जीवन की
जय बोल,
धरा का दर्द
तनिक सुन...
तपता सूरज
आँख दिखाता,
जगत जल रहा.
पीर सौ गुनी
अधिक हुई है,
नेह गल रहा.
हिम्मत
तनिक न हार-
नए सपने
फिर से बुन...
निशा उषा
संध्या को छलता
सुख का चंदा.
हँसता है पर
काम किसी के
आये न बन्दा...
सब अपने
में लीन,
तुझे प्यारी
अपनी धुन...
महाकाल के
हाथ जिंदगी
यंत्र हुई है.
स्वार्थ-कामना ही
साँसों का
मन्त्र मुई है.
तंत्र लोक पर,
रहे न हावी
कर कुछ
सुन-गुन...
* * *
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010
नव गीत: जीवन की / जय बोल --संजीव 'सलिल'
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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7 टिप्पणियां:
Amar Jyoti ekavita
सुन्दर!
ahutee@gmail.com
आ० आचार्य जी,
मनुष्य को कर्तव्य का बोध कराता सुन्दर गीत
के लिये साधुवाद |
कमल
आ० आचार्य जी,
मनुष्य को कर्तव्य का बोध कराता सुन्दर गीत
के लिये साधुवाद |
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
kanhaiyakrishna@hotmail.com
वाह-वाह आचार्य जी
-कृष्ण कन्हैया
आदरणीय आचार्य जी,
अच्छा नवगीत है
बधाई!
सादर
अमित
रचनाधर्मिता (http://amitabhald.blogspot.com)
Mob: +919450408917
योगेश स्वप्न
ati uttam/ati sunder.
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