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शुक्रवार, 29 नवंबर 2024

नवंबर २९, अपन्हुति, विनोक्ति, प्रतिवस्तूपमा, सहोक्ति, अलंकार, नाक, सोनेट, नवगीत

सलिल सृजन नवंबर २९
*
सॉनेट
कविता
(इटैलियन शैली)
*
कविता खबर नहीं जो बासी हो जाए,
अगर सनातन सत्य कह रही है कविता,
अजर अमर हो जैसे सरिता या सविता,
अश्व समय का चारा समझ न खा पाए।
नहीं सियासत-सत्ता के मन को भाए,
शुभ कर राह दिखाए जैसे हो वनिता,
मारे-खाए चोट, न हारे, है विजिता,
कलकल करे, कूककर नित झूमे भाए।
कविता चेरी नहीं न स्वामिनी, सखी कहो,
दहो विरह में नहीं, साथ रह रहो सुखी,
सत्य-स्वप्न के ताने-बाने 'सलिल' बुनो।
बैठ नर्मदा-तीर रस-लहर सम प्रवहो,
सुधियों की चादर पर बैठो, उठा-तहो,
कौन आत्म-परमात्म मूँदकर नयन गुनो।
***
सॉनेट
कविता
(इंग्लिश शैली)
*
है अखबार नहीं; जो कविता हो बासी,
कहे समय का सत्य सनातन यदि कविता,
कालजयी; गाए संसारी-सन्यासी,
मल दलदल कर कमल उगाए हो शुचिता।
पुरा भूलकर कविता कहती रचो नया,
बहती धारा रहे निर्मला, याद रखो,
आगत देखो; विगत न जाने कहाँ गया,
मिले पराजय; बिसरा जय का स्वाद चखो।
कविता सविता सदृश तिमिर हर लेती है,
कविता शशि जैसे अमृत रस बरसाती,
कविता बढ़ा मनोबल जय वर देती है,
कविता गुरु गंभीर राह भी दिखलाती।
कविता करना नहीं, उसे जीना सीखो।
कविता कार कवि 'सलिल' कबीरा सम दीखो।
२९.११.२०२३
***
बुंदेली सॉनेट
सारद माँ
सारद माँ! परनाम हमाओ।
नैया पार लगा दे रे।।
मूढ़ मगज कछु सीख नें पाओ।
तन्नक सीख सिखा दे रे।।
माई! बिराजीं जा परबत पै।
मैं कैसउ चढ़ पाऊँ ना।।
माई! बिराजीं स्याम सिला मा।
मैं मूरत गढ़ पाऊँ ना।।
मैया आखर मा पधराई।
मैं पोथी पढ़ पाऊँ ना।
मन मंदिर मा पधराओ
तुम बिन आगे बढ़ पाऊँ ना।।
तन-मन तुमरो, तुम पे वारो।
सारद माँ! कर किरपा तारो।।
संजीव
२९-११-२०२२
जबलपुर
●●●
सॉनेट
आभार
आभार शारद की कृपा
सम्मान की वर्षा हुई
रखना बनाए माँ दया
व्यापे नहीं श्लाघा मुई
नतशिर करूँ वंदन उन्हें
जिनको गुणों की है परख
मुझ निर्गुणी में गुणों को
जो देख पाए हैं निरख
माँ! हर सकल अभिमान ले
कुछ रच सकूँ मति दान दे
जो हर हृदय को हर्ष दे
ऐसा कवित दे, गान दे
हो सफल किंचित साधना
माँ कर कृपा; कर थामना
२८-१२-२०२२
६-३१, मुड़वारा कटनी
ए१\२१ महाकौशल एक्सप्रेस
•••
मित्रों को समर्पित दोहे
विश्वंभर जब गौर हों, तब हो जगत अशोक।
ले कपूर कर आरती, ओमप्रकाश विलोक।।
राम किशोर अनूप हैं, प्रबल भारती धार।
नमन शारदा-रमा को, रम्य बसंत बहार।।
पुष्पा मीरा मन मधुर ,मिलन दीपिका संग।
करे भारती आरती, पवन सुमन शुभरंग।।
मीनाक्षी रजनीश ने, वरा सुनीता पंथ।
श्यामा गीत सुना कहें, छाया रहे बसंत।।
