सलिल सृजन नवंबर १५
*
स्मृति गीत : कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक'
०
गीत पंथ पर अंकित कर पग चिह्न पथिक ही विदा हुआ।
'पनिहारिन' पथ विकल हेरती, घर लौटे कर रही दुआ।।
०
चतुर चितेरा शब्द चित्र गढ़, मढ़ देता था नव रस से।
अलंकार सोपान सतत चढ़, छंद बाँधता था झट से।।
प्यासा चित्त न तृप्त हो रहा, सुख रहा है गीत-कुआ।
गीत पंथ पर अंकित कर पग चिह्न पथिक ही विदा हुआ।।
०
'माणिक लाल' सत्य-सत्याग्रह, पथ पर बढ़ा 'मुसाफिर' था।
आजादी था मजहब उसका, प्रेरक 'तरुण जवाहर' था।।
रूखी खा संघर्ष रत रहा, तज सुविधा का मालपुआ।।
गीत पंथ पर अंकित कर पग चिह्न पथिक ही विदा हुआ।
०
'कृष्ण' दास्तां कारा तोड़े, 'मधुर' स्वप्न आजादी का।
हो साकार कृपालु ईश हो, बाना पहना खादी का।।
धार कलम की मंद न हो, 'कमलेश!' चुगाए गीत-सुआ।
गीत पंथ पर अंकित कर पग चिह्न पथिक ही विदा हुआ।
०
पढ़े 'पथिक के गीत' समय ने, 'मोर पंख यादों के' ले।
'अनुपम-अभिनव' 'शोभा' अद्भुत, है 'अनुराग' अनूठा ये।।
दृढ़ 'अनुरक्ति-अस्मिता' शिक्षा, दंभ-स्वार्थ ने नहीं छुआ।
गीत पंथ पर अंकित कर पग चिह्न पथिक ही विदा हुआ।
०
पंक्ति-पंक्ति 'संगीता रच दी, 'नवनीता' अभिव्यक्ति हर एक।
गीति-राज्य 'राजेन्द्र' पथिक की, सृजन-साधना है शुभ-श्रेष्ठ।
जड़ पत्थर 'संजीव' हुए सुन, गीत गा उठा मूक सुआ।
गीत पंथ पर अंकित कर पग चिह्न पथिक ही विदा हुआ।
१६.११.२०२४
०००
सॉनेट
वेणु
•
वेणु कृष्ण अधरामृत पीती,
मधुरामृत सब जग को बांटे,
अपना-गैर नहीं वह छांटे,
धुन की पक्की रहे न रीती।
लड़ती नहीं, न हारी-जीती,
सरला, कर संतोष न डांटे,
क्षिप्रा पथ से चुनती कांटे,
वृत्ति सुनीता कहे न बीती।
हरी-भरी थी काट सुखाई,
जला छेद कर बीच बजरिया
बेची गई, न लेकिन रोई।
प्रभु सुमिरन कर पीर भुलाई,
तब प्रभु को प्रिय हुई बँसुरिया,
हरि को पाकर हरि में खोई।
१६.११.२०२३
•••
नीति के दोहे
*
बैर न दुर्जन से करें, 'सलिल' न करिए स्नेह
काला करता कोयला, जले जला दे देह
*
बुरा बुराई कब तजे, रखे सदा अलगाव
भला भलाई क्यों तजे?, चाहे रहे निभाव
*
असफलता के दौर में, मत निराश हों मीत
कोशिश कलम लगाइए, लें हर मंज़िल जीत
*
रो-रो क़र्ज़ चुका रही, संबंधों का श्वास
भूल-चूक को भुला दे, ले-दे कोस न आस
*
ज्ञात मुझे मैं हूँ नहीं, यार तुम्हारा ख्वाब
मन चाहे मुस्कुरा लो, मुझसे कली गुलाब
***
चित्रगुप्त भजन सलिला:
*
१. शरणागत हम
शरणागत हम चित्रगुप्त प्रभु!
हाथ पसारे आये
*
अनहद; अक्षय; अजर; अमर हे!
अमित; अभय; अविजित; अविनाशी
निराकार-साकार तुम्ही हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी
पथ-पग; लक्ष्य-विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता-प्रत्याशी
तिमिर मिटाने अरुणागत हम
द्वार तिहारे आये
*
वर्ण; जात; भू; भाषा; सागर
अनिल;अनल; दिश; नभ; नद ; गागर
तांडवरत नटराज ब्रह्म तुम
तुम ही बृज रज के नटनागर
पैगंबर ईसा गुरु तुम ही
तारो अंश सृष्टि हे भास्वर!
