मुक्तक  : 
संजीव 
*
गले में हँस विष धरा, विषधर लपेटा है 
करें मंगल, सब अमंगल हँस समेटा है 
पूजते हैं काल को हम देवता कहकर 
रुष्ट जिस पर हुए उसको तुरत मेटा है
*
घोलकर चीनी करें स्वागत हमेशा हम 
करें स्वागत तो कहें हम जोर से बम-बम 
बम-धमाकों के मसीहा चेत भी जाओ 
चाह लें तो तुम्हारा तम-गम न होगा कम 
* 
रूप की जब धूप निकले छाँह में जाओ 
रूपसी यदि चाहती हो बाँह में जाओ 
निमंत्रण पाया नहीं, मुड देख मत उस ओर 
आत्म में परमात्म लखकर जोर से गाओ 
* 
गले से जिसको लगाया जगे उसके भाग 
की तनिक नफरत बने हम एक पल में आग 
 रागरंजित फाग गाकर पालते अनुराग 
 दगा देता जो उसे बन नाग देते दाग 
* 
 
 
3 टिप्पणियां:
Ram Gautam gautamrb03@yahoo.com
आ. आचार्य 'सलिल' जी,
प्रणाम:
शिव की मंगल कामना में भी आपने शृंगार का पुट दिया,
लगता है जल्दी में मुक्तक लिखे गये हैं जहां शिव, स्वागत,
सिंगार, रागरंज़िस का प्रयोग अच्छा लगा, साधुवाद !!!
सादर- आरजी
Ram Gautam gautamrb03@yahoo.com
आ. आचार्य 'सलिल' जी,
प्रणाम:
शिव की मंगल कामना में भी आपने शृंगार का पुट दिया,
लगता है जल्दी में मुक्तक लिखे गये हैं जहां शिव, स्वागत,
सिंगार, रागरंज़िस का प्रयोग अच्छा लगा, साधुवाद !!!
सादर- आरजी
शिव जी ही अनुराग हैं, शिव जी ही वैराग
भोग-योग पर्याय हैं, हिम पर बसकर आग
जगजननी-जगपिता की, रति- मति कहे न मौन
दशमुख-कालीदास के, सिवा कह सका कौन?
सलिल धन्य पग पखारे, गौतम हों या राम
कृपा-दृष्टि पा कर तरे, धरा बने सुरधाम
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