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बुधवार, 27 दिसंबर 2017

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नवगीत-
गुरु विपरीत 
*
गुरु विपरीत 
हमेशा चेले 
*
गाँधी कहते सत्य बोलना
गाँधीवादी झूठ बोलते
बुद्ध कहें मत प्रतिमा गढ़ना
बौद्ध मूर्तियाँ लिये डोलते
जिन मुनि कहते करो अपरिग्रह
जैन संपदा नहीं छोड़ते
चित्र गुप्त हैं निराकार
कायस्थ मूर्तियाँ लिये दौड़ते
इष्ट बिदा हो जाता पहले
कैसे यह
विडंबना झेले?
गुरु विपरीत
हमेशा चेले
*
त्यागी मठ-आश्रम में बैठे
अपने ही भक्तों को लूटें
क्षमा करो कहते ईसा पर
ईसाई दुश्मन को कूटें
यवन पूजते बुत मक्का में
लेकिन कहते बुत हैं झूठे
अभियंता दृढ़ रचना करते
किन्तु समय से पहले टूटें
माया कहते हैं जो जग को
रमते हैं
लगवाकर मेले
गुरु विपरीत
हमेशा चेले
*
विद्यार्थी विद्या की अर्थी
रोज निकालें नकल कर-कर
जन प्रतिनिधि जनगण को ठगते
निज वेतन-भत्ते बढ़वाकर
अर्धनग्न घूमे अभिनेत्री
नित्य न अभिनय बदन दिखाकर
हम कहते गृह-स्वामी खुद को
गृहस्वामिनी की आज्ञा लेकर
गिनें कहाँ तक
बहुत झमेले?
गुरु विपरीत
हमेशा चेले
*

२७.१२.२०१५ 

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