दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
गुरुवार, 21 मार्च 2013
बुधवार, 20 मार्च 2013
चित्र पर कविता:
चित्र पर कविता:

१. एस.एन. शर्मा 'कमल'
विधि के हाथों खींची लकीरें
नहीं मिटी है नहीं मिटेंगी
लाख जतन कर लिखो भाल पर
तुम कितनी ही अपनी भाषा
होगा वही जो विधि रचि राखा
शेष बनेगी मात्र दुराशा
साधू संत फ़कीर सभी पर
हावी भाग्य लकीर रहेंगी
बलि ने घोर तपस्या की थी
पाने को गद्दी इन्द्रलोक की
छला गया बावन अंगुल से
मिली सजा पाताल भोग की
बस न चलेगा होनी पर कुछ
बात बनी बन कर बिगड़ेगी
कुंठित हुए कुलिश,गाण्डीव
योधा तकते रहे भ्रमित से
रहा अवध सिंहासन खाली
चौदह वर्ष नियति की गति से
भाग्य-रेख पढ़ सका न कोई
वह अबूझ ही बनी रहेगी
sn Sharma <ahutee@gmail.com>
_____________________________
२. संजीव 'सलिल'
कर्म प्रधान विश्व है,
बदलें चलो भाग्य की रेख ...
*
विधि जो जी सो चाहे लिख दे, करें न हम स्वीकार,
अपना भाग्य बनायेंगे हम, पथ के दावेदार।
मस्तक अपना, हाथ हमारे, घिसें हमीं चन्दन,
विधि-हरि-हर उतरेंगे भू पर, करें भक्त-वंदन।
गल्प नहीं है सत्य यही
तू देख सके तो देख ...
*
पानी की प्राचीर नहीं है मनुज स्वेद की धार,
तोड़ो कारा तोड़ो मंजिल आप करे मनुहार।
चन्दन कुंकुम तुलसी क्रिसमस गंग-जमुन सा मेल-
छिड़े राग दरबारी चुप रह जनगण देखे खेल।
भ्रान्ति-क्रांति का सुफल शांति हो,
मनुज भाल की रेख…
*
है मानस का हंस, नहीं मृत्युंजय मानव-देह,
सबहिं नचावत राम गुसाईं, तनिक नहीं संदेह।
प्रेमाश्रम हो जीवन, घर हो भू-सारा आकाश,
सतत कर्म कर काट सकेंगे मोह-जाल का पाश।
कर्म-कुंडली में कर अंकित
मानव भावी लेख ...
__________________
पथ के दावेदार, उपन्यास, शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
पानी की प्राचीर, उपन्यास, रामदरस मिश्र
तोड़ो कारा तोड़ो, उपन्यास, नरेन्द्र कोहली
राग दरबारी, उपन्यास, श्रीलाल शुक्ल
मानस का हंस, उपन्यास, अमृतलाल नागर
मृत्युंजय, उपन्यास, शिवाजी सावंत
सबहिं नचावत राम गुसाईं, उपन्यास, भगवतीचरण वर्मा
प्रेमाश्रम, उपन्यास, मुंशी प्रेमचंद
सारा आकाश, उपन्यास, राजेन्द्र यादव
१. एस.एन. शर्मा 'कमल'
विधि के हाथों खींची लकीरें
नहीं मिटी है नहीं मिटेंगी
लाख जतन कर लिखो भाल पर
तुम कितनी ही अपनी भाषा
होगा वही जो विधि रचि राखा
शेष बनेगी मात्र दुराशा
साधू संत फ़कीर सभी पर
हावी भाग्य लकीर रहेंगी
बलि ने घोर तपस्या की थी
पाने को गद्दी इन्द्रलोक की
छला गया बावन अंगुल से
मिली सजा पाताल भोग की
बस न चलेगा होनी पर कुछ
बात बनी बन कर बिगड़ेगी
कुंठित हुए कुलिश,गाण्डीव
योधा तकते रहे भ्रमित से
रहा अवध सिंहासन खाली
चौदह वर्ष नियति की गति से
भाग्य-रेख पढ़ सका न कोई
वह अबूझ ही बनी रहेगी
sn Sharma <ahutee@gmail.com>
_____________________________
२. संजीव 'सलिल'
कर्म प्रधान विश्व है,
बदलें चलो भाग्य की रेख ...
*
विधि जो जी सो चाहे लिख दे, करें न हम स्वीकार,
अपना भाग्य बनायेंगे हम, पथ के दावेदार।
मस्तक अपना, हाथ हमारे, घिसें हमीं चन्दन,
विधि-हरि-हर उतरेंगे भू पर, करें भक्त-वंदन।
गल्प नहीं है सत्य यही
तू देख सके तो देख ...
*
पानी की प्राचीर नहीं है मनुज स्वेद की धार,
तोड़ो कारा तोड़ो मंजिल आप करे मनुहार।
चन्दन कुंकुम तुलसी क्रिसमस गंग-जमुन सा मेल-
छिड़े राग दरबारी चुप रह जनगण देखे खेल।
भ्रान्ति-क्रांति का सुफल शांति हो,
मनुज भाल की रेख…
*
है मानस का हंस, नहीं मृत्युंजय मानव-देह,
सबहिं नचावत राम गुसाईं, तनिक नहीं संदेह।
प्रेमाश्रम हो जीवन, घर हो भू-सारा आकाश,
सतत कर्म कर काट सकेंगे मोह-जाल का पाश।
कर्म-कुंडली में कर अंकित
मानव भावी लेख ...
__________________
पथ के दावेदार, उपन्यास, शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
पानी की प्राचीर, उपन्यास, रामदरस मिश्र
तोड़ो कारा तोड़ो, उपन्यास, नरेन्द्र कोहली
राग दरबारी, उपन्यास, श्रीलाल शुक्ल
मानस का हंस, उपन्यास, अमृतलाल नागर
मृत्युंजय, उपन्यास, शिवाजी सावंत
सबहिं नचावत राम गुसाईं, उपन्यास, भगवतीचरण वर्मा
प्रेमाश्रम, उपन्यास, मुंशी प्रेमचंद
सारा आकाश, उपन्यास, राजेन्द्र यादव
बाल कविता: जल्दी आना ... संजीव 'सलिल'
बाल कविता:
जल्दी आना ...

संजीव 'सलिल'
*
मैं घर में सब बाहर जाते,
लेकिन जल्दी आना…
*
भैया! शाला में पढ़-लिखना
करना नहीं बहाना.
सीखो नई कहानी जब भी
आकर मुझे सुनाना.
*
दीदी! दे दे पेन-पेन्सिल,
कॉपी वचन निभाना.
सिखला नच्चू , सीखूँगी मैं-
तुझ जैसा है ठाना.
*
पापा! अपनी बाँहों में ले,
झूला तनिक झुलाना.
चुम्मी लूँगी खुश हो, हँसकर-
कंधे बिठा घुमाना.
*
माँ! तेरी गोदी आये बिन,
मुझे न पीना-खाना.
कैयां में ले गा दे लोरी-
निन्नी आज कराना.
*
दादी-दादा हम-तुम साथी,
खेल करेंगे नाना.
नटखट हूँ मैं, देख शरारत-
मंद-मंद मुस्काना.
***
जल्दी आना ...
संजीव 'सलिल'
*
मैं घर में सब बाहर जाते,
लेकिन जल्दी आना…
*
भैया! शाला में पढ़-लिखना
करना नहीं बहाना.
