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बुधवार, 4 दिसंबर 2019

समीक्षा पल-पल प्रीत पली मधु प्रमोद

पुस्तक चर्चा - 
पल-पल प्रीत पली - महकी काव्य कली
चर्चाकार - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*

[पुस्तक विवरण - पल-पल प्रीत पली, काव्य संकलन, मधु प्रमोद, प्रथम संस्करण, २०१८, आईएसबीएन ९७८-८१-९३५५०१-३-७, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ ११२, मूल्य २००रु., प्रकाशक उषा पब्लिकेशंस, मीणा की गली अलवर ३०१००१, दूरभाष ०१४४ २३३७३२८, चलभाष ९४१४८९३१२०, ईमेल mpalawat24@gmail.com ]

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मानव और अन्य प्राणियों में मुख्य अंतर सूक्षम अनुभूतियों को ग्रहण करना, अनुभूत की अनुभूति कर इस तरह अभिव्यक्त कर सकना कि अन्य जान सम-वेदना अनुभव करें, का ही है। सकल मानवीय विकास इसी धुरी पर केंद्रित रहा है। विविध भूभागों की प्रकृति और अपरिवेश के अनुकूल मानव ने प्रकृति से ध्वनि ग्रहण कर अपने कंठ से उच्चारने की कला विकसित की। फलत: वह अनुभूत को अभिव्यक्त और अभिव्यक्त को ग्रहण कर सका। इसका माध्यम बनी विविध बोलिया जो परिष्कृत होकर भाषाएँ बनीं। अभिव्यक्ति के अन्य माध्यम अंग चेष्टाएँ, भाव मुद्राएँ आदि से नाट्य व नृत्य का विकास हुआ जबकि बिंदु और रेखा से चित्रकला विकसित हुई। वाचिक अभिव्यक्ति गद्य व पद्य के रूप में सामने आई। विवेच्य कृति पद्य विधा में रची गयी है।

मरुभूमि की शान गुलाबी नगरी जयपुर निवासी कवयित्री मधु प्रमोद रचित १० काव्य कृतियाँ इसके पूर्व प्रकाशित हो चुकी हैं। आकाश कुसुम, दूर तुमसे रहकर, मन का आनंद, अकुल-व्याकुल मन, रू-ब-रू जो कह न पाए, भजन सरिता, भक्ति सरोवर पुजारन प्रभु के दर की, पट खोल जरा घट के के बाद पल-पल प्रीत पली की ९५ काव्य रचनाओं में गीत व हिंदी ग़ज़ल शिल्प की काव्य रचनाएँ हैं। मधु जी के काव्य में शिल्प पर कथ्य को वरीयता मिली है। यह सही है कि कथ्य को कहने के लिए लिए ही रचना की जाती है किन्तु यह भी उतना ही सही है कि शिल्पगत बारीकियाँ कथ्य को प्रभावी बनाती हैं।
ग़ज़ल मूलत: अरबी-फारसी भाषाओँ से आई काव्य विधा है। संस्कृत साहित्य के द्विपदिक श्लोकों में उच्चार आधारित लचीली साम्यता को ग़ज़ल में तुकांत-पदांत (काफिया-रदीफ़) के रूप में रूढ़ कर दिया गया है। उर्दू ग़ज़ल वाचिक काव्य परंपरा से उद्भूत है इसलिए भारतीय लोककाव्य की तरह गायन में लय बनाये रखने के लिए गुरु को लघु और लघु उच्चारित करने की छूट ली गयी है। हिंदी ग़ज़ल वैशिष्ट्य उसे हिंदी व्याकरण पिंगल के अनुसार लिखा जाना है। हिंदी छंद शास्त्र में छंद के मुख्य दो प्रकर मातृ और वार्णिक हैं। अत, हिंदी ग़ज़ल इन्हीं में से किसी एक पर लिखी जाती है जबकि फ़ारसी ग़ज़ल के आधार पर भारतीय भाषाओँ के शब्द भंडार को लेकर उर्दू ग़ज़ल निर्धारित लयखण्डों (बह्रों) पर आधारित होती हैं। मधु जी की ग़ज़लनुमा रचनाएँ हिंदी ग़ज़ल या उर्दू ग़ज़ल की रीती-निति से सर्वथा अलग अपनी राह आप बनाती हैं। इनमें पंक्तियों का पदभार समान नहीं है, यति भी भिन्न-भिन्न हैं, केवक तुकांतता को साधा गया है।
इन रचनाओं की भाषा आम लोगों द्वारा दैनंदिन जीवन में बोली जानेवाली भाषा है। यह मधु जी की ताकत और कमजोरी दोनों है। ताकत इसलिए कि इसे आम पाठक को समझने में आसानी होती है, कमजोरी इसलिए कि इससे रचनाकार की स्वतंत्र शैली या पहचान नहीं बनती। मधु जी बहुधा प्रसाद गुण संपन्न भाषा और अमिधा में अपनी बात कहती है। लक्षणा या व्यजना का प्रयोग अपेक्षाकृत कम है। उनकी ग़ज़लें जहाँ गीत के निकट होती हैं, अधिक प्रभाव छोड़ती हैं -
मन मुझसे बातें करता है, मैं मन से बतियाती हूँ।
रो-रोकर, हँस-हँसकर जीवन मैं सहज कर पाती हूँ।

पीले पत्ते टूटे सारे, देखो हर एक डाल के
वृद्ध हैं सारे बैठे हुए नीचे उस तिरपाल के

मधु जी के गीत अपेक्षाकृत अधिक भाव प्रवण हैं-
मैंने हँसना सीख लिया है, जग की झूठी बातों पर
सहलाये भूड़ घाव ह्रदय के रातों के सन्नाटों पर

विश्वासों से झोली भरकर आस का दीप जलाने दो
मुझको दो आवाज़ जरा तुम, पास तो मुझको आने दो

किसी रचनाकार की दसवीं कृति में उससे परिपक्वता की आशा करना बेमानी नाहने है किन्तु इस कृति की रचनाओं को तराशे जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। गीति रचनाओं में लयबद्धता, मधुरता, सरसता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता आदि होना उन्हें स्मरणीय बनाता है। इस संकलन की रचनाएँ या आभास देती हैं कि रचनाकार को उचित मार्गदर्शन मिले तो वे सफल और सशक्त गीतकार बन सकती हैं।
*
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, विश्व वाणी हिन्दी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
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मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के नवगीत

