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शनिवार, 19 जून 2021

दोना पत्तल

विमर्श 
दोने-पत्तल में भोजन



भारत मे 2000 से ज्यादा वनस्पतियों से भोजन को रखने के लिए दोने पत्तल बनाई जाती है और इन दोने पत्तल मे हर एक दोने पत्तल कई कई बीमारियो का इलाज है और औषधीय गुण रखता है आइये हम कुछ जानकारी ले
आम तौर पर केले की पत्तियो मे खाना परोसा जाता है। प्राचीन ग्रंथों मे केले की पत्तियो पर परोसे गये भोजन को स्वास्थ्य के लिये लाभदायक बताया गया है। आजकल महंगे होटलों और रिसोर्ट मे भी केले की पत्तियो का यह प्रयोग होने लगा है।
* पलाश के पत्तल में भोजन करने से स्वर्ण के बर्तन में भोजन करने का पुण्य व आरोग्य मिलता है ।
* केले के पत्तल में भोजन करने से चांदी के बर्तन में भोजन करने का पुण्य व आरोग्य मिलता है ।
* रक्त की अशुद्धता के कारण होने वाली बीमारियों के लिये पलाश से तैयार पत्तल को उपयोगी माना जाता है। पाचन तंत्र सम्बन्धी रोगों के लिये भी इसका उपयोग होता है। आम तौर पर लाल फूलो वाले पलाश को हम जानते हैं पर सफेद फूलों वाला पलाश भी उपलब्ध है। इस दुर्लभ पलाश से तैयार पत्तल को बवासिर (पाइल्स) के रोगियों के लिये उपयोगी माना जाता है।
* जोडो के दर्द के लिये करंज की पत्तियों से तैयार पत्तल उपयोगी माना जाता है। पुरानी पत्तियों को नयी पत्तियों की तुलना मे अधिक उपयोगी माना जाता है।
* लकवा (पैरालिसिस) होने पर अमलतास की पत्तियों से तैयार पत्तलो को उपयोगी माना जाता है।
इसके अन्य लाभ :
1. सबसे पहले तो उसे धोना नहीं पड़ेगा, इसको हम सीधा मिटटी में दबा सकते है l
2. न पानी नष्ट होगा l
3. न ही कामवाली रखनी पड़ेगी, मासिक खर्च भी बचेगा l
4. न केमिकल उपयोग करने पड़ेंगे l
5. न केमिकल द्वारा शरीर को आंतरिक हानि पहुंचेगी l
6. अधिक से अधिक वृक्ष उगाये जायेंगे, जिससे कि अधिक आक्सीजन भी मिलेगी l
7. प्रदूषण भी घटेगा ।
8. सबसे महत्वपूर्ण झूठे पत्तलों को एक जगह गाड़ने पर, खाद का निर्माण किया जा सकता है, एवं मिटटी की उपजाऊ क्षमता को भी बढ़ाया जा सकता है l
9. पत्तल बनाए वालों को भी रोजगार प्राप्त होगा l
10. सबसे मुख्य लाभ, आप नदियों को दूषित होने से बहुत बड़े स्तर पर बचा सकते हैं, जैसे कि आप जानते ही हैं कि जो पानी आप बर्तन धोने में उपयोग कर रहे हो, वो केमिकल वाला पानी, पहले नाले में जायेगा, फिर आगे जाकर नदियों में ही छोड़ दिया जायेगा l जो जल प्रदूषण में आपको सहयोगी बनाता है..

गीता अध्याय ७ यथावत हिंदी पद्यान्तरण


गीता अध्याय ७
यथावत हिंदी पद्यान्तरण
*
हरि बोले: 'मुझमें रम अर्जुन! योग करो मम आश्रय ले।
निस्संदेह जान सकता है, मुझको कैसे वह सुन ले।१।
*
ज्ञान तुझे विज्ञान सहित मैं, पूरी तरह बताता हूँ।
जिसे जानकर नहीं जगत में , कुछ ज्ञातव्य शेष रहता।२।
*
मनुज हजारों में से कोई, एक सिद्धि हित यत्न करे।
ऐसे सिद्धों में से कोई एक मुझे जाने सच में।३।
*
पृथ्वी पानी अग्नि हवा नभ, बुद्धि मन के जानो।
अहंकार ये आठों मेरी, भिन्न शक्तियाँ पहचानो।४।
*
'अपरा' यह; जो अन्य प्रकृति है, जानो मेरी 'परा' कहा।
जीवयुक्त हे महाबाहु! जिससे यह जग धारित होता।५।
*
ये दोनों शक्तियाँ स्रोत हैं, सब जीवों के यह जानो।
मैं पूरी जग-उत्पत्ति का हेतु नाश का भी मानो।६।
*
मुझसे श्रेष्ठ न दूजा कोई है जान धनंजय मीता।
मुझमें सब कुछ यह जो दिखता, धागे गुंथे मोतियों सा।७।
*
रस मैं जल में हे कुंती सुत!, आभा हूँ शशि-सूरज की।
'अ उ म' प्रणव हूँ सब वेदों में, ध्वनि नभ में ताकत मनु ।८।
*
पुण्यगंध पृथ्वी की हूँ मैं, हूँ प्रकाश मैं पावक में।
जीवन हूँ सब जीवों में मैं, तप हूँ सकल तापसों में।९।
*
बीज मुझे सारे जीवों का, जानो पार्थ! सनातन मैं।
मति मतिमानों की हूँ मैं ही तेज तेजवानों का मैं।१०।
*
बल बलवानों का अरु मैं हूँ, विषय भोग आसक्ति बिना।
धर्म विरुद्ध न जो जीवों में, काम वही हूँ भारत हे!।११।
*
जो निश्चय ही सतोगुणी या, भाव राजसी तमोगुणी।
मुझसे ही उनको जानो पर, नहिं मैं उनमें वे मुझमें है।१२।
*
तीन गुणों से युक्त भाव ये, इनसे सब जग मोहित है।
नहीं जानता है मुझको जो, इनसे परे सनातन है।१३।
*
दैवी निश्चय ही यह गुणमय, मेरी माया दुस्तर है।
मेरे ही जो शरणागत हैं, माया पार जा सकें वे।१४।
*
हों नहिं दुष्ट मूढ़ शरणागत, मेरी मनुज अधर्मी जो।
माया द्वारा अपहृत ज्ञानी, बहुधा भावाश्रित हैं जो।१५।
*
चार तरह के मुझे भजें जन, हैं जो पुण्यात्मा अर्जुन!।
विपदग्रस्त जो जिज्ञासामय, लाभार्थी ग्यानी भारत।१६।
*
उनमें से ज्ञानी ही तत्पर, भक्तिलीन हैं विशिष्ट भी।
प्रिय ज्ञानी को मैं हूँ अतिशय, मुझको प्रिय अतिशय वह ही।१७।
*
उदार सब ही हैं ज्ञानी पर, मुझ सम मेरे मत में हैं।
रहे भक्ति ही में जो तत्पर, मुझे परम गति पाता है।१८ ।
*
अगिन जन्म-मरणांत सुज्ञानी, गहता मेरी शरण सदा।
वासुदेव सब कुछ हों जिसको, वही महात्मा दुर्लभ है।१९।
*
इच्छावश वे ज्ञानहीन जो, शरण अन्य देवों की लें।
उन विधियों का पालन करते, हो स्वभाव के वश में वे।२०।
*
जो जो जिस जिस देव रूप को, भक्त सश्रद्धा पूज रहा।
उसकी स्थिर श्रद्धा उसमें ही, निश्चय ही कर देता मैं।२१।
*
वह हो श्रद्धायुक्त देव को, पूज करे आकांक्षा जो।
पाता उसमें इच्छाओं को, मेरे द्वारा निश्चय ही।२२।
*
नाशवान लेकिन फल उनका, वह होता अल्पज्ञों का।
सुर समीप उनके पूजक जा, मेरे भक्त मुझे पाते।२३।
*
लुप्त रूप पाया सोचें जो मुझे, अल्प ज्ञानी हैं वो।
परम भाव जाने बिन मेरा, अविनाशी अति उत्तम जो।२४।
*
नहीं प्रगट होता सब सम्मुख, छिपा योगमाया में मैं।
मूर्ख व्यक्ति नहिं समझें मुझको, जन्मरहित अविनाशी मैं।२५।
*
जान रहा हूँ मैं अतीत को, वर्तमान को भी अर्जुन!
भावी-भूतों को जानूँ मैं, मुझसे अधिक नहीं कोई।२६।
*
इच्छा द्वेष उदित होने से, द्व्न्द मोह द्वारा भारत!
सारे जीव मोह ले जन्में, मोहग्रस्त हो शत्रुजयी।२७।
*
जिनके नष्ट पाप हो जाते, पुण्य कर्म जिनके होते।
वे द्वन्द के मोह में रहें, भक्त भजें मुझको दृढ़ हो।२८।
*
जरा मृत्यु से मुक्ति हेतु जो, मेरा आश्रय लेते हैं।
वे जन ब्रह्म वास्तव में हैं, जानें दिव्य कर्म पूरे।२९।
*
जो अधि-भूत-दैव को जानें, मुझे यज्ञ को जो जाने।
मृत्यु समय में भी मुझको वे, पाते जिनका मन मुझमें।३०।
*