सलिल सुधा वसुधा विजय, संजीवित हो सृष्टि।
आत्माराम बता रहे, रहे विनीता दृष्टि।।
२७-११-२०२२, दिल्ली
•••
मुक्तिका
नमन
नमन हमने किया तुमको
नमन तुमने किया हमको
न मन का मन हुआ लेकिन
सुमिर मन ने लिया मन को
अमन चाहा चमन ने जब
वतनमय कर लिया तन को
स्वजन ने बन सुजन पल-पल
निहारा था सिर्फ धन को
२६-११-२०२२, दिल्ली
●●●
सॉनेट
सफर
*
भोर भई उठ सफर शुरू कर
अंधकार हर दे उजियारा
भर उड़ान हिलमिल कलरव कर
नील गगन ने तुझे पुकारा
गहन श्वास ले छोड़ निरंतर
बन संकल्पी, बुझे न पावक
हो कृतज्ञ हँस धरा-नमन कर;
भरे कुलाचें कोशिश शावक
सलिल स्नान कर, ईश गान कर
कदम बढ़ा, कर जो करना है
स्वेद-परिश्रम करे दोपहर
साँझ लौटकर घर चलना है
रात कहे ले मूँद आँख तू
प्रभु सुमिरन कर खत्म सफर कर
२६-११-२०२२, दिल्ली
•••
मुक्तक
पंछियों से चहचहाना सीख ले
निर्झरों से गुनगुनाना सीख ले
भुनभुना मर हारकर नाहक 'सलिल'
प्यार कर दिल जीत जाना सीख ले
मुक्तिका
शांत जी के लिए
शांत सुशांत प्रशांत नमन है
शोभित तुमसे काव्य चमन है
नूर नूर का कलम बिखेरे
कीर्ति छुए नित नीलगगन है
हिंदी सुत हो प्यारे न्यारे
शांत जहाँ है; वहीं अमन है
बुंदेली की थाम पताका
कविताई ज्यों किया हवन है
मऊरानीपुर का गौरव हो
ठेठ लखनवी काव्य जतन है
हिंदीभाषी हिंदीगौरव
हिंदी ने पा लिया रतन है
२५-११-२०२२
•••
मुक्तिका
*
मुख सुहाना सामने जब आ गया
दिल न काबू में रहा, झट आ गया
*
देख शशि का बिंब, लहरों में सलिल
घाट को भी मुस्कुराना आ गया
*
चाँदनी सिकता पे पसरी इस तरह
हवाओं को गीत गाना आ गया
*
अल्हड़ी खिलखिल हँसी बेसाख्ता
सुनी सन्नाटे को गाना आ गया
*
दिलवरों का दिल न काबू में रहा
दिलरुबा को दिल दुखाना आ गया
*
चाँद को तज चाँदनी संजीव से
हँस मिली मौसम सुहाना आ गया
***
प्रिय सुरेश तन्मय जी के लिए
तेरा तुझको अर्पण
*
मन ही तन की शक्ति है, तन मन का आधार
तन्मय तन मय कम हुआ, मन उसका विस्तार
*
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
तन्मय मनमय श्वास हर, हुई गीत की मीत
*
सुर सुरेश का है मधुर, श्वास-श्वास रस-खान
तन-मन मिल दें पराजय, कोविद को हठ ठान
*
व्याधि-रोग भी शक्ति के, रूप न करिए भीति
मातु शीतला सदृश ही, कोविद पूजें रीति
*
पूजा विधि औषधि नहीं, औषधि मान प्रसाद
पथ्य सहित विश्राम कर, गहें रहें आबाद
*
बाल न बाँका हो सके, सखे! रखें विश्वास
स्वास्थ्य लाभ कर आइए, सलिल न पाए त्रास
२९-११-२०२०
***
मुक्तक
*
हमारा टर्न तो हरदम नवीन हो जाता
तुम्हारा टर्न गया वक्त जो नहीं आता
न फिक्र और की करना हमें सुहाता है
हमारा टर्म द्रौपदी का चीर हो जाता
२८-११-२०१९
***
दोहा सलिला
दिया बाल मत सोचना, हुआ तिमिर का अंत.
तली बैठ मौका तके, तम न भूलिए कंत.
.
