मुक्तक : अग्नि
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अग्नि न मन की बुझने देना, रखो जला,
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अग्नि न खोती चैन निरर्थक सपनों में।
अग्नि सलिल शीतल को पल में वाष्प करे-
अग्नि न होती क़ैद जगत के नपनों में।।
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अग्नि न दैत्य, न दैव, सलिल को मीत लगे,
अग्नि न माया जाल, सनातन गीत सगे।
अग्नि दीप्ति से दीपित होते सचर-अचर-
अग्नि आत्म-परमात्म पुरातन प्रीत पगे।।*
4 टिप्पणियां:
Shishir Sarabhai <shishirsarabhai@yahoo.com
संजीव भाई,
क्या बात, क्या बात , क्या बात ,
ढेर साधुवाद,
शिशिर
Mukesh Srivastava
बहुत सुन्दर संजीव जी
सादर,
मुकेश
vijay3@comcast.net@yahoogroups.com
संजीव जी,
//अग्नि न मन की बुझने देना, रखो जला,
अग्नि न तन की जलने देना, बुरी बला।
अग्नि पका पक्का करती मृतिका-घट को-
अग्नि शांत तो सूरज देखो, सांझ ढला।।
बहुत ही अच्छे भाव हैं।
बधाई।
सादर,
विजय
kiran via yahoogroups.com
kiran5690472@yahoo.co.in
आ. सलिल जी, अग्नि के सभी रूपों को इस सुन्दर मुक्तक में समेंट लिया आपने
बहुत सुन्दर !!!
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