शुक्रवार, 18 जून 2021

श्रीकृष्णार्जुन संवाद डॉ. नीलमणि दुबे


श्रीकृष्णार्जुन संवाद
डॉ. नीलमणि दुबे, शहडोल 
[प्रख्यात हिन्दीविद, मानस मर्मज्ञ डॉ. नीलमणि दुबे विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष हैं। यह रचना उन्होंने १९७४ में जब वे ९ वीं कक्षा की विद्यार्थी थीं, तब लिखी थी। 'होनहार विरवान के होत चीकने पात' उनके रूप में साकार है। ]
*
समर्पण-
नित होती जाए प्रीति नयी;
भगवान् आपके चरणों में, 
सत्य शब्द संचारित हों;
प्रभु मेरे इक-इक वर्णों में! 
सबके ही मन में सदा;
होते कुछ अरमान! 
पूर्ण करें उस चाह को;
नीलमणी घनश्याम!! 

पूर्वाभास-
कौरवों ने जब कर दिया;
हिस्सा देने से इंकार! 
पांडु-तनय तब हो गए;
लड़ने को तैयार!! 
भक्तिभाव के प्रेम से;
किया भक्त का काम! 
अर्जुन के सारथि बने;
मुरली धर घनश्याम!! 
(2) 
अर्जुन-
हे हृषीकेश रथ को बढ़ाओ जरा;
देखूँ कितने रणस्थल में आकर खड़े! 
किसकी कजा उसके सिर पर हुयी;
जो पाण्डु- पुत्र -सम्मुख आकर अड़े!! 

मेरी भृकुटि के सामने ;
ठहरे न किसी का आज प्रताप! 
मिला दूँ मैं सबको मिट्टी में;
संधानूँ जब अपना चाप!! 

श्री कृष्ण- 
मैं बढ़ाता हूँ पारथ रथ को;
तुम सावधान होकर रहना! 
ले देख उन्हें पहले अर्जुन;
जिनसे है अब तुमको लड़ना!! 
अर्जुन-
गोविंद यहाँ मैं देख रहा;
गुरुदेव -पितामह खड़े हुए! 
मामा, काका, अश्वत्थामा;
द्रुपदादि वीर सब अड़े हुए!! 

भगवान् आपके चरणों में;
यह श्रद्धा -पुष्प समर्पित है! 
कलियाँ तो विकसित हुयीं नहीं;
पर मन में उत्साह तो है!! 

सब अदेय तुमको भगवन्;
कुछ भाव समर्पित करती हूँ! 
निज शीश झुकाकर चरणों में;
शब्दों को अर्पित करती हूँ!!) 

अर्जुन-
आचार्य, मामा आदि को;
मारूँ न मैं निज वाण से! 
हाथों में लूँ गाण्डीव न;
क्यों न निकलें प्राण ये!! 

मारूँ कैसे गोपाल इन्हें;
ये तो सब मेरे अपने हैं! 
इनके बिन हे गिरिधर-माधव;
सुख-राज्य जगत् में सपने हैं!! 
फिर इन्हें मारकर हे माधव;
किस सुख का हम उपभोग करें? 
पृथ्वी , धन,राजपाट , वैभव -
का; किस प्रकार उपयोग करें? 

बिन मित्र-हितैषी के माधव;
सुख-राज्य वृथा ही होते हैं! 
शुभकर्मी कैसे वे राजा हों;
जिनके सब पूर्वज रोते हैं!! 

श्रीकृष्ण-
न कोई अपना है अर्जुन;
न कोई मित्र होता है! 
साथी वही सच्चा ;
जो जग में बीज बोता है!! 

मालिक तो इस संसार का;
भगवान्   होता   है! 
सदा आत्मा अमर रहती;
हाँ चोला नष्ट होता है!! 
अर्जुन तू मोह के कारण ही;
इनको निज स्वजन समझता है! 
अपनत्वजाल के कारण ही;
तेरा मन निज में भ्रमता है!! 

पर सोच-समझ कौंतेय जरा;
जब ये तेरे संबंधी हैं! 
 फिर क्यों तुमसे लड़ते   ये;
क्या इनकी आँखें अंधी हैं? 
अर्जुन-
रोमांच हो रहा है मुझको;
और ओंठ सूखता जाता है! 
पृथ्वी पर पाँव नहीं पड़ते;
@ थर-थर यह तन कंपाता है!! 

गांडीव हाथ से गिरता है; 
सारा शरीर भी जलता है! 
मेरा मन खुद में भ्रमता है;
कल्याण न आगे दिखता है!! 
श्रीकृष्ण-
अर्जुन कायर क्यों बनता है;
आत्मीय देखकर डरता है! 
हे पृथापुत्र युद्धस्थल में;
ऐसी बातें क्यों करता है? 
अर्जुन-
हे कृष्ण इनको मारकर;
पृथ्वी में रह सकते नहीं! 
हम भ्रातृ-पितृ-वियोग में;
दुनियाँ में जी सकते नहीं!! 

घनश्याम  हत आत्मीयजन; संसार-सुख होगा नहीं! 
क्या जानकर कोई मनुज;
कीचड़ में गिरता है कहीं? 

अच्युत् न सुख को चाहता हूँ;
धन का भी नहीं प्रयोजन है! 
इन सबके बिन भगवन् सुनिए ;
मिट्टी-सम षटरस  भोजन है!! 
अर्जुन-

यद्यपि ये लोभी हैं कृतघ्न;
कृत कर्मों का संताप नहीं! 
पर कुलक्षण में होना प्रवृत्त ;
हे माधव है क्या पाप नहीं  ? ×××

कुल- परंपराएँ मिटतीं तो;
कुल-रीति-धर्म निश्चय विनष्ट! 
नारी -जन पाप-प्रवृत्त अगर;
संतानें जारज और भ्रष्ट!! ×××

बिन पिंडोदक पूर्वज पाते;
रौ-रौ नरकों में घोर कष्ट! 
इसलिए युद्ध है इष्ट नहींं ;
कर देती हिंसक वृत्ति नष्ट!! ×××

गुरुजन-वध, राज्य-भोग-सुख से;
श्रेयस्कर मुझको भिक्षाटन! 
इन आतताइयों को मारूँ;
यह पापकर्म है मनमोहन!! ×××
श्रीकृष्ण-
अर्जुन मत बन तू नादान , 
यह दुश्शासन, मूर्त्त कुशासन, 
ले तू इसकी जान! 
कोई न प्यारा, नहीं सहारा, 
इनको मारो, न इनसे हारो, 
मत बतला तू ज्ञान!! 
यह दुर्योधन महाँ पपिष्टी, 
अत्याचारी, लोभी, कपटी, 
मिटा तू इसकी शान!!! 
अर्जुन-
ये लोग गर मारें मुझे;
प्रभु हो मेरा कल्याण ही! 
शुभ गति अगर मिलती नहीं;
तो नर्क भी होगा नहीं!!
 श्रीकृष्ण-
युद्ध छोड़ कर हे अर्जुन;
क्या कर्म दूसरा क्षत्रिय का? 
गो-ब्राह्मण -नारी-निर्बल की-
रक्षा ही धर्म है क्षत्रिय का!
श्रीकृष्ण-
तमतोम फाड़ देता था जो;
क्या चिंतन का वह खंग नहीं? 
क्षत-विक्षत अरिदल करता था;
धन्वी क्या आज अपंग नहीं? ××