नारी के दो-दो जगत, वह दोनों की शान
पाती है वरदान वह, जब हो कन्यादान.
.
नारी को माँगे बिना, मिल जाता नर-दास.
कुल-वधु ले नर दान में, सहता जग-उपहास.
.
दल-बल सह जा दान ले, भिक्षुक नर हो दीन.
नारी बनती स्वामिनी, बजा चैन से बीन.
.
चीन्ह-चीन्ह आदेश दे, बीन-बीन ले हक.
समता कर सकता न नर, तज कोशिश नाहक.
.
दो-दो मात्रा अधिक है, नारी नर से जान.
कुशल चाहता तो कभी, बैर न उससे ठान.
.
यह उसका रहमान है, वह इसकी रसखान.
उसमें इसकी जान है, इसमें उसकी जान.
२८-११-२०१७
***
षट्पदी
लिखते-पढ़ते थक गया, बैठ गया हो मौन
पूछ रहा चलभाष से, बोलो मैं हूँ कौन?
बोलो मैं हूँ कौन मिला तब मुझको उत्तर
खुद को जान न पाए क्यों अब तक घनचक्कर?
तुम तुम हो, तुम नहीं अन्य जैसे हो दिखते
बेहतर होता भटक न यदि चुप कविता लिखते।
अलंकार सलिला: ३०
अपन्हुति अलंकार
*
प्रस्तुत का वारण जहाँ, वहीं अपन्हुति मीत।
कर निषेध उपमेय का, हो उपमान सप्रीत।।
'अपन्हुति' का अर्थ है वारण या निषेध करना, छिपाना, प्रगट न होने देना आदि. इसलिए इस अलंकार में प्रायः निषेध देखा जाता है। प्रकृत, प्रस्तुत या उपमेय का प्रतिषेध कर अन्य अप्रस्तुत या उपमान का आरोप या स्थापना किया जाए तो 'अपन्हुति अलंकार' होता है। जहाँ उपमेय का निषेध कर उसमें उपमान का आरोप किया जाये वहाँ 'अपन्हुति अलंकार' होता है।
प्रस्तुत या उपमेय का, लें निषेध यदि देख।
अलंकार तब अपन्हुति, पल में करिए लेख।।
प्रस्तुत का वारण जहाँ, वहीं अपन्हुति मीत।
आरोपित हो अप्रस्तुत, 'सलिल' मानिये रीत।।
१. हेम सुधा यह किन्तु है सुधा रूप सत्संग।
यहाँ सुधा पर सुधा का आरोप करना के लिए उसमें अमृत के गुण का निषेध किया गया है। अतः, अपन्हुति अलंकार है।
२.सत्य कहहूँ हौं दीनदयाला, बन्धु न होय मोर यह काला।
यहाँ प्रस्तुत उपमेय 'बन्धु' का निषेध कर अप्रस्तुत उपमान 'काल' की स्थापना किये जाने से अपन्हुति अलंकार है।
३. फूलों पत्तों सकल पर हैं वारि बूँदें लखातीं।
रोते हैं या निपट सब यों आँसुओं को दिखाके।।
प्रकृत उपमेय 'वारि बूँदे' का निषेधकर 'आँसुओं' की स्थापना किये जाने के कारण यहाँ ही अपन्हुति है।
४.अंग-अंग जारति अरि, तीछन ज्वाला-जाल।
सिन्धु उठी बडवाग्नि यह, नहीं इंदु भव-भाल।।
अत्यंत तीक्ष्ण ज्वालाओं के जाल में अंग-प्रत्यंग जलने का कारण सिन्धु की बडवाग्नि नहीं, शिव के शीश पर चन्द्र का स्थापित होना है. प्रस्तुत उपमेय 'बडवाग्नि' का प्रतिषेध कर अन्य उपमान 'शिव'-शीश' की स्थापना के कारण अपन्हुति है.
५.छग जल युक्त भजन मंडल को, अलकें श्यामन थीं घेरे।
ओस भरे पंकज ऊपर थे, मधुकर माला के डेरे।।
यहाँ भक्ति-भाव में लीन भक्तजनों के सजल नयनों को घेरे काली अलकों के स्थापित उपमेय का निषेध कर प्रातःकाल तुहिन कणों से सज्जित कमल पुष्पों को घेरे भँवरों के अप्रस्तुत उपमान को स्थापित किया गया है. अतः अपन्हुति अलंकार है.
