व्यंग्य लेख-
अभियांत्रिकी शिक्षा और जुमलालॉजी
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आजकल अभियांत्रिकी शिक्षा पर गर्दिश के बादल छाये हैं। अच्छी-खासी अभियांत्रिकी शिक्षा को गरीब की लुगाई, गाँव की भौजाई समझ कर प्रशासनिक और राजनैतिक देवरों ने दिनदहाड़े रेपते हुए उच्चतर माध्यमिक शिक्षा की अंक सूची के आधार पर हो रहे चयन रूपी पति से तीन तलाक दिलाये बिना पहले पूर्व अभियांत्रिकी परीक्षा (पी. ई. टी.) नाम के गाहक और बाद में व्यापम नामक दलाल के हवाले कर दिया। फलतः, सती सावित्री की बोली लगनी आरम्भ हो गयी। कुएँ में भाग घुली हो तो गाँव में होश किसे और कैसे हो सकता है? गैर तो गैर अपने भी तकनीकी शिक्षा संस्थानों का चकलाघर खोलकर लीलावती रूपी छात्रवृत्ति और कलावती रूपी उपाधि खरीदने-बेचने में संलग्न होते भए।
हम तो परंपरा प्रेमी हैं। द्रौपदी का चीर-हरण होता हो तो नेत्रहीन धृतराष्ट्र में भी कुछ न कुछ देख लेने की चाह पैदा हो जाती है। ब्रह्चारी भीष्म भी निगाहें झुकी होने का प्रदर्शन कर, दर्शन करने से नहीं चूकते। द्रोणाचार्य और कृपाचार्य जैसे ब्रम्हविद असार संसार में सार खोजते हुए, कण-कण में भगवान् की उपस्थिति का साक्ष्य चीरधारिणी में पाने का प्रयास करें तो उनकी तापस प्रवृत्ति पर तामस होने का संदेह करना सरासर गलत है। और तो और विरागी विदुर और सुरागी शकुनि भी बहती गंगा में हाथ धोनेवालों में सम्मिलित रहे आते हैं किसी प्रकार का प्रतिकार नहीं करते।
आज के अखबार में खबर है कि राजस्थान के एक विद्यालय की तीन छात्राओं ने अपनी ही कक्षा की चौथी छात्रा को रैगिंग का विरोध करने पर मार-पीटकर चीयर हरण कांड को सफलतापूर्वक संपन्न किया।यह ट्रीट तो है नहीं की कोई कृष्ण बिना आधार कार्ड देखे चीर वृद्धि कर पीड़िता की रक्षा करे। संभवत: ये होनहार छात्राएँ परंपरा प्रेमी हैं। दुर्योधन, दुःशासन और कर्ण रूपी तीनों छात्राएँ भली-भाँति जानती हैं कि अभिभावक रूपी धृतराष्ट्र, प्रबंधन रूपी भीष्म और और विदुर रूपी प्रशासन चिल्ल पों के अलावा कुछ नहीं कर सकते। यह भी की नेत्रहीन पति की आँखें बनने के स्थान पर अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर महासती होने का पाखण्ड रच, पद्म सम्मान पा चुकी गांधारी चीर हरण की साक्षी हो सकती थीं तो आज की पढ़ी-लिखी, सभ्य- सुसंस्कृत (?), सबला (स-बला) किशोरी क्यों पीछे रहे?