यह तन असत्य है नाशवान;
देही अविनश्वर लेकिन सुन! 
कौमार्य-युवा-वृद्धावस्था;
बस देशधर्म हैं हे अर्जुन! ! ××
  
कायर- अकीर्तिकर मार्ग छोड़;
तुम क्षत्रियत्व का  करो वरण ! 
होगा निश्चय ही स्वर्ग प्राप्त;
वीरोचित रण में अगर मरण!! ××

माँ का लज्जित हो दूध नहीं;
आचरण न शास्त्र  -विरुद्ध करो! 
दुर्बलता छोड़ो, उठो पार्थ, 
 बैरी सम्मुख है, युद्ध करो!! ××
श्रीकृष्ण-
कर्णादिक वीरों के अर्जुन;
तुम शत्रु हमेशा कहलाए! 
अपमान किया राजाओं का;
पांचाली जाकर वर लाए!! 

अब युद्ध उन्हीं से करने को;
कुरुक्षेत्र रणस्थल में आए! 
 कुछ ऐसा कर तू हे अर्जुन;
तेरी अपकीर्ति न हो पाए!! 

अर्जुन-
मैं शरण आपकी आया हूँ;
मधुसूदन ज्ञान बताओ तुम  ! 
अज्ञानजाल को दूर हटा ;
उर में प्रकाश फैलाओ तुम!! 

माधव, कर संशय -हरण मेरा;
दो ऐसा अनुपम ज्ञान मुझे! 
तम-मोह दूर मेरा भी हो;
और दुनियाँ को भी मार्ग दिखे!! 

श्रीकृष्ण- 
तुमको निज सखा समझकर ही;
कौंतेय ज्ञान मैं कहता हूँ! 
तू धीरज धर अपने मन में;
अज्ञान सदा मैं हरता हूँ!! 

जब बुद्धि तुम्हारी कुरुनंदन;
इस मोह-दु:ख को पार करे! 
सुख रूप ज्ञान को पाओ तुम;
आत्मा श्रुतियों में विहार करे!! 

अर्जुन जो देह में देही है;
वह अमर सदा ही रहती है! 
चाहे शरीर हो नष्ट-भ्रष्ट;
पर आत्मा कभी न मरती है!! 

जो इसको नश्वर कहते हैं;
या इसको मरा मानते हैं! 
पर आत्मा कभी नहीं मरती ;
यद्यपि वे नर न जानते हैं!! 
श्री कृष्ण-
उत्पन्न अन्न से भूतप्राणि ;
वर्षा से अन्न-समुद्भव  है! 
वर्षा का कारण यज्ञ और;
यह यज्ञ कर्म से संभव है!! ××

तज फलासक्ति -मिथ्या संयम;
तू वर्णोचित कर्मों  को कर! 
कर्त्तापन-आशा-अहंकार;
मुझमें लय और समर्पित कर!!××

अति वेगवान है अश्व प्रबल;
मन- अनुशासन- वल्गा से कस! 
यज्ञाग्नि रूप हो अनासक्त;
जीवन जगतीहित बने निकष!!××
इंद्रिय-मन-बुद्धि-आत्मा को;
जीतो अर्जुन बन आत्मजयी! 
है कर्मयोग ही श्रेयस्कर;
यह सृष्टि समूची कर्ममयी!! ××
श्री कृष्ण-
 तुममें भ्रमती बुद्धि तुम्हारी;
इसमें नहीं तुम्हारा दोष! 
फिर भी आत्मा अमर हमेशा;
सोच इसे पाओ संतोष!! 

जो जन्म लेता जगत में;
मरता वो निश्चय जान तू! 
इसलिए हे पार्थ इसमें;
दु:ख न कुछ भी मान तू! 

वस्त्र जीर्ण हो जाने से;
ज्यों नर उससे नाता तोड़े! 
त्यों समय बीत जाने पर फिर;
आत्मा शरीर को भी छोड़े!! 

शाश्वत पुराण यह कहते हैं;
यह अजर- अमर- अविनाशी है! 
मर सकती है यह नहीं कभी;
 यह आत्मा घट -घट वासी है!!
श्रीकृष्ण-
आत्मा न शस्त्र से कटती है;
और पानी भिंगा नहीं सकता! 
पवन न इसे सुखा सकता-
और ताप न इसे जला सकता!!  

यह सूक्ष्म बहुत है महाबाहु;
अप्रकट सदा यह रहती है! 
ज्यों मनुष्य चोला बदले;
त्यों ही यह नित्य बदलती है!! 

नाशवान् शरीर में;
प्रवेश करती है सदा! 
पर जीर्ण होते छोड़ दे;
अवध्य है देही मुदा!! 

होती है धर्म की हानि और;
सज्जन जब पीड़ित होते हैं! 
बढ़ताअधर्म- अतिचार  तथा;
सन्मार्ग प्रतिष्ठा खोते हैं!! 


शारद वंदन

शारद वंदन
*
शारद मैया शस्त्र उठाओ,
हंस छोड़ सिंह पर सज आओ...
सीमा पर दुश्मन आया है, ले हथियार रहा ललकार।
वीणा पर हो राग भैरवी, भैरव जाग भरें हुंकार।।
रुद्र बने हर सैनिक अपना, चौंसठ योगिनी खप्पर ले।
पिएँ शत्रु का रक्त तृप्त हो,
गुँजा जयघोषों से जग दें।।
नव दुर्गे! सैनिक बन जाओ
शारद मैया! शस्त्र उठाओ...
एक वार दो को मारे फिर, मरे तीसरा दहशत से।
दुनिया को लड़ मुक्त कराओ, चीनी दनुजों के भय से।।
जाप महामृत्युंजय का कर, हस्त सुमिरनी हाे अविचल।
शंखघोष कर वक्ष चीर दो,
भूलुंठित हों अरि के दल।।
रणचंडी दस दिश थर्राओ,
शारद मैया शस्त्र उठाओ...
कोरोना दाता यह राक्षस,
मानवता का शत्रु बना।
हिमगिरि पर अब शांति-शत्रु संग, शांति-सुतों का समर ठना।।
भरत कनिष्क समुद्रगुप्त दुर्गा राणा लछमीबाई।
चेन्नम्मा ललिता हमीद सेंखों सा शौर्य जगा माई।।
घुस दुश्मन के किले ढहाओ,
शारद मैया! शस्त्र उठाओ...
***

१७-६-२०२० 

दोपदी, मुक्तक, कवित्त

दोपदी 
पा पा कह मंज़िल पाने को, जो करते प्रोत्साहित
प्यार उन्हें करते सब बच्चे, पापा कह होते नत
*
मुक्तक 
श्रेया है बगिया की कलिका, झूमे नित्य बहारों संग।
हर दिन होली रात दिवाली, पल-पल खुशियाँ भर दें रंग।।
कदम-कदम बढ़ नित नव मंजिल पाओ, दुनिया देखे दंग।
रुकना झुकना चुकना मत तुम, जीतो जीवन की हर जंग।।
*
कवित्त
*
शिवशंकर भर हुंकार, चीन पर करो प्रहार, हो जाए क्षार-क्षार, कोरोना दानव।
तज दो प्रभु अब समाधि, असहनीय हुई व्याधि, भूकलंक है उपाधि, देह भले मानव।।
करता नित अनाचार, वक्ष ठोंक दुराचार, मिथ्या घातक प्रचार, करे कपट लाघव।
स्वार्थ-रथ हुआ सवार, धोखा दे करे वार, सिंह नहीं है सियार, मिटा दो अमानव।।
***
१८-६-२०२०

