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शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

मुक्तक : संजीव 'सलिल'

हैं उमंगें जो सदा नव काम देती हैं हमें.
कोशिशें हों सफल तो अंजाम देती हैं हमें.
तरंगें बनतीं-बिगड़तीं बहें निर्मल हो 'सलिल'-
पतंगें छू गगन को पैगाम देती हैं हमें.
*
सुनो यह पैगाम मत जड़ को कभी भी छोड़ना.
थाम कर लगाम कर में अश्व को तुम मोड़ना.
जहाँ जाना है वहीं के रास्ते पर हों कदम-
भुला कर निज लक्ष्य औरों से करो तुम होड़ ना.
*
लक्ष्य मत भूलो कभी भी, कोशिशें करते रहो.
लक्ष्य पाकर मत रुको, मंजिल नयी वरते रहो.
इरादों की डोर कर में हौसलों की चरखियाँ-
आसमां में पतंगों जैसे 'सलिल' उड़ते रहो.
*
आसमां जब भी छुओ तो ज़मीं पर रखना नज़र.
कौन जाने हवाओं का टूट जाये कब कहर?
जड़ें हों मजबूत बरगद की तरह अपनी 'सलिल'-
अमावस के बाद देखोगे तभी उजली सहर..
*
अमावस के बाद ही पूनम का उजाला होगा.
सघन कितना हो मगर तिमिर तो काला होगा.
'सलिल' कोशिश के चरागों को न बुझने देना-
नियति ने शूल को भी फूल संग पाला होगा..
*

2 टिप्‍पणियां:

somadri ने कहा…

bahut prerna dayak lines hai..
अमावस के बाद ही पूनम का उजाला होगा.
सघन कितना हो मगर तिमिर तो काला होगा.
'सलिल' कोशिश के चरागों को न बुझने देना-
नियति ने शूल को भी फूल संग पाला होगा..


http://som-ras.blogspot.com

ravi ranjan kumar ने कहा…

ravi ranjan kumar

achh hai . sanskrit ke jankar bahut kam bache hain. aage padhta rahunga. danywad.