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के नवगीत 














परिचय : जन्म २०-८-१९५२ मंडला मध्य प्रदेश। 
शिक्षा - डी. सी. ई., बी. ई., एम.ए. (दर्शनशास्त्र, अर्थशास्त्र), एलएल.बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, प्रमाणपत्र कंप्यूटर एप्लिकेशन। 
कृतियाँ - कलम के देव (भक्ति गीत), भूकंप के साथ जीना सीखें (तकनीकी-जनोपयोगी), लोकतंत्र का मक़बरा (कवितायेँ), मीत मेरे (कवितायेँ), काल है संक्रांति का (नवगीत), सड़क पर (नवगीत)
सहलेखन - कुरुक्षेत्र गाथा (गिरि मोहन गुरु - संवेदना और शिल्प (समालोचना), दोहा दोहा नर्मदा, दोहा सलिला निर्मला, दोहा दिव्य दिनेश। 
संपादन - ८ पत्रिकाएं, १६ स्मारिकाएँ, ४ पुस्तकें। 
पुरोवाक ६० पुस्तकें, समीक्षा ३०० पुस्तकेँ। 
उपलब्धि - सड़क पर नवगीत संग्रह - अभिव्यक्ति विश्वम पुरस्कार ११०००/- नगद, काल है संक्रांति का - हरिशंकर श्रीवास्तव सम्मान ११००/- नगद, १३ राज्यों की संस्थाओं द्वारा १२० सम्मान। 
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१। चलभाष - ७९९९५५९६१८, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com
*  
  
१ 
नवगीत:
संजीव
*
नये बरस की
भोर सुनहरी
.
हरी पत्तियों पर
कलियों पर
तुहिन बूँद हो
ठहरी-ठहरी
ओस-कुहासे की
चादर को चीर
रवि किरण
हँसे घनेरी
खिड़की पर
चहके गौरैया
गाये प्रभाती
हँसे गिलहरी
*
लोकतंत्र में
लोभतंत्र की
सरकारें हैं
बहरी-बहरी
क्रोधित जनता ने
प्रतिनिधि पर
आँख करोड़ों
पुनः तरेरी
हटा भरोसा
टूटी निष्ठा
देख मलिनता
लहरी-लहरी
.
नए सृजन की
परिवर्तन की
विजय पताका
फहरी-फहरी
किसी नवोढ़ा ने
साजन की
आहट सुन
मुस्कान बिखेरी
गोरे करतल पर
मेंहदी की
सुर्ख सजावट
गहरी-गहरी
***

२. 
नव गीत: 
ऊषा को लिए बाँह में, 
संध्या को चाह में. 
सूरज सुलग रहा है- 
रजनी के दाह में... 
*
पानी के बुलबुलों सी
आशाएँ पल रहीं.
इच्छाएँ हौसलों को
दिन-रात छल रहीं.
पग थक रहे, मंजिल कहीं
पाई न राह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
तृष्णाएँ खुद ही अपने
हैं हाथ मल रहीं.
छायाएँ तज आधार को
चुपचाप ढल रहीं.
मोती को रहे खोजते
पाया न थाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...

*
३.
नव गीत
संजीव 'सलिल'
*
पीढ़ियाँ
अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*

छोड़ निज
जड़ बढ़ रही हैं.
नए मानक गढ़ रही हैं.
नहीं बरगद बन रही ये-
पतंगों
सी चढ़ रही हैं.
चाह लेने की असीमित-
किन्तु देने की
कंगाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*
नेह-नाते हैं पराये.
स्वार्थ-सौदे नगद भाये.
फेंककर तुलसी
घरों में-
कैक्टस शत-शत उगाये..
तानती हैं हर प्रथा पर
अरुचि की झट
से दुनाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*
भूल देना-पावना क्या?
याद केवल चाहना क्या?
बहुत
जल्दी 'सलिल' इनको-
नहीं मतलब भावना क्या?
जिस्म की
कीमत बहुत है.
रूह की है फटेहाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
********************

४.
नव गीत :
कम लिखता हूँ
अधिक समझना
अक्षर मिलकर
अर्थ गह
शब्द बनें कह बात
शब्द भाव-रस
लय गहें
गीत बनें तब तात
गीत रीत
गह प्रीत की
हर लेते आघात
झूठ बिक रहा
ठिठक निरखना
एक बात
बहु मुखों जा
गहती रूप अनेक
एक प्रश्न के
हल कई
देते बुद्धि-विवेक
कथ्य एक
बहु छंद गह
ले नव छवियाँ छेंक
शिल्प
विविध लख
नहीं अटकना
एक हुलास
उजास एक ही
विविधकारिक दीप
मुक्तामणि बहु
समुद एक ही
अगणित लेकिन सीप
विषम-विसंगत
कर-कर इंगित
चौक डाल दे लीप
भोग
लगाकर
आप गटकना
*** 

५. 
नव गीत-
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
दिन भर मेहनत
आँतें खाली,
कैसे देखें सपना?
*

दाने खोज,
खीझता चूहा।
बुझा हुआ है चूल्हा।
अरमां की
बारात सजी- पर
गुमा सफलता दूल्हा।
कौन बताये
इस दुनिया का
कैसा बेढब नपना ?
*

कौन जलाये
संझा-बाती
गयी माँजने बर्तन।
दे उधार,
देखे उभार
कलमुँहा सेठ
ढकती तन।
नयन गड़ा
धरती में
काटे मौन
रास्ता अपना
*

ग्वाल-बाल
पत्ते खेलें
छिप चिलम चढ़ाएँ ।
जेब काटता
कान्हा-राधा छिप
बीड़ी सुलगाये।
पानी मिला
दूध में
जसुमति बिसरी
माला जपना
*

बैठ मुँडेरे
बोले कागा
झूठी आस बँधाये।
निठुर न आया,
राह देखते
नैना हैं पथराये।
ईंटों के
भट्टे में मानुस
बेबस पड़ता खपना
*
श्यामल 'मावस
उजली पूनम,
दोनों बदलें करवट।
साँझ-उषा की
गैल ताकते
सूरज-चंदा नटखट।
किसे सुनाएँ
व्यथा-कथा
घर की घर में
चुप ढकना
*************** 