गीत

गीत 
क्या???
*
क्या तेरा?
क्या मेरा? साधो!
क्या तेरा?
क्या मेरा? रे!....
*
ताना-बाना कौन बुन रहा?
कहो कपास उगाता कौन?
सूत-कपास न लट्ठम-लट्ठा,
क्यों करते हम, रहें न मौन?
किसका फेरा?
किसका डेरा?
किसका साँझ-सवेरा रे!....
*
आना-जाना, जाना-आना
मिले सफर में जो; बेगाना।
किसका अब तक रहा?, रहेगा
किसका हरदम ठौर-ठिकाना?
जिसने हेरा,
जिसने टेरा
उसका ही पग-फेरा रे!....
*
कालकूट या अमिय; मिले जो
अँजुरी में ले; हँसकर पी।
जीते-जीते मर मत जाना,
मरते-मरते जीकर जी।
लाँघो घेरा,
लगे न फेरा
लूट, न लुटा बसेरा रे!....
***
१८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८,
salil.sanjiv@gmail.com

दोहा के रंग बाल के संग

दोहा के रंग बाल के संग
संजीव
*
बाल-बाल जब भी बचें, कहें देव! आभार
बाल न बांका हो कभी कृपा करें सरकार
मान गनीमत समय पर, कहें गधे को बाप
काम नहीं तो बाप को, गधा कह रहे आप
*
गिरें खुद-ब-खुद तो नहीं, देते किंचित पीर
नोचें-तोड़ें बाल तो, हों अधीर पा पीर
*
बाल भीगकर भिगाते, कुंकुम कंचन देह
कंगन-पायल मुग्ध लख, बिन मौसम का मेह
*
बाल बराबर भी अगर, नैतिकता हो संग
कर न सकेगा तब सबल, किसी निबल को तंग
*
बाल पूँछ का हो रहा, नित्य दुखी हैरान
धूल हटा, मक्खी भगा, थके-चुके हैरान
*
भौंह-बाल तन चाप सम, नयन बाण दें मार
पल में बिंध दिल सूरमा, करे हार स्वीकार
*
अगर बाल हो तो 'सलिल', रहो नाक के बाल
मूंछ-बाल बन तन रखो, हरदम उन्नत भाल
*
बाल बनाते जा रहे, काट-गिराकर बाल
सर्प यज्ञ पश्चात ज्यों, पड़े अनगिनत व्याल
*
बाल और कपि एक से, बाल-वृद्ध हैं एक
वृद्ध और कपि एक क्यों, माने नहीं विवेक?
*
बाल मुँड़ाने से अगर, मिटता मोह-विकार
हो जाती हर भेड़ तब, भवसागर के पार
*
बाल होलिका-ज्वाल में, बाल भूनते साथ
दीप बाल, कर आरती, नवा रहे हैं माथ
*
बाल न बढ़ते तनिक भी, बाल चिढ़ाते खूब
तू न तरीका बताती, जाऊँ नदी में डूब
*
सुलझा काढ़ो ऊँछ लो, पटियां पारो खूब
गूंथौ गजरा बाल में, प्रिय हेरे रस-डूब
*
नहीं धूप में किये हैं, हमने बाल सफेद
जी चाहा जीभर लिखा, किया न किंचित खेद
*
बाल खड़े हों जब कभी, प्रभु सुमिरें मनमीत
साहस कर उठ हों खड़े, भय पर पायें जीत
१८-६-२०१५ 
*

गुरुवार, 17 जून 2021

रानी लक्ष्मीबाई

इंदौर में रहते थे रानी लक्ष्मीबाई के बेटे, हर पल रहती थी अंग्रेजों की नजर
आज झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि है।


dainikbhaskar.com उनके खास व्‍यक्‍ति‍त्‍व, गौरवशाली इति‍हास और अन्‍य पहलुओं से आपको रूबरू करा रहा है। इतिहास की ताकतवर महिलाओं में शुमार रानी लक्ष्मी बाई के बेटे का जिक्र इतिहास में भी बहुत कम हुआ है। यही वजह है कि यह असलियत लोगों के सामने नहीं आ पाई। रानी के शहीद होने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें इंदौर भेज दिया था। उन्होंने बेहद गरीबी में अपना जीवन बिताया। अंग्रेजों की उनपर हर पल नजर रहती थीं। दामोदर के बारे में कहा जाता है कि इंदौर के ब्राह्मण परिवार ने उनका लालन-पालन किया था।
इतिहास में जब भी पहले स्वतंत्रता संग्राम की बात होती है तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जिक्र सबसे पहले होता है। रानी लक्ष्मीबाई के परिजन आज भी गुमनामी का जीवन जी रहे हैं। 17 जून 1858 में ग्वालियर में रानी शहीद हो गई थी। रानी के शहीद होते ही वह राजकुमार गुमनामी के अंधेरे में खो गया जिसको पीठ बांधकर उन्होंने अंग्रेजो से युद्ध लड़ा था। इतिहासकार कहते हैं कि रानी लक्ष्मीबाई का परिवार आज भी गुमनामी की जिंदगी जी रहा है। दामोदर राव का असली नाम आनंद राव था। इसे भी बहुत कम लोग जानते हैं। उनका जन्म झांसी के राजा गंगाधर राव के खानदान में ही हुआ था।
500 पठान थे अंगरक्षक
दामोदर राव जब भी अपनी मां झांसी की रानी के साथ महालक्ष्मी मंदिर जाते थे, तो 500 पठान अंगरक्षक उनके साथ होते थे। रानी के शहीद होने के बाद राजकुमार दामोदर को मेजर प्लीक ने इंदौर भेज दिया था। पांच मई 1860 को इंदौर के रेजिडेंट रिचमंड शेक्सपियर ने दामोदर राव का लालन-पालन मीर मुंशी पंडित धर्मनारायण कश्मीरी को सौंप दिया। दामोदर राव को सिर्फ 150 रुपए महीने पेंशन दी जाती थी।
28 मई 1906 को इंदौर में हुआ था दामोदर का निधन
लोगों का यह भी कहना है कि दामोदर राव कभी 25 लाख रुपए की सालाना रियासत के मालिक थे, जबकि दामोदर के असली पिता वासुदेव राव नेवालकर के पास खुद चार से पांच लाख रुपए सालाना की जागीर थी। बेहद संघर्षों में जिंदगी जीने वाली दामोदर राव 1848 में पैदा हुए थे। उनका निधन 28 मई 1906 को इंदौर में बताया जाता है।
इंदौर में हुआ था दामोदर राव का विवाह
रानी लक्ष्मीबाई के बेटे के निधन के बाद 19 नवंबर 1853 को पांच वर्षीय दामोदर राव को गोद लिया गया था। दामोदर के पिता वासुदेव थे। वह बाद में जब इंदौर रहने लगे तो वहां पर ही उनका विवाह हो गया दामोदर राव के बेटे का नाम लक्ष्मण राव था। लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए। कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।
लक्ष्मण राव को बाहर जाने की नहीं थी इजाजत
23 अक्टूबर वर्ष1879 में जन्मे दामोदर राव के पुत्र लक्ष्मण राव का चार मई 1959 को निधन हो गया। लक्ष्मण राव को इंदौर के बाहर जाने की इजाजत नहीं थी। इंदौर रेजिडेंसी से 200 रुपए मासिक पेंशन आती थी, लेकिन पिता दामोदर के निधन के बाद यह पेंशन 100 रुपए हो गई। वर्ष 1923 में 50 रुपए हो गई। 1951 में यूपी सरकार ने रानी के नाती यानी दामोदर राव के पुत्र को 50 रुपए मासिक सहायता आवेदन करने पर दी थी, जो बाद में 75 रुपए कर दी गई।
जंगल में भटकते रहे दामोदर राव
इतिहासकार ओम शंकर असर के अनुसार, रानी लक्ष्मीबाई दामोदर राव को पीठ से बांध कर चार अप्रैल 1858 को झांसी से कूच कर गई थीं। 17 जून 1858 को तक यह बालक सोता-जागता रहा। युद्ध के अंतिम दिनों में तेज होती लड़ाई के बीच महारानी ने अपने विश्वास पात्र सरदार रामचंद्र राव देशमुख को दामोदर राव की जिम्मेदारी सौंप दी। दो वर्षों तक वह दामोदर को अपने साथ लिए रहे। वह दामोदर राव को लेकर ललितपुर जिले के जंगलों में भटके।
पहले किया गिरफ्तार फिर भेजा इंदौर
दामोदर राव के दल के सदस्य भेष बदलकर राशन का सामान लाते थे। दामोदर के दल में कुछ उंट और घोड़े थे। इनमें से कुछ घोड़े देने की शर्त पर उन्हें शरण मिलती थी। शिवपुरी के पास जिला पाटन में एक नदी के पास छिपे दामोदर राव को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर उन्हें मई, 1860 में अंग्रेजों ने इंदौर भेज दिया गया था। बताया जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई के परिजन आज भी इंदौर में गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं। परिवार के सदस्य प्रदेश के पुलिस विभाग में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।