आत्म जगा दो; चरणागत हम
झलक निहारें आये
*
आदि-अंत; क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि-कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं
काया में हैं आत्म सभी हम
जन्म-मरण; यश-अपयश चक्रित
छाया-माया; सुख-दुःख सम हो
द्वेष भुला दो; करुणाकर हे!
सुनो पुकारें आये
***
२. चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो...
*
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
भवसागर तर जाए रे...
*
जा एकांत भुवन में बैठे,
आसन भूमि बिछाए रे.
चिंता छोड़े, त्रिकुटि महल में
गुपचुप सुरति जमाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
निश-दिन धुनि रमाए रे...
*
रवि शशि तारे बिजली चमके,
देव तेज दरसाए रे.
कोटि भानु सम झिलमिल-झिलमिल-
गगन ज्योति दमकाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
मोह-जाल कट जाए रे.
*
धर्म-कर्म का बंध छुडाए,
मर्म समझ में आए रे.
घटे पूर्ण से पूर्ण, शेष रह-
पूर्ण, अपूर्ण भुलाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
चित्रगुप्त हो जाए रे...
*
३. समय महा बलवान...
*
समय महा बलवान
लगाये जड़-चेतन का भोग...
*
देव-दैत्य दोनों को मारा,
बाकी रहा न कोई पसारा.
पल में वह सब मिटा दिया जो-
बरसों में था सृजा-सँवारा.
कौन बताये घटा कहाँ-क्या?
कहाँ हुआ क्या योग?...
*
श्वास -आस की रास न छूटे,
मन के धन को कोई न लूटे.
शेष सभी टूटे जुड़ जाएं-
जुड़े न लेकिन दिल यदि टूटे.
फूटे भाग उसी के जिसको-
लगा भोग का रोग...
*
गुप्त चित्त में चित्र तुम्हारा,
कितना किसने उसे सँवारा?
समय बिगाड़े बना बनाया-
बिगड़ा 'सलिल' सुधार-सँवारा.
इसीलिये तो महाकाल के
सम्मुख है नत लोग...
*
४. प्रभु चित्रगुप्त नमस्कार...
*
प्रभु चित्रगुप्त! नमस्कार
बार-बार है...
*
कैसे रची है सृष्टि प्रभु!
कुछ बताइए.
आये कहाँ से?, जाएं कहाँ??
मत छिपाइए.
जो गूढ़ सच न जान सके-
वह दिखाइए.
सृष्टि का सकल रहस्य
प्रभु सुनाइए.
नष्ट कर ही दीजिए-
जो भी विकार है...
*
भाग्य हम सभी का प्रभु!
अब जगाइए.
जाई तम पर उजाले को
विधि! बनाइए.
कंकर को कर शंकर जगत में
हरि! पुजाइए.
अमिय सम विष पी सकें-
'हर' शक्ति लाइए.
चित्र सकल सृष्टि
गुप्त चित्रकार है...
१६.११.२०२०
*
दोहा सलिला
*
रहजन - रहबर रट रहे, राम राम रम राम।
राम रमापति रम रहो, राग - रागिनी राम।।
*
ललित लता लश्कर लहक, लक्षण लहर ललाम।
लिप्त लड़कपन लजीला, लतिका लगन लगाम।।
*
कार्यशाला
अलंकार बताइये
*
अजर अमर अक्षर अजित, अमित असित अनमोल।
अतुल अगोचर अवनिपति, अंबरनाथ अडोल।।
१६-११-२०१९
***
नवगीत
*
लगें अपरिचित
सारे परिचित
जलसा घर में
है अस्पृश्य आजकल अमिधा
नहीं लक्षणा रही चाह में
स्वर्णाभूषण सदृश व्यंजना
बदल रही है वाह; आह में
सुख में दुःख को पाल रही है
श्वास-श्वास सौतिया डाह में
हुए अपरिमित
अपने सपने
कर के कर में
सत्य नहीं है किसी काम का
नाम न लेना भूल राम का
कैद चेतना हो विचार में
दक्षिण-दक्षिण, वाम-वाम का
समरसता, सद्भाव त्याज्य है
रिश्ता रिसता स्रोत दाम का
पाल असीमित
भ्रम निज मन में
शक्कर सागर में
चोटी, टोपी, तिलक, मँजीरा
हँसिया थामे नचे जमूरा
ए सी में शोलों के नगमे
छोटे कपड़े, बड़ा तमूरा
चूरन-डायजीन ले लिक्खो
भूखा रहकर मरा मजूरा
है वह वन्दित
मन अभद्र जो
है तन नागर में
१६-११-२०१९
***
दोहा सलिला
*
मुखड़े को लाइक मिलें, रचना से क्या काम?