नवगीत

नवगीत  
छंद लुगाई है गरीब की 
*
छंद लुगाई है गरीब की
गाँव भरे की है भौजाई 

जिसका जब मन चाहे छेड़े 
ताने मारे, आँख तरेरे 
लय; गति-यति की समझ न लेकिन 
कहे सात ले ले अब फेरे 
कैसे अपनी जान बचाए? 
जान पडी सांसत में भाई
छंद लुगाई है गरीब की
गाँव भरे की है भौजाई

कलम पकड़ कल लिखना सीखा 
मठाधीश बन आज अकड़ते 
ताल ठोंकते मुख पोथी पर 
जो दिख जाए; उससे भिड़ते 
छंद बिलखते हैं अनाथ से 
कैसे अपनी जान बचाये 
इधर कूप उस ओर है खाई 
छंद लुगाई है गरीब की
गाँव भरे की है भौजाई

यह नवगीती पत्थर मारे 
वह तेवरिया लट्ठ भाँजता 
सजल अजल बन चीर हर रही
तुक्कड़ निज मरजाद लाँघता 
जाँघ दिखाता कुटिल समीक्षक 
बचना चाहे मति बौराई 
छंद लुगाई है गरीब की
गाँव भरे की है भौजाई
***
संजीव 
३-१२-२०१९ 

७९९९५५९६१८

नवगीत, शशि पुरवार, 'भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ मैं'

पुरोवाक

'भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ ' समय का किस्सा सही हूँ  

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                विश्ववाणी हिंदी के समसामयिक साहित्य की लोकप्रिय विधाओं में से एक नवगीत के उद्यान में एक नया पुष्प खिल रहा है, शशि पुरवार रचित नवगीत संग्रह 'भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ मैं' के रूप में। नवगीत संक्रमण काल से गुजर रहा है। एक ओर नवगीत को गीत-वृक्ष की एक शाख मानकर नवगीत में कथ्य, भाषा, शिल्प, छंद, भाव अदि की नवता के प्रति आग्रह रखनेवाले उदार प्रवृत्ति धर्मा हैं तो दूसरी ओर नवगीत के उद्भव काल में सक्रिय रहे हस्ताक्षरों का नैकट्य पाने का दावा करनेवाले खुद को नवगीत का अधिष्ठाता मानकर अपने मनपसंद मानकों को विधान बनाए जाने के आग्रही हैं। तीसरी ओर वैचारिक प्रतिबद्धता का दावा करनेवाले नवगीतकार  नवगीत को केवल और केवल सामाजिक विसंगतियों आकर विडंबनाओं के कारागार में में कैद रखने के दुराग्रही खेमेबाज हैं। इनकी प्रतिक्रिया स्वरूप नवगीत में राष्ट्रीयता की पक्षधर एक और जमात अपना झंडा गाड़ने के लिए ताल ठोंक रही है। पिछले कुछ वर्षों से नवगीत में छंद की उपस्थिति श्लाघ्य, अवांछित या सीमित स्वीकार्य को लेकर भी सम्मेलनों में विवाद उठे हैं। इस दलबंदी के दलदल में नवोदित नवगीतकारों का 'मैं इधर जाऊँ कि उधर जाऊँ / बड़ी मुश्किल में दिल है किधर जाऊँ?' की मनस्थिति में होना स्वाभाविक है। 

                शशि पुरवार ने गंभीरता से इस चक्रव्यूह से जूझते हुए अपनी राह बनाने का प्रयास किया है। वे अनुभूति विश्वम और अनुभूति-अभिव्यक्ति के नवगीत समारोहों से निरंतर जुडी रही हैं। इन आयोजनों में मेरी भी सतत सहभागिता होती रही है। मेरा स्पष्ट मत रहा है कि साहित्यिक सृजन धाराएँ सदानीरा सलिला की तरह होती हैं जिनमें निरंतर जल का आना-जाना होना आवश्यक है, अन्यथा वे गतिहीन होकर मर जाती हैं। साहित्यिक विधा के मूल दो तत्व कथ्य और भाषा हैं। कथ्य वर्तमान को गतागत से जोड़ता है, भाषा अनुभूत को अभिव्यक्त कर सार्वजनिक बनती है। सार्वजनीन सृजन की पहले शर्त 'सर्व' अनुभूत को 'स्व' द्वारा ग्रहण और अभिव्यक्त कर 'सर्व' ग्राह्य बनाना है। यदि वैचारिक प्रतिबद्धता को अपरिहार्य मान लिया जाए तो तो वह अन्य विचार के रचनाकार हेतु अग्राह्य होगा। कथ्य को सब तक पहुँचाने के लिए ही रचनाकार लिखता है। इसलिए कथ्य चयन की स्वतंत्रता होनी चाहिए हुए समीक्षा करते समय वैचारिक प्रतिबद्धता को दरकिनार कर सामाजिक परिदृश्य के परिप्रेक्ष्य में रचना का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। कथ्य के अनुरूप विधा, विधा के अनुरूप शिल्प, कथ्य के अनुरूप भाषा, शब्द, प्रतीक, बिम्ब, मिथक, अलंकार आदि का चयन स्वाभाविकता बनाये रखते हुए किया जाना चाहिए। यह सब मिलकर रचनाकार की शैली बनती है। शशि किसी प्रकार की वैचारिक प्रतिबद्धता या कठमुल्लेपन से मुक्त रचनाकार हैं। इसलिए उनके लेखन के सामने सर्वाधिक खतरा है कि स्थापित मठाधीश उनकी अनदेखी करे अपने पिछलग्गुओं को प्रोत्साहित करें। 

                'भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ' शीर्षक से ही स्पष्ट है कि रचनाकार स्वविवेक और रचनाधर्मिता को महत्वपूर्ण मानती है, उसे संचालित किये जाने में नहीं स्वसंचालित होने में विश्वास है। ''जिंदगी के इस सफर में / भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ  /  गीत हूँ मैं, इस सदी का / व्यंग्य का किस्सा नहीं हूँ।'' लिखकर रचनाकार व्यंग्य अर्थात व्यंजना मात्र और किस्सा अर्थात कल्पना मात्र होने से इंकार करती है। यही नहीं 'नव वर्ष का दिनमान' शीर्षक से वह  नवाशा की झलक दिखाकर नवाचार की डगर पर पग बढ़ाती है -

फिर विगत को भूलकर 
मन में नया अरमान आया 

खिड़कियों  से झाँकती, नव 
भोर की पहली किरण है 
और अलसाये नयन में, 
स्वप्न में चंचल हिरण है  
गंधपत्रों से मिलाने 
दिन, नया जजमान लाया 

खेत में खलिहान में, जब 
प्रीत चलती है अढ़ाई 
शोख नजरों ने लजाकर
आँख धरती में गड़ाई 
गीत मंगलगान गाओ 
हर्ष का उपमान आया 

                अंत में 'हौसलों के बाँध घुँघरू / नव बरस अधिमान आया' में शशि हर्ष-उल्लास, लाज-श्रृंगार और उमंगों को भी नवता में सम्मिलित करती हैं। अगले ही गीत में भिन्न स्थिति  साक्षात् कीजिए-

कागजों पर ही सिमटकर 
शेष हैं संभावनाएँ 
क्या करें शिकवा जहां से 
मर गईं संवेदनाएँ?

रक्त रंजित हो गयी हैं 
आदमी की भावनाएँ 

                संभावनायें ही कागज़ी जाएँ तो साथ चलकर भी कुछ पाया नहीं जा सकता, सिर्फ खामोशियाँ ही साथ निभाती हैं-  
भीड़ में गुम हो गयी हैं 
भागती परछाइयाँ 
साथ मेरे चल रहीं 
खामोश सी तन्हाईयाँ 
वक़्त की इन तकलियों पर 
धूप सी है ज़िंदगी

                तकलियों पर पड़ती धूप जैसी ज़िंदगी किसी और के इशारे पर नाचने के मजबूर हो, रास्ते एक होने पर भी दर्प की दीवार के कारण फासले बने रहें तो दीवार को तोड़ना ही एक मात्र रास्ता रह जाता है। विसंगति के शब्द चित्र उपस्थित करने के साथ उसका समाधान भी सुझाना नवगीतिक नवाचार है। साहित्य में सबका हित समाहित हो तो ही उसकी रचना, पठन और  श्रवण सार्थक होता है। 

                इन नवगीतों में कथ्य को प्रमुखता मिली है। कथ्यानुकूल शब्दचयन हेतु हिंदी के साथ ही अन्य भाषाओँ के शब्दों का गंगो-जमुनी प्रवाह रचनाकार की शब्द सामर्थ्य की बानगी प्रस्तुत  करता है। ऐसे शब्दों को उनके पर्यायवाची शब्दों से बदला नहीं जा सकता - 

'रास्ते अब एक हैं पर / फासले भी दरमियाँ / दर्प की दीवार अंधी / तोड़ दो खामोशियाँ'  को 'मार्ग है अब एक ही / मध्य में अंतर भी है / गर्व की दीवाल अंधी / तोड़ दो अब मौन को' करने पर अर्थ न बदलने पर भी भाषा की रवानी और कहन का प्रभाव समाप्त हो जाता है। यह रचनाकार की सफलता है कि वह कथ्य को इस तरह प्रस्तुत करे जिसे बदला न जा सके। 

                पर्यावरण प्रदूषण मानव सभ्यता के लिए अकल्पनीय ख़तरा बन कर उभर रहा है लेकिन हम हैं कि चेतने को तैयार ही नहीं हैं। नवगीतकार की चिंता सामान्य जन से अधिक इसलिए है कि उसे ''सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है'' की विरासत को जीना है। 

काटकर इन जंगलों को / तिलस्मी दुनिया बसी है  
वो फ़ना जीवन हुआ / फिर पंछियों की  बेकसी है   

                वृक्ष गमलों में लगे जो / आज बौने हो गए हैं, ईंट गारे के महल में / खोखली रहती हँसी है, चाँद  लगे हम / गर्त में धरती फँसी है, नींद आँखों में नहीं / है प्रश्न का जंगल, भार से काँधे झुके / और में, रक्षक भक्षक बन बैठे हैं / खुले आम बाज़ारों में, अपनेपन की नदियाँ सूखीं / सूखा खून शिराओं में, दिन भयावह बन डराते / शब करेली हो गयी है जैसे मिसरों की मुहावरेदार भाषा जुबान पर चढ़ जाती है। ऐसी जुबान ही आम पाठक के मन को भाती है। 

                याद बहुत बाबूजी आये, रात सिरहाने लेटी, उदर की आग, बाँसवन में गीत, बेला महका, वस्त्र भगवा बाँटते,  फागुन का अरमान, पीपलवाली छाँव आदि में बहुआयामी विडम्बनाओं और विसंगतियों को लक्ष्य किया गया है। सूरह है ननिहाल उसी परंपरा की अगली कड़ी है जिसमें मेरे प्रथम नवगीत संग्रह ''काल है संक्रांति का के' सूर्य-केंद्रित नवगीत हैं।  'धड़कनें तूफ़ान' में बुलंद हौसलों, 'तारीख बदले रंग' में दिखावा प्रधान जीवन, 'आदमी ने चीर डाला है' में राजनैतिक पाखंड,  'छलका प्याला' में कन्या - अवहेलना, 'गिरगिट जैसा रंग' में  सामाजिक विसंगति, 'कोलाहल में जीना' में नागर जीवन की त्रासदी, शूलवाले दिन में संबंधों की टूटन, 'धूप अकेली' में एकाकीपन मुखर होकर सामने आता है। संग्रह के नवगीतों में 'अलख जगानी है में राष्ट्र  प्रेम,  'सुने बाँसुरी तोरी' में वैश्विकता, 'आक्रोशों की नदियाँ' में परिवर्तन की चाहत, 'फागुनी रंगत' में उल्लास और उमंग के स्वर घुले हुए हैं जो पाठक को प्रेरित करने के साथ नवगीत को शिकन्जामुक्त कर खुली हवा में सांस लेने का अवसर उपलब्ध कराते हैं। 