गीत: राकेश खंडेलवाल

एक गीत:
राकेश खंडेलवाल
आदरणीय संजीव सलिल की रचना ( अच्छे दिन आयेंगे सुनकर जी लिये
नोट भी पायेंगे सुनकर जी लिये ) से प्रेरित
*
प्यास सुलगती, घिरा अंधेरा
बस कुछ पल हैं इनका डेरा
सावन यहाँ अभी घिरता है
और दीप जलने वाले हैं
नगर ढिंढोरा पीट, शाम को तानसेन गाने वाले हैं
रे मन धीरज रख ले कुछ पल, अच्छे दिन आने वाले हैं
बँधी महाजन की बहियों में उलझी हुई जन्म कुंडलियाँ
होंगी मुक्त, व्यूह को इनके अभिमन्यु आकर तोड़ेगा
पनघट पर मिट्टी पीतल के कलशों में जो खिंची दरारें
समदर्शी धारा का रेला, आज इन्हें फ़िर से जोड़ेगा
सूनी एकाकी गलियों में
विकच गंधहीना कलियों में
भरने गन्ध, चूमने पग से
होड़ मचेगी अब अलियों में
बीत चुका वनवास, शीघ्र ही राम अवध आने वाले हैं
रे मन धीरज रख ले कुछ पल, अच्छे दिन आने वाले हैं
फिर से होंगी पूज्य नारियाँ,रमें देवता आकर भू पर
लोलुपता के बाँध नहीं फिर तोड़ेगा कोई दुर्योधन
एकलव्य के दायें कर का नहीं अँगूठा पुन: कटेगा
राजा और प्रजा में होगा सबन्धों का मृदु संयोजन
लगा जागने सोया गुरुकुल
दिखते हैं शुभ सारे संकुल
मन के आंगन से बिछुड़ेगा
संतापों का पूरा ही कुल
फूल गुलाबों के जीवन की गलियाँ महकाने वाले हैं
रे मन धीरज रख ले कुछ पल, अच्छे दिन आने वाले हैं
अर्थहीन हो चुके शब्द ये, आश्वासन में ढलते ढलते
बदल गई पीढ़ी इक पूरी, इन सपनों के फ़ीकेपन में
सुखद कोई अनुभूति आज तक द्वारे पर आकर न ठहरी
भटका किया निरंतर जन गण, जयघोषों के सूने पन में
आ कोई परिवर्तन छू रे
बरसों में बदले हैं घूरे
यहाँ फूल की क्यारी में भी
उगते आये सिर्फ़ धतूरे
हमें पता हैं यह सब नारे, मन को बहकाने वाले हैं
राहें बन्द हो चुकी सारी अच्छे दिन आने वाले हैं ?
१७-६-२०१५ 
*

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव
*
तुम गलत पर हम सही कहते रहे हैं
इसलिए ही दूरियाँ सहते रहे हैं
.
ज़माने ने उजाड़ा हमको हमेशा
मगर फिर-फिर हम यहीं रहते रहे हैं
.
एक भी पूरा हुआ तो कम नहीं है
महल सपनों के अगिन ढहते रहे हैं
.
प्रथाओं को तुम बदलना चाहते हो
पृथाओं से कर्ण हम गहते रहे हैं
.
बिसारी तुमने भले यादें हमारी
सुधि तुम्हारी हम सतत तहते रहे हैं
.
पलाशों की पीर जग ने की अदेखी
व्यथित होकर 'सलिल' चुप दहते रहे हैं
.
हम किनारों पर ठहर कब्जा न चाहें
इसलिए होकर 'सलिल' बहते रहे हैं.
१७-६-२०१५ 
*

बाल गीत: पाखी की बिल्ली

बाल गीत:
पाखी की बिल्ली
संजीव 'सलिल'
*
*
पाखी ने बिल्ली पाली.
सौंपी घर की रखवाली..
फिर पाखी बाज़ार गयी.
लाये किताबें नयी-नयी
तनिक देर जागी बिल्ली.
हुई तबीयत फिर ढिल्ली..
लगी ऊंघने फिर सोयी.
सुख सपनों में थी खोयी..
मिट्ठू ने अवसर पाया.
गेंद उठाकर ले आया..
गेंद नचाना मन भाया.
निज करतब पर इठलाया..
घर में चूहा आया एक.
नहीं इरादे उसके नेक..
चुरा मिठाई खाऊँगा.
ऊधम खूब मचाऊँगा..
आहट सुन बिल्ली जागी.
चूहे के पीछे भागी..
झट चूहे को जा पकड़ा.
भागा चूहा दे झटका..
बिल्ली खीझी, खिसियाई.
मन ही मन में पछताई..
१७-६-२०१२ 
******

मुक्तक गीत

मुक्तक गीत:
जिसकी यादों में 'सलिल', खोया सुबहो-शाम.
कण-कण में वह दीखता, मुझको आठों याम..
दूरियाँ उससे जो मेरी हैं, मिटा लूँ तो चलूँ
उसमें बस जाऊँ उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
*
मैं तो साया हूँ, मेरा ज़िक्र भी कोई क्यों करे.
जब भी ले नाम मेरा, उसका ही जग नाम वरे..
बाग़ में फूल नया कोई खिला लूँ तो चलूँ
उसमें बस जाऊँ उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ …… 
*
ईश अम्बर का वो, वसुधा का सलिल हूँ मैं तो
वास्तव में वही श्री है, कुछ नहीं हूँ मैं तो..
बनूँ गुमनाम, मिला नाम भुला लूँ तो चलूँ.
उसमें बस जाऊँ उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
*
वही वो शेष रहे, नाम न मेरा हो कहीं.
यही अंतिम हो 'सलिल', अब तो न फेरा हो कहीं..
नेह का गेह तजे देह, विदा दो तो चलूँ.
उसमें बस जाऊँ उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
१७-६-२०१०
****************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम/ सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम

गीत मैं भारत हूँ

 गीत 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
वृक्षों में वट वृक्ष सदृश मैं भारत हूँ
*
जड़ें सनातन ज्ञान आत्मा है मेरी
तन है तना समान सुदृढ़ आश्रयदाता
शाखाएँ हैं प्रथा पुरातन परंपरा 
पत्ता पत्ता जीव, गीत मिल गुंजाता
पंछी कलरव करते, आगत स्वागत हूँ
वृक्षों में वट वृक्ष सदृश मैं भारत हूँ
*
औषध बन मैं जाने कितने रोग हरूँ 
लकड़ी बल्ली मलगा अनगिन रूप धरूँ
कोटर में, शाखों पर जीवन विकसित हो
आँधी तूफां सहता रहता अविचल हो
पूजन व्रत मैं, सदा सुहागन ज्योतित हूँ
वृक्षों में वट वृक्ष सदृश मैं भारत हूँ
*
हूँ अनेक में एक, एक में अनगिनती
सूर्य-चंद्रमा, धूप-चाँदनी सहचर हैं
ग्रह-उपग्रह, तारागण पवन मित्र मेरे
अनिल अनल भू सलिल गगन मम पालक हैं
सेतु ज्ञान विज्ञान मध्य, गत-आगत हूँ
वृक्षों में वट वृक्ष सदृश मैं भारत हूँ
*
वेद पुराण उपनिषद आगम निगम लिखे
ऋषियों ने मेरी छाया में हवन करे
अहंकार मनमानी का उत्थान-पतन
देखा, लेखा ऋषि पग में झुकता नृप सिंहासन 
विधि-ध्वनि, विष्णु-रमा, शिव-शिवा तपी-तप हूँ
वृक्षों में वट वृक्ष सदृश मैं भारत हूँ
*
विश्व नीड़ में आत्म दीप बन जलता हूँ
चित्र गुप्त साकार मूर्त हो मिटता हूँ
जगवाणी हिंदी मेरा जयघोष करे
देवनागरी लिपि जन-मन हथियार सखे!
सूना अवध सिया बिन, मैं भी दंडित हूँ
वृक्षों में वट वृक्ष सदृश मैं भारत हूँ
*
९४२५१ ८३२४४

