मुक्तक
*
था सरोवर, रह गया पोखर महज क्यों आदमी?
जटिल क्यों?, मिलता नहीं है अब सहज क्यों आदमी?
काश हो तालाब शत-शत कमल शतदल खिल सकें-
आदमी से गले मिलकर 'सलिल' खुश हो आदमी।।
*
राजनीति पोखर हुई, नेता जी टर्राय
कुर्सी की गर्मी चढ़ी, आँय-बाँय बर्राय
वादों को जुमला कहें, कहें झूठ को साँच
कोसें रोज विपक्ष को, पद-मद से गर्राय
*
बदला है तालाब का पानी प्रिय दुष्यंत
जैसे रहे विदेश में वैसे घर में कंत
किस-किस को हम दोष दें?, सभी एक से एक
अपनी करनी सुधारें, नहीं शेष में तंत
*
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था सरोवर, रह गया पोखर महज क्यों आदमी?
जटिल क्यों?, मिलता नहीं है अब सहज क्यों आदमी?
काश हो तालाब शत-शत कमल शतदल खिल सकें-
आदमी से गले मिलकर 'सलिल' खुश हो आदमी।।
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राजनीति पोखर हुई, नेता जी टर्राय
कुर्सी की गर्मी चढ़ी, आँय-बाँय बर्राय
वादों को जुमला कहें, कहें झूठ को साँच
कोसें रोज विपक्ष को, पद-मद से गर्राय
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बदला है तालाब का पानी प्रिय दुष्यंत
जैसे रहे विदेश में वैसे घर में कंत
किस-किस को हम दोष दें?, सभी एक से एक
अपनी करनी सुधारें, नहीं शेष में तंत
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