                ''फागुनी रंगत भरा / मौसम मिलेगा / गीत थिरकेंगे जुबान पर /  स्वर जिलेगा'' में  'जिलेगा' दोषपूर्ण प्रयोग है। केवल तुकबंदी के लिए भाषा को विरूपित नहीं किया जाना चाहिए। 'जिलेगा' के स्थान पर सही शब्द 'जियेगा' रखने से भी अर्थ या भाषिक प्रवाह में दोष नहीं है।

                संकलन में आह्वान गीत 'जोश दिलों में' को शामिल कर शशि ने  परिचय दिया है। संकीर्ण सोचवाले समीक्षक भले ही आपत्ति  करें मेरे मत में आह्वान गीत भी नवगीतों की ही एक भाव मुद्रा है, बशर्ते इनका कथ्य मौलिक और परंपरा से  भिन्न हो। 

                'फगुनाहट ले आना' संग्रह का उल्लेखनीय नवगीत है। 'आँगन के हर रिश्ते में / गरमाहट ले आना', सबकी किस्मत हो गुड़ धानी / नरमाहट ले आना', 'धूप जलाए, नरम छुअन सी / फगुनाहट ले आना, धुंध  समय की गहराए पर / मुस्काहट ले आना आदि में नवाशा  उल्लास का रंग  घुला है किंतु 'जर्जर होती राजनीति की / कुछ आहट ले आना' का नकारात्मक स्वर शेष गीत में व्यक्त भावों के साथ सुसंगत  नहीं है। 

                'कनक रंग छितराना' अच्छा गीत है। पाठक इसे पढ़कर अनुभव कर कि गीत में व्यक्त भाव और कथ्य व्यक्तिपरक  परक नहीं, यही महीन रेखा गीत से नवगीत को पृथक करती है। यहाँ शशि के कवि-मन की उन्मुक्त उड़ान काबिले-तारीफ है। कृति के उत्तरार्ध में रखे गए गीत हुलास और उछाह के स्वर बिखेर रहे हैं। नवगीतों में वर्णित विसंगतियों, त्रासदितों और विडम्बनाओं से उपजी खिन्नता को मिटाकर ये गीत पाठक को आनंदित कर जीवन में जूझने के लिए नव ऊर्जा और प्रेरणा देते हैं। धूप-छाँव  तरह विसंगति और सुसंगति को साथ-साथ लेकर चलती शशि के गीतों-नवगीतों का यह संकलन संकीर्णता दृष्टि औदार्य पूर्ण नज़रिये की जय-जयकार करता है। कवयित्री  नवगीत संकलन से परिपक्व और खरे नवगीतों का संसार और होगा।
नवगीतोद्यान में शशि के नवगीतों का  गमला अपनी रूपछटा और सुगंध बिखेरकर पाठकों को भायेगा। 
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संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर, 
चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com 
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सुधार 
खलियान - खलिहान,  खुशबु - खुशबू, 
सुझाव 
 'आनेवाले बरस कहेंगे / फिर से  नयी कहानी' यह रचना देश के लिए जान हथेली पर रखकर जूझनेवाली रानी लक्ष्मीबाई के अमर बलिदान को प्रणाम  करते हुए रची गयी है। बेहतर  इसे सबसे पहले प्रस्तुत कर कृति ही शहीदों को समर्पित की जाए।  
  


रविवार, 1 दिसंबर 2019

डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे डॉ. साधना वर्मा

पुस्तक चर्चा-
डॉ. साधना वर्मा
सृजन समीक्षा
[सृजन समीक्षा : डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे अंक, पृष्ठ १६, मूल्य ४०रु.।]  

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सृजन समीक्षा अंतरा शब्द शक्ति प्रकाशन बालाघाट द्वारा संस्कारधानी जबलपुर की सुपरिचित उपन्यासकार डॉ राजलक्ष्मी शिवहरे की सात कविताओं को लेकर प्रकाशित इस अंक में कविताओं के बाद कुछ पाठकों की प्रतिक्रियाएं भी संलग्न की गई हैं। डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे मूलतः उपन्यासकार कथाकार हैं, काव्य लेखन में उनकी रुचि और गति अपेक्षाकृत कम है। प्रस्तुत रचनाओं में कथ्य भावनाओं से भरपूर हैं किंतु शिल्प और भाषिक प्रवाह की दृष्टि से रचनाओं में संपादन की आवश्यकता प्रतीत होती है। चन्द रचनाओं को लेकर छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ निकालने से पुस्तकों की संख्या भले ही बढ़ जाए लेकिन रचनाकार विशेषकर वह जिसके ९ उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं, का गौरव नहीं बढ़ता। बेहतर हो इस तरह के छोटे कलेवर में शिशु गीत, बाल गीत, बाल कथाएँ पर्यावरण गीत आदि प्रकाशित कर निशुल्क वितरण अथवा अल्प मोली संस्करण प्रकाशित किए जाएँ तभी पाठकों के लिए इस तरह के सारस्वत अनुष्ठान उपयोगी हो सकते हैं। इस १६ पृष्ठीय लघ्वाकारी संकलन का मूल्य ४०रु. रखा जाना विचारणीय है।
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पुस्तक चर्चा-
हिंदी और गाँधी दर्शन
[हिंदी और गाँधी दर्शन, डॉक्टर श्रीमती राजलक्ष्मी शिवहरे, अंतरा शब्द शक्ति प्रकाशन बालाघाट, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ बत्तीस, मूल्य ५५ रु.।]
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हिंदी और गाँधी दर्शन एक बहुत महत्वपूर्ण विषय पर प्रकाशित कृति है जिसमें हिंदी पर गाँधीजी ही नहीं, संत कबीर, राजा राममोहन राय, महर्षि दयानंद सरस्वती, एनी बेसेंट, महर्षि अरविंद, सुभाष चंद्र बोस आदि महापुरुषों के प्रेरक विचार प्रकाशित किए गए हैं। राजलक्ष्मी जी गद्य लेखन में निपुण हैं और प्रस्तुत पुस्तिका में उन्होंने हिंदी के विविध आयामों की चर्चा की है। भारत में बोली जा रही १७९ भाषाएँ एवं ५४४ बोलियों को भारत के राष्ट्रीय भाषाएँ मानने का विचार राष्ट्रीय एकता को पुष्ट करता है। गाँधी जी ने दैनंदिन व्यवहार में हिंदी के प्रयोग के लिए कई सुझाव दिए थे। उन्होंने हिंदी के संस्कृतनिष्ठ स्वरूप की जगह जन सामान्य द्वारा दैनंदिन जीवन में बोले जा रहे शब्दों के प्रयोग को अधिक महत्वपूर्ण माना था। गाँधी का एक सुझाव थी कि भारत की समस्त भाषाएँ देवनागरी लिपि में लिखी जाएँ तो उन्हें सारे भारतवासी पढ़ और क्रमश: समझ सकेंगे।
अधिकांश भाषाएँ संस्कृत से जुड़ी रही हैं इसीलिए उनकी शब्दावली भी एक दूसरे के द्वारा आसानी से समझी जा सकेगी। गाँधी जी के निधन के बाद भाषा का प्रश्न राजनीतिक स्वार्थ साधन का उपकरण बनकर रह गया। राजनेताओं ने भाषा को जनगण को बाँटने के औजार के रूप में उपयोग किया और सत्ता प्राप्ति का स्वार्थ साधा। राजलक्ष्मी जी की यह प्रस्तुति युवाओं को सही रास्ता दिखाने के लिए एक कदम ह। कृति का मूल्य ₹ ५५ रखा जाना उसे उन सामान्य पाठकों की क्रय सीमा से बाहर ले जाता है जिनके लिए राजभाषा संबंधी तथ्यों को व्यवस्थित और समृद्ध बनाया है।
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सरस्वती स्तवन श्यामलाल उपाध्याय