गीत गुंजन 
१७-६-२०२१, समय अपराह्न ४ बजे से 
फेसबुक पृष्ठ : अभियान जबलपुर 
अध्यक्ष 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
संयोजक : विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर  
मुख्य अतिथि 
विजय जैन 
राष्ट्रीय अध्यक्ष मैं भारत हूँ 
संचालन सरला वर्मा, छाया सक्सेना 'प्रभु'
*
सरस्वती वंदना : अर्चना गोस्वामी, जबलपुर 
भारत वंदना : विभा तिवारी, जौनपुर 
आमंत्रित कविगण - सर्व आदरणीय 
सदानंद कवीश्वर, नोएडा  
निशि शर्मा 'जिज्ञासु', दिल्ली  
गीता शुक्ला, दिल्ली  
गीता चौबे, रांची  
संतोष शुक्ला, ग्वालियर
पुनीता भारद्वाज, भीलवाड़ा  
सुरेश कुशवाहा 'तन्मय', भोपाल  
मनोहर चौबे 'आकाश', जबलपुर 
बसंत शर्मा, जबलपुर 
भारती नरेश पाराशर, जबलपुर 
मुकुल तिवारी, जबलपुर 
इंद्रबहादुर श्रीवास्तव, जबलपुर  
डॉ. अनिल कुमार बाजपेई, जबलपुर 
उदयभानु तिवारी 'मधुकर'
*

बुधवार, 16 जून 2021

कार्यशाला, द्विपदी, दोहा

द्विपदी
मिला था ईद पे उससे गले हुलसकर मैं
किसे खबर थी वो पल में हलाल कर देगा.
*
दोहा
ला दे दे, रम जान तू, चला गया रमजान
सूख रहा है हलक अब होने दे रस-खान
*.
कार्यशाला:
ये मेरी तिश्नगी, लेकर कहाँ चली आई?
यहाँ तो दूर तक सहरा दिखाई देता है.
- डॉ.अम्बर प्रियदर्शी
चला था तोड़ के बंधन मिलेगी आजादी
यहाँ तो सरहदी पहरा दिखाई देता है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'
-----------------------------------
तिश्नगी का न पूछिए आलम
मैं जहाँ हूँ, वहाँ समंदर है.
- अम्बर प्रियदर्शी
राह बारिश की रहे देखते सूने नैना
क्या पता था कि गया रीत सारा अम्बर है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'

महीयसी छंद

 छंद कोष की एक झलक:

लगभग ३५० नए छंद विधान और उदाहरण सहित रचे जा चुके हैं। आगे कार्य जारी है.
षड्मात्रीय रागी जातीय छंद (प्रकार १५)
*
महीयसी छंद:
विधान: लघु गुरु लघु गुरु (१२१२)।
लक्षण छंद:
महीयसी!
गरीयसी।
सदा रहीं
ह्रदै बसीं।।
*
उदाहरण
गीत:
निशांत हो,
सुशांत हो।
*
उषा उगी
कली खिली।
बही हवा
भली भली।
सुखी रहो,
न भ्रांत हो...
*
सही कहो,
सही करो।
चले चलो,
नहीं डरो।
विरोध क्यों
नितांत हो...
*
करो भला
वरो भला।
नरेश हो
तरो भला।
न दास हो,
न कांत हो...
*
विराट हो
विशाल हो।
रुको नहीं
निढाल हो।
सुलक्ष्य पा
दिनांत हो...
**
७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४
salil.sanjiv@gmail.com

दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
कलकल सुन कर कल मिले. कल बनकर कल नष्ट।
कल बिसरा बेकल न हो, अकल मिटाए कष्ट।।
*
शब्द शब्द में भाव हो, भाव-भाव में अर्थ।
पाठक पढ़ सुख पा सके, वरना दोहा व्यर्थ।।
*
मेरा नाम अनाम हो, या हो वह गुमनाम।
देव कृपा इतनी करें, हो न सके बदनाम।।
*
चेले तो चंचल रहें, गुरु होते गंभीर।
गुरु गंगा बहते रहे, चेले बैठे तीर।।
*
चेला गुरु का गुरु बने, पल में रचकर स्वांग।
हंस न करता शोरगुल, मुर्गा देता बांग।।
*
१६.६.२०१८ -, ७९९९५५९६१८

विधाता/शुद्धगा छंद

रसानंद दे छंद नर्मदा ३४ : विधाता/शुद्धगा छंद
गुरुवार, १५ जून २०१६
*
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा तथा सखी छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए विधाता छन्द से
*
छंद लक्षण: जाति यौगिक, प्रति पद २८ मात्रा,
यति ७-७-७-७ / १४-१४ , ८ वीं - १५ वीं मात्रा लघु
विशेष: उर्दू बहर हज़ज सालिम 'मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन' इसी छंद पर आधारित है.
लक्षण छंद:
विधाता को / नमन कर ले , प्रयासों को / गगन कर ले
रंग नभ पर / सिंधु में जल , साज पर सुर / अचल कर ले
सिद्धि-तिथि लघु / नहीं कोई , दिखा कंकर / मिला शंकर
न रुक, चल गिर / न डर, उठ बढ़ , सीकरों को / सलिल कर ले
संकेत: रंग =७, सिंधु = ७, सुर/स्वर = ७, अचल/पर्वत = ७
सिद्धि = ८, तिथि = १५
उदाहरण:
१. न बोलें हम न बोलो तुम , सुनें कैसे बात मन की?
न तोलें हम न तोलो तुम , गुनें कैसे जात तन की ?
न डोलें हम न डोलो तुम , मिलें कैसे श्वास-वन में?
न घोलें हम न घोलो तुम, जियें कैसे प्रेम धुन में?
जात = असलियत, पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात
२. ज़माने की निगाहों से , न कोई बच सका अब तक
निगाहों ने कहा अपना , दिखा सपना लिया ठग तक
गिले - शिकवे करें किससे? , कहें किसको पराया हम?
न कोई है यहाँ अपना , रहें जिससे नुमायाँ हम
३. है हक़ीक़त कुछ न अपना , खुदा की है ज़िंदगानी
बुन रहा तू हसीं सपना , बुजुर्गों की निगहबानी
सीखता जब तक न तपना , सफलता क्यों हाथ आनी?
कोशिशों में खपा खुदको , तब बने तेरी कहानी
४. जिएंगे हम, मरेंगे हम, नहीं है गम, न सोचो तुम
जलेंगे हम, बुझेंगे हम, नहीं है तम, न सोचो तुम
कहीं हैं हम, कहीं हो तुम, कहीं हैं गम, न सोचो तुम
यहीं हैं हम, यहीं हो तुम, नहीं हमदम, न सोचो तुम
*********


