लघुकथा-
गुरु जी
*
मुझे आपसे बहुत कुछ सीखना है, क्या आप मुझे शिष्य बनाकर नहीं सिखायेंगे?
बार-बार अनुरोध होने पर न स्वीकारने की अशिष्टता से बचने के लिए
सहमति दे दी. रचनाओं की प्रशंसा, विधा के विधान आदि की जानकारी लेने तक तो सब कुछ ठीक रहा.
एक दिन रचनाओं में कुछ त्रुटियाँ इंगित करने पर उत्तर मिला- 'खुद को क्या समझते हैं? हिम्मत कैसे की रचनाओं में गलतियाँ निकालने की? मुझे इतने पुरस्कार मिल चुके हैं. फेस बुक पर जो भी लिखती हूँ सैंकड़ों लाइक मिलते हैं. मेरी लिखे में गलती हो ही नहीं सकती. आइंदा ऐसा किया तो...' आगे पढ़ने में समय ख़राब करने के स्थान पर शिष्या को ब्लोक कर चैन की सांस लेते कान पकडे कि अब नहीं बनायेंगे किसी को शिष्या और नहीं बनेंगे किसी के गुरु.
***
गुरु जी
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मुझे आपसे बहुत कुछ सीखना है, क्या आप मुझे शिष्य बनाकर नहीं सिखायेंगे?
बार-बार अनुरोध होने पर न स्वीकारने की अशिष्टता से बचने के लिए
सहमति दे दी. रचनाओं की प्रशंसा, विधा के विधान आदि की जानकारी लेने तक तो सब कुछ ठीक रहा.
एक दिन रचनाओं में कुछ त्रुटियाँ इंगित करने पर उत्तर मिला- 'खुद को क्या समझते हैं? हिम्मत कैसे की रचनाओं में गलतियाँ निकालने की? मुझे इतने पुरस्कार मिल चुके हैं. फेस बुक पर जो भी लिखती हूँ सैंकड़ों लाइक मिलते हैं. मेरी लिखे में गलती हो ही नहीं सकती. आइंदा ऐसा किया तो...' आगे पढ़ने में समय ख़राब करने के स्थान पर शिष्या को ब्लोक कर चैन की सांस लेते कान पकडे कि अब नहीं बनायेंगे किसी को शिष्या और नहीं बनेंगे किसी के गुरु.
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