सरस्वती स्तवन
स्मृतिशेष प्रो. श्यामलाल उपाध्याय
जन्म - १ मार्च १९३१।
शिक्षा - एम.ए., टी.टी.सी., बी.एड.।
संप्रति - पूर्व हिंदी प्राध्यापक-विभागाध्यक्ष, मंत्री भारतीय वांग्मय पीठ कोलकाता।
प्रकाशन - नियति न्यास, नियति निक्षेप, नियति निसर्ग, संक्षिप्त काव्यमय हिंदी बालकोश, शोभा, सौरभ, सौरभ रे स्वर।
उपलब्धि - अनेक प्रतिष्ठित साहित्यिक सम्मान।

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जननी है तू वेद की, वीणा पुस्तक साथ।
सुविशाल तेरे नयन, जनमानस की माथ।।
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सर्वव्याप्त निरवधि रही, शुभ वस्त्रा संपृक्त।
सदा निनादित नेह से, स्रोत पयस्विनी सिक्त।।
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विश्वपटल पर है इला, अंतरिक्ष में वाणि।
कहीं भारती स्वर्ग में, ब्रह्मलोक ब्रह्माणि।।
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जहाँ स्वर्ग में सूर्य है, वहीं मर्त्य सुविवेक।
अंतर्मन चेतन करे, यह तेरी गति नेक।।
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ऋद्धि-सिद्धि है जगत में, ग्यान यग्य जप-जाप।
अभयदान दे जगत को, गर वो सब परिताप।।
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तब देवी अभिव्यक्ति की, जग है तेरा दास।
सुख संपति से पूर्ण कर, हर ले सब संत्रास।।
***

नवगीत

नवगीत
पत्थरों के भी कलेजे
हो रहे पानी
.
आदमी ने जब से
मन पर रख लिए पत्थर
देवता को दे दिया है
पत्थरों का घर
रिक्त मन मंदिर हुआ
याद आ रही नानी
.
नाक हो जब बहुत ऊँची
बैठती मक्खी
कब गयी कट?, क्या पता?
उड़ गया कब पक्षी
नम्रता का?, शेष दुर्गति
अहं ने ठानी
.
चुराते हैं, झुकाते हैं आँख
खुद से यार
बिन मिलाये बसाते हैं
व्यर्थ घर-संसार
आँख को ही आँख
फूटी आँख ना भानी
.
चीर हरकर माँ धरा का
नष्टकर पोखर
पी रहे जल बोतलों का
हाय! हम जोकर
बावली है बावली
पानी लिए धानी

मुक्तक

मुक्तक
नमन तुमको कर रहा सोया हुआ ही मैं
राह दिखाता रहा, खोया हुआ ही मैं
आँख बंद की तो हुआ सच से सामना
जाना कि नहीं दूध का धोया हुआ हूं मैं

कार्य शाला: दोहा से कुण्डलिया

कार्य शाला:
दोहा से कुण्डलिया
*
बेटी जैसे धूप है, दिन भर करती बात।
शाम ढले पी घर चले, ले कर कुछ सौगात।। -आभा सक्सेना 'दूनवी'
लेकर कुछ सौगात, ढेर आशीष लुटाकर।
बोल अनबोले हो, जो भी हो चूक भुलाकर।।
रखना हरदम याद, न हो किंचित भी हेटी।
जाकर भी जा सकी, न दिल से प्यारी बेटी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
***
१.१२.२०१८

दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
दोहा सलिला निर्मला, सारस्वत सौगात।
नेह नर्मदा सनातन, अवगाहें नित भ्रात
*
अक्षर-अक्षर ब्रम्ह है, शब्द-शब्द सौगात।
चरण-चरण में सार है, पद-पद है अवदात।।
*
दोहा दिव्य दिनेश दे, तम हर नवल प्रभात।
भाषा-भूषा सुरुचिमय, ज्यों पंकज जलजात।।
*
भाव, कहन, रस, बिंब, लय, अलंकार सज गात।
दोहा वनिता कथ्य है, अजर- अम्र अहिवात।।
*
दोहा कम में अधिक कह, दे संदेशा तात।
गागर में सागर भरे, व्यर्थ न करता बात।।
*
संजीव
१.१२.२०१८

शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

भोजपुरी सरस्वती वंदना गीता चौबे

भोजपुरी सरस्वती वंदना
गीता चौबे










जन्म - ११ अक्टूबर १९६७।
आत्मजा - श्रीमती तारा देवी - श्री (डॉ0)इन्द्रदेव उपाध्याय।
जीवनसाथी - श्री सुरेंद्र कुमार, अधीक्षण अभियंता।
शिक्षा - स्नातक प्रतिष्ठा, इतिहास में स्नातकोत्तर।
प्रकाशन - 'क्यारी भावनाओं की' शीघ्र प्रकाश्य।
ब्लॉग : मन के उद्गार।
उपलब्धि - साहित्यिक सम्मान।
संपर्क - जी ४ ए ग्रीन गार्डन अपार्टमेंट, हेसाग, हटिया, राँची ८३४००३ झारखंड।
चलभाष - ८८८०९६५००६।
*
हमनी के जीवन सँवार दे
माँ शारदे, माँ शारदे, माँ शारदे
हमनी के जीवन सँवार दे
माँ शारदे ....
मन में तोहर दर्शन के आस बा
आइल बानी हम सभे तोहरे पास माँ
छवि अँखियन में उतार दे माँ
शारदे माँ....
हमनी के बचवन हईं अज्ञानी
अब ना करब जा हमनी मनमानी
हमनी के तू सुविचार दे
माँ शारदे माँ...
आवे ना हमनी के छंद बंद्य माँ
हमके सिखा द अक्षर चंद माँ
सुर हमनी के निखार दे माँ
शारदे माँ...
हमनी के दे द आतना बुद्धि
मन में ना रहे कवनो अशुद्धि
अब ना कवनो विकार दे माँ
माँ शारदे ... माँ शारदे... माँ शारदे
जीवन हमनी के सँवार दे, माँ शारदे
***

घनाक्षरी

घनाक्षरी
*
नागनाथ साँपनाथ, जोड़ते मिले हों हाथ, मतदान का दिवस, फिर निकट है मानिए।                                 
चुप रहे आज तक, अब न रहेंगे अब चुप, ई वी एम से जवाब, दें न बैर ठानिए।।                                      सारी गंदगी की जड़, दलवाद है 'सलिल', नोटा का बटन चुन, निज मत बताइए-                                    लोकतंत्र जनतंत्र, प्रजातंत्र गणतंत्र, कैदी न दलों का रहे, नव आजादी लाइए।। ***
संजीव, २८-११-२०१८

एक व्यंग्य कविता

एक व्यंग्य कविता
*
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
'विथ डिफ़रेंस' पार्टी अद्भुत, महबूबा से पेंग लड़ावै
बात न मन की हो पाए तो, पलक झपकते जेल पठावै
मनमाना किरदारै सब कछु?
कम जनमत पा येन-केन भी, लपक-लपक सरकार बनावै
'गो-आ' खेल आँख में धूला, झोंक-झोंककर वक्ष फुलावै
सत्ता पा फुँफकारै सब कछु?
मिले पटकनी तो रो-रोकर, नाहक नंगा नाच दिखावै
रातों रात शपथ ले छाती, फुला-फुला धरती थर्रावै
कैसऊ करो, जुगारै सब कछु
जोड़ी पूँजी लुटा-खर्चकर, धनपतियों को शीश चढ़ावै
रोजगार पर डाका डाले, भूखों को कानून पढ़ावै
अफरा पेट, डकारै सब कछु?
खेत ख़त्म कर भू सेठों को दे-दे पार्टी फंड जुटावै
असफलता औरों पर थोपे, दिशाहीन हर कदम उठावै
गुंडा बन दुत्कारै सब कछु?
***

मुक्तक

मुक्तक
आइये मिलकर गले मुक्तक कहें 

गले शिकवे गिले, हँस मुक्तक कहें
महाकाव्यों को न पढ़ते हैं युवा
युवा मन को पढ़ सके, मुक्तक कहें
***

बहुत सुन्दर प्रेरणा है
सत्य ही यह धारणा है
यदि न प्रेरित हो सका मन
तो मिली बहु तारणा है
***

हमारा टर्न तो हरदम नवीन हो जाता
तुम्हारा टर्न गया वक्त जो नहीं आता
न फिक्र और की करना हमें सुहाता है
हमारा टर्म द्रौपदी का चीर हो जाता
***

कार्यशाला में न आये, वाह सर
आये तो कुछ लिख न लाये, वाह सर
आप ही लिखते रहें, पढ़ते रहें
कौन इसमें सर खपाए वाह सर
***

जगाते रहते गुरूजी मगर सोना है
जागता है नहीं है जग यही रोना है
कह रहे हम पा सकें सब इसी जीवन में
जबकि हम यह जानते सब यहीं खोना है

***

दोहा

दोहा 
दिया बाल मत सोचना, हुआ तिमिर का अंत.
तली बैठ मौका तके, तम न भूलिए कंत.
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तज कर वाद-विवाद कर, आँसू का अनुवाद.
राग-विराग भुला "सलिल", सुख पा कर अनुराग
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भट का शौर्य न हारता, नागर धरता धीर.
हरि से हारे आपदा, बौनी होती पीर.
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प्राची से आ अरुणिमा, देती है संदेश.
हो निरोग ले तूलिका, रच कुछ नया विशेष.
.
साँस पटरियों पर रही, जीवन-गाडी दौड़.
ईधन आस न कम पड़े, प्यास-प्रयास ने छोड़.
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इसको भारी जिलहरी, भक्ति कर रहा नित्य.
उसे रुची है तिलहरी, लिखता सत्य अनित्य.
.
यह प्रशांत तर्रार वह, माया खेले मौन.
अजय रमेश रमा सहित, वर्ना पूछे कौन?
.
सत्या निष्ठा सिंह सदृश, भूली आत्म प्रताप.
स्वार्थ न वर सर्वार्थ तज, मिले आप से आप.
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नेह नर्मदा में नहा, कलकल करें निनाद.
किलकिल करे नहीं लहर, रहे सदा आबाद.
.
नारी के दो-दो जगत, 
वह दोनों की शान
पाती है वरदान वह, जब हो कन्यादान.
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नारी को माँगे बिना, मिल जाता नर-दास.
कुल-वधु ले नर दान में, सहता जग-उपहास.
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दल-बल सह जा दान ले, भिक्षुक नर हो दीन.
नारी बनती स्वामिनी, बजा चैन से बीन.
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चीन्ह-चीन्ह आदेश दे, बीन-बीन ले हक.
समता कर सकता न नर, तज कोशिश नाहक.
.
दो-दो मात्रा अधिक है, नारी नर से जान.
कुशल चाहता तो कभी, बैर न उससे ठान.
.
यह उसका रहमान है, वह इसकी रसखान.
उसमें इसकी जान है, इसमें उसकी जान.
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नवगीत