गीत यार शिरीष

गीत 
यार शिरीष!
*
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
अब भी खड़े हुए एकाकी
रहे सोच क्यों साथ न बाकी?
तुमको भाते घर, माँ, बहिनें
हम चाहें मधुशाला-साकी।
तुम तुलसी को पूज रहे हो
सदा सुहागन निष्ठा पाले।
हम महुआ की मादकता के
हुए दीवाने ठर्रा ढाले।
चढ़े गिरीश
पर नहीं बिगड़े
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
राजनीति तुमको बेगानी
लोकनीति ही लगी सयानी।
देश हितों के तुम रखवाले
दुश्मन पर निज भ्रकुटी तानी।
हम अवसर को नहीं चूकते
लोभ नीति के हम हैं गाहक।
चाट सकें इसलिए थूकते
भोग नीति के चाहक-पालक।
जोड़ रहे
जो सपने बिछुड़े
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
तुम जंगल में धूनि रमाते
हम नगरों में मौज मनाते।
तुम खेतों में मेहनत करते
हम रिश्वत परदेश-छिपाते।
ताप-शीत-बारिश हँस झेली
जड़-जमीन तुम नहीं छोड़ते।
निज हित खातिर झोपड़ तो क्या
हम मन-मंदिर बेच-तोड़ते।
स्वार्थ पखेरू के
पर कतरे।
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
तुम धनिया-गोबर के संगी
रीति-नीति हम हैं दोरंगी।
तुम मँहगाई से पीड़ित हो
हमें न प्याज-दाल की तंगी।
अंकुर पल्लव पात फूल फल
औरों पर निर्मूल्य लुटाते।
काट रहे जो उठा कुल्हाड़ी
हाय! तरस उन पर तुम खाते।
तुम सिकुड़े
हम फैले-पसरे।
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
१६-६-२०१६ 
***