भले हुए बदनाम हम, हुआ दूर तक नाम.
*
ले-देकर सुलझा रहे, मंदिर-मस्जिद लोग.
प्रभु के पहले लग रहा, भक्तों को ही भोग.
*
सुमन न देता अंजुमन, कहता लाओ मोल.
चकित हुआ माली रहा, खाली जेब टटोल.
***
मुक्तक
माँ
माँ की महिमा जग से न्यारी, ममता की फुलवारी
संतति-रक्षा हेतु बने पल भर में ही दोधारी
माता से नाता अक्षय जो पाले सुत बडभागी-
ईश्वर ने अवतारित हो माँ की आरती उतारी
नारी
नर से दो-दो मात्रा भारी, हुई हमेशा नारी
अबला कभी न इसे समझना, नारी नहीं बिचारी
माँ, बहिना, भाभी, सजनी, सासु, साली, सरहज भी
सखी न हो तो समझ जिंदगी तेरी सूखी क्यारी
*
पत्नि
पति की किस्मत लिखनेवाली पत्नि नहीं है हीन
भिक्षुक हो बारात लिए दर गए आप हो दीन
करी कृपा आ गयी अकेली हुई स्वामिनी आज
कद्र न की तो किस्मत लेगी तुझसे सब सुख छीन
*
दीप प्रज्वलन
शुभ कार्यों के पहले घर का अँगना लेना लीप
चौक पूर, हो विनत जलाना, नन्हा माटी-दीप
तम निशिचर का अंत करेगा अंतिम दम तक मौन
आत्म-दीप प्रज्वलित बन मोती, जीवन सीप
*
परोपकार
अपना हित साधन ही माना है सबने अधिकार
परहित हेतु बनें समिधा, कब हुआ हमें स्वीकार?
स्वार्थी क्यों सुर-असुर सरीखा मानव होता आज?
नर सभ्यता सिखाती मित्रों, करना पर उपकार
*
एकता
तिनका-तिनका जोड़ बनाते चिड़वा-चिड़िया नीड़
बिना एकता मानव होता बिन अनुशासन भीड़
रहे-एकता अनुशासन तो सेना सज जाती है-
देकर निज बलिदान हरे वह, जनगण कि नित पीड़
*
असली गहना
असली गहना सत्य न भूलो
धारण कर झट नभ को छू लो
सत्य न संग तो सुख न मिलेगा
भोग भोग कर व्यर्थ न फूलो
***
***
छंद सलिला:
इंद्र वज्रा छंद
*
इस द्विपदिक मात्रिक चतुःश्चरणी छंद के हर पद में २ तगण, १ जगण तथा २ गुरु मात्राएँ होती हैं. इस छंद का प्रयोग मुक्तक हेतु भी किया ज सकता है.
इन्द्रवज्रा एक पद = २२१ / २२१ / १२१ / २२ = ११ वर्ण तथा १८ मात्राएँ
उदाहरण:
१. तोड़ो न वादे जनता पुकारे
बेचो-खरीदो मत धर्म प्यारे
लूटो तिजोरी मत देश की रे!
चेतो न रूठे, जनता न मारे
२. नाचो-नचाओ मत भूलना रे!
आओ! न जाओ, कह चूमना रे!
माशूक अपनी जब साथ में हो-
झूमो, न भूले हँस झूलना रे!
३. पाया न / खोया न / रखा न / रोका
बोला न / डोला न / कहा न / टोंका
खेला न / झेला न / तजा न / हारा
तोडा न / फोड़ा न / पिटा न / मारा
४. आराम / ही राम / हराम / क्यों हो?
माशूक / के नाम / पयाम / क्यों हो?