६.हैं नहीं कुल-श्रेष्ठ, अंधे ही यहाँ हैं।
भक्तवत्सल साँवरे, बोलो कहाँ हैं? -सलिल
यहाँ द्रौपदी द्वारा प्रस्तुत उपमेय कुल-श्रेष्ठ का निषेध कर अप्रस्तुत उपमान अंधे की स्थापना की गयी है. अतः, अपन्हुति है.
७.संसद से जन-प्रतिनिधि गायब
बैठे कुछ मक्कार हैं। -सलिल
यहाँ उपमेय 'जनप्रतिनिधि' का निषेध कर उपमान 'मक्कार' की स्थापना किये जाने से अपन्हुति है.
८. अरी सखी! यह मुख नहीं, यह है अमल मयंक।
९. किरण नहीं, पावक के कण ये जगतीतल पर गिरते हैं।
१०. सुधा सुधा प्यारे! नहीं, सुधा अहै सतसंग।
११. यह न चाँदनी, चाँदनी शिला 'मरमरी श्वेत।
१२. चंद चंद आली! नहीं, राधा मुख है चंद।
१३. अरध रात वह आवै मौन
सुंदरता बरनै कहि कौन?
देखत ही मन होय अनंद
क्यों सखि! पियमुख? ना सखि चंद।
अपन्हुति अलंकार के प्रकार:
'यहाँ' नहीं 'वह' अपन्हुति', अलंकार लें जान।
छः प्रकार रोचक 'सलिल', रसानंद की खान।।
प्रस्तुत या उपमेय का निषेध कर अप्रस्तुत की स्थापना करने पर अपन्हुति अलंकार जन्मता है. इसके छः भेद हैं.
१. शुद्धापन्हुति:
जहाँ पर प्रकृत उपमेय को छिपाकर या उसका प्रतिषेध कर अन्य अप्रस्तुत का निषेधात्मक शब्दों में आरोप किया जाता है.
१. ऊधो यह सूधो सो संदेसो कहि दीजो भलो,
हरि सों हमारे ह्यां न फूले वन कुञ्ज हैं।
किंसुक गुलाब कचनार औ' अनारन की
डारन पै डोलत अन्गारन के पुंज हैं।।
२. ये न मग हैं तव चरण की रेखियाँ हैं।
बलि दिशा की ओर देखा-देखियाँ हैं।।
विश्व पर पद से लिखे कृति-लेख हैं ये।
धरा-तीर्थों की दिशा की मेख हैं ये।।
३. ये न न्यायाधीश हैं,
धृतराष्ट्र हैं ये।
न्याय ये देते नहीं हैं,
तोलते हैं।।
४. नहीं जनसेवक
महज सत्ता-पिपासु,
आज नेता बन
लूटते देश को हैं।
५. अब कहाँ कविता?
महज तुकबन्दियाँ हैं,
भावना बिन रचित
शाब्दिक-मंडियाँ हैं।
२. हेत्वापन्हुति:
जहाँ प्रस्तुत का प्रतिषेध कर अप्रस्तुत का आरोप करते समय हेतु या कारण स्पष्ट किया जाए वहाँ हेत्वापन्हुति अलंकार होता है.
१. रात माँझ रवि होत नहिं, ससि नहिं तीव्र सुलाग।
उठी लखन अवलोकिये, वारिधि सों बड़बाग।।
२. ये नहिं फूल गुलाब के, दाहत हियो अपार।
बिनु घनश्याम अराम में, लगी दुसह दवार।।
३. अंक नहीं है पयोधि के पंक को औ' वसि बंक कलंक न जागै।
छाहौं नहीं छिति की परसै अरु धूमौ नहीं बड़वागि को पागै।।
मैं मन वीचि कियो निह्चै रघुनाथ सुनो सुनतै भ्रम भागै।
ईठिन या के डिठौना दिया जेहि काहू वियोगी की डीठि न लागै।।
४. पहले आँखों में थे, मानस में कूद-मग्न प्रिय अब थे।
छींटे वहीं उड़े थे, बड़े-बड़े ये अश्रु कब थे.
