प्राक्कथन-
"जब से मन की नाव चली" नवगीत लहरियाँ लगें भली
आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
*
[पुस्तक विवरण- जब से मन की नाव चली, नवगीत संग्रह, डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', वर्ष २०१६, पृषठ १०८, मूल्य १००/-, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, अनुष्टुप प्रकाशन, १३ गायत्री नगर, सोडाला, जयपुर ३२४००६, दूरभाष ०१४१ २४५०९७१, नवगीतकार संपर्क ०७४४ २४२४८१८, ९४६२१८२८१७]
गीतिकाव्य की अन्विति जीवन के सहज-सरस् रागात्मक उच्छवास से संपृक्त होती है। "लय" गीति का उत्स है। खेत में धान की बुवाई करती महिलायें हों या किसी भारी पाषाण को ढकेलता श्रमिक दल, देवी पूजती वनिताएँ हों या चौपाल पर ढोलक थपकाते सावन की अगवानी करते लोक गायक बिना किसी विशिष्ट अध्ययन या प्रशिक्षण के "लय" में गाते-झूमते आनंदित होते हैं। बंबुलिया हो या कजरी, फाग हो या राई, रास हो या सोहर, जस हों या काँवर गीत जान-मन हर अवसर पर नाद, ताल और सुर साधकर "लय" की आराधना में लीन हो आत्मानंदित हो जाता है।
गीतिकाव्य की अन्विति जीवन के सहज-सरस् रागात्मक उच्छवास से संपृक्त होती है। "लय" गीति का उत्स है। खेत में धान की बुवाई करती महिलायें हों या किसी भारी पाषाण को ढकेलता श्रमिक दल, देवी पूजती वनिताएँ हों या चौपाल पर ढोलक थपकाते सावन की अगवानी करते लोक गायक बिना किसी विशिष्ट अध्ययन या प्रशिक्षण के "लय" में गाते-झूमते आनंदित होते हैं। बंबुलिया हो या कजरी, फाग हो या राई, रास हो या सोहर, जस हों या काँवर गीत जान-मन हर अवसर पर नाद, ताल और सुर साधकर "लय" की आराधना में लीन हो आत्मानंदित हो जाता है।
यह "लय" ही वेदों का ''पाद'' कहे गए "छंद" का प्राण है। किसी ज्येष्ठ-श्रेष्ठ का आशीष पड़-स्पर्श से ही प्राप्त होता है। ज्ञान मस्तिष्क में, ज्योति नेत्र में, प्राण ह्रदय मे, बल हाथ में होने पर भी "पाद" बिना संचरण नहीं हो सकता। संचरण बिना संपर्क नहीं, संपर्क बिना आदान-प्रदान नहीं, इसलिए "पिंगल"-प्रणीत छंदशास्त्र वेदों का पाद है। आशय यह की छन्द अर्थात "लय" साढ़े बिना वेदों की ऋचाओं के अर्थ नहीं समझे जा सकते। जनगण ने आदि काल से "लय" को साधा जिसे समझकर नियमबद्ध करते हुए "पिंगलशास्त्र" की रचना हुई। लोकगीति नियमबद्ध होकर छन्द और गीत हो गयी। समयानुसार बदलते कथ्य-तथ्य को अगीकार करती गीत की विशिष्ट भावभंगिमा "नवगीत" कही गयी।