सीखो नई कहानी जब भी
आकर मुझे सुनाना.
*
दीदी! दे दे पेन-पेन्सिल,
कॉपी वचन निभाना.
सिखला नच्चू , सीखूँगी मैं-
तुझ जैसा है ठाना.
*
पापा! अपनी बाँहों में ले,
झूला तनिक झुलाना.
चुम्मी लूँगी खुश हो, हँसकर-
कंधे बिठा घुमाना.
*
माँ! तेरी गोदी आये बिन,
मुझे न पीना-खाना.
कैयां में ले गा दे लोरी-
निन्नी आज कराना.
*
दादी-दादा हम-तुम साथी,
खेल करेंगे नाना.
नटखट हूँ मैं, देख शरारत-
मंद-मंद मुस्काना.
***
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जल्दी आना ...,
बाल कविता,
संजीव 'सलिल',
acharya sanjiv verma 'salil',
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jaldi ana
मंगलवार, 19 मार्च 2013
geet faguni purwaee sanjiv verma 'salil'
गीत:
फागुनी पुरवाई
संजीव 'सलिल'
*
फागुनी पुरवाई में महुआ मदिर जब-जब महकता
हवाओं में नाम तब-तब सुनाई देता गमककर.....
टेरती है, हेरती है पुनि लुका-छिपि खेलती है.
सँकुचती है एक पल फिर निज पगों को ठेलती है.
नयन मूंदो तो दिखे वह, नयन खोलो तो छिपे वह
परस फागुन का अनूठा प्रीत-पापड़ बेलती है.
भाविता-संभाविता की भुलैयां हरदम अबूझी
करे झिलमिल, हँसे खिलखिल, ठगे मन रसना दिखाकर.....
थिर, क्षितिज पर टिकी नज़रें हो सुवासित घूमती हैं.
कोकिला के कंठ-स्वर सी ध्वनि निरंतर चूमती हैं.
भुलावा हो या छलावा, लपक लेतीं हर बुलावा-
पेंग पुरवैया के संग, कर थाम पछुआ लूमती हैं.
उहा-पोही धूप-छाँही निराशा-आशा अँजुरी में
लिए तर्पण कर रहा कोई समर्पण की डगर पर.....
फिसलकर फिर-फिर सम्हलता, सम्हलकर फिर-फिर फिसलता.
अचल उन्मन में कहाँ से अवतरित आतुर विकलता.
अजाना खुद से हुआ खुद, क्या खुदी की राह है यह?
आस है या प्यास करती रास, तज संयम चपलता.
उलझ अपने आपसे फिर सुलझने का पन्थ खोजे
गगनचारी मन उतरता वर त्वरा अधरा धरा पर.....
क्षितिज के उस पार झाँके, अदेखे का चित्र आँके.
मिट अमिट हो, अमिट मिटकर, दिखाये आकार बाँके.
चन्द्रिका की चमक तम हर दमक स्वर्णिम करे सिकता-
सलिल-लहरों से गले मिल, षोडशी सी सलज झाँके.
विमल-निर्मल प्राण-परिमल देह नश्वर में विलय हो
पा रही पहचान खोने के लिए मस्तक नवाकर.....
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
फागुनी पुरवाई
संजीव 'सलिल'
*
फागुनी पुरवाई में महुआ मदिर जब-जब महकता
हवाओं में नाम तब-तब सुनाई देता गमककर.....
टेरती है, हेरती है पुनि लुका-छिपि खेलती है.
सँकुचती है एक पल फिर निज पगों को ठेलती है.
नयन मूंदो तो दिखे वह, नयन खोलो तो छिपे वह
परस फागुन का अनूठा प्रीत-पापड़ बेलती है.
भाविता-संभाविता की भुलैयां हरदम अबूझी
करे झिलमिल, हँसे खिलखिल, ठगे मन रसना दिखाकर.....
थिर, क्षितिज पर टिकी नज़रें हो सुवासित घूमती हैं.
कोकिला के कंठ-स्वर सी ध्वनि निरंतर चूमती हैं.
भुलावा हो या छलावा, लपक लेतीं हर बुलावा-
पेंग पुरवैया के संग, कर थाम पछुआ लूमती हैं.
उहा-पोही धूप-छाँही निराशा-आशा अँजुरी में
लिए तर्पण कर रहा कोई समर्पण की डगर पर.....
फिसलकर फिर-फिर सम्हलता, सम्हलकर फिर-फिर फिसलता.
अचल उन्मन में कहाँ से अवतरित आतुर विकलता.
अजाना खुद से हुआ खुद, क्या खुदी की राह है यह?
आस है या प्यास करती रास, तज संयम चपलता.
उलझ अपने आपसे फिर सुलझने का पन्थ खोजे
गगनचारी मन उतरता वर त्वरा अधरा धरा पर.....
क्षितिज के उस पार झाँके, अदेखे का चित्र आँके.
मिट अमिट हो, अमिट मिटकर, दिखाये आकार बाँके.
चन्द्रिका की चमक तम हर दमक स्वर्णिम करे सिकता-
सलिल-लहरों से गले मिल, षोडशी सी सलज झाँके.
विमल-निर्मल प्राण-परिमल देह नश्वर में विलय हो
पा रही पहचान खोने के लिए मस्तक नवाकर.....
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
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फागुनी पुरवाई,
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सोमवार, 18 मार्च 2013
भारत माँ के लाल बहादुर ने जीता लाहौर.
अमर शहीदों का अब तक है यह नन्हा सिरमौर।।
अमर शहीदों का अब तक है यह नन्हा सिरमौर।।
thought of the day dr. a.p.j.abdulkalam
स्त्री - पुरुष के संपत्ति अधिकार -तसलीमा नसरीन
बांगला देश में मुस्लिम उत्तराधिकार: शरिया के अनुसार स्त्री - पुरुष के संपत्ति अधिकार
सन्दर्भ: छोटे-छोटे दुःख, तसलीमा नसरीन, २४-२८.
= मृत औरत को कोई संतान या संतान की संतान न हो तो औरत की जायदाद का १/२ हिस्सा उसके पति को मिलता है. मृत औरत की कोई संतान हो (पति की जायज़ सन्तान न हो तो भी) पति को १/४ हिस्सा मिलेगा. मृत पति की सन्तान या संतान की संतान हो तो पति की संपत्ति में बीबी को १/४ हिस्सा तथा पति की संतान होने पर १/८ हिस्सा मिलता है.
= किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसकी संपत्ति का १/३ हिस्सा माँ को तथा २/३ हिस्सा पिता को मिलता है. २ या २ से अधिक भाई-बहिन हों तो माँ को १/६ भाग तथा पिता को ५/६ भाग मिलता है. भाई-बहिनों को कुछ नहीं मिलता क्योंकि उनके माँ-बाप मौजूद होते हैं.
= उत्तराधिकार-लाभ के मामले में बेटी का भाग १/२, दो से अधिक बेटियां हों तो सबको मिलकर २/३ भाग मिलता है. बेटा भी हो तो हर बेटे को बेटी से दोगुना भाग मिलता है.
= काका और फूफी को २/३ तथा मामा और खाला को १/३ भाग मिलता है.
(सार: सुन्नी उत्तराधिकार कानून में माता-पिता, बेटे-बेटी के हक समान नहीं हैं.)
बांगला देश में हिन्दू उत्तराधिकार : (मिताक्षरा तथा दायभाग प्रणाली )
= दायभाग प्रणाली के अनुसार व्यक्ति स्वार्जित संपत्ति मनमर्जी से हस्तांतरित कर सकता है. मृत व्यक्ति के उत्तराधिकारियों के ३ वर्ग- सपिंड जो पिंडदान में भाग लें, साकुल्य जो श्राद्ध के समय पिंड पर लेप करें तथा समानोदक जो श्राद्ध में पिंड पर जल चढ़ाएं हैं. मातृ-पितृकुल की ३ पीढ़ी (नाना, नाना के पिता, नाना के पिता के पिता - पिता, पितामह, प्रपितामह) सपिंड मान्य हैं चूंकि मृत व्यक्ति अपने जीवन-काल में उन्हें पिंडदान करता. मृत व्यक्ति के श्राद्ध में जो व्यक्ति पिंड दान करते हैं वे सब (पुत्र, पोत, पड़पोता, नाती, पोते/पोती के पुत्र ) तथा मृतक के पूर्वजों को पिंड दान करते रहे व्यक्ति मृतक के सपिंड होते हैं.
= सपिंडों के अग्राधिकार: आधार क्रम १. पुत्र, २. पौत्र, ३. प्रपौत्र, ४. विधवा पत्नी (पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र जिन्दा न हों तो) ५. बेटी (पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, विधवा पत्नी जिन्दा न हों तो) बदचलन/पुत्रहीना बेटी उत्तराधिकारी नहीं हो सकती. ६. नाती (बेटी की मौत के बाद सपिंड के नाते), ७. पिता, ८. माँ (बदचलन न हो तो), ९. भाई, १०. भाई का बेटा, ११. भाई के बेटे का बेटा, १२. बहिन का बेटा, १३. पितामह, १४.पितामही, १५. पिता का भाई, १६. चचेरा/तयेरा भाई, १७.चचेरे/तयेरे भाई का बेटा, १८. फुफेरा भाई, १९. पिता के पिता के पिता, २०. पिता के पिता की माँ, २१. पिता का फूफा, २२. उसका बेटा, २३. उसका पौत्र, २४. पिता के पिता की बहिन का पुत्र, २५. पुत्र की कन्या का पुत्र, २६. पुत्र के पुत्र की कन्या का पुत्र, २७. भाई के पुत्र की कन्या का पुत्र, २८. फूफा की कन्या का पुत्र, २९. फूफा के पुत्र की कन्या का पुत्र, ३०. पिता के फूफा की कन्या का पुत्र, ३०. पिता के फूफा की कन्या का पुत्र, ३१. पिता के फूफा के पुत्र की बेटी का पुत्र, ३२. माँ का पिता, ३३. माँ का भाई, ३४.उसका पुत्र, ३५. उसका पौत्र, ३६. माँ की बहिन का पुत्र, ३७. माँ के पिता का पिता, ३८. उसका पुत्र, ३९. उसका पौत्र, ४०. उसका प्रपौत्र, ४१. उसकी बेटी का बेटा, ४२. माता के पिता के पिता का पिता, ४३. उसका पुत्र, ४४. उसका पौत्र, ४५. उसका प्रपौत्र , ४६. उसकी बेटी का पुत्र, ४७. माँ के पिता के पुत्र की बेटी का पुत्र, ४८. उसके पुत्र के पुत्र की बेटी का पुत्र, ४९. माँ के पिता के पिता के बेटे की बेटी का पुत्र, ५०उसके पुत्र के पुत्र की बेटी का पुत्र उसके पुत्र के पुत्र की बेटी का पुत्र,५१.माँ के पिता के पिता के पिता की बेटी का पुत्र, ५२. उसके पुत्र के पुत्र की बेटी का पुत्र.
सार: वरीयता पिता, पुत्र, पुत्र, प्रपौत्र वर्ग को. बीबी, बेटी, माँ को मर्द उत्तराधिकारी न होने पर भी सशर्त (बदचलन/पुत्रहीन न हो तो ही). नाती तथा भांजा सूची में बाद में ही सही किन्तु हैं पर बहिन, उसकी बेटी, बहिन की नातिन सूची में नहीं हैं। पिता के भाई-भतीजे तथा उनके पोते सूची में सम्मिलित किन्तु पिता की बहिन तथा उसकी बेटी सूची में नहीं हैं. पिता के फूफा-काका, उनके बेटे-पोते, पिता के पिता की बहिन का बेटा, उसकी बेटी का पुत्र भी सूची में है किन्तु काका-फूफा की बेटी, पितामह की बहिन की बेटी या बेटे की बेटी की बेटी नहीं है. माँ के भाई-पिता, मामा का बेटा, पोता, पड़पोता हिस्सेदार हैं किन्तु माँ की बहिन-माँ, मामा की बेटी-नातिनों का कोई हक नहीं है. माँ की बहिन हिस्सेदार नहीं है पर उसी बहिन का पुत्र हिस्सेदार है. माँ के प्रपिता के पुत्र की बेटी हिस्सेदार नहीं है पर उसी का पुत्र हिस्सेदार है. सार यह की जायदाद भिन्न गोत्र में भले ही चली जाए पर स्त्री को न मिले. स्त्री का हिस्सा इस तरह है कि उससे बाद की पुरुष पीढ़ी को पहले पात्रता है, अपना क्रम आने तक स्त्री जीवित ही नहीं रह पाती और वंचित हो जाती है.
साकुल्य और समानोदक भी पिता के पिता, तस्य पिता, बेटे के बेटे, उसके बेटे, उसके पोते-प्द्पोते ही हकदार हैन. इस तालिका में स्त्री का नामोनिशान नहीं है.
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property rights of woman,
tasleema nasreen
रविवार, 17 मार्च 2013
गीति रचना: पाती लिखी संजीव 'सलिल'
गीति रचना:
पाती लिखी
संजीव 'सलिल'
*
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
गीत, गजल, कविताएँ, छंद,
अनगिन रचे मिला आनंद.
क्षणभंगुर अनुभूति रही,
स्थिर नहीं प्रतीति रही.
वाह, वाह की चाह छले
डाह-आह भी व्यर्थ पले.
कैसे मिलता कभी सुनाम?
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
नाम हुए बदनाम सभी,
और हुए गुमनाम कभी.
बिगड़े, बनते काम रहे,
गिरते-बढ़ते दाम रहे.
धूप-छाँव के पाँव थके,
लेकिन तनिक न गाँव रुके.
ठाँव दाँव के मेटो राम!
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
सत्य-शील का अंत समीप,
घायल संयम की हर सीप.
मोती-शंख न शेष रहे,
सिकता अश्रु अशेष बहे.
मिटे किनारे सूखी धार,
पायें न नयना नीर उधार.
नत मस्तक कर हुए अनाम
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
लिखता कम, समझो ज्यादा,
राजा बना मूढ़ प्यादा.
टेढ़ा-टेढ़ा चलता है
दाल वक्ष पर दलता है.
दु:शासन नित चीर हरे
सेवक सत्ता-खेत चरे.
मन सस्ता मँहगा है चाम
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
पाती लिखी
संजीव 'सलिल'
*
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
गीत, गजल, कविताएँ, छंद,
अनगिन रचे मिला आनंद.
क्षणभंगुर अनुभूति रही,
स्थिर नहीं प्रतीति रही.
वाह, वाह की चाह छले
डाह-आह भी व्यर्थ पले.
कैसे मिलता कभी सुनाम?