५. गुरु नहीं, शिक्षक महज सेवक
साध्य विद्या नहीं निज देयक।
३. पर्यस्तापन्हुति:
जहाँ उपमेय या वास्तविक धर्मी में धर्म का निषेध कर अन्य में उसका आरोप जाता है वहाँ पर्यस्तापन्हुति अलंकार होता है।
१. आपने कर्म करि हौं हि निबहौंगो तौ तो हौं ही करतार करतार तुम काहे के?
२. मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है।
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती वह मेरी मधुशाला है।।
३ . जहाँ दुःख-दर्द
जनता के सुने जाएँ
न वह संसद।
जहाँ स्वार्थों का
सौदा हो रहा
है देश की संसद।।
४. चमक न बाकी चन्द्र में
चमके चेहरा खूब।
५. डिग्रियाँ पाई,
न लेकिन ज्ञान पाया।
लगी जब ठोकर
तभी कुछ जान पाया।।
४. भ्रान्त्य अपन्हुति:
जहाँ किसी कारणवश भ्रम हो जाने पर सच्ची बात कहकर भ्रम का निवारण किया जाता है और उसमें कोई चमत्कार रहता है, वहाँ भ्रान्त्यापन्हुति अलंकार होता है।
१. खायो कै अमल कै हिये में छायो निरवेद जड़ता को मंत्र पढि नायो शीश काहू अरि।
कै लग्यो है प्रेत कै लग्यो है कहूँ नेह हेत सूखि रह्यो बदन नयन रहे आँसू भरि।।
बावरी की ऐसी दशा रावरी दिखाई देति रघुनाथ इ भयो जब मन में रो गयो डरि।
सखिन के टरै गरो भरे हाथ बाँसुरी देहरे कही-सुनी आजु बाँसुरी बजाई हरि।।
२. आली लाली लखि डरपि, जनु टेरहु नंदलाल।
फूले सघन पलास ये, नहिं दावानल ज्वाल।।
३. डहकु न है उजियरिया, निसि नहिं घाम।
जगत जरत अस लाग, मोहिं बिनु राम।।
४. सर्प जान सब डर भगे, डरें न व्यर्थ सुजान।
रस्सी है यह सर्प सी, किन्तु नहीं है जान।।
५. बिन बदरा बरसात?
न, सिर धो आयी गोरी।
टप-टप बूँदें टपकाती
फिरती है भोरी।।
५. छेकापन्हुति:
जहाँ गुप्त बात प्रगट होने की आशंका से चतुराईपूर्वक मिथ्या समाधान से निषेध कर उसे छिपाया जाता है वहाँ छेकापन्हुति अलंकार होता है।
१. अंग रंग साँवरो सुगंधन सो ल्प्तानो पीट पट पोषित पराग रूचि वरकी।
करे मधुपान मंद मंजुल करत गान रघुनाथ मिल्यो आन गली कुञ्ज घर की।।
देखत बिकानी छबि मो पै न बखानी जाति कहति ही सखी सों त्यों बोली और उरकी।
भली भईं तोही मिले कमलनयन परत नहीं सखी मैं तो कही बात मधुकर की।।
२. अर्धनिशा वह आयो भौन।
सुन्दरता वरनै कहि कौन?
निरखत ही मन भयो अनंद।
क्यों सखी साजन?
नहिं सखि चंद।।
३. श्यामल तन पीरो वसन मिलो सघन बन भोर।
देखो नंदकिशोर अलि? ना सखि अलि चितचोर।।
४. चाहें सत्ता?,
नहीं-नहीं,
जनसेवा है लक्ष्य।
५. करें चिकित्सा डॉक्टर
बिना रोग पहचान।
धोखा करें मरीज से?