स्वतन्त्रता पश्चात सत्तासीन दल ने एक विशेष विचारधारा के प्रति आकर्षण वश उसके समर्थकों को शिक्षा संस्थानों में वरीयता दी। फलत: योजनाबद्ध तरीके से विकसित होती हिंदी साहित्य विधाओं में लेखन और मानक निर्धारण करते समय उस विचारधारा को थोपने का प्रयास कर समाज में व्याप्त विसंगति, विडंबना अतिरेकी दर्द, पीड़ा, वैमनस्य, टकराव, ध्वंस आदि को नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य तथा दृश्य माध्यमों नाटक, फिल्म आदि में न केवल वरीयता दी गयी अपितु समाज में व्याप्त सौहार्द्र, सद्भाव, राष्ट्रीयता, प्रकृति-प्रेम, सहिष्णुता, रचनात्मकता को उपेक्षित किया गया। इस विचारधारा से बोझिल होकर तथाकथित प्रगतिशील कविता ने दम तोड़ दिया जबकि गीत के मरण की छद्म घोषणा करनेवाले भले ही मर गए हों, गीत नव चेतना से संप्राणित होकर पुनर्प्रतिष्ठित हो गया। अब प्रगतिवादी गीत की नवगीतीय भाव-भंगिमा में घुसपैठ करने के प्रयास में हैं। वैदिक ऋचाओं से लेकर संस्कृत काव्य तक और आदिकाल से लेकर छायावाद तक लोकमंगल की कामना को सर्वोपरि मानकर रचनाकर्म करते गीतकारों ने ''सत-शिव-सुन्दर'' और ''सत-चित-आनंद'' की प्राप्ति का माध्यम ''गीत'' और ''नवगीत'' को बनाये रखा।
यह सत्य है कि जब-जब दीप प्रज्वलित किया जाता है, 'तमस' उसके तल में आ ही जाता है किन्तु आराधना 'उजास' की ही की जाती है। इस मर्म को जान और समझकर रचनाकर्म में प्रवृत्त रहनेवाले साहित्य साधकों में वीर भूमि राजस्थान की शिक्षा नगरी कोटा के डॉ. गोपालकृष्ण भट्ट "आकुल" की कृति "जब मन की नाव चली" की रचनाएँ आश्वस्त करती हैं कि तमाम युगीन विसंगतियों पर उनके निराकरण के प्रयास और नव सृजन की जीजीविषा भारी है।
कल था मौसम बौछारों का / आज तीज औ' त्योहारों का
रंग-रोगन बन्दनवारों का / घर-घर जा बंजारन नित
इक नवगीत सुनाती जाए।
यह बनजारन क्या गायेगी?, टकराव, बिखराव, द्वेष, दर्द या हर्ष, ख़ुशी, उल्लास, आशा, बधाई? इस प्रश्न के उठते में ही नवगीत का कथ्य इंगित होगा। आकुल जी युग की पीड़ा से अपरिचित नहीं हैं।
कलरव करते खग संकुल खुश / अभिनय करते मौसम भी खुश
समय-चक्र का रुके न पहिया / प्रेम-शुक्र का वही अढैया
छोटी करने सौर मनुज की / फिर फुसलायेगा इस बार
'ढाई आखर' पढ़ने वाले को पण्डित मानाने की कबीरी परंपरा की जय बोलता कवि विसंगति को "स्वर्णिक मृग, मृग मरीचिका में / फिर दौड़ाएगा इस बार" से इंगित कर सचेत भी करता है।
महाभारत के महानायक करना पर आधारित नाटक प्रतिज्ञा, गीत-ग़ज़ल संग्रह पत्थरों का शहर, काव्य संग्रह जीवन की गूँज, लघुकथा संग्रह अब रामराज्य आएगा, गीत संग्रह नव भारत का स्वप्न सजाएँ रच चुके आकुल जी के ४५ नवगीतों से समृद्ध यह संकलन नवगीत को साम्यवादी चश्मे से देखनेवालों को कम रुचने पर भी आम पाठकों और साहित्यप्रेमियों से अपनी 'कहन' और 'कथ्य' के लिए सराहना पायेगा।
