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शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

आज की रचना: संजीव 'सलिल'

सत्ता की जय बोलिए, दुनिया का दस्तूर.

सत्ता पा मदमस्त हो, रहें नशे में चूर..
*

है विनाश की दिशा यह, भूल रहे सब जान.

वंशज हम धृतराष्ट्र के, सके न सच पहचान.
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जो निज मन को जीत ले, उसे नमन कर मौन.

निज मन से यह पूछिए, छिपा आपमें कौन?.
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मुझे तुम न भूलीं, मुझे ज्ञात है यह.

तभी तो उषामय, मधुर प्रात है यह..
*


ये बासंती मौसम, हवा में खुनक सी-

परिंदों की चह-चह सा ज़ज्बात है यह..
*


काल ग्रन्थ की पांडुलिपि, लिखता जाने कौन?

जब-जब पूछा प्रश्न यह, उत्तर पाया मौन..
*


जय प्रकाश की बोलिए, मानस होगा शांत.

'सलिल' मिटाकर तिमिर को, पथ पायें निर्भ्रांत..

*

परिंदा नन्हा है छोटे पर मगर है हौसला.

बना ले तूफ़ान में भी, जोड़ तिनका घोंसला..
*


अश्वारोही रश्मि की, प्रभा निहारो मीत.

जीत तिमिर उजियार दे, जग मनभावन रीत..
*


हम 'मैं' बनकर जी रहे, 'तुम' से होकर दूर.

काश कभी 'हम एक' हों, खुसी मिले भरपूर..
*


अनिल अनल भू नभ सलिल, मिल भरते हैं रंग.

समझ न पाता साम्य तो, होता मानव तंग.
*


एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से ज्यादा भारी.


आज नहीं चिर काल से, रहती आयी नारी..
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मैन आप वूमैन वह, किसमें ज्यादा भार?

सत्य जान करिए नमन, करिए पायें प्यार.

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