हास्य रचना:
कान बनाम नाक
संजीव 'सलिल'
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शिक्षक खींचे छात्र के साधिकार क्यों कान?
कहा नाक ने: 'मानते क्यों अछूत श्रीमान?
क्यों अछूत श्रीमान? नहीं क्यों मुझे खींचते?
क्यों कानों को लाड-क्रोध से आप मींजते?'
शिक्षक बोला: 'छात्र की अगर खींच लूँ नाक.
कौन करेगा साफ़ यदि बह आएगी नाक?
बह आएगी नाक, नाक पर मक्खी बैठे.
ऊँची नाक हुई नीची तो हुए फजीते.
नाक एक तुम. कान दो, बहुमत का है राज.
जिसकी संख्या हो अधिक सजे शीश पर साज.
सजे शीश पर साज, सभी सम्बन्ध भुनाते.
गधा बाप को और गधे को बाप बताते.
नाक कटे तो प्रतिष्ठा का हो जाता अंत.
कान खींचे तो सहिष्णुता बढती बनता संत.
कान खींचे तो ज्ञान पा आँखें भी खुलतीं.
नाक खींचे तो श्वास बंद हो आँखें मुन्दतीं
कान ज्ञान को बाहर से भीतर पहुँचाते.
नाक बंद अन्दर की दम बाहर ले आते.
आँख, गाल न अधर खिंचाई-सुख पा सकते.
कान खिंचाकर पत्नी से लालू नित हँसते..
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शनिवार, 13 फ़रवरी 2010
हास्य रचना: कान बनाम नाक --संजीव 'सलिल'
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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4 टिप्पणियां:
shakun.bahadur@gmail.com
आ. आचार्य जी,
हास्यप्रद एवं मनोरंजक रचना है। आनन्द आया ।
ahutee@gmail.com
आ० आचार्य जी ,
सुन्दर हास्य रचना के लिये बधाई ! कुछ प्रतिक्रियात्मक -
" कान सुनै सब कुवचन रहें स्वयं चिर-मौन
पकड़ उमेठे जांय नित भला संत अस कौन "
" तनिक नाक को छेड़ दो फिर देखो हुड्दंग
छींक छींक आंसू झरें नाक बहै भदरंग "
सराहना हेतु धन्यवाद. कमल जी आपके दोहे रुचे. आभार.
pratibha_saksena@yahoo.com
आप दोनों की नोक-झोंक ने हास्य को और चमका दिया ,मज़ा दूना हो गया , वैसै कानपुर के वासी अपना पक्ष प्रबल करेंगे ही .
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