आकुल जी विपुल शब्द भण्डार के धनी हैं। तत्सम-तद्भव शब्दों का यथेचित प्रयोग उनके नवगीतों को अर्थवत्ता देता है। संस्कृत निष्ठ शब्द (देवोत्थान, मधुयामिनी, संकुल, हश्र, मृताशौच, शावक, वाद्यवृंद, बालवृन्द, विषधर, अभ्यंग, भानु, वही, कृशानु, कुसुमाकाशी, उदधि, भंग, धरणीधर, दिव्यसन, जाज्वल्यमान, विलोड़न, द्रुमदल, झंकृत, प्रत्यंचा, जिगीषा, अतिक्रम संजाल, उच्छवासा, दावानल, जठरानल, हुतात्मा, संवत्सर, वृक्षावलि, इंदीवर आदि), उर्दू से गृहीत शब्द (रिश्ते, कदम, मलाल, शिकवा, तहजीब, शाबाशी, अहसानों, तल्ख, बरतर, मरहम, बरकत, तबके, इंसां, सहर, ज़मीर, सगीर, मन्ज़िल, पेशानी, मनसूबे, जिरह, ख्वाहिश, उम्मीद, वक़्त, साजिश, तमाम, तरफ, पयाम, तारिख, असर, ख़ामोशी, गुज़र आदि ), अंग्रेजी शब्द (स्वेटर, कोट, मैराथन, रिकॉल आदि), देशज शब्द (अँगना, बिजुरिया। कौंधनि, सौर, हरसे, घरौंदे, बिझौना, अलाई, सैं, निठुरिया, चुनरिया, बिजुरिया, उमरिया, छैयाँ आदि) रचनाओं में विविध रंग-वर्ण की सुमनों की तरह सुरुचिपूर्वक गूँथे गये हैं। कुछ कम प्रचलित शब्द-प्रयोग के माध्यम से आकुल जी पाठक के शब्द-भण्डार को को समृद्ध करते हैं।
मुहावरे भाषा की संप्रेषण शक्ति के परिचायक होते हैं। आकुल जी ने 'घर का भेदी / कहीं न लंका ढाए', 'मिट्टी के माधो', 'अधजल गगरी छलकत जाए', 'मत दुखती रग कोई आकुल' जैसे प्रयोगों से अपने नवगीतों को अलंकृत किया है। इन नवगीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग सरसता में वृद्धि करता है। कस-बल, रंग-रोगन, नार-नवेली, विष-अमरित, चारु-चन्द्र, घटा-घनेरी, जन-निनाद, बेहतर-कमतर, क्षुण्ण-क्षुब्ध, भक्ति-भाव, तकते-थकते, सुख-समृद्धि, लुटा-पिटा,बाग़-बगीचे, हरे-भरे, ताल-तलैया, शाम-सहर, शिकवे-जिले, हार-जीत, खाते-पीते, गिरती-पड़ती, छल-कपट, आब-हवा, रीति-रिवाज़, गर्म-नाज़ुक, लोक-लाज, ऋषि-मुनि-सन्त, गंगा-यमुनी, द्वेष-कटुता आदि ऐसे शब्द युग्म हैं जिन्हें अलग करने पर दोनों भाग सार्थक रहते हैं जबकि कनबतियाँ, छुटपुट, गुमसुम आदि को विभक्त करने पर एक या दोनों भाग अर्थ खो बैठते हैं। ऐसे प्रयोग रचनाकार की भाषिक प्रवीणता के परिचायक हैं।
इन नवगीतों में अन्त्यानुप्रास अलंकारों का प्रयोग निर्दोष है। 'मनमथ पिघला करते', नील कंठ' आदि में श्लेष अलंकार का प्रयोग है। पहिया-अढ़ईया, बहाए-लगाये-जाए, जतायें-सजाएँ, भ्रकुटी-पलटी-कटी जैसे अंत्यानुप्रासिक प्रयोग नवता की अनुभूति कराते हैं। लाय, कलिंदी, रुत, क्यूँ, सुबूह, पैंजनि, इक, हरसायेगी, सरदी, सकरंत, ढाँढस आदि प्रयोग प्रचलित से हटकर किये गए हैं। दूल्हा राग बसन्त, आल्हा राग बसन्त, मेघ बजे नाचे बिजुरी, जिगिषा का दंगल, पीठ अलाई गीले बिस्तर, हाथ बिझौना रात न छूटे जैसे प्रयोग आनंदित करते हैं।