नहीं, करें अनुमान।
६. कैतवापन्हुति:
जहाँ प्रस्तुत का प्रत्यक्ष निषेध न कर चतुराई से किसी व्याज (बहाने) से उसका निषेध किया जाता है वहाँ कैतवापन्हुति अलंकार होता है। कैटव में बहाने से, मिस, व्याज, कारण आदि शब्दों द्वारा उपमेय का निषेध कर उपमान का होना कहा जाता है।।
१. लालिमा श्री तरवारि के तेज में सारदा लौं सुखमा की निसेनी।
नूपुर नील मनीन जड़े जमुना जगै जौहर में सुखदेनी।।
यौं लछिराम छटा नखनौल तरंगिनी गंग प्रभा फल पैनी।
मैथिली के चरणाम्बुज व्याज लसै मिथिला मग मंजु त्रिवेनी।
२. मुख के मिस देखो उग्यो यह निकलंक मयंक।
३. नूतन पवन के मिस प्रकृति ने सांस ली जी खोल के।
यह नूतन पवन नहीं है,प्रकृति की सांस है।
४. निपट नीरव ही मिस ओस के
रजनि थी अश्रु गिरा रही
ओस नहीं, आँसू हैं।
५. जनसेवा के वास्ते
जनप्रतिनिधि वे बन गये,
हैं न प्रतिनिधि नेता हैं।
***
अलंकार सलिला ३५
विनोक्ति अलंकार
*
बिना वस्तु उपमेय को, जहाँ दिखाएँ हीन.
है 'विनोक्ति' मानें 'सलिल', सारे काव्य प्रवीण..
जहाँ उपमेय या प्रस्तुत को किसी वस्तु के बिना हीन या रम्य वर्णित किया जाता है वहाँ विनोक्ति अलंकार होता है.
१. देखि जिन्हें हँसि धावत हैं लरिकापन धूर के बीच बकैयां.
लै जिन्हें संग चरावत हैं रघुनाथ सयाने भए चहुँ बैयां.
कीन्हें बली बहुभाँतिन ते जिनको नित दूध पियाय कै मैया.
पैयाँ परों इतनी कहियो ते दुखी हैं गोपाल तुम्हें बिन गैयां.
२. है कै महाराज हय हाथी पै चढे तो कहा जो पै बाहुबल निज प्रजनि रखायो ना.
पढि-पढि पंडित प्रवीणहु भयो तो कहा विनय-विवेक युक्त जो पै ज्ञान गायो ना.
अम्बुज कहत धन धनिक भये तो कहा दान करि हाथ निज जाको यश छायो ना.
गरजि-गरजि घन घोरनि कियो तो कहा चातक के चोंच में जो रंच नीर नायो ना.
३. घन आये घनघोर पर, 'सलिल' न लाये नीर.
जनप्रतिनिधि हरते नहीं, ज्यों जनगण की पीर..
४. चंद्रमुखी है / किन्तु चाँदनी शुभ्र / नदारद है.
५. लछमीपति हैं नाम के / दान-धर्म जानें नहीं / नहीं किसी के काम के
६. समुद भरा जल से मगर, बुझा न सकता प्यास
मीठापन जल में नहीं, 'सलिल' न करना आस
७. जनसेवा की भावना, बिना सियासत कर रहे
मिटी न मन से वासना, जनप्रतिनिधि कैसे कहें?
***
अलंकार सलिला: ३४
प्रतिवस्तूपमा अलंकार
*
एक धर्म का शब्द दो, करते अगर बखान.
'प्रतिवस्तुपमा' हो 'सलिल', अलंकार रस-खान..
'प्रतिवस्तुपमा' में कहें, एक धर्म दो शब्द.
चमत्कार लख काव्य का, होते रसिक निशब्द..
जहाँ उपमेय और उपमान वाक्यों का विभिन्न शब्दों द्वारा एक ही धर्म कहा जाता है, वहाँ
प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है.
जब उपमेय और उपमान वाक्यों का एक ही साधारण धर्म भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा कहा
जाय अथवा जब दो वाक्यों में वस्तु-प्रति वस्तु भाव हो तो वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता
है.
प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्य होते हैं- १) उपमेय वाक्य, २) उपमान वाक्य. इन दोनों वाक्यों का
एक ही साधारण धर्म होता है. यह साधारण धर्म दोनों वाक्यों में कहा जाता है पर अलग-
अलग शब्दों से अर्थात उपमेय वाक्य में जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उपमान वाक्य
में उस शब्द का प्रयोग न कर किसी समानार्थी शब्द द्वारा समान साधारण धर्म की
अभिव्यक्ति की जाती है.
प्रतिवस्तूपमा अलंकार का प्रयोग करने के लिए प्रबल कल्पना शक्ति, सटीक बिम्ब-विधान
चयन-क्षमता तथा प्रचुर शब्द-ज्ञान की पूँजी कवि के पास होना अनिवार्य है किन्तु प्रयोग में
यह अलंकार कठिन नहीं है.
