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गुरुवार, 28 जनवरी 2010

नवगीत / भजन: जाग जुलाहे! --संजीव 'सलिल'

नवगीत / भजन:

संजीव 'सलिल'

जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***

आशा-पंछी चहक रहा है.
सुमन सुरभि ले महक रहा है..
समय बीतते समय न लगता.
कदम रोक, क्यों बहक रहा है?
संयम पहरेदार सो रहा-
सुविधा चतुरा चोर हो गयी.

जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***

साँसों का चरखा तक-धिन-धिन.
आसों का धागा बुन पल-छिन..
ताना-बाना, कथनी-करनी-
बना नमूना खाने गिन-गिन.
ज्यों की त्यों उजली चादर ले-
मन पतंग, तन डोर हो गयी.

जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***

रीते हाथों देख रहा जग.
अदना मुझको लेख रहा जग..
मन का मालिक, रब का चाकर.
शून्य भले अव्रेख रहा जग..
उषा उमंगों की लाली संग-
संध्या कज्जल-कोर हो गयी.

जाग जुलाहे!
भोर हो गयी
***
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

3 टिप्‍पणियां:

dhanraj bagalkot: ने कहा…

apki geet me padke kahi ghoom ne lagata hu sapna dekne lagta hu ki kaash kabhi aisa hota sieji...or itni jaldi kaise soch ke likte hai yeh tu miracle hai.

रंजना … ने कहा…

WAAH... ADWITEEY.... AUR KYA KAHUN.... AAPKI LEKHNI NIHSHABD JO KAR DETI HAI...

Dr. Smt. ajit gupta … ने कहा…

सलिलजी!

बहुत ही अच्‍छी रचना, बधाई।