आकुल जी की अनूठी कहन 'कम शब्दों में अधिक कहने' की सामर्थ्य रखती है। नवगीतों की आधी पंक्ति में ही वे किसी गंभीर विषय को संकेतित कर मर्म की बात कह जाते हैं। 'हुई विदेशी अब तो धरती', 'नेता तल्ख सवालों पर बस हँसते-बँचते', 'कितनी मानें मन्नत घूमें काबा-काशी', 'कोई तो जागृति का शंख बजाने आये',वेद पुराण गीता कुरआन / सब धरे रेहल पर धूल चढ़ी', 'मँहगाई ने सौर समेटी', 'क्यूँ नारी का मान न करती', 'आये-गये त्यौहार नहीं सद्भाव बढ़े', 'किसे राष्ट्र की पड़ी बने सब अवसरवादी', 'शहरों की दीवाली बारूदों बीच मनाते', 'वैलेंटाइन डे में लोग वसंतोत्सव भूले', अक्सर लोग कहा करते हैं / लोक-लुभावन मिसरे', समय भरेगा घाव सभी' आदि अभिव्यक्तियाँ लोकोक्तियों की तरह जिव्हाग्र पर आसीन होने की ताब रखती हैं।
उलटबाँसी कहने की कबीरी विरासत 'चलती रहती हैं बस सड़कें, हम सब तो बस ठहरे-ठहरे' जैसी पंक्तियों में दृष्टव्य है। समय के सत्य को समझ-परखकर समर्थों को चेतावनी देने के कर्तव्य निभाने से कवि चूका नहीं है- 'सरहदें ही नहीं सुलग रहीं / लगी है आग अंदर भी' क्या इस तरह की चेतावनियों को वे समझ सकेंगे, जिनके लिए इन्हें अभिव्यक्त किया गया है ? नहीं समझेंगे तो धृतराष्ट्री विनाश को आमन्त्रित करेंगे।आकुल जी ने 'अंगद पाँव अनिष्ट ने जमाया है', कर्मण्य बना है वो, पढ़ता रहा जो गीता' की तरह मिथकों का प्रयोग यथावसर किया है। वे वरिष्ठ रचनाकार हैं।
हिंदी छंद के प्रति उनका आग्रह इन नवगीतों को सरस बनाता है। अवतारी जातीय दिगपाल छंद में पदांत के लघु गुरु गुरु में अंतिम गुरु के स्थान पर कुछ पंक्तियों में दो लघु लेने की छूट उन्होंने 'किससे क्या है शिकवा' शीर्षक रचना में ली है। 'दूल्हा राग बसन्त' शीर्षक नवगीत का प्रथम अंतरा नाक्षत्रिक जातीय सरसी छंद में है किन्तु शेष २ अंतरों में पदांत में गुरु-लघु के स्थान पर गुरु-गुरु कर दिया गया है। 'खुद से ही' का पहले - तीसरा अंतरा महातैथिक जातीय रुचिर छन्द में है किन्तु दुआरे अंतरे में पदांत के गुरु के स्थान पर लघु आसीन है। संभवत: कवि ने छन्द-विधान में परिवर्तन के प्रयोग करने चाहे, या ग़ज़ल-लेखन के प्रभाव से ऐसा हुआ। किसी रचना में छंद का शुद्ध रूप हो तो वह सीखने वालों के लिये पाठ हो पाती है।
आकुल जी की वरिष्ठता उन्हें अपनी राह आप बनाने की ओर प्रेरित करती है। नवगीत की प्रचलित मान्यतानुसार 'हर नवगीत गीत होता है किन्तु हर गीत नवगीत नहीं होता' जबकि आकुल जी का मत है ''सभी गीत नवगीत हो सकते हैं किन्तु सभी नवगीत गीत नहीं कहे जा सकते" (नवभारत का स्वप्न सजाएँ, पृष्ठ ८)। यहाँ विस्तृत चर्चा अभीष्ट नहीं है पर यह स्पष्ट है कि आकुल जी की नवगीत विषयक धारणा