उदाहरण:
१. पिसुन बचन सज्जन चितै, सकै न फेरि न फारि.
कहा करै लगि तोय मैं, तुपक तीर तरवारि..
२. मानस में ही हंस किशोरी सुख पाती है.
चारु चाँदनी सदा चकोरी को भाती है.
सिंह-सुता क्या कभी स्यार से प्यार करेगी?
क्या पर नर का हाथ कुलस्त्री कभी धरेगी?
यहाँ प्रथम व चतुर्थ पंक्ति में उपमेय वाक्य और द्वितीय-तृतीय पंक्ति में उपमान वाक्य है.
३. मुख सोहत मुस्कान सों, लसत जुन्हैया चंद.
यहाँ 'मुख मुस्कान से सोहता है' यह उपमेय वाक्य है और 'चन्द्र जुन्हाई(चाँदनी) से लसता
(अच्छा लगता) है' यह उपमान वाक्य है. दोनों का साधारण धर्म है 'शोभा देता है'. यह
साधारण धर्म प्रथम वाक्य में 'सोहत' शब्द से तथा द्वितीय वाक्य में 'लसत' शब्द से कहा
गया है.
४. सोहत भानु-प्रताप सों, लसत सूर धनु-बान.
यहाँ प्रथम वाक्य उपमान वाक्य है जबकि द्वितीय वाक्य उपमेय वाक्य है.
५. तिन्हहि सुहाव न अवध-बधावा, चोरहिं चाँदनि रात न भावा.
यहाँ 'न सुहाना साधारण धर्म है जो उपमेय वाक्य में 'सुहाव न ' शब्दों से और उपमान वाक्य
में 'न भावा' शब्दों से व्यक्त किया गया है.
पाठकगण कारण सहित बताएँ कि निम्न में प्रतिवस्तूपमा अलंकार है या नहीं?
६. नेता झूठे हो गए, अफसर हुए लबार.
७. हम अनुशासन तोड़ते, वे लाँघे मर्याद.
८. पंकज पंक न छोड़ता, शशि ना ताजे कलंक.
९. ज्यों वर्षा में किनारा, तोड़े सलिला-धार.
त्यों लज्जा को छोड़ती, फिल्मों में जा नार..
१०. तेज चाल थी चोर की, गति न पुलिस की तेज
***
अलंकार सलिला: ३३
सहोक्ति अलंकार
*
कई क्रिया-व्यापार में, धर्म जहाँ हो एक।
मिले सहोक्ति वहीं 'सलिल', समझें सहित विवेक।।
एक धर्म, बहु क्रिया ही, है सहोक्ति- यह मान।
ले सहवाची शब्द से, अलंकार पहचान।।
सहोक्ति अपेक्षाकृत अल्प चर्चित अलंकार है। जब कार्य-कारण रहित सहवाची शब्दों द्वारा अनेक व्यापारों
अथवा स्थानों में एक धर्म का वर्णन किया जाता है तो वहाँ सहोक्ति अलंकार होता है।
जब दो विजातीय बातों को एक साथ या उसके किसी पर्याय शब्द द्वारा एक ही क्रिया या धर्म से अन्वित
किया जाए तो वहाँ सहोक्ति अलंकर होता है। इसके वाचक शब्द साथ अथवा पर्यायवाची संग, सहित, समेत, सह, संलग्न आदि होते हैं।
१. नाक पिनाकहिं संग सिधायी।
धनुष के साथ नाक (प्रतिष्ठा) भी चली गयी। यहाँ नाक तथा धनुष दो विजातीय वस्तुओं को एक ही शब्द
'साथ' से अन्वित कर उनका एक साथ जाना कहा गया है।
२. भृगुनाथ के गर्व के साथ अहो!, रघुनाथ ने संभु-सरासन तोरयो।
यहाँ परशुरराम का गर्व और शिव का धनुष दो विजातीय वस्तुओं को एक ही क्रिया 'तोरयो' से अन्वित
किया गया है।
३. दक्खिन को सूबा पाइ, दिल्ली के आमिर तजैं, उत्तर की आस, जीव-आस एक संग ही।।
यहाँ उत्तर दिशा में लौट आने की आशा तथा जीवन के आशा इन दो विजातीय बैटन को एक ही शब्द 'तजना' से अन्वित किया गया है।
