पक्षधरों को नवगीत की यह भावमुद्रा स्वीकारने में असहजता प्रतीत हो सकती है, कोई कट्टर हस्ताक्षर नाक-भौं सिकोड़ सकता है पर नवगीत संसद के दरवाजे पर दस्तक देते अनेक नवगीतकार इन नवगीतों का अनुसरण कर खुद को गौरवान्वित अनुभव करेंगे।
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कृति चर्चा:
समीक्षा के बढ़ते चरण : गुरु साहित्य का वरण
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: समीक्षा के बढ़ते चरण, समालोचनात्मक संग्रह, डॉ. कृष्ण गोपाल मिश्र, वर्ष २०१५, पृष्ठ ११२, मूल्य २००/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, दोरंगी, प्रकाशक शिव संकल्प साहित्य परिषद, नर्मदापुरम, होशंगाबाद ४६१००१, चलभाष ९४२५१८९०४२, लेखक संपर्क: ए / २० बी कुंदन नगर, अवधपुरी, भोपाल चलभाष ९८९३१८९६४६]
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समीक्षा के बढ़ते चरण नर्मदांचल के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार गिरिमोहन गुरु रचित हिंदी ग़ज़लों पर केंद्रित समीक्षात्मक लेखों का संग्रह है जिसका संपादन हिंदी प्राध्यापक व रचनाकार डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र ने किया है. डॉ. मिश्र के अतिरिक्त डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय, डॉ. लक्ष्मीकांत पाण्डेय, डॉ. रोहिताश्व अष्ठाना, डॉ. आर. पी. शर्मा 'महर्षि', डॉ. श्यामबिहारी श्रीवास्तव, श्री अरविन्द अवस्थी, डॉ. रामवल्लभ आचार्य, डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ, श्री युगेश शर्मा,श्री लक्ष्मण कपिल, श्री फैज़ रतलामी, श्री रमेश मनोहरा, श्री नर्मदा प्रसाद मालवीय, श्री नन्द कुमार मनोचा, डॉ. साधना संकल्प, श्री भास्कर सिंह माणिक, श्री भगवत दुबे, डॉ. विजय महादेव गाड़े, श्री बाबूलाल खण्डेलवाल, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', डॉ. भगवानदास जैन, श्री अशोक गीते, श्री मदनमोहन उपेन्द्र, प्रो. उदयभानु हंस, डॉ. हर्ष नारायण नीरव, श्री कैलाश आदमी द्वारा गुरु वांग्मय की विविध कृतियों पर लिखित आलेखों का यह संग्रह शोध छात्रों के लिए गागर में सागर की तरह संग्रहणीय और उपयोगी है. उक्त के अतिरिक्त डॉ. कृष्णपाल सिंह गौतम, डॉ. महेंद्र अग्रवाल, डॉ. गिरजाशंकर शर्मा, श्री बलराम शर्मा, श्री प्रकाश राजपुरी लिखित परिचयात्मक समीक्षात्मक लेख, परिचयात्मक काव्यांजलियाँ, साहित्यकारों के पत्रों आदि ने इस कृति की उपयोगिता वृद्धि की है. ये सभी रचनाकार वर्तमान हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं.
गुरु जी बहुविधायी सृजनात्मक क्षमता के धनी-धुनी साहित्यकार हैं. वे ग़ज़ल, दोहे, गीत, नवगीत, समीक्षा, चालीसा आदि क्षेत्रों में गत ५ दशकों से लगातार लिखते-छपते रहे हैं. कामराज विश्व विद्यालय मदुरै में 'गिरिमोहन गुरु और उनका काव्य' तथा बरकतउल्ला विश्वविद्यालय भोपाल में 'पं. गिरिमोहन गुरु के काव्य का समीक्षात्मक अध्ययन दो लघु शोध संपन्न हो चुके हैं. ८ अन्य शोध प्रबंधों में गुरु-साहित्य का संदर्भ दिया गया है. गुरु साहित्य पर केंद्रित १० अन्य संदर्भ इस कृति में वर्णित हैं. कृति के आरंभ में नवगीतकार, ग़ज़लकार, मुक्तककार, दोहाकार, क्षणिककर, भक्तिकाव्यकार के रूप में गुरु जी के मूल्यांकन करते उद्धरण संगृहीत किये गए है.
गुरु जी जैसे वरिष्ठ साहित्य शिल्पी के कार्य पर ३ पीढ़ियों की कलमें एक साथ चलें तो साहित्य मंथन से नि:सृत नवनीत सत्य-शिव-सुंदर के तरह हर जिज्ञासु के लिए ग्रहणीय होगा ही. विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों के ग्रंथालयों में ऐसी कृतियाँ होना ही चाहिए ताकि नव पीढ़ी उनके अवदान से परिचित होकर उन पर कार्य कर सके.
गिरि मोहन गुरु गिरि शिखर सम शोभित है आज
अगणित मन साम्राज्य है, श्वेत केश हैं ताज
दोहा लिख मोहा कभी, करी गीत रच प्रीत
ग़ज़ल फसल नित नवल ज्यों, नीत नयी नवगीत
भक्ति काव्य रचकर छुआ, एक नया आयाम
सम्मानित सम्मान है, हाथ आपका थाम
संजीवित कर साधना, मन्वन्तर तक नाम
चर्चित हो ऐसा किया, तुहिन बिन्दुवत काम
'सलिल' कहे अभिषेक कर, हों शतायु तल्लीन
सृजन कर्म अविकल करें, मौलोक और नवीन
१५.११.२०१५
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गीत:
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मैं नहीं....
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मैं नहीं पीछे हटूँगा,
ना चुनौती से डरूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
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जूझना ही ज़िंदगी है,
बूझना ही बंदगी है.
समस्याएँ जटिल हैं,
हल सूझना पाबंदगी है.
तुम सहायक हो न हो
खातिर तुम्हारी मैं लडूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
*
राह के रोड़े हटाना,
मुझे लगता है सुहाना.
कोशिशों का धनी हूँ मैं,
शूल वरकर, फूल तुम पर
वार निष्कंटक करूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
*
जो चला है, वह गिरा है,
जो गिरा है, वह उठा है.
जो उठा, आगे बढ़ा है-
उसी ने कल को गढ़ा है.
विगत से आगत तलक
अनथक तुम्हारे सँग चलूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
१५.११.२०१०
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