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
नाम हुए बदनाम सभी,
और हुए गुमनाम कभी.
बिगड़े, बनते काम रहे,
गिरते-बढ़ते दाम रहे.
धूप-छाँव के पाँव थके,
लेकिन तनिक न गाँव रुके.
ठाँव दाँव के मेटो राम!
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
सत्य-शील का अंत समीप,
घायल संयम की हर सीप.
मोती-शंख न शेष रहे,
सिकता अश्रु अशेष बहे.
मिटे किनारे सूखी धार,
पायें न नयना नीर उधार.
नत मस्तक कर हुए अनाम
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
लिखता कम, समझो ज्यादा,
राजा बना मूढ़ प्यादा.
टेढ़ा-टेढ़ा चलता है
दाल वक्ष पर दलता है.
दु:शासन नित चीर हरे
सेवक सत्ता-खेत चरे.
मन सस्ता मँहगा है चाम
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
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गीति रचना,
पाती लिखी,
संजीव 'सलिल',
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hindi poetry
एक ग़ज़ल : कोई नदी जो उनके......... आनन्द पाठक
एक ग़ज़ल :
कोई नदी जो उनके.........
आनन्द पाठक
*
कोई नदी जो उनके घर से गुज़र गई है
चढ़ती हुई जवानी पल में उतर गई है
बँगले की क्यारियों में पानी तमाम पानी
प्यासों की बस्तियों में सूखी नहर गई है
परियोजना तो वैसे हिमखण्ड की तरह थी
पिघली तो भाप बन कर जाने किधर गई है
हर बूँद बूँद तरसी मेरी तिश्नगी लबों की
आई लहर तो उनके आँगन ठहर गई है
"छमिया’ से पूछना था ,थाने बुला लिए थे
’साहब" से पूछना है ,सरकार घर गई है
वो आम आदमी है हर रोज़ लुट रहा है
क्या पास में है उसके सरकार डर गई है !
ख़ामोश हो खड़े यूँ क्या सोचते हो "आनन’?
क्योंकर नहीं गये तुम दुनिया जिधर गई है ?
anand pathak akpathak317@yahoo.co.in
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आनन्द पाठक,
ग़ज़ल,
gazal. anand pathak
शुक्रवार, 15 मार्च 2013
muktika, andheron ko raushan... sanjiv 'salil'
मुक्तिका :
अंधेरों को रौशन ...
संजीव 'सलिल'
*
अंधेरों को रौशन किया, पग बढ़ाया
उदासी छिपाकर फलक मुस्कुराया
बेचैनी दिल की न दिल से बताई
आँसू छिपा लब विहँस गुनगुनाया
निराशा के तूफां में आशा का दीपक
सही पीर, बन पीर मन ने जलाया
पतझड़ ने दुःख-दर्द सहकर तपिश की
बखरी में बदरा को पाहुन बनाया
घटायें घुमड़ मन के आँगन में नाचीं
न्योता बदन ने सदन खिलखिलाया
धनुष इंद्र का सप्त रंगी उठाकर
सावन ने फागुन को दर्पण दिखाया
सीरत ने सूरत के घर में किया घर
दुःख ने लपक सुख को अपना बनाया
'सलिल' स्नेह संसार सागर समूचा
सतत सर्जना स्वर सुना-सुन सिहाया
-------------------------------------
अंधेरों को रौशन ...
संजीव 'सलिल'
*
अंधेरों को रौशन किया, पग बढ़ाया
उदासी छिपाकर फलक मुस्कुराया
बेचैनी दिल की न दिल से बताई
आँसू छिपा लब विहँस गुनगुनाया
निराशा के तूफां में आशा का दीपक
सही पीर, बन पीर मन ने जलाया
पतझड़ ने दुःख-दर्द सहकर तपिश की
बखरी में बदरा को पाहुन बनाया
घटायें घुमड़ मन के आँगन में नाचीं
न्योता बदन ने सदन खिलखिलाया
धनुष इंद्र का सप्त रंगी उठाकर
सावन ने फागुन को दर्पण दिखाया
सीरत ने सूरत के घर में किया घर
दुःख ने लपक सुख को अपना बनाया
'सलिल' स्नेह संसार सागर समूचा
सतत सर्जना स्वर सुना-सुन सिहाया
-------------------------------------
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अंधेरों को रौशन ...,
मुक्तिका,
संजीव 'सलिल',
acharya sanjiv verma 'salil',
andheron ko raushan...,
muktika
hindi kavita manoshi chatterji
कविता
मानोशी चटर्जी
*
मैं जब शाख़ पर घर बसाने की बात करती हूँ
पसंद नहीं आती
उसे मेरी वह बात,
जब आकाश में फैले
धूप को बाँधने के स्वप्न देखती हूँ,
तो बादलों का भय दिखा जाता है वह,
उड़ने की ख़्वाहिश से पहले ही
वह चुन-चुन कर मेरे पंख गिनता है,
धरती पर भी दौड़ने को मापता है पग-पग,
और फिर जब मैं भागती हूँ,
तो पीछे से आवाज़ देता है,
मगर मैं नहीं सुनती
और अकेले जूझती हूँ...
पहनती हूँ दोष,
ओढ़ती हूँ गालियाँ,
और फिर भी सर ऊँचा कर
खु़द को पहचानने की कोशिश करती हूँ
क्या वही हूँ मैं?
चट्टान, पत्थर, दीवार ...
अब कुछ असर नहीं करता...
मगर मैंने तय किये हैं रास्ते
पाई है मंज़िल
जहाँ मैं उड़ सकती हूँ,
शाख़ पर घर बसाया है मैंने
और धूप मेरी मुट्ठी में है...
Manoshi Chatterjee <cmanoshi@gmail.com>
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गुरुवार, 14 मार्च 2013
गीत: समय की शिला पर: संजीव 'सलिल', अचल वर्मा, राकेश खंडेलवाल, श्रीप्रकाश शुक्ल, इंदिरा प्रताप,
गीत:
समय की शिला पर:
संजीव 'सलिल'
*
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
किसने पढ़ा सत्य,
किसको दिखा है??.....
*
अदेखी नियति के अबूझे सितारे,
हथेली में अंकित लकीरें बता रे!
किसने किसे कब कहाँ कुछ कहा है?
किसने सुना- अनसुना कर जता रे!
जाता है जो- उसके आने के पहले
आता है जो- कह! कभी क्या रुका है?
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
*
खुली आँख- अपने नहीं देख पाते.
मुंदे नैन- बैरी भी अपना बताते.
जीने न देते जो हँसकर घड़ी भर-
चिता पर चढ़ा वे ही आँसू बहाते..
लड़ती-लड़ाती रही व्यर्थ दुनिया-
आखिर में पाया कि मस्तक झुका है.
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?.
*
कितना बटोरा?, कहाँ-क्या लुटाया?
अपना न सपना कहीं कोई पाया.
जिसने बुलाया, गले से लगाया-
पल में भुलाया, किया क्यों पराया?
तम में न अपने, रहा साथ साया.
पाया कि आखिर में साथी चिता है.
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
salil.sanjiv@gmail.com
*
समय की शिला पर
समय की शिला पर:
संजीव 'सलिल'
*
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
किसने पढ़ा सत्य,
किसको दिखा है??.....
*
अदेखी नियति के अबूझे सितारे,
हथेली में अंकित लकीरें बता रे!
किसने किसे कब कहाँ कुछ कहा है?
किसने सुना- अनसुना कर जता रे!
