तसलीस गीतिका:
सूरज
संजीव 'सलिल'
बिना नागा निकलता है सूरज.
कभी आलस नहीं करते देखा.
तभी पाता सफलता है सूरज.
सुबह खिड़की से झांकता सूरज.
कह रहा तंम को जीत लूँगा मैं.
कम नहीं ख़ुद को आंकता सूरज.
उजाला सबको दे रहा सूरज.
कोई अपना न पराया कोई.
दुआएं सबकी ले रहा सूरज.
आँख रजनी से चुराता सूरज.
बांह में एक चाह में दूजी.
आँख ऊषा से लडाता सूरज.
जाल किरणों का बिछाता सूरज.
कोई अपना न पराया कोई.
सभी सोयों को जगाता सूरज.
भोर पूरब में सुहाता सूरज.
दोपहर देखना भी मुश्किल हो.
शाम पश्चिम को सजाता सूरज.
कम निष्काम हर करता सूरज.
मंजिलें नित नयी वरता सूरज.
भाग्य अपना खुदी गढ़ता सूरज.
* * * * *
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com/
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शुक्रवार, 8 जनवरी 2010
तसलीस गीतिका: सूरज --संजीव 'सलिल'
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3 टिप्पणियां:
आदरणीय आचार्य जी
अति सुन्दर !
सादर
प्रताप
आदरणीया आचार्य जी,
इस विधा से मंच को परिचित करने के लिए धन्यवाद!
अच्छी लगी यह रचना.
सादर
अमित
gopal verma
प्रिय सलिलजी
आँख रजनी से चुराता सूरज.
बांह में एक चाह में दूजी.
आँख ऊषा से लडाता सूरज.
सबको यह सीख सिखाता सूरज????????? (saying it just in jest)
स्नेह सहित
ले कर्नल गोपाल वर्मा
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