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गुरुवार, 27 जून 2013

Book review: sharm inko magar naheen aati (hindi sattire) by- saaz jabalpuri critic: acharya sanjiv verma 'salil'


कृति चर्चा :

शर्म  इनको  नहीं आती - मर्मस्पर्शी व्यंग्य संग्रह  
संजीव
*
                     

[कृति विवरण: शर्म इनको मगर नहीं आती, व्यंग्य लेख संग्रह, साज  जबलपुरी, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी-पेपरबैक, पृष्ठ १०४, मूल्य २०० रु., सारंग प्रकाशन जबलपुर ]

'शर्म इनको मगर नहीं आती' साज के ४३ चुनिन्दा व्यंग्य लेखों का संकलन है जो दैनिक समाचार पत्र देशबंधु जबलपुर में अक्टूबर २००६ से अप्रैल २००८ के मध्य प्रकाशित हुए थे। स्वाभाविक है कि इन लेखों के विषय आम आदमी के दुःख-दर्द, देश की समस्याओं, सामाजिक सरोकारों तथा व्यवस्थाजन्य विषमताओं और  विद्रूपताओं से सम्बंधित हों। 

शब्द की धार और मार तलवार से अधिक होती है। कहते हैं: जहाँ न जाए रवि वहां जाए कवि। साज जबलपुरी कवि, लेखक, संपादक, प्रकाशक, समीक्षक यानी बहुमुखी प्रतिभा के धनी-बहुआयामी कृतित्व के धनी  रहे हैं। कवि के नाते बात कहने का सलीका, लेखक के नाते विषय का चयन, संपादक के नाते अनावश्यक से परहेज़ प्रकाशक के नाते सुरुचिपूर्ण प्रस्तुतीकरण और समीक्षक के नाते त्रुटियों का पूर्वानुमान कर निराकरण उनके सृजन को विशेष बना देता है।  

साज़ के लिए लेखन शौक और विवशता दोनों रहा है। शौक के नाते लेखन ने उन्हें आत्मतुष्टि और यश दिया तो विवशता के नाते आर्थिक संबल और मानसिक मजबूती। साज़ की कलम बतौर शगल कम और बतौर जिद अधिक चली है। जिद गलत से जूझने की, जद्दोजहद हाथ खाली रहने पर भी किसी जरूरतमंद की मदद करने की। यह मदद कभीकभी अर्थी और अधिकतर साहित्यिक या बौद्धिक होती थी। आम रचनाकार से लेकर आई.ए.एस. अफसर तक उनके मुरीद रहे हैं। 

दिली ज़ज्बात से मजबूर होकर कलम थमते साज़ कमियों और कुरीतियों के नासूरों को  पूरी निर्ममता के साथ चीरते वक़्त हमेशा सजग होते थे कि  तो हो पर मरीज़ को दर्द कम से कम हो। उनकी ज़हनियत और बात कहने के सलीके पर पाठक एक साथ आह भरने और वाह करने पर विवश हो जाता था। 

'चाल के साथ चलन का ठीक होना भी जरूरी है' साज़ की इस मान्यता से असहमति की कोइ गुंजाइश नहीं है। विवेच्य संकलन के सभी लेख ज़माने की चाल और आदमी के चलन को लेखर उन्हें बेहतर बनाने के नज़रिए से लिखे गया हैं। माँ की उपेक्षा, पुलिस की कार्य-प्रणाली, देह-व्यापार, दूषित राजनीति, जलसंरक्षण, हरियाली, धार्मिक आडम्बर, पर्यावरण, व्यक्ति पूजा, राष्ट्रीयता, गाँधी वध, अंध विश्वास संबंधों से मिटता अपनापन, गुटखा सेवन और थूकना, मीडिया, फ़िल्में, संसद, नैतिकता का ह्रास, व्यक्तित्वों का बौनापन पाश्चात्य दुष्प्रभाव आदि विषयों के विविध पक्षों को अपने लेखों में उद्घाटित कर पाठक को स्वस्थ्य चिंतन हेतु प्रेरित करने में साज़ सफल रहे हैं। 

अनीति निवारण की कुनैन को नीति पालन के शहद के साथ चटाकर कदाचरण के मलेरिया को उतारने की इन कोशिशों में प्रवाहमयी सहज बोधगम्य भाषा का प्रयोग हितैषी की मुस्कराहट की तरह करते हुए साज़ ने सामने आई हर बाधा को बहुत धीरज से पार किया। साज़ के लेखन की खासियत और खसूसियत विषय से जुडी काव्यपंक्तियों का प्रभावी तरीके से सही जगह पर उपयोग है। ऐसी पंक्तियाँ हिंदी उर्दू, संस्कृत, अंगरेजी या बुंदेली कहीं से ली गयीं हों उनके लेख को ऊंचाई देने के साथ कथ्य को अधिक स्पष्ट कर पाती थीं। साज़ के अश'आर इन लेखों में मुक्तामाल में हीरक मणि की तरह पिरोये होते थे। 
कम से कम लफ़्ज़ों में ज्यादा से ज्यादा कहने में साज़ को महारत हासिल रही।

अपनी प्रतिबद्धता के विषय में वे स्वयं कहते हैं:

शोला-ए-अहसास की मानिंद ताबिंदा रहा
लाख दुनिया ने मिटाया फिर भी मैं जिंदा रहा 
भीख माँगी और इस शाने-खुद्दारी के साथ-
देनेवाला ज़िंदगी भर मुझसे शर्मिंदा रहा 

खामोशी की जुबान शीर्षक लेख में साज़ कहते हैं- 'एक साकित बयान देना है / ज़ब्त का इम्तिहान देना है।' ४ साकित बयानों का यह बोलता हुआ गुलदस्ता समाज के बागीचे से काँटों को दूर करने की दमदार कोशिश है। 

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4 टिप्‍पणियां:

Prakash Govind ने कहा…

Prakash Govind via yahoogroups.com

आदरणीय संजीव 'सलिल' जी

आपने साज जबलपुरी के व्यंग संग्रह की अत्यंत सुन्दर चर्चा की है !
अब इस संग्रह को पढने की उत्सुकता जगी है ... अवश्य पढूंगा !
आभार !!!

सादर

kanu vankoti ने कहा…

Kanu Vankoti

A nice review ''Sanjeev Bhai '' You have written extremely well about his satire . Your language, each word and beautiful expression is soooo gripping.

Kudos !

Kanu

Ram Gautam ने कहा…

Ram Gautam

आ. आचार्य संजीव सलिल जी,
"शर्म इनको मगर नहीं आती"- व्यंग
आपका बहुत आभारी हूँ आपने आ. साज जबलपुरी के 43 व्यंगों- लेखों से परिचय कराया | उनकी शब्द-रचना और अभिव्यक्ति से साफ नज़र आ रहा है कि आ. 'साज' एक शीर्ष के लेखकीय हस्ताक्षर हैं | आपको और आ. साज जबलपुरी जी को हार्दिक बधाई और साधुवाद |
सादर- गौतम

Mukesh Srivastava ने कहा…

Mukesh Srivastava

संजीव जी,
बहुत सधी हुई समालोचना लिखी है. साज़ साहब शक्ल और व्यक्तित्व से भी बहुत नेक व संवेदनशील दिखते है.
इस उम्दा विचाराभिव्यक्ति के लिए हार्दिक साधुवाद,

मुकेश