जाता है जो- उसके आने के पहले
आता है जो- कह! कभी क्या रुका है?
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
*
खुली आँख- अपने नहीं देख पाते.
मुंदे नैन- बैरी भी अपना बताते.
जीने न देते जो हँसकर घड़ी भर-
चिता पर चढ़ा वे ही आँसू बहाते..
लड़ती-लड़ाती रही व्यर्थ दुनिया-
आखिर में पाया कि मस्तक झुका है.
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?.
*
कितना बटोरा?, कहाँ-क्या लुटाया?
अपना न सपना कहीं कोई पाया.
जिसने बुलाया, गले से लगाया-
पल में भुलाया, किया क्यों पराया?
तम में न अपने, रहा साथ साया.
पाया कि आखिर में साथी चिता है.
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
salil.sanjiv@gmail.com
*
समय की शिला पर
अचल वर्मा
समय की शिला पर लिखे गीत कितने
और गा गा के सबको सुना भी दिए ।
मगर सुन के अबतक रहा चुप जमाना
यूँ मिटते गए हैं तराने नए ॥
शिलालेख मिटने न पाए
कभी
पढा उसने जिसने भी की कोशिशें ।
है भाषा अलग इस शिलालेख की
रहीं तंग दिल में नहीं ख्वाहिशें ॥
समय की शिला ये शिला है अलग
कोई रूप इसका समझ में न आया ।
सभी
दिल ही दिल में रहे चाहते पर
सभी दिल हैं काले ये रंग चढ न पाया ॥
जो दिल साफ़ होते चमकते ये मोती
ये यूँ कालिमा में ही घुल मिल न जाते ।
समय तो छिपाए रहेगा ये मोती
मिटेगा न जब तक सभी पढ हैं
पाते ॥
achal verma <achalkumar44@yahoo.com>
*
समय की शिला पर
राकेश खंडेलवाल
*
*
समय की शिला पर
*
रहे अनुसरण के लिए चिह्न कितने जो छोडे पगों ने समय की शिला पर
रहे अनुसरण के लिए चिह्न कितने जो छोडे पगों ने समय की शिला पर
मगर ज़िंदगी ने किसी कशमकश में रखा आज तक उन सभी को भुलाकर
किसी एक भाषा में सीमित नहीं है, न ही देश
कालों की सीमा में बंदी
धरा के किसी छोर से न अछूते न बंध कर रहे एक नदिया के तट से
समय सिन्धु के तीर की रेतियो में रहे अंकिता हिम के ऊंचे शिखर पर
बने चिह्न पग के धरा से गगन पर उठे बालि के सामने एक वट से
पिलाए गए थे हमें बालपन
से सदा संस्कृति की घुटी में मिला कर
उन्हें आज हम भूलने लग गए हैं, रहे चिह्न जितने समय की शिला पर
बुने जा रहे कल्पना के घरोंदे दिवास्वप्न की रूप रेखा बना कर
भले जानते पार्श्व में यह ह्रदय के कि परछाइयों की न पूजा हुई है
न
कोई कभी चिह्न बनता कहीं पर धरा हो भले या शिला हो समय की
हवा के पटल पर करें कोशिशें नित, ज़रा चित्र कोई ठहरता नहीं है
मगर आस रहती है खाके बनाती खिंचे सत्य दर्पण के सारे भुला कर
यही सोचती शेष हो न सकेंगी, बनी अल्पना जो समय की शिला पर
उगी भोर से ढल रहे हर दिवस की यही साध बस एक पलती रही है
मुडे पग कभी भी किसी मोड से तो शिला लेख में सब बने चिह्न ढल ले
रहें दूर कितने प्रयासों के पनघट, न तीली उठे न ही बाती बटी हो
मगर नाम की एक महिमा बने औ' ढली सांझ के साथ में दीप जल लें
सपन की गली में उतरती निशा भी लिए साथ जाती सदा ही बुलाकर
चलो नींद में ही सही चिह्न छोड़ें, सभी आज अपने समय की शिला पर *
समय की शिला पर
श्रीप्रकाश शुक्ल
समय की शिला पर हैं कुछ चित्र अंकित ,
आज के युग में जो भ्रान्ति फैला रहे हैं
औचित्य जिनका न कुछ शेष दिखता
चलना गतानुगति ही सिखला रहे हैं
साधन नहीं थे कोई आधुनिक जब,
रीते ज़हन को जो करते सुचालित
चित्र अंकित किये कल्पना में जो सूझे
कोई था न अंकुश जो करता नियंत्रित
दायित्व है अब, नए चिंतकों का
आगे आयें, समीक्षा करें मूल्यवादी
तत्व जो बीज बोते, असमानता का
मिटायें उन्हें हैं जो जातिवादी
हैं कुछ मूल्य, जो मापते अस्मिता को
व्यक्ति के वर्ण और देह के रंग से
लिंग भेद को ,कुछ न भूले अभी भी
कलुष ही बिछाया विकृत सोच संग से
समय आगया है हटायें ये पन्ने
लिखें वो भाषा जो सब को समेटे
विकासोन्मुखी हों, नीतियाँ हमारी
समय की शिला पर पड़े धब्बे मेंटे
Shriprakash Shukla <wgcdrsps@gmail.com>
Web:http://bikhreswar. blogspot.com/
Web:http://bikhreswar.
*
समय की शिला पर
समय की शिला पर
इंदिरा प्रताप
*
समय की शिला पर जो कुछ लिखा है,
न मैनें पढ़ा है, न तुमने पढ़ा है,
जीवन के इस लम्बे सफ़र में,
बहुत कुछ गुना है, बहुत कुछ बुना है,
मुझको-तुमको, सबको पता है,
चिता ही हमारी अंतिम दिशा है,
जीवन जो देगा सहना पड़ेगा,
फिर भी हँसना-हँसाना पड़ेगा,
संसार के हो या हो वीतरागी,
चलना पड़ेगा, चलना पड़ेगा,
रहता नही है कुछ भी यहाँ पर,
जानकर फिर भी जीवन को ढोना पड़ेगा।
*
समय की शिला पर
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
*
समय की शिला पर लिखे लेख हमने
किए सच जिन्हें लोग कहते थे सपने
बनाए थे जो बामियानी तथागत
लगे तालिबानी नज़र में खटकने
जिए शान से साल पच्चीस सौ वो
मगर बम चले तो लगे वो चटखने
हुए इस कदर लोग मज़हब में अंधे
लगे वो फ़रिश्ते स्वयँ को समझने
ख़लिश त्रासदी है ये नामे-खुदा की
लगे हैं खुदा के लिए लोग लड़ने.
www.writing.com/authors/ mcgupta44
*
समय की शिला पर
प्रणव भारती
*
समय की शिला पर सभी खुद रहा है,
समय है सनातन , समय चुप् रहा है।
समय तो सिखाता सदा सबकी कीमत,
न कोई है अच्छा ,न कोई बुरा है------।
समय की---------------------------- ---खुद रहा है।
समय सीख देता ,समय देता अवसर ,
हमीं डूब जाते भ्रमों में यूँ अक्सर,
समय सर पे चढकर है डंके बजता,
समय मांग करता सदा कुछ सिखाता ।
समय से कभी भी कहाँ कुछ छिपा है?
