हैं उमंगें जो सदा नव काम देती हैं हमें.
कोशिशें हों सफल तो अंजाम देती हैं हमें.
तरंगें बनतीं-बिगड़तीं बहें निर्मल हो 'सलिल'-
पतंगें छू गगन को पैगाम देती हैं हमें.
*
सुनो यह पैगाम मत जड़ को कभी भी छोड़ना.
थाम कर लगाम कर में अश्व को तुम मोड़ना.
जहाँ जाना है वहीं के रास्ते पर हों कदम-
भुला कर निज लक्ष्य औरों से करो तुम होड़ ना.
*
लक्ष्य मत भूलो कभी भी, कोशिशें करते रहो.
लक्ष्य पाकर मत रुको, मंजिल नयी वरते रहो.
इरादों की डोर कर में हौसलों की चरखियाँ-
आसमां में पतंगों जैसे 'सलिल' उड़ते रहो.
*
आसमां जब भी छुओ तो ज़मीं पर रखना नज़र.
कौन जाने हवाओं का टूट जाये कब कहर?
जड़ें हों मजबूत बरगद की तरह अपनी 'सलिल'-
अमावस के बाद देखोगे तभी उजली सहर..
*
अमावस के बाद ही पूनम का उजाला होगा.
सघन कितना हो मगर तिमिर तो काला होगा.
'सलिल' कोशिश के चरागों को न बुझने देना-
नियति ने शूल को भी फूल संग पाला होगा..
*
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शुक्रवार, 15 जनवरी 2010
मुक्तक : संजीव 'सलिल'
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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2 टिप्पणियां:
bahut prerna dayak lines hai..
अमावस के बाद ही पूनम का उजाला होगा.
सघन कितना हो मगर तिमिर तो काला होगा.
'सलिल' कोशिश के चरागों को न बुझने देना-
नियति ने शूल को भी फूल संग पाला होगा..
http://som-ras.blogspot.com
ravi ranjan kumar
achh hai . sanskrit ke jankar bahut kam bache hain. aage padhta rahunga. danywad.
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