सामान्येतर है। उनके अनुसार "कविता छान्दसिक स्वरूप है जिसमें मात्राओं का संतुलन उसे श्रेष्ठ बनाता है, जबकि गीत लय प्रधान होता है जिसमें मात्राओं का सन्तुलन छान्दसिक नहीं अपितु लयात्मक होता है। गीत में मात्राओं को ले में घटा-बढ़ाकर सन्तुलित किया जाता है जबकि कविता मात्राओं मन ही सन्तुलित किये जाने से लय में पीढ़ी जा सकती है। इसीलिये कविता के लिए छन्दानुशासन आवश्यक है जबकि 'गीत' लय होने के कारण इस अनुशाशन से मुक्त है क्योंकि वह लय अथवा ताल में गाया जाकर इस कमी को पूर्ण कर देता है। गीत में भले ही छन्दानुशासन की कमी रह सकती है किन्तु शब्दों का प्रयोग लय के अनुसार गुरु व् लघु वर्ण के स्थान को अवश्य निश्चित करता है जो छन्दानुशासन का ही एक भाग है, जिसकी कमी से गीत को लयबद्ध करने में मुश्किलें आती हैं।" (सन्दर्भ उक्त)
''जब से मन की नाव चली'' के नवगीत आकुल जी के उक्त मंतव्य के अनुसार ही रचे गए हैं। उनके अभिमत से असहमति रखनेवाले रचनाकार और समीक्षक छन्दानुशासन की कसौटी पर इनमें कुछ त्रुटि इंगित करें तो भी इनका कथ्य इन्हें ग्रहणीय बनाने के लिए पर्याप्त है। किसी रचना या रचना-संग्रह का मूल्यांकन समग्र प्रभाव की दृष्टि से करने पर ये रचनाएँ सारगर्भित, सन्देशवाही, गेयात्मक, सरस तथा सहज बोधगम्य हैं। इनका सामान्य पाठक जगत में स्वागत होगा। समीक्षकगण चर्चा के लिए पर्याप्त बिंदु पा सकेंगे तथा नवगीतकार इन नवगीतों के प्रचलित मानकों के धरातल पर अपने नवगीतों के साथ परखने का सुख का सकेंगे। सारत: यह कृति विद्यार्थी, रचनाकार और समीक्षक तीनों वर्गों के लिए उपयोगी होगी।
आकुल जी की वरिष्ठ कलम से शीघ्र ही अन्य रचनारत्नों की प्राप्ति की आशा यह कृति जगाती है। आकुल जी के प्रति अनंत-अशेष शुभकामनायें।
मुहावरे भाषा की संप्रेषण शक्ति के परिचायक होते हैं। आकुल जी ने 'घर का भेदी / कहीं न लंका ढाए', 'मिट्टी के माधो', 'अधजल गगरी छलकत जाए', 'मत दुखती रग कोई आकुल' जैसे प्रयोगों से अपने नवगीतों को अलंकृत किया है। इन नवगीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग सरसता में वृद्धि करता है। कस-बल, रंग-रोगन, नार-नवेली, विष-अमरित, चारु-चन्द्र, घटा-घनेरी, जन-निनाद, बेहतर-कमतर, क्षुण्ण-क्षुब्ध, भक्ति-भाव, तकते-थकते, सुख-समृद्धि, लुटा-पिटा,बाग़-बगीचे, हरे-भरे, ताल-तलैया, शाम-सहर, शिकवे-जिले, हार-जीत, खाते-पीते, गिरती-पड़ती, छल-कपट, आब-हवा, रीति-रिवाज़, गर्म-नाज़ुक, लोक-लाज, ऋषि-मुनि-सन्त, गंगा-यमुनी, द्वेष-कटुता आदि ऐसे शब्द युग्म हैं जिन्हें अलग करने पर दोनों भाग सार्थक रहते हैं जबकि कनबतियाँ, छुटपुट, गुमसुम आदि को विभक्त करने पर एक या दोनों भाग अर्थ खो बैठते हैं। ऐसे प्रयोग रचनाकार की भाषिक प्रवीणता के परिचायक हैं।