समय की ------------------------------ खुद रहा है।
अनुत्तरित,अनबुझे प्रश्न हैं समय-शिला पर ,
सोये-जागों के चेहरे हैं समय-शिला पर ।
समय दिखाता कितनी ही तस्वीरें हमको
समय सिखाता कितनी ही तदबीरें हमको ।
हम करते हैं जब मनमानी समय बताये,
समय ने कितनी बार तमों को सदा हरा है।
समय--------------------------- --------खुद रहा है।
समय बहुत कम जीवन में इसको न खोएं,
समय बीत जाने पर क्यों फिर व्यर्थ ही रोएँ !
समय माँग करता पल-पल हम रहें जागते,
समय माँग करता पल-पल हम रहें भागते ।
समय नचाता नाच उसे जो जहाँ मिला है।
समय की---------------------------- ---------खुद रहा है॥
Pranava Bharti <pranavabharti@gmail.com>
*
समय की
शिला पर *
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
*
समय की शिला पर लिखे लेख हमने
किए सच जिन्हें लोग कहते थे सपने
बनाए थे जो बामियानी तथागत
लगे तालिबानी नज़र में खटकने
जिए शान से साल पच्चीस सौ वो
मगर बम चले तो लगे वो चटखने
हुए इस कदर लोग मज़हब में अंधे
लगे वो फ़रिश्ते स्वयँ को समझने
ख़लिश त्रासदी है ये नामे-खुदा की
लगे हैं खुदा के लिए लोग लड़ने.
www.writing.com/authors/
*
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बुधवार, 13 मार्च 2013
रचना - प्रति रचना: एस.एन.शर्मा, संजीव 'सलिल'
रचना - प्रति रचना:
रचना :
रहस्य
एस.एन.शर्मा
*सुमुखि तुम कौन !
निमन्त्रण देती रहतीं मौन
उदयांचल से बाल किरण तुम
उतर धरा के वक्षस्थल पर
आलिंगन भर थपकी देकर
चूम चूम सरसिज के अधर
नित्य नवल अभियान लिए
फैलातीं उजास तम रौंद
सुमुखि तुम कौन !
नए प्रात की अरुणाई सी
रवि प्रकाश की अगुवाई सी
सारा जग आलोकित करतीं
चढ़े दिवस की तरूणाई सी
सम्पूर्ण प्रकृति की छाती पर
छाईं बन सत्ता सार्वभौम
सुमुखि तुम कौन !
सांध्य गगन के स्वर्णिम दर्पण
में होतीं प्रतिबिंबित तुम
अस्ताचल के तिमिरांचल में
फिर विलीन हो जातीं तुम
खो कर तुम्हें रात भर ढरता
ओसकणो में विरही व्योम
सुमुखि तुम कौन
-------------------------------------
प्रति रचना :
सुमुखी तुम कौन…?
संजीव 'सलिल'
*
सुमुखी तुम कौन…?
सुमुखी तुम कौन…?
*
वातायन से शयन कक्ष में घुस लेती हो झाँक।
तम पर उजयारे की छवि अनदेखी देतीं टाँक ।।
रवि-प्रेयसी या प्रीत-संदेशा लाईं भू के नाम-
सलिल-लहरियों में अनदेखे चित्र रही हो आँक ।
पूछ रहा है पवन न उत्तर दे रहती हो मौन.
सुमुखी तुम कौन…?
सुमुखी तुम कौन…?
*
शीत ग्रीष्म में परिवर्तित हो पा तेरा सत्संग।
आलस-निद्रा दूर भगा दे, मन में जगा उमंग।।
स्वागतरत पंछी कलरव कर गायें प्रभाती मीत-
कहीं नहीं सब कहीं दिखे तू अजब-अनूठा ढंग।।
सखी नर्मदा, नील, अमेजन, टेम्स, नाइजर दौन
सुमुखी तुम कौन…?
सुमुखी तुम कौन…?
*
प्राची से प्रगटीं पश्चिम में होती कहाँ विलीन?
बिना तुम्हारे अम्बर लगता बेचारा श्रीहीन।।
गाल गुलाबी रतनारे नयनों की कहीं न समता-
हर दिन लगतीं नई नवेली संग कैसे प्राचीन??
कौन देश में वास तुम्हा?, कहाँ बनाया भौन
सुमुखी तुम कौन…?
सुमुखी तुम कौन…?
*
रचना :
रहस्य
एस.एन.शर्मा
*सुमुखि तुम कौन !
निमन्त्रण देती रहतीं मौन
उदयांचल से बाल किरण तुम
उतर धरा के वक्षस्थल पर
आलिंगन भर थपकी देकर
चूम चूम सरसिज के अधर
नित्य नवल अभियान लिए
फैलातीं उजास तम रौंद
सुमुखि तुम कौन !
नए प्रात की अरुणाई सी
रवि प्रकाश की अगुवाई सी
सारा जग आलोकित करतीं
चढ़े दिवस की तरूणाई सी
सम्पूर्ण प्रकृति की छाती पर
छाईं बन सत्ता सार्वभौम
सुमुखि तुम कौन !
सांध्य गगन के स्वर्णिम दर्पण
में होतीं प्रतिबिंबित तुम
अस्ताचल के तिमिरांचल में
फिर विलीन हो जातीं तुम
खो कर तुम्हें रात भर ढरता
ओसकणो में विरही व्योम
सुमुखि तुम कौन
-------------------------------------
प्रति रचना :
सुमुखी तुम कौन…?
संजीव 'सलिल'
*
सुमुखी तुम कौन…?
सुमुखी तुम कौन…?
*
वातायन से शयन कक्ष में घुस लेती हो झाँक।
तम पर उजयारे की छवि अनदेखी देतीं टाँक ।।
रवि-प्रेयसी या प्रीत-संदेशा लाईं भू के नाम-
सलिल-लहरियों में अनदेखे चित्र रही हो आँक ।
पूछ रहा है पवन न उत्तर दे रहती हो मौन.
सुमुखी तुम कौन…?
सुमुखी तुम कौन…?
*
शीत ग्रीष्म में परिवर्तित हो पा तेरा सत्संग।
आलस-निद्रा दूर भगा दे, मन में जगा उमंग।।
स्वागतरत पंछी कलरव कर गायें प्रभाती मीत-
कहीं नहीं सब कहीं दिखे तू अजब-अनूठा ढंग।।
सखी नर्मदा, नील, अमेजन, टेम्स, नाइजर दौन
सुमुखी तुम कौन…?
सुमुखी तुम कौन…?
*
प्राची से प्रगटीं पश्चिम में होती कहाँ विलीन?
बिना तुम्हारे अम्बर लगता बेचारा श्रीहीन।।
गाल गुलाबी रतनारे नयनों की कहीं न समता-
हर दिन लगतीं नई नवेली संग कैसे प्राचीन??
कौन देश में वास तुम्हा?, कहाँ बनाया भौन
सुमुखी तुम कौन…?
सुमुखी तुम कौन…?
*
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रचना - प्रति रचना: एस.एन.शर्मा,
संजीव 'सलिल',
acharya sanjiv verma 'salil',
s. n. sharma
shahadat katha: captain jaswant singh rawat
स्मरण :
*1962 में शहीद भारतीय फौजी, आज भी दे रहा ड्यूटी*
1962 में चीन ने भारत को करारी शिकस्त दी थी...लेकिन उस युद्ध में हमारे देश कई जांबाजों ने अपने लहू से गौरवगाथा लिखी थी...आज हम एक ऐसे शहीद की बात करेंगे, जिसका नाम आने पर न केवल भारतवासी बल्कि चीनी भी सम्मान से सिर झुका देते हैं... वो मोर्चे पर लड़े और ऐसे लड़े कि दुनिया हैरान रह गई,
इससे भी ज्यादा हैरानी आपको ये जानकर होगी कि 1962 वॉर में शहीद हुआ भारत माता का वो सपूत आज भी ड्यूटी पर तैनात है...
