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गुरुवार, 18 जून 2015

dohe: sanjiv

दोहा के रंग बाल के संग 
संजीव  
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बाल-बाल जब भी बचें, कहें देव! आभार 
बाल न बांका हो कभी कृपा करें सरकार 
बाल खड़े हों जब कभी, प्रभु सुमिरें मनमीत 
साहस कर उठ हों खड़े, भय पर पायें जीत 
नहीं धूप में किये हैं, हमने बाल सफेद
जी चाहा जीभर लिखा, किया न किंचित खेद 
सुलझा काढ़ो ऊँछ लो, पटियां पारो खूब 
गूंथौ गजरा बाल में, प्रिय हेरे रस-डूब 
बाल न बढ़ते तनिक भी, बाल चिढ़ाते खूब 
तू न तरीका बताती, जाऊँ नदी में डूब 
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बाल होलिका-ज्वाल में, बाल भूनते साथ 
दीप बाल, कर आरती, नवा रहे हैं माथ 
बाल मुँड़ाने से अगर, मिटता मोह-विकार 
हो जाती हर भेद तब, भवसागर के पार
बाल और कपि एक से, बाल-वृद्ध हैं एक 
वृद्ध और कपि एक क्यों, माने नहीं विवेक?
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बाल बनाते जा रहे, काट-गिराकर बाल
सर्प यज्ञ पश्चात ज्यों, पड़े अनगिनत व्याल 
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बाल बढ़ें लट-केश हों, मिल चोटी हों झूम
नागिन सम लहर रहे, बेला-वेणी चूम
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अगर बाल हो तो 'सलिल', रहो नाक के बाल 
मूंछ-बाल बन तन रखो, हरदम उन्नत भाल 
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भौंह-बाल तन चाप सम, नयन बाण दें मार
पल में बिंध दिल सूरमा, करे हार स्वीकार 
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बाल पूंछ का हो रहा, नित्य दुखी हैरान 
धूल हटा, मक्खी भगा, थके-चुके हैरान 
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बाल बराबर भी अगर, नैतिकता हो संग 
कर न सकेगा तब सबल, किसी निबल को तंग 
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बाल भीगकर भीगते, कुंकुम कंचन देह 
कंगन-पायल मुग्ध लख, बिन मौसम का मेह 
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गिरें खुद-ब-खुद तो नहीं, देते किंचित पीर 
नोचें-तोड़ें बाल तो, हों अधीर पा पीर 
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