इसी समाचार पत्र में अन्यत्र कुछ किशोरियों द्वारा अन्यत्र एक किशोर को निर्वस्त्र करने के दुष्प्रयास (?) का भी समाचार है। ऐसी साहसी बच्चियों से देश गौरवान्वित होता है। सत्य को ब्रम्ह माननेवाले देश का भविष्य गढ़नेवाले बच्चे कपड़ों के भीतर का सच जानने का प्रयास कर अपनी सत्यनिष्ठा ही तो दर्शा रहे हैं। हमारे बच्चों में मानव के मूल स्वरूप को देखने और जानने की इस उत्कंठा का स्वागत हो या न हो, उन्हें जो करना है, कर रहे हैं। 'तन से तन का मिलन हो न पाया तो क्या, मन से मन का मिलन कोई कम तो नहीं' की दकियानूसी सोच को तिलांजलि देकर नयी पीढ़ी 'मन से मन मिलन हो न पाया क्या, तन से तन का मिलन कोई कम तो नहीं' के प्रगतिवादी सोच को मूर्त रूप दे कर क्रांति कर रही है।
स्त्री विमर्श की आड़ में पुरुष को देहधर्मी आरोपित कर, अपनी देह दर्शाते फिर रही आधुनिकाओं को अपनी (अपने पति की नहीं) बच्चियों के इन वीरोचित कार्यों पर भीषण गर्व अनुभव हो रहा होगा कि उनकी पीढ़ी को तो निर्वसन दौड़ने के लिए भी शिक्षा पूर्ण कर अभिनेत्री बनने तक का समय लगा पर भावी पीढ़ी यह दिशा विद्यालयों की कच्ची उम्र से ही ग्रहण कर रही है। इनका बस चले तो ये 'बाँह में हो और कोई, चाह में हो और कोई' ध्येय वाक्य हर विद्यालय के हर कक्ष में लिखवा दें ताकि पुरातनपंथी छात्र-छात्राएँ प्रेरित हो सकें।
भारत प्रगतिशील राष्ट्रों की क़तार में सम्मिलित हो सके इसलिए राष्ट्रवादी नेतागण अपने गृहस्थ जीवन का पथ छोड़कर, विवाहित होकर भी अविवाहित की तरह रहते हुए प्राण-प्राण से सकल विश्व की परिक्रमा कर रहे हैं। ये किशोर उनका जयकार करते हुए सेल्फी तो लेना चाहते हैं पर उनका अनुकरण नहीं करना चाहते। एक चित्रपटीय गीत में सनातन सत्य की उद्घोषणा की गयी है "इंसान था पहले बन्दर" । हमारे किशोर बंदर को निर्वसन देखकर, खुद साहस न कर सकें तो किसी अन्य को बंदर की तरह देखने का लोभ क्यों और कैसे संवरण करें? यह समझने में हमारे अभिभावक, परिवार, विद्यालय, गुरुजन, शिक्षा प्रणाली, धर्म, गुरु, न्याय व्यवस्था सभी अक्षम सिद्ध हो रहे हैं। इसका कारण केवल एक ही हो सकता है कि सामाजिक और सामूहिक स्तर पर स्वयं को उदासीन और संयमित प्रदर्शित करने के बाद भी हम, स्त्री-पुरुष दोनों कहीं न कहीं उर्वशियों, मेनकाओं औे रम्भाओं के प्रति आकर्षित हो उन्हें पाना या उन जैसा बनना चाहते रहे हैं। तभी तो अंतरजाल पर वयस्क तरंग-स्थल (एडल्ट वेब साइट) देखनेवालों की संख्या अन्य से बहुत अधिक है।मानव मन के चिंतन और मानव तन के आचरण के मध्य सेतु निर्मित करनेवाली अभियांत्रिकी का विकास अभी नहीं हो सका है किन्तु भविष्य में भी नहीं होगा यह तो कोई नहीं कह सकता। बंद होने का खतरा झेल रहे अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में नग्नता यांत्रिकी का पाठ्यक्रम आरम्भ करते ही छात्र-छात्राओं की ऐसी भीड़ उमड़ेगी की चप्पे-चप्पे में अभियांत्रिकी महाविद्यालय खोलने पड़ेंगे।
आप सहमत नहीं तो चलिए नयी दिशा तलाश करें। आज के ही समाचार पत्र में समाचार है कि न्यायालयों ने दो राज्यों में राज्यपालों की अनुशंसाओं पर केंद्र सरकार द्वारा अपदस्थ की गयी सरकारों को न केवल पुनः पदस्थ कर दिया अपितु पूर्ववर्ती वैकल्पिक सरकारों द्वारा लिए गए निर्णयों और घोषित की गयी नीतियों को भी निरस्त कर दिया। स्पष्ट है कि प्रधान मंत्री की अपार जनप्रियता को भुनाने की बचकानी शीघ्रता कर रहे दलाध्यक्ष मित-सत्ता (किसी राज्य में है, किसी में नहीं है) से संतुष्ट न होकर अमित सत्ता पाने की फिराक में हैं। वे तो अमित भी हैं और शाह भी, फिर किसी और को कहीं भी सत्तासीन कैसे देख सकते हैं? उन्होंने श्री गणेश एक दल मुक्त भारत की घोषणा कर और अपने दल के संसदीय दल-नेता से कराकर भले ही किया है किन्तु उनकी मंशा तो विपक्ष मुक्त भारत की थी, है और रहेगी। भारत का संविधान उनकी इस मंशा को मौलिक अधिकार मानकर मौन भले रहे, जनता और न्याय व्यवस्था पचा नहीं पा रही।
