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गुरुवार, 1 अगस्त 2019

समीक्षा ; सुधियों की देहरी पर

समीक्षा ;
सुधियों की देहरी पर - दोहों की अँजुरी 
समीक्षाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: सुधियों की देहरी पर, दोहा संग्रह, तारकेश्वरी तरु 'सुधि', प्रथम संस्करण २०१९, आई.एस.बी.एन. ९७८९३८८४७१४८०, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ ९५, मूल्य २००/-, अयन प्रकाशन दिल्ली,दोहाकार संपर्क : ९८२९३८९४२६, ईमेल tarkeshvariy@gmail.com]
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दोहा के उद्यान में, मुकुलित पुष्प अशेष 
तारकेश्वरी तरु 'सुधि', परिमल लिए विशेष 
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प्रथम सुमन अंजुरी लिए, आई पूजन ईश 
गुणिजन दें आशीष हों, इस पर सदय सतीश  
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दोहा द्विपदी दूहरा, छंद पुरातन ख़ास 
जीवन की हर छवि-छटा, बिम्बित लेकर हास 
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तेरह-ग्यारह कल बिना, दोहा बने न मीत
गुरु-लघु रखें पदांत हो, लय की हरदम जीत 
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लिए व्यंजना बन सके, दोहा सबका मित्र 
'सलिल' लक्षणा खींच दे, शब्द-शब्द में चित्र 
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शब्द शक्ति की कर सके, दोहा हँस जयकार 
अलंकार सज्जित छटा, मोहक जग बलिहार 
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'सुधि' गृहणी शिक्षिका भी, भार्या-माता साथ 
कलम लिए दोहा रचे, जाने कितने हाथ 
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एक समय बहु काम कर, बता रही निज शक्ति 
छंद-राज दोहा रुचे, अनुपम है अनुरक्ति 
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सुर वंदन की प्रथा का, किया विनत निर्वाह 
गणपति-शारद मातु का, शुभाशीष ले चाह  
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करे विसंगति उजागर, सुधरे तनिक समाज 
पाखंडों का हो नहीं, मानव-मन पर राज
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"अंदर से कुछ और हैं, बाहर से कुछ और।  
  किस पर करें यकीन अब, अजब आज का दौर।।" पृष्ठ १७ 
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नातों में बाकी नहीं, अपनापन-विश्वास 
सत्य न 'तरु' को सुहाता, मन पाता है त्रास
"आता कोई भी नहीं, बुरे वक़्त में पास।  
 रंग दिखाएँ लोग वे, जो बनते हैं खास।।"    पृष्ठ २० 
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'तरु' को अपने देश पर, है सचमुच अभिमान 
दोहा साक्षी दे रहा, कर-कर महिमा-गान 
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उन्नत भाषा सनाकृति, मूल्य सोच परिवेश।  
इनसे ही है विश्व गुरु अपना भारत देश।।    पृष्ठ २२ 
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अलंकार संपन्नता दोहों का वैशिष्ट्य 
रूपक उपमा कथ्य से, कर पाते नैकट्य 
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उपवन में विचरण करे, मन-हिरणा उन्मुक्त।  
ख्वाहिश बनी बहेलिया, करती माया मुक्त।। पृष्ठ २३ 
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समता नहीं समाज में, क्यों? अनबूझ सवाल 
सबको सम अवसर मिलें, होंगे दूर बवाल 
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ऊँच-नीच औ' जन्म पर, क्यों टिक गया विवाद। 
करिए मन-मस्तिष्क को समता से आबाद।।  पृष्ठ २४ 
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कन्या भ्रूण न हननिए, वह जग जननी जान 
दोहा दे संदेश यह, कहे कर कन्या का मान 
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करो न हत्या गर्भ में, बेटी तेरा वंश। 
रखना है अस्तित्व में उसे किसी का वंश।। पृष्ठ २७   
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त्रुटि हो उसे सुधारिए, छिपा न करिए भूल 
रोगों का उपचार हो, सार्थक यही उसूल 
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करती हूँ मैं गलतियाँ, होती मुझसे भूल। 
गिरकर उठ जाना सदा मेरा रहा उसूल।। पृष्ठ २८
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साँस न जब तक टूटती, सीखें सबक सदैव 
खुद को ज्ञानी समझना, करिए दूर कुटैव 
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किसी मोड़ पर तुम नहीं, करो सीखना बंद।    
जीवन को परवाज़ ही, देता ज्ञान स्वछंद ।। पृष्ठ ३०  
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पंछी चूजे पालते, बढ़ होते वे दूर 
मनुज न चाहे दूर हों, सहते हो मजबूर 
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खून-पसीना एक कर, बच्चे किए जवान। 