शहीद राइफलमैन को मिलता है हर बार प्रमोशन...
उनकी सेना की वर्दी हर रोज प्रेस होती है, हर रोज जूते पॉलिश किए जाते हैं...उनका खाना भी हर रोज भेजा जाता है और वो देश की सीमा की सुरक्षा आज भी करते हैं...सेना के रजिस्टर में उनकी ड्यूटी की एंट्री आज भी होती है और उन्हें प्रमोश भी मिलते हैं...
अब वो कैप्टन बन चुके हैं...इनका नाम है- "कैप्टन जसवंत सिंह रावत।"
महावीर चक्र से सम्मानित फौजी जसवंत सिंह को आज बाबा जसवंत सिंह के नाम से जाना जाता है...ऐसा कहा जाता है कि अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले के जिस इलाके में जसवंत ने जंग लड़ी थी उस जगह वो आज भी ड्यूटी करते हैं और भूत प्रेत में यकीन न रखने वाली सेना और सरकार भी उनकी मौजूदगी को चुनौती देने का दम नहीं रखते... बाबा जसवंत सिंह का ये रुतबा सिर्फ भारत में नहीं बल्कि सीमा के उस पार चीन में भी है...
पूरे तीन दिन तक चीनियों से अकेले लड़ा था वो जांबाज...
अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले में नूरांग में बाबा जसवंत सिंह ने वो ऐतिहासिक जंग लड़ी थी... वो 1962 की जंग का आखिरी दौर था...चीनी सेना हर मोर्चे पर हावी हो रही थी...लिहाजा भारतीय सेना ने नूरांग में तैनात गढ़वाल यूनिट की चौथी बटालियन को वापस बुलाने का आदेश दे दिया...पूरी बटालियन लौट गई, लेकिन जसवंत सिंह, लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी और गोपाल सिंह गुसाईं नहीं लौटे...बाबा जसवंत ने पहले त्रिलोक और गोपाल सिंह के साथ और फिर दो स्थानीय लड़कियों की मदद से चीनियों के साथ मोर्चा लेने की रणनीति तैयार की...बाबा जसवंत सिंह ने अलग अलग जगह पर राईफल तैनात कीं और इस अंदाज में फायरिंग करते गए मानो उनके साथ बहुत सारे सैनिक वहां तैनात हैं...उनके साथ केवल दो स्थानीय लड़कियां थीं, जिनके नाम थे, सेला और नूरा।
चीनी परेशान हो गए और तीन दिन यानी 72 घंटे तक वो ये नहीं समझ पाए कि उनके साथ अकेले जसवंत सिंह मोर्चा लड़ा रहे हैं...तीन दिन बाद जसवंत सिंह को रसद आपूर्ति करने वाली नूरा को चीनियों ने पकड़ लिया...
इसके बाद उनकी मदद कर रही दूसरी लड़की सेला पर चीनियों ने ग्रेनेड से हमला किया और वह शहीद हो गई, लेकिन वो जसवंत तक फिर भी नहीं पहुंच पाए...बाबा जसवंत ने खुद को गोली मार ली...
"भारत माता का ये लाल नूरांग में शहीद हो गया।"
चीनी सेना भी सम्मान करती है शहीद जसवंत का...
चीनी सैनिकों को जब पता चला कि उनके साथ तीन दिन से अकेले जसवंत सिंह लड़ रहे थे तो वे हैरान रह गए...चीनी सैनिक उनका सिर काटकर अपने देश ले गए...20 अक्टूबर 1962 को संघर्ष विराम की घोषणा हुई...चीनी कमांडर ने जसवंत की बहादुरी की लोहा माना और सम्मान स्वरूप न केवल उनका कटा हुआ सिर वापस लौटाया बल्कि कांसे की मूर्ति भी भेंट की...
उस शहीद के स्मारक पर भारतीय-चीनी झुकाते है सर...जिस जगह पर बाबा जसवंत ने चीनियों के दांत खट्टे किए थे...
उस जगह पर एक मंदिर बना दिया गया है... इस मंदिर में चीन की ओर से दी गई कांसे की वो मूर्ति भी लगी है...उधर से गुजरने वाला हर जनरल और जवान वहां सिर झुकाने के बाद ही आगे बढ़ता है...स्थानीय नागरिक और नूरांग फॉल जाने वाले पर्यटक भी बाबा से आर्शीवाद लेने के लिए जाते हैं...वो जानते हैं बाबा वहां हैं और देश की सीमा की सुरक्षा कर रहे हैं...
"वो जानते हैं बाबा शहीद हो चुके हैं... वो जानते हैं बाबा जिंदा हैं... बाबा अमर हैं..."
जयहिंद।
आभार : सचिन श्रीवास्तव
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himachli gazal : dwijendra 'dwij'
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himachli
मंगलवार, 12 मार्च 2013
चित्र पर कविता : संजीव 'सलिल'
चित्र पर कविता :
प्रस्तुत है एक दिलचस्प चित्र। इसका अवलोकन करें और लिख भेजें अपने मनोभाव

चित्र पर कविता :
सामयिक रचना:
१. अन्दर बाहर
संजीव 'सलिल'
*
अन्दर-बाहर खेल हो रहा...
*
ये अपनों पर नहीं भौकते,
वे अपनों पर गुर्राते हैं.
ये खाते तो साथ निभाते,
वे खा-खाकर गर्राते हैं.
ये छल करते नहीं किसी से-
वे छल करते, मुटियाते हैं.
ये रक्षा करते स्वामी की,
वे खुद रक्षित हो जाते हैं.
ये लड़ते रोटी की खातिर
उनमें लेकिन मेल हो रहा
अन्दर-बाहर खेल हो रहा...
*
ये न जानते धोखा देना,
वे धोखा दे ठग जाते हैं.
ये खाते तो पूँछ हिलाते,
वे मत लेकर लतियाते हैं.
ये भौंका करते सचेत हो-
वे अचेत कर हर्षाते हैं.
ये न खेलते हैं इज्जत से,
वे इज्जत ही बिकवाते हैं.
ये न जोड़ते धन-दौलत पर-
उनका पेलमपेल हो रहा.
अन्दर बाहर खेल हो रहा...
*
प्रस्तुत है एक दिलचस्प चित्र। इसका अवलोकन करें और लिख भेजें अपने मनोभाव
चित्र पर कविता :
सामयिक रचना:
१. अन्दर बाहर
संजीव 'सलिल'
*
अन्दर-बाहर खेल हो रहा...
*
ये अपनों पर नहीं भौकते,
वे अपनों पर गुर्राते हैं.
ये खाते तो साथ निभाते,
वे खा-खाकर गर्राते हैं.
ये छल करते नहीं किसी से-
वे छल करते, मुटियाते हैं.
ये रक्षा करते स्वामी की,
वे खुद रक्षित हो जाते हैं.
ये लड़ते रोटी की खातिर
उनमें लेकिन मेल हो रहा
अन्दर-बाहर खेल हो रहा...
*
ये न जानते धोखा देना,
वे धोखा दे ठग जाते हैं.