नवगीत
कहता मैं स्वाधीन
*
संविधान
इस हाथ से
दे, उससे ले छीन।
*
जन ही जनप्रतिनिधि चुने,
देता है अधिकार।
लाद रहा जन पर मगर,
पद का दावेदार।।
शूल बिछाकर
राह में, कहे
फूल लो बीन।
*
समता का वादा करे,
लगा विषमता बाग।
चीन्ह-चीन्ह कर बाँटता,
रेवड़ी, दूषित राग।।
दो दूनी
बतला रहा हाय!
पाँच या तीन।
*
शिक्षा मिले न एक सी,
अवसर नहीं समान।
जनभाषा ठुकरा रह,
न्यायालय मतिमान।।
नीलामी है
न्याय की
काले कोटाधीन।
*
तब गोरे थे, अब हुए,
शोषक काले लोग।
खुर्द-बुर्द का लग गया,
इनको घातक रोग।।
बजा रहा है
भैंस के, सम्मुख
जनगण बीन।
*
इंग्लिश को तरजीह दे,
हिंदी माँ को भूल।
चंदन फेंका गटर में,
माथे मलता धूल।।
भारत को लिख
इंडिया, कहता
मैं स्वाधीन।
***
संजीव
२८-११-२०१८


नवगीत

नवगीत:
कौन बताये
नाम खेल का?
.
तोल-तोल के बोल रहे हैं
इक-दूजे को तोल रहे हैं
कौन बताये पर्दे पीछे
किसके कितने मोल रहे हैं?
साध रहे संतुलन
मेल का
.
तुम इतने लो, हम इतने लें
जनता भौचक कब कितने ले?
जैसी की तैसी है हालत
आश्वासन चाहे जितने ले
मेल नीर के
साथ तेल का?
.
केर-बेर का साथ निराला
स्वार्थ साधने बदलें पाला
सत्ता खातिर खेल खेलते
सिद्धांतों पर डाला ताला
मौसम आया
धकापेल का
.नवगीत:
कब रूठें
कब हाथ मिलायें?
नहीं, देव भी
कुछ कह पायें
.
ये जनगण-मन के नायक हैं
वे बमबारी के गायक हैं
इनकी चाह विकास कराना
उनकी राह विनाश बुलाना
लोकतंत्र ने
तोपतंत्र को
कब चाहा है
गले लगायें?
.
सारे कुनबाई बैठे हैं
ये अकड़े हैं, वे ऐंठे हैं
उनका जन आधार बड़ा पर
ये जन मन मंदिर पैठे हैं
आपस में
सहयोग बढ़ायें
इनको-उनको
सब समझायें
. . .
(सार्क सम्मलेन काठमांडू, २६.१.२०१४ )

त्रिपदियाँ

त्रिपदियाँ
प्राण फूँक निष्प्राण में, गुंजित करता नाद
जो- उससे करिये 'सलिल', आजीवन संवाद
सुख-दुःख जी वह दे गहें, हँस- न करें फ़रियाद।
*
शर्मा मत गलती हुई, कर सुधार फिर झूम
चल गिर उठ फिर पग बढ़ा, अपनी मंज़िल चूम
फल की आस किये बिना, काम करे हो धूम।
*
करी देश की तिजोरी, हमने अब तक साफ़
लें अब भूल सुधार तो, खुदा करेगा माफ़?
भष्टाचार न कर- रहें, साफ़ यही इन्साफ।
*

नवगीत

नवगीत:
गीत पुराने छायावादी
मरे नहीं
अब भी जीवित हैं.
तब अमूर्त
अब मूर्त हुई हैं
संकल्पना अल्पनाओं की
कोमल-रेशम सी रचना की
छुअन अनसजी वनिताओं सी
गेहूँ, आटा, रोटी है परिवर्तन यात्रा
लेकिन सच भी
संभावनाऐं शेष जीवन की
चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.
बिम्ब-प्रतीक
वसन बदले हैं
अलंकार भी बदल गए हैं.
लय, रस, भाव अभी भी जीवित
रचनाएँ हैं कविताओं सी
लज्जा, हया, शर्म की मात्रा
घटी भले ही
संभावनाऐं प्रणय-मिलन की
चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.
कहे कुंडली
गृह नौ के नौ
किन्तु दशाएँ वही नहीं हैं
इस पर उसकी दृष्टि जब पडी
मुदित मग्न कामना अनछुई
कौन कहे है कितनी पात्रा
याकि अपात्रा?
मर्यादाएँ शेष जीवन की
चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.
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गुरुवार, 28 नवंबर 2019

एक व्यंग्य कविता

एक व्यंग्य कविता
*
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
'विथ डिफ़रेंस' पार्टी अद्भुत, महबूबा से पेंग लड़ाए
बात न मन की हो पाए तो, पलक झपकते जेल पठाए
मनमाना किरदारै सब कछु?
कम जनमत पा येन-केन भी, लपक-लपक सरकार बनाए
'गो-आ' खेल आँख में धूला, झोंक-झोंककर वक्ष फुलाए
सत्ता पा फुँफकारै सब कछु?
मिले पटकनी तो रो-रोकर, नाहक नंगा नाच दिखाए
रातों रात शपथ ले छाती, फुला-फुला धरती थर्राए
कैसऊ करो, जुगारै सब कछु
जोड़ी पूँजी लुटा-खर्चकर, धनपतियों को शीश चढ़ाए
रोजगार पर डाका डाले, भूखों को कानून पढ़ाए
अफरा पेट, डकारै सब कछु?
खेत ख़त्म कर भू सेठों को दे-दे पार्टी फंड जुटाए
असफलता औरों पर थोपे, दिशाहीन हर कदम उठाए
गुंडा बन दुत्कारै सब कछु?
***