बसे मगर परदेस में, घर करके वीरान ।। पृष्ठ ३३    
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घर की रौनक बेटियाँ, वे घर का सम्मान। 
उन्हें कलंकित मत करो, 'देना' सीखो मान।। पृष्ठ ३५ 
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'देना' सीखो मान या, 'करना' सीखो मान?
जो 'देते' हो 'दूर' वह, 'करते' 'पास' निदान 
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गली-गली में खोलकर, अंग्रेजी स्कूल । पृष्ठ ३५ 
नौ मात्रिक दूजा चरण, फिर न करें यह भूल
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कर्म आपका आपको, दे जाए सम्मान। 
ऐसे क्रिया कलाप से, खींचो सबका ध्यान।। पृष्ठ २६
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सम्मानित है 'आप' पर, 'खींचो' आज्ञायुक्त। 
मेल न कर्ता-क्रिया में, शब्द चुनें उपयुक्त।।
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आनेवाले वक़्त का, उसे न था कुछ भान। 
जल में उत्तरी नाव फिर, लड़ी संग तूफ़ान ।। पृष्ठ १९ 
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'नाव' नहीं 'नाविक' लड़े, यहाँ तथ्य का दोष 
'चेतन' लड़ता 'जड़' नहीं, लें सुधार बिन रोष 
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अब बेटी के वास्ते, हुआ जागरूक देश।          पृष्ठ १७ 
कल बारह-बारह यहाँ, गलती यहाँ विशेष 
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खुद को करो समर्थ यह, है उपयुक्त निदान        
बनें बेटियाँ शक्तिमय, भारत की पहचान 
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चलो ध्यान से बेटियों, कदम-कदम पर गिद्ध। 
तुम भी रखकर हौसला, करो स्वयं को सिद्ध ।। पृष्ठ ३६ 
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'कर्म योग' का उचित है, देना शुभ संदेश 
'भाग्य वाद' की जय कहें, क्यों हम साम्य न लेश 
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जिसका जितना है लिखा, देंगे दीनानाथ।       पृष्ठ ४० 
सत्य यही तो कर्म क्यों, कभी करेगा हाथ?
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जिस घर भी पैदा हुई, खुशियाँ बसीं अपार। 
बेटी से ही सृष्टि को, मिलता है विस्तार।।       पृष्ठ ४०    
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अर्ध सत्य ही है यहाँ, बेटे से भी वंश 
बढ़ता- संतति में रहे, मात-पिता का अंश 
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बेटी से सपने जुड़े, वो है मेरी जान। 
जुडी उसे से भावना, वही सुखों की खान ।।     पृष्ठ ६६ 
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अतिरेकी है सोच यह, एकाकी है कथ्य 
बेटे-बेटी सम लगें, मात-पिता को- तथ्य          
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रगड़-रगड़ कर धो लिए, तन के वस्त्र मलीन। 
मन का कैसे साफ़ हो, गंदा जो कालीन ।। पृष्ठ ८० 
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बात सही तन-मन रखें, दोनों ही हम साफ़ 
वरना कभी करें नहीं, प्रभु जी हमको माफ़ 
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शब्द न कोई भी रहे, दोहे में बिन अर्थ 
तब सार्थकता बढ़े हो, दोहाकार समर्थ 
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भाषा शैली सहज है, शब्द चयन अनुकूल 
पहली कृति में क्षम्य हैं, यत्र-तत्र कुछ भूल 
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'तरु' में है संभावना, दोहा ज्यों हो सिद्ध 
अधिक सारगर्भित बने, भाव रहें आबिद्ध     
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दोहा-'तरु' में खिल सकें, सुरभित पुष्प अनेक 
'सलिल' सींच दें 'सुधि' सहित, रख 'संजीव' विवेक 
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'तारकेश्वरी' ने किया, सार्थक सृजन प्रयास 
बहुत बधाई है उन्हें, सिद्धि बहुत है पास 
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अगला दोहा संकलन, शीघ्र छपे आशीष 
दोहा-संसद मिल कहे, दोहाकार मनीष  ४९ 
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होती है मुश्किल बहुत, कहना सच्ची बात। 
बुरी बनूँ सच बोलकर, लेकिन करूँ न घात।। ।। पृष्ठ ९५ 
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यही समीक्षक-धर्म है, यथाशक्ति निर्वाह 
करे 'सलिल' मत रूठ 'सुधि', बहुत ढेर सी 'वाह' 
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समीक्षक: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
विश्ववाणी हिंदी संस्थान, 
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष: ७९९९५५९६१८ 
ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com 

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