विश्वास / प्रश्वास / नि:श्वास टूटा-
सायास / आभास / हुलास / झूठा
***
मुक्तक
सूरज आया, नभ पर छाया
धरती पर सोना बिखराया
जग जाग उठा कह शुभ प्रभात
खग-दल ने गीत मधुर गाया
*
पत्ता-पत्ता झूम रहा है
पवन झकोरे चूम रहा है
तुहिन-बिंदु नव छंद सुनाते
शुभ प्रभात कह विहँस जगाते
*
चल सपने साकार करें
पग पथ पर चल लक्ष्य वरें
श्वास-श्वास रच छंद नए
पल-पल को मधुमास करें
१६.११.२०१७
***
कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं
*
गीत
करेंगे वही
(छंद- अष्ट मात्रिक वासव जातीय, पंचाक्षरी, छंद विधान- यलग)
[बहर- फऊलुन फ़अल १२२ १२]
*
करेंगे वही
सदा जो सही
*
न पाया कभी
न खोया कभी
न जागा हुआ
न सोया अभी
वरेंगे वही
लगे जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
सुहाया वही
लुभाया वही
न खोया जिसे
न पाया कभी
तरेंगे वही
बढ़े जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
गिराया हुआ
उठाया नहीं
न नाता कभी
भुनाया, सही
डरेंगे वही
नहीं जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
१६.११.२०१६
इस लय पर रचनाओं (सोनेट, मुक्तक, हाइकु, ग़ज़ल, जनक छंद आदि) का स्वागत है।
***
कृति चर्चा:
समीक्षा के अभिनव सोपान : नवगीत का महिमा गान
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: समीक्षा के अभिनव सोपान, संपादक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय, वर्ष २०१४, पृष्ठ १२४, २००/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, दोरंगी, प्रकाशक शिव संकल्प साहित्य परिषद्, गृह निर्माण मंडल कोलोनी, होशंगाबाद, चलभाष ९४२५० ४०९२१, संपादक संपर्क- ८/२९ ए शिवपुरी, अलीगढ २०२००१ ]
*
किसी विधा पर केंद्रित कृति का प्रकाशन और उस पर चर्चा होना सामान्य बात है किन्तु किसी कृति पर केन्द्रित समीक्षापरक आलेखों का संकलन कम ही देखने में आता है. विवेच्य कृति सनातन सलिला नर्मदा माँ के भक्त, हिंदी मैया के प्रति समर्पित ज्येष्ठ और श्रेष्ठ रचनाकार श्री गुरुमोहन गुरु की प्रथम नवगीत कृति 'मुझे नर्मदा कहो' पर लिखित समालोचनात्मक लेखों का संकलन है. इसके संपादक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय स्वयं हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं. युगबोधवाही कृतिकार, सजग समीक्षक और विद्वान संपादक का ऐसा मणिकांचन संयोग कृति को शोध छात्रों के लिये उपयोगी बना सका है.
कृत्यारम्भ में संपादकीय के अंतर्गत डॉ. उपाध्याय ने नवगीत के उद्भव, विकास तथा श्री गुरु के अवदान की चर्चा कर, नवगीत की नव्य परंपरा का संकेत करते हुए छंद, लय, यति, गति, आरोह-अवरोह, ध्वनि आदि के प्रयोगों, चैतन्यता, स्फूर्ति, जागृति आदि भावों तथा जनाकांक्षा व जनभावनाओं के समावेशन को महत्वपूर्ण माना है. नवगीत प्रवर्तकों में से एक डॉ. शंभुनाथ सिंह ने उद्योगप्रधान नागरिक जीवन की गद्यात्मकता के भीतर जीवित कोमलतम मानवीय अनुभूतियों के छिपे कारणों को गीत के माध्यम से उद्घाटित कर नवगीत आन्दोलन को गति दी. डॉ. किशोर काबरा नवगीत में बढ़ते नगरबोध का संकेतन करते हुए वर्तमान में नवगीतकारों की चार पीढ़ियों को सक्रिय मानते हैं. उनके अनुसार पुरानी पीढ़ी छ्न्दाश्रित, बीच की पीढ़ी लयाश्रित, नई पीढ़ी लोकगीताश्रित तथा नवागत पीढ़ी लयविहीन नवगीत लिख रही है. इस प्रसंग में उल्लेखनीय है की मैंने लोकगीतों तथा विविध छंदों की लय तथा नवागत पीढ़ी द्वारा सामान्यत: प्रयोग की जा रही भाषा में नवगीत रचे तो डॉ. शंभुनाथ सिंह द्वारा इंगित तत्वों को अंतिम कहते हुए कतिपय रचनाकारों ने न केवल उन्हें नवगीत मानने से असहमति जताई अपितु यहाँ तक कह दिया कि नवगीत किसी की खाला का घर नहीं है जिसमें कोई भी घुस आये. इस संकीर्णतावादियों द्वारा हतोत्साहित करने के बावजूद यदि नवागत पीढ़ी नवगीत रच रही है तो उसका कारण श्री गिरिमोहन गुरु, श्री भगवत दुबे, श्री मधुकर अष्ठाना, श्री किशोर काबरा, श्री राधेश्याम बंधु, कुमार रवीन्द्र, डॉ. रामसनेही लाल यायावर, श्री ब्रजेश श्रीवास्तव जैसे परिवर्तनप्रेमी नवगीतकारों का प्रोत्साहन है.