४. राजाओं का गर्व राम ने तोड़ दिया हर-धनु के साथ।
५. शिखा-सूत्र के साथ हाय! उन बोली पंजाबी छोड़ी।
६. देह और जीवन की आशा साथ-साथ होती है क्षीण।
७. तिमिर के संग शोक-समूह । प्रबल था पल-ही-पल हो रहा।
८. ब्रज धरा जान की निशि साथ ही। विकलता परिवर्धित हो चली।
९. संका मिथिलेस की, सिया के उर हूल सबै, तोरि डारे रामचंद्र, साथ हर-धनु के।
१०. गहि करतल मुनि पुलक सहित कौतुकहिं उठाय लियौ।
नृप गन मुखन समेत नमित करि सजि सुख सबहिं दियौ।।
आकर्ष्यो सियमन समेत, अति हर्ष्यो जनक हियौ।
भंज्यो भृगुपति गरब सहित, तिहुँलोक बिसोक कियौ।।
११. छुटत मुठिन सँग ही छुटी, लोक-लाज कुल-चाल।
लगे दुहन एक बेर ही, चल चित नैन गुलाल।।
१२. निज पलक मेरी विकलता साथ ही, अवनि से उर से, मृगेक्षिणी ने उठा।
१३. एक पल निज शस्य श्यामल दृष्टि से, स्निग्ध कर दी दृष्टि मेरी दीप से।।
१४. तेरा-मेरा साथ रहे, हाथ में साथ रहे।
१५. ईद-दिवाली / नीरस-बतरस / साथ न होती।
१६. एक साथ कैसे निभे, केर-बेर का संग?
भारत कहता शांति हो, पाक कहे हो जंग।।
उक्त सभी उदाहरणों में अन्तर्निहित क्रिया से सम्बंधित कार्य या कारण के वर्णन बिना ही एक धर्म (साधारण धर्म) का वर्णन सहवाची शब्दों के माध्यम से किया गया है.
२८-११-२०१५
***
मुहावरेदार षट्पदी
नाक के बाल ने, नाक रगड़कर, नाक कटाने का काम किया है
नाकों चने चबवाए, घुसेड़ के नाक, न नाक का मान रखा है
नाक न ऊँची रखें अपनी, दम नाक में हो तो भी नाक दिखा लें
नाक पे मक्खी न बैठन दें, है सवाल ये नाक का, नाक बचा लें
नाक के नीचे अघट न घटे, जो घटे तो जुड़े कुछ राह निकालें
नाक नकेल भी डाल सखा जू, न कटे जंजाल तो बाँह चढ़ा लें
***
नवगीत:
*
कौन बताये
नाम खेल का?
.
तोल-तोल के बोल रहे हैं
इक-दूजे को तोल रहे हैं
कौन बताये पर्दे पीछे
किसके कितने मोल रहे हैं?
साध रहे संतुलन
मेल का
.
तुम इतने लो, हम इतने लें
जनता भौचक कब कितने ले?
जैसी की तैसी है हालत
आश्वासन चाहे जितने ले
मेल नीर के
साथ तेल का?
.
केर-बेर का साथ निराला
स्वार्थ साधने बदलें पाला
सत्ता खातिर खेल खेलते
सिद्धांतों पर डाला ताला
मौसम आया
धकापेल का
२८-११-२०१४
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नवगीत:
कब रूठें
कब हाथ मिलायें?
नहीं, देव भी
कुछ कह पायें
.
ये जनगण-मन के नायक हैं
वे बमबारी के गायक हैं
इनकी चाह विकास कराना
उनकी राह विनाश बुलाना
लोकतंत्र ने
तोपतंत्र को
कब चाहा है
गले लगायें?
.
सारे कुनबाई बैठे हैं
ये अकड़े हैं, वे ऐंठे हैं
उनका जन आधार बड़ा पर
ये जन मन मंदिर पैठे हैं
आपस में
सहयोग बढ़ायें
इनको-उनको
सब समझायें
. . .
(सार्क सम्मेलन काठमांडू, २६.१.२०१४ )

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