दलीय दलदल की राजनीति में कमल खिलाने, तिनके (तृण मूल) उगाने, पंजा दिखाने, लालटेन जलाने, पहिया घुमाने, हाथी चलाने, साइकिल दौड़ाने और हँसिया-हथौड़ा उठाने के इच्छुकों के सामने एक ही राह शेष है। बंद होते अभियांत्रिकी महाविद्यालयों का अधिग्रहण कर उनमें अपने-अपने दल के अनुरूप सामाजिक यांत्रिकी (सोशल इंजीनियरिंग) का पाठ्यक्रम चला दें। यह घोषणा भी कर दें कि इन पाठ्यक्रमों में विशेष योग्यता प्राप्त जन ही उम्मीदवार और चुनाव प्रबंधक होंगे। आप देखेंगे की गंजों के सर पर बाल लहलहाने की तरह, सियासत की शूर्पणखा को वरने के लिये तमाम राम, लक्ष्मण, रावण और विभीषण भी क़तार में लगे मिलेंगे।
'राजनीति विज्ञान है या कला?' इस यक्ष प्रश्न को सुलझाने में असफल रही सभ्यता की दुहाई देनेवाले क्या जानें कि राजनीति आगामी अनेक पीढ़ियों के लिए ही नहीं अगले जन्म के लिये भी धन-संपदा जोड़-जोड़कर विदेशों में रख जाने का पेशा है। दो अर्थशास्त्रियों के तीन मत होने को अजूबा माननेवाले कैसे समझेंगे कि राजनीति में स्वार्थनीति, सत्तानीति, दलनीति के अनुसार एक ही नेता के अनेक मत होते हैं। 'सत्य एक होता है जिसे विद्द्वज्जन कई प्रकार से कहते हैं' माननेवाले कैसे स्वीकारेंगे कि हर नेता के कई सत्य होते हैं जो संसद से सड़क तक, टी.व्ही. से बीबी तक बदलते रहते हैं।
कोई सत्यर्षि या ब्रम्हर्षि अपनी चादर को राज्यर्षि से अधिक सफ़ेद कैसे कह सकता है? आप ही बतायें कि एक चादर दाग न लकने पर सफेद दिखे और दूसरी का कण-कण दागों से काल होने पर भी सफ़ेद दिखाई जाए दमदार कौन सी हुई? राज्यर्षि जानता है कि 'आया सो जाएगा' इसलिए मोह-माया से पर रहता है। वह एक पत्नी की रुग्ण देह को बिस्तर पर छोड़कर, बेटी से कम उम्र की प्रेमिका की बाँह में बाँह डालकर 'चलो दिलदार चलो', ' ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ' से 'हम-तुम एक कमरे में बंद हों' गाते हुए गम गलत करता है। आम आदमी इस 'प्रेमिकालॉजी' रहस्य कैसे समझ सकते हैं? इसकी यांत्रिकी भी बंद हो रहे महाविद्यालयों को नवजीवन दे सकती है।
अभियांत्रिकी महाविद्यालयों को नवजीवन देने वाली एक विधा और है जिसे 'जुमलालॉजी' कहते हैं। यह नवीनतम आविष्कृत विधा है। इसमें प्रवीणता, दक्षता और कुशलता न हो तो गंजा पंजा को पराभूत कर देता है और यदि आप इस विधा के विशेषज्ञ हैं तो चाय बेचने से आरम्भ कर प्रधानमंत्री बनने तक की यात्रा कर सकते हैं। इन तमाम विधाओं की यांत्रिकी शिक्षा जो महाविद्यालय देगा उसमें प्रवेश पाने के इच्छुकों की संख्या भारत की जनसंख्या, राजनेता के झूठ, प्रगतिवादियों के पाखण्ड, आतंवादियों के दुराचार, भारतीय संसद के विवादों, खबरिया चैनलों के संवादों, आरक्षणजनित परिवादों, अभिनेत्रियों के नातों, पत्रकारों की बातों और पाकिस्तान को पड़ रही लातों की तरह 'है अनंत हरि कथा अनंता' होगी ही। नाम मात्र की नकली उपाधि लेकर शालेय शिक्षा प्राप्त करने, चिकित्सक या मानव संसाधन मंत्री बनने के इच्छुक छात्रों से प्रथम वरीयता पाकर ऐसे महाविद्यालय हेमामालिनी के गालों की तरह चिकनी सड़कें बनाने, कलम तराजू और तलवार को जूते मारने, अगणित कपडे और पादुकाएँ जुटाने, अपनी प्रतिमा आप लगवाने, दामाद को रोडपति से करोड़पति बनाने के विशेष पाठ्य चलाकर देवानंद की तरह सदाबहार हो ही जायेंगे, इसमें संदेह नहीं।
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