'मुझे नर्मदा कहो' (५१ नवगीतों का संकलन) पर समीक्षात्मक आलेख लेखकों में सर्व श्री / श्रीमती डॉ. राधेश्याम 'बन्धु', डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय, डॉ. विनोद निगम, डॉ. किशोर काबरा, डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय, डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ. सूर्यप्रकाश शुक्ल, डॉ. प्रेमशंकर रघुवंशी, विजयलक्ष्मी 'विभा', मोहन भारतीय, छबील कुमार मैहर, महेंद्र नेह, डॉ. हर्षनारायण 'नीरव', गोपीनाथ कालभोर, अशोक गीते, डॉ. मधुबाला, डॉ. जगदीश व्योम, डॉ. कुमार रविन्द्र, डॉ. गिरिजाशंकर शर्मा, डॉ. शरद नारायण खरे, कृष्णस्वरूप शर्मा, डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र, डॉ. विजयमहादेव गाडे, भगवती प्रसाद द्विवेदी, जगदीश श्रीवास्तव, सरिता सुराणा जैन, श्रीकृष्ण शर्मा, राजेंद्र सिंह गहलोत, डॉ. दिवाकर दिनेश गौड़, नर्मदा प्रसाद मालवीय, डॉ. नीलम मेहतो, डॉ. उमेश चमोला, डॉ. रानी कमलेश अग्रवाल, प्रो. भगवानदास जैन, डॉ. हरेराम पाठक 'शब्दर्षि', रामस्वरूप मूंदड़ा, यतीन्द्रनाथ 'राही', डॉ. अमरनाथ 'अमर', डॉ. ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग', डॉ. तिलक सिंह, डॉ. जयनाथ मणि त्रिपाठी, मधुकर गौड़, डॉ. मुचकुंद शर्मा, समीर श्रीवास्तव जैसे सुपरिचित हस्ताक्षर हैं.
डॉ. नामवर सिंह के अनुसार 'नवगीत ने जनभावना और जनसंवादधर्मिता को अपनी अंतर्वस्तु के रूप में स्वीकार किया है, इसलिए वह जनसंवाद धर्मिता की कसौटी पर खरा उतर सका है.' यह खारापन गुरु जी के नवगीतों में राधेश्याम 'बन्धु' जी ने देखा है. डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय ने गुरु जी के मंगीतों में जीवन की विडंबनाओं को देखा है:
सभा थाल ने लिया हमेशा / मुझे जली रोटी सा
शतरंजी जीवन का अभिनय / पिटी हुई गोटी सा
सदा रहा लहरों के दृग में / हो न सका तट का
गुरु जी समसामयिकता के फलक पर युगीन ज्वलंत सामाजिक-राजनैतिक विषमताओं, विसंगतियों एवं विडम्बनाओं का यथार्थवादी अंकन करने में समर्थ हैं-
सूरज की आँखों में अन्धकार छाया है
बुरा वक्त आया है
सिर्फ भरे जेब रहे प्रजातंत्र भोग
बाकी मँहगाई के मारे हैं लोग
सड़कों को छोड़ देश पटरी पर आया है.
डॉ. किशोर काबरा गुरु जी के नवगीतों में ग्रामीण परिवेश एवं आंचलिक संस्पर्श दोनों की उपस्थिति पूर्ण वैभव सहित पाते हैं-
ढोल की धुन / पाँव की थिरकन / मंजीरे मौन / चुप रहने लगा चौपाल / टेलीविजन पर / देखता / भोपाल
.
डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी इन नवगीतों में सामाजिक विसंगतियों का प्रभावी चित्रण पाती हैं-
बाहर है नकली बहार / भीतर है खालीपन
निर्धनता की भेंट चढ़ गया / बेटी का यौवन
तेल कहाँ उपलब्ध / सब्जी पानी से छौंक रहे
विजयलक्ष्मी 'विभा' को गुरु जी के नवगीतों में अफसरशाही पर प्रहार संवेदनशील मानव के लिए एक चुनौती के रूप में दीखता है-
आओ! प्रकाश पियें / अन्धकार उगलें / साथ-साथ चलें
कुर्सी के पैर बनें / भार वहन करें
अफसर के जूतों की / कील सहन करें
तमतमाये चेहरों को झुकें / विजन झलें
लेखकों ने नीर-क्षीर विवेकपूर्ण दृष्टि से गुरु जी के नवगीतों के विविध पक्षों का आकलन किया है. नवगीत के विविध तत्वों, उद्भव, विकास, प्रभाव, समीक्षा के तत्वों आदि का सोदाहरण उल्लेख कर विद्वान लेखनों और संपादक ने इस कृति को नवगीत लेखन में प्रवेशार्थियों और शोधछात्रों के लिए सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह उपयोगी बना दिया है.
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- समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४
***
गीति रचना :
बाद दीपावली के...
*
बाद दीपावली के दिए ये बुझे
कह रहे 'अंत भी एक प्रारम्भ है.
खेलकर अपनी पारी सचिन की तरह-
मैं सुखी हूँ, न कहिये उपालम्भ है.
कौन शाश्वत यहाँ?, क्या सनातन यहाँ?
आना-जाना प्रकृति का नियम मानिए.
लाये क्या?, जाए क्या? साथ किसके कभी
कौन जाता मुझे मीत बतलाइए?
ज्यों की त्यों क्यों रखूँ निज चदरिया कहें?
क्या बुरा तेल-कालिख अगर कुछ गहें?
श्वास सार्थक अगर कुछ उजाला दिया,
है निरर्थक न किंचित अगर तम पिया.
*
जानता-मानता कण ही संसार है,
सार किसमें नहीं?, कुछ न बेकार है.
वीतरागी मृदा - राग पानी मिले
बीज श्रम के पड़े, दीप बन, उग खिले.
ज्योत आशा की बाली गयी उम्र भर.
तब प्रफुल्लित उजाला सकी लख नज़र.
लग न पाये नज़र, सोच कर-ले नज़र
नोन-राई उतारे नज़र की नज़र.
दीप को झालरों की लगी है नज़र
दीप की हो सके ना गुजर, ना बसर.
जो भी जैसा यहाँ उसको स्वीकार कर
कर नमन मैं हुआ हूँ पुनः अग्रसर.
*
बाद दीपावली के सहेजो नहीं,
तोड़ फेंकों, दिए तब नये आयेंगे.
तुम विदा गर प्रभाकर को दोगे नहीं
चाँद-तारे कहो कैसे मुस्कायेंगे?
दे उजाला चला, जन्म सार्थक हुआ.
दुख मिटे सुख बढ़े, गर न खेलो जुआ.
मत प्रदूषण करो धूम्र-ध्वनि का, रुको-
वृक्ष हत्या करे अब न मानव मुआ.
तीर्थ पर जा, मनाओ हनीमून मत.
मुक्ति केदार प्रभु से मिलेगी 'सलिल'
पर तभी जब विरागी रहो राग में
और रागी नहीं हो विरागी मनस।
इसलिए हैं विकल मानवों के हिये।
चल न पाये समय पर रुके भी नहीं
अलविदा कह चले, हरने तम आयें फिर
बाद दीपावली के दिए जो बुझे.
*
***
छंद सलिला:
उपेन्द्र वज्रा
*
इस द्विपदिक मात्रिक छंद के हर पद में क्रमश: जगण तगण जगण २ गुरु अर्थात ११ वर्ण और १७ मात्राएँ होती हैं.
उपेन्द्रवज्रा एक पद = जगण तगण जगण गुरु गुरु = १२१ / २२१ / १२१ / २२
उदाहरण:
१. सरोज तालाब गया नहाया
सरोद सायास गया बजाया
न हाथ रोका नत माथ बोला
तड़ाग झूमा नभ मुस्कुराया
२. हथेलियों ने जुड़ना न सीखा
हवेलियों ने झुकना न सीखा।
मिटा दिया है सहसा हवा ने-
फरेबियों से बचना न सीखा
३. जहाँ-जहाँ फूल खिलें वहाँ ही,
जहाँ-जहाँ शूल, चुभें वहाँ भी,
रखें जमा पैर हटा न पाये-
भले महाकाल हमें मनायें।
१६-११-२०१३
***
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