इन नवगीतों में अन्त्यानुप्रास अलंकारों का प्रयोग निर्दोष है। 'मनमथ पिघला करते', नील कंठ' आदि में श्लेष अलंकार का प्रयोग है। पहिया-अढ़ईया, बहाए-लगाये-जाए, जतायें-सजाएँ, भ्रकुटी-पलटी-कटी जैसे अंत्यानुप्रासिक प्रयोग नवता की अनुभूति कराते हैं। लाय, कलिंदी, रुत, क्यूँ, सुबूह, पैंजनि, इक, हरसायेगी, सरदी, सकरंत, ढाँढस आदि प्रयोग प्रचलित से हटकर किये गए हैं। दूल्हा राग बसन्त, आल्हा राग बसन्त, मेघ बजे नाचे बिजुरी, जिगिषा का दंगल, पीठ अलाई गीले बिस्तर, हाथ बिझौना रात न छूटे जैसे प्रयोग आनंदित करते हैं।
आकुल जी की अनूठी कहन 'कम शब्दों में अधिक कहने' की सामर्थ्य रखती है। नवगीतों की आधी पंक्ति में ही वे किसी गंभीर विषय को संकेतित कर मर्म की बात कह जाते हैं। 'हुई विदेशी अब तो धरती', 'नेता तल्ख सवालों पर बस हँसते-बँचते', 'कितनी मानें मन्नत घूमें काबा-काशी', 'कोई तो जागृति का शंख बजाने आये',वेद पुराण गीता कुरआन / सब धरे रेहल पर धूल चढ़ी', 'मँहगाई ने सौर समेटी', 'क्यूँ नारी का मान न करती', 'आये-गये त्यौहार नहीं सद्भाव बढ़े', 'किसे राष्ट्र की पड़ी बने सब अवसरवादी', 'शहरों की दीवाली बारूदों बीच मनाते', 'वैलेंटाइन डे में लोग वसंतोत्सव भूले', अक्सर लोग कहा करते हैं / लोक-लुभावन मिसरे', समय भरेगा घाव सभी' आदि अभिव्यक्तियाँ लोकोक्तियों की तरह जिव्हाग्र पर आसीन होने की ताब रखती हैं।
उलटबाँसी कहने की कबीरी विरासत 'चलती रहती हैं बस सड़कें, हम सब तो बस ठहरे-ठहरे' जैसी पंक्तियों में दृष्टव्य है। समय के सत्य को समझ-परखकर समर्थों को चेतावनी देने के कर्तव्य निभाने से कवि चूका नहीं है- 'सरहदें ही नहीं सुलग रहीं / लगी है आग अंदर भी' क्या इस तरह की चेतावनियों को वे समझ सकेंगे, जिनके लिए इन्हें अभिव्यक्त किया गया है ? नहीं समझेंगे तो धृतराष्ट्री विनाश को आमन्त्रित करेंगे।आकुल जी ने 'अंगद पाँव अनिष्ट ने जमाया है', कर्मण्य बना है वो, पढ़ता रहा जो गीता' की तरह मिथकों का प्रयोग यथावसर किया है। वे वरिष्ठ रचनाकार हैं।
हिंदी छंद के प्रति उनका आग्रह इन नवगीतों को सरस बनाता है। अवतारी जातीय दिगपाल छंद में पदांत के लघु गुरु गुरु में अंतिम गुरु के स्थान पर कुछ पंक्तियों में दो लघु लेने की छूट उन्होंने 'किससे क्या है शिकवा' शीर्षक रचना में ली है। 'दूल्हा राग बसन्त' शीर्षक नवगीत का प्रथम अंतरा नाक्षत्रिक जातीय सरसी छंद में है किन्तु शेष २ अंतरों में पदांत में गुरु-लघु के स्थान पर गुरु-गुरु कर दिया गया है। 'खुद से ही' का पहले - तीसरा अंतरा महातैथिक जातीय रुचिर छन्द में है किन्तु दुआरे अंतरे में पदांत के गुरु के स्थान पर लघु आसीन है। संभवत: कवि ने छन्द-विधान में परिवर्तन के प्रयोग करने चाहे, या ग़ज़ल-लेखन के प्रभाव से ऐसा हुआ। किसी रचना में छंद का शुद्ध रूप हो तो वह सीखने वालों के लिये पाठ हो पाती है।