समीक्षा आचार्य भगवत दुबे नवगीत

कृति चर्चा:
हम जंगल के अमलतास : नवाशा प्रवाही नवगीत संकलन
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४
[कृति विवरण: हम जंगल के अमलतास, नवगीत संग्रह, आचार्य भगवत दुबे, २००८, पृष्ठ १२०, १५० रु., आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेटयुक्त, प्रकाशक कादंबरी जबलपुर, संपर्क: २६७२ विमल स्मृति, समीप पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर ४८२००३, चलभाष ९३००६१३९७५]
*
विश्ववाणी हिंदी के समृद्ध वांग्मय को रसप्लावित करती नवगीतीय भावधारा के समर्थ-सशक्त हस्ताक्षर आचार्य भगवत दुबे के नवगीत उनके व्यक्तित्व की तरह सहज, सरल, खुरदरे, प्राणवंत ततः जिजीविषाजयी हैं. इन नवगीतों का कथ्य सामाजिक विसंगतियों के मरुस्थल में मृग-मरीचिका की तरह आँखों में झूलते - टूटते स्वप्नों को पूरी बेबाकी से उद्घाटित तो करता है किन्तु हताश-निराश होकर आर्तनाद नहीं करता. ये नवगीत विधागत संकीर्ण मान्यताओं की अनदेखी कर, नवाशा का संचार करते हुए, अपने पद-चिन्हों से नव सृअन-पथ का अभिषेक करते हैं. संग्रह के प्रथम नवगीत 'ध्वजा नवगीत की' में आचार्य दुबे नवगीत के उन तत्वों का उल्लेख करते हैं जिन्हें वे नवगीत में आवश्यक मानते हैं:
नव प्रतीक, नव ताल, छंद नव लाये हैं
जन-जीवन के सारे चित्र बनाये हैं
की सरगम तैयार नये संगीत की
कसे उक्ति वैचित्र्य, चमत्कृत करते हैं
छोटी सी गागर में सागर भरते हैं
जहाँ मछलियाँ विचरण करें प्रतीत की
जो विरूपतायें समाज में दिखती हैं
गीत पंक्तियाँ उसी व्यथा को लिखती हैं
लीक छोड़ दी पारंपरिक अतीत की
अब फहराने लगी ध्वजा नवगीत की
सजग महाकाव्यकार, निपुण दोहाकार, प्रसिद्ध गजलकार, कुशल कहानीकार, विद्वान समीक्षक, सहृदय लोकगीतकार, मौलिक हाइकुकार आदि विविध रूपों में दुबे जी सतत सृजन कर चर्चित-सम्मानित हुए हैं. इन नवगीतों का वैशिष्ट्य आंचलिक जन-जीवन से अनुप्राणित होकर ग्राम्य जीवन के सहजानंद को शहरी जीवन के त्रासद वैभव पर वरीयता देते हुए मानव मूल्यों को शिखर पर स्थापित करना है. प्रो. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' इन नवगीतों के संबंध में ठीक ही लिखते हैं: '...भाषा, छंद, लय, बिम्ब और प्रतीकों के समन्वित-सज्जित प्रयोग की कसौटी पर भी दुबे जी खरे उतरते हैं. उनके गीत थके-हरे और अवसाद-जर्जर मानव-मन को आस्था और विश्वास की लोकांतर यात्रा करने में पूर्णत: सफल हुए हैं. अलंकार लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रचुर प्रयोग ने गीतों में जो ताजगी और खुशबू भर दी है, वह श्लाघनीय है.'
निराला द्वारा 'नव गति, नव लय, ताल-छंद नव' के आव्हान से नवगीत का प्रादुर्भाव मानने और स्व. राजेंद्र प्रसाद सिंह तथा स्व. शम्भुनाथ सिंह द्वारा प्रतिष्ठापित नवगीत को उद्भव काल की मान्यताओं और सीमाओं में कैद रखने का आग्रह करनेवाले नवगीतकार यह विस्मृत कट देते हैं कि काव्य विधा पल-पल परिवर्तित होती सलिला सदृश्य किसी विशिष्ट भाव-भंगिमा में कैद की ही नहीं जा सकती. सतत बदलाव ही काव्य की प्राण शक्ति है. दुबे जी नवगीत में परिवर्तन के पक्षधर हैं: "पिंजरों में जंगल की / मैना मत पालिये / पाँव में हवाओं के / बेड़ी मत डालिए... अब तक हैं यायावर'
यथार्थवाद और प्रगतिवाद के खोखले नारों पर आधरित तथाकथित प्रगतिवादी कविता की नीरसता के व्यूह को अपने सरस नवगीतों से छिन्न-भिन्न करते हुए दुबे जी अपने नवगीतों को छद्म क्रांतिधर्मिता से बचाकर रचनात्मक अनुभूतियों और सृजनात्मकता की और उन्मुख कर पाते हैं: 'जुल्म का अनुवाद / ये टूटी पसलियाँ हैं / देखिये जिस ओर / आतंकी बिजलियाँ हैं / हो रहे तेजाब जैसे / वक्त के तेव ... युगीन विसंतियों के निराकरण के उपाय भी घातक हैं: 'उर्वरक डाले विषैले / मूक माटी में / उग रहे हथियार पीने / शांत घाटी में'... किन्तु कहीं भी हताशा-निराशा या अवसाद नहीं है. अगले ही पल नवगीत आव्हान करता है: 'रूढ़ि-अंधविश्वासों की ये काराएँ तोड़ें'...'भ्रम के खरपतवार / ज्ञान की खुरपी से गोड़ें'. युगीन विडंबनाओं के साथ समन्वय और नवनिर्माण का स्वर समन्वित कर दुबेजी नवगीत को उद्देश्यपरक बना देते हैं.
राजनैतिक विद्रूपता का जीवंत चित्रण देखें: 'चीरहरण हो जाया करते / शकुनी के पाँसों से / छली गयी है प्रजा हमेशा / सत्ता के झाँसों से / राजनीti में सम्मानित / होती करतूतें काली' प्रकृति का सानिंध्य चेतना और स्फूर्ति देता है. अतः, पर्यावरण की सुरक्षा हमारा दायित्व है:
कभी ग्रीष्म, पावस, शीतलता
कभी वसंत सुहाना
विपुल खनिज-फल-फूल अन्न
जल-वायु प्रकृति से पाना
पर्यावरण सुरक्षा करके
हों हम मुक्त ऋणों से
नकारात्मता में भी सकरात्मकता देख पाने की दृष्टि स्वागतेय है:
ग्रीष्म ने जब भी जलाये पाँव मेरे
पीर की अनुभूति से परिचय हुआ है...
.....भ्रूण अँकुराये लता की कोख में जब
हार में भी जीत का निश्चय हुआ है.
प्रो. विद्यानंदन राजीव के अनुसार ये 'नवगीत वर्तमान जीवन के यथार्थ से न केवल रू-ब-रू होते हैं वरन सामाजिक विसंगतियों से मुठभेड़ करने की प्रहारक मुद्रा में दिखाई देते हैं.'
सामाजिक मर्यादा को क्षत-विक्षत करती स्थिति का चित्रण देखें: 'आबरू बेशर्म होकर / दे रही न्योते प्रणय के / हैं घिनौने चित्र ये / अंग्रेजियत से संविलय के / कर रही है यौन शिक्षा / मार्गदर्शन मनचलों का'
मौसमी परिवर्तनों पर दुबे जी के नवगीतों की मुद्रा अपनी मिसाल आप है: 'सूरज मार रहा किरणों के / कस-कस कर कोड़े / हवा हुई ज्वर ग्रस्त / देह पीली वृक्षों की / उलझी प्रश्नावली / नदी तट के यक्षों की / किन्तु युधिष्ठिर कृषक / धैर्य की वल्गा ना छोड़े.''
नवगीतकारों के सम्मुख नव छंद की समस्या प्राय: मुँह बाये रहती है. विवेच्य संग्रह के नवगीत पिन्गलीय विधानों का पालन करते हुए भी कथ्य की आवश्यकतानुसार गति-यति में परिवर्तन कर नवता की रक्षा कर पाते हैं.
'ध्वजा नवगीत की' शीर्षक नवगीत में २२-२२-२१ मात्रीय पंक्तियों के ६ अंतरे हैं. पहला समूह मुखड़े का कार्य कर रहा है, शेष समूह अंतरे के रूप में हैं. तृतीय पंक्ति में आनुप्रसिक तुकांतता का पालन किया गया है.
'हम जंगल के अमलतास' शीर्षक नवगीत पर कृति का नामकरण किया गया है. यह नवगीत महाभागवत जाति के गीतिका छंद में १४+१२ = २६ मात्रीय पंक्तियों में रचा गया है तथा पंक्त्यांत में लघु-गुरु का भी पालन है. मुखड़े में २ तथा अंतरों में ३-३ पंक्तियाँ हैं.
'जहाँ लोकरस रहते शहदीले' शीर्षक रचना महाभागवत जातीय छंद में है. मुखड़े तथा २ अंतरांत में गुरु-गुरु का पालन है, जबकि ३ रे अंतरे में एक गुरु है. यति में विविधता है: १६-१०, ११-१५, १४-१२.
'हार न मानी अच्छाई ने' शीर्षक गीत में प्रत्येक पंक्ति १६ मात्रीय है. मुखड़ा १६+१६=३२ मात्रिक है. अंतरे में ३२ मात्रिक २ (१६x४) समतुकांती पंक्तियाँ है. सवैया के समान मात्राएँ होने पर भी पंक्त्यांत में भगण न होने से यह सवैया गीत नहीं है.
'ममता का छप्पर' नवगीत महाभागवत जाति का है किन्तु यति में विविधता १६+१०, ११+१५, १५+११ आदि के कारण यह मिश्रित संकर छंद में है.
'बेड़ियाँ न डालिये' के अंतरे में १२+११=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ, पहले-तीसरे अंतरे में १२+१२=२४ मात्रिक २-२ पंक्तियाँ तथा दूसरे अंतरे में १०+१३=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ है. तीनों अंतरों के अंत में मुखड़े के सामान १२+१२ मात्रिक पंक्ति है. गीत में मात्रिक तथा यति की विविधता के बावजूद प्रवाह भंग नहीं है.
'नंगपन ऊँचे महल का शील है' शीर्षक गीत महापौराणिक जातीय छंद में है. अधिकांश पंक्तियों में ग्रंथि छंद के पिन्गलीय विधान (पंक्त्यांत लघु-गुरु) का पालन है किन्तु कहीं-कहीं अंत के गुरु को २ लघु में बदल लिया गया है तथापि लय भंग न हो इसका ध्यान रखा गया है.
वृद्ध मेघ क्वांर के (मुखड़ा १२+११ x २, ३ अन्तरा १२+१२ x २ + १२+ ११), वक्त यह बहुरुपिया (मुखड़ा १४+१२ , १-३ अन्तरा १४+१२ x ३, २ अन्तरा १२+ १४ x २ अ= १४=१२), यातनाओं की सुई (मुखड़ा १९,२०,१९,१९, ३ अन्तरा १९ x ६), हम त्रिशंकु जैसे तारे हैं, नयन लाज के भी झुक जाते - पादाकुलक छंद(मुखड़ा १६x २, ३ अन्तरा १६x ६), स्वार्थी सब शिखरस्थ हुए- महाभागवत जाति (२६ मात्रीय), हवा हुई ज्वर ग्रस्त २५ या २६ मात्रा, मार्गदर्शन मनचलों का-यौगिक जाति (मुखड़ा १४ x ४, ३ अन्तरा २८ x २ ), आचरण आदर्श के बौने हुए- महापौराणिक जाति (मुखड़ा १९ x २, ३ अन्तरा १९ x ४), पसलियाँ बचीं (मुखड़ा १२+८, १०=१०, ३ अन्तरा २०, २१ या २२ मात्रिक ४ पंक्तियाँ), खर्राटे भर रहे पहरुए (मुखड़ा १६ x २+१०, ३ अन्तरा १४ x ३ + १६+ १०),समय क्रूर डाकू ददुआ (मुखड़ा १६+१४ x २, ३ अन्तरा १६ x ४ + १४), दिल्ली तक जाएँगी लपटें (मुखड़ा २६x २, ३ अन्तरा २६x २ + २६), ओछे गणवेश (मुखड़ा २१ x २, ३ अन्तरा २० x २ + १२+१२ या ९), बूढ़ा हुआ बसंत (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा १६ x २ + २६), ब्याज रहे भरते (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा २६ x २ + २६) आदि से स्पष्ट है कि दुबे जी को छंदों पर अधिकार प्राप्त है. वे छंद के मानक रूप के अतिरिक्त कथ्य की माँग पर परिवर्तित रूप का प्रयोग भी करते हैं. वे लय को साधते हैं, यति-स्थान को नहीं. इससे उन्हें शब्द-चयन तथा शब्द-प्रयोग में सुविधा तथा स्वतंत्रता मिल जाती है जिससे भाव की समुचित अभिव्यक्ति संभव हो पाती है.
इन नवगीतों में खड़ी हिंदी, देशज बुन्देली, यदा-कदा उर्दू व् अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग, मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है जो लालित्य में वृद्धि करता है. दुबे जी कथ्यानुसार प्रतीकों, बिम्बों, उपमाओं तथा रूपकों का प्रयोग करते हैं. उनका मत है: 'इस नयी विधा ने काव्य पर कुटिलतापूर्वक लादे गए अतिबौद्धिक अछ्न्दिल बोझ को हल्का अवश्य किया है.' हम जंगल के अमलतास' एक महत्वपूर्ण नवगीत संग्रह है जो छान्दस वैविध्य और लालित्यपूर्ण अभिव्यक्ति से परिपूर्ण है.
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संपर्क: २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१

दोहा गीत

 दोहा गीत:

संजीव
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अगर नहीं मन में संतोष
खाली हो भरकर भी कोष
*
मन-हाथी को साधिये
संयम अंकुश मार
विषधर को सर पर धरें
गरल कंठ में धार
सुख आये करिए संकोच
जब पायें तजिए उत्कोच
दुःख जय कर करिए जयघोष
अगर नहीं मन में संतोष
खाली हो भरकर भी कोष
*
रहें तराई में कदम
चढ़ना हो आसान
पहुँच शिखर पर तू 'सलिल'
पतन सुनिश्चित जान
मान मिले तो गर्व न कर
मनमर्जी को पर्व न कर
मिले नहीं तो मत कर रोष
अगर नहीं मन में संतोष
खाली हो भरकर भी कोष
१६-६-२०१५
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