ये खाते तो पूँछ हिलाते,
वे मत लेकर लतियाते हैं.
ये भौंका करते सचेत हो-
वे अचेत कर हर्षाते हैं.
ये न खेलते हैं इज्जत से,
वे इज्जत ही बिकवाते हैं.
ये न जोड़ते धन-दौलत पर-
उनका पेलमपेल हो रहा.
अन्दर बाहर खेल हो रहा...
*
२. एक विधान
*
॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
3. एक रचना
एस.एन.शर्मा 'कमल'
*
हमारे माननीय सत्ता भवन में
भारी बहस के बाद बाहर आ रहे है
वहाँ बहुत भौंकने के बाद थक गए
अब खुली हवा खा रहे हैं
हर रंग और ढंग के मिलेंगे यह सभी
कुछ सफेदपोश
कुछ काले लबादे ओढे विरोधी
तो कुछ नूराँ कुश्ती वाले भदरंगी
सत्ता को डरा धमाका कर यह
कुछ टुकड़े ज्यादह पा जाते हैं
विरोध में भौंकते नहीं अघाते हैं
पर सत्ता को गिराने वाले
मौको पर कन्नी काट जाते हैं
सत्ता के पक्षमें तब दुम हिलाते हैं
कुत्ते की जात दो कौड़ी की हाँडी में
पहचानी जाती है
पर इनकी हांडी करोड़ों में खरीदी
और बेची जाती है
कुछ कुत्ते जेल भवन और
सत्ता भवन आते जाते हैं
जेल में भी सत्ता के दामाद जैसी
खातिर पाकर मौज उड़ाते हैं
हर जगह अधिकारी कर्मचारी
सलाम बजाते हैं
इन कुत्तों की महिलाओं से नहीं बनती
वे रसोई से लेकर सड़क तक
इनसे डरती हैं
मंहगाई और बलात्कार तक इनकी
तूती बजती है
इसलिए इनसे कन्नी काट कर
जैसा चित्र में है
किनारे किनारे चला करतीं
अब यह डाइनिग हाल में
छप्पन भोग चखने जायेंगे
बाहर इनको चुनने वाले
बारह रुपये की एक रोटी सुन
भूखे रह जायेंगे
न सम्हले हैं न सम्हलायेंगे
पांच साल बाद फिर
इन्हें चुन लायेंगे
*
| सन्तोष कुमार सिंह |
घूमा करते तुम कारों में,
हम आवारा घूम रहे।
हम रोटी को लालायत हैं,
तुम नोटों को चूम रहे।।
हम आवारा घूम रहे।
हम रोटी को लालायत हैं,
तुम नोटों को चूम रहे।।
भूख के मारे पेट पिचकता,
हमको तुम भी भूल गए,
तुमको खाने इतना मिलता,
पेट तुम्हारे फूल गए।।
हमको तुम भी भूल गए,
तुमको खाने इतना मिलता,
पेट तुम्हारे फूल गए।।
मानव सेवा हमने की है,
वफादार कहलाते हम।
लेकिन खाते जिस थाली में,
करते छेद उसी में तुम।।
वफादार कहलाते हम।
लेकिन खाते जिस थाली में,
करते छेद उसी में तुम।।
जल-जंगल के जीवों को तो,
आप सुरक्षा करो प्रदान।
जिससे हो कल्याण हमारा,
रच दो ऐसा एक विधान।।
आप सुरक्षा करो प्रदान।
जिससे हो कल्याण हमारा,
रच दो ऐसा एक विधान।।
santosh kumar ksantosh_45@yahoo.co.in
|
3. एक रचना
एस.एन.शर्मा 'कमल'
*
हमारे माननीय सत्ता भवन में
भारी बहस के बाद बाहर आ रहे है
वहाँ बहुत भौंकने के बाद थक गए
अब खुली हवा खा रहे हैं
हर रंग और ढंग के मिलेंगे यह सभी
कुछ सफेदपोश
कुछ काले लबादे ओढे विरोधी
तो कुछ नूराँ कुश्ती वाले भदरंगी
सत्ता को डरा धमाका कर यह
कुछ टुकड़े ज्यादह पा जाते हैं
विरोध में भौंकते नहीं अघाते हैं
पर सत्ता को गिराने वाले
मौको पर कन्नी काट जाते हैं
सत्ता के पक्षमें तब दुम हिलाते हैं
कुत्ते की जात दो कौड़ी की हाँडी में
पहचानी जाती है
पर इनकी हांडी करोड़ों में खरीदी
और बेची जाती है
कुछ कुत्ते जेल भवन और
सत्ता भवन आते जाते हैं
जेल में भी सत्ता के दामाद जैसी
खातिर पाकर मौज उड़ाते हैं
हर जगह अधिकारी कर्मचारी
सलाम बजाते हैं
इन कुत्तों की महिलाओं से नहीं बनती
वे रसोई से लेकर सड़क तक
इनसे डरती हैं
मंहगाई और बलात्कार तक इनकी
तूती बजती है
इसलिए इनसे कन्नी काट कर
जैसा चित्र में है
किनारे किनारे चला करतीं
अब यह डाइनिग हाल में
छप्पन भोग चखने जायेंगे
बाहर इनको चुनने वाले
बारह रुपये की एक रोटी सुन
भूखे रह जायेंगे
न सम्हले हैं न सम्हलायेंगे
पांच साल बाद फिर
इन्हें चुन लायेंगे
*
४. कुछ सतरें ---
प्रणव भारती
*
किस मुंह से बतलाएँ सबको कैसे-कैसे दोस्त हो गए,
सारे भीतर जा बैठे हैं,हमरे जीवन -प्राण खो गए ।
धूप में हमको खड़ा कर गए,छप्पन भोग का देकर लालच,
खुद ए .सी में जा बैठे हैं,कड़ी धूप में हमें सिकाकर ।
एक नजर न फेंकी हम पर कैसे दोस्त हैं हमने जाना ,
आज समझ लेंगे हम उनको ,जिनको अब तक न पहचाना ।
कारों में भी 'लॉक ' लगाकर ड्राइवर जाने कहाँ खो गये।
कैसी बेकदरी कर दी है,आज तो हम सब खफा हो गये।
कन्या एक चली है बाहर,जाने क्या लाई अंदर से?
हम तो जो हैं ,सो हैं मितरा ,तुम क्यों खिसियाए बन्दर से?
तुमने तो वादों की पंक्ति खड़ी करी थी हमरे सम्मुख,
अब क्यों छिप बैठे हो भीतर ,न जानो मित्रों का दुःख-सुख।
चले थे जब हम सभी घरों से ,कैसे खिलखिलकर हंसते थे,
यहाँ धूप में सुंतकर हम सब गलियारों की ख़ाक बन गए ।
किस मुंह से बतलाएँ सबको कैसे-कैसे दोस्त हो गए,
सारे भीतर जा बैठे हैं,हमरे जीवन-प्राण खो गए ॥
*
किरण
*
ऐ सफ़ेद
पोषक वालों!
निवेदन करने आयें हैं तुमसे,
सीख लिया तुमने
भोंकना, झगडना और
गुर्राना,
और कुछ पाने के लिए दुम हिलाना
लेकिन एक गुजारिश है –
सीख लो कुछ
वफ़ादारी हमसे,
पूरी जाति हो रही है बदमान तुमसे !
kiran yahoogroups.com
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चित्र पर कविता,
संजीव 'सलिल',
acharya sanjiv verma 'salil'
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