आकुल जी की वरिष्ठता उन्हें अपनी राह आप बनाने की ओर प्रेरित करती है। नवगीत की प्रचलित मान्यतानुसार 'हर नवगीत गीत होता है किन्तु हर गीत नवगीत नहीं होता' जबकि आकुल जी का मत है ''सभी गीत नवगीत हो सकते हैं किन्तु सभी नवगीत गीत नहीं कहे जा सकते" (नवभारत का स्वप्न सजाएँ, पृष्ठ ८)। यहाँ विस्तृत चर्चा अभीष्ट नहीं है पर यह स्पष्ट है कि आकुल जी की नवगीत विषयक धारणा सामान्येतर है। उनके अनुसार "कविता छान्दसिक स्वरूप है जिसमें मात्राओं का संतुलन उसे श्रेष्ठ बनाता है, जबकि गीत लय प्रधान होता है जिसमें मात्राओं का सन्तुलन छान्दसिक नहीं अपितु लयात्मक होता है। गीत में मात्राओं को ले में घटा-बढ़ाकर सन्तुलित किया जाता है जबकि कविता मात्राओं मन ही सन्तुलित किये जाने से लय में पीढ़ी जा सकती है। इसीलिये कविता के लिए छन्दानुशासन आवश्यक है जबकि 'गीत' लय होने के कारण इस अनुशाशन से मुक्त है क्योंकि वह लय अथवा ताल में गाया जाकर इस कमी को पूर्ण कर देता है। गीत में भले ही छन्दानुशासन की कमी रह सकती है किन्तु शब्दों का प्रयोग लय के अनुसार गुरु व् लघु वर्ण के स्थान को अवश्य निश्चित करता है जो छन्दानुशासन का ही एक भाग है, जिसकी कमी से गीत को लयबद्ध करने में मुश्किलें आती हैं।" (सन्दर्भ उक्त)
''जब से मन की नाव चली'' के नवगीत आकुल जी के उक्त मंतव्य के अनुसार ही रचे गए हैं। उनके अभिमत से असहमति रखनेवाले रचनाकार और समीक्षक छन्दानुशासन की कसौटी पर इनमें कुछ त्रुटि इंगित करें तो भी इनका कथ्य इन्हें ग्रहणीय बनाने के लिए पर्याप्त है। किसी रचना या रचना-संग्रह का मूल्यांकन समग्र प्रभाव की दृष्टि से करने पर ये रचनाएँ सारगर्भित, सन्देशवाही, गेयात्मक, सरस तथा सहज बोधगम्य हैं। इनका सामान्य पाठक जगत में स्वागत होगा। समीक्षकगण चर्चा के लिए पर्याप्त बिंदु पा सकेंगे तथा नवगीतकार इन नवगीतों के प्रचलित मानकों के धरातल पर अपने नवगीतों के साथ परखने का सुख का सकेंगे। सारत: यह कृति विद्यार्थी, रचनाकार और समीक्षक तीनों वर्गों के लिए उपयोगी होगी।
आकुल जी की वरिष्ठ कलम से शीघ्र ही अन्य रचनारत्नों की प्राप्ति की आशा यह कृति जगाती है। आकुल जी के प्रति अनंत-अशेष शुभकामनायें।
*
संपर्क समन्वय २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com,
दूरवार्ता ९४२५१ ८३२४४ / ०७६१ २४१११३१
-------------------------
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें