पुस्तक चर्चा -
पल-पल प्रीत पली - महकी काव्य कली
चर्चाकार - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
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मानव और अन्य प्राणियों में मुख्य अंतर सूक्षम अनुभूतियों को ग्रहण करना, अनुभूत की अनुभूति कर इस तरह अभिव्यक्त कर सकना कि अन्य जान सम-वेदना अनुभव करें, का ही है। सकल मानवीय विकास इसी धुरी पर केंद्रित रहा है। विविध भूभागों की प्रकृति और अपरिवेश के अनुकूल मानव ने प्रकृति से ध्वनि ग्रहण कर अपने कंठ से उच्चारने की कला विकसित की। फलत: वह अनुभूत को अभिव्यक्त और अभिव्यक्त को ग्रहण कर सका। इसका माध्यम बनी विविध बोलिया जो परिष्कृत होकर भाषाएँ बनीं। अभिव्यक्ति के अन्य माध्यम अंग चेष्टाएँ, भाव मुद्राएँ आदि से नाट्य व नृत्य का विकास हुआ जबकि बिंदु और रेखा से चित्रकला विकसित हुई। वाचिक अभिव्यक्ति गद्य व पद्य के रूप में सामने आई। विवेच्य कृति पद्य विधा में रची गयी है।
मरुभूमि की शान गुलाबी नगरी जयपुर निवासी कवयित्री मधु प्रमोद रचित १० काव्य कृतियाँ इसके पूर्व प्रकाशित हो चुकी हैं। आकाश कुसुम, दूर तुमसे रहकर, मन का आनंद, अकुल-व्याकुल मन, रू-ब-रू जो कह न पाए, भजन सरिता, भक्ति सरोवर पुजारन प्रभु के दर की, पट खोल जरा घट के के बाद पल-पल प्रीत पली की ९५ काव्य रचनाओं में गीत व हिंदी ग़ज़ल शिल्प की काव्य रचनाएँ हैं। मधु जी के काव्य में शिल्प पर कथ्य को वरीयता मिली है। यह सही है कि कथ्य को कहने के लिए लिए ही रचना की जाती है किन्तु यह भी उतना ही सही है कि शिल्पगत बारीकियाँ कथ्य को प्रभावी बनाती हैं।
ग़ज़ल मूलत: अरबी-फारसी भाषाओँ से आई काव्य विधा है। संस्कृत साहित्य के द्विपदिक श्लोकों में उच्चार आधारित लचीली साम्यता को ग़ज़ल में तुकांत-पदांत (काफिया-रदीफ़) के रूप में रूढ़ कर दिया गया है। उर्दू ग़ज़ल वाचिक काव्य परंपरा से उद्भूत है इसलिए भारतीय लोककाव्य की तरह गायन में लय बनाये रखने के लिए गुरु को लघु और लघु उच्चारित करने की छूट ली गयी है। हिंदी ग़ज़ल वैशिष्ट्य उसे हिंदी व्याकरण पिंगल के अनुसार लिखा जाना है। हिंदी छंद शास्त्र में छंद के मुख्य दो प्रकर मातृ और वार्णिक हैं। अत, हिंदी ग़ज़ल इन्हीं में से किसी एक पर लिखी जाती है जबकि फ़ारसी ग़ज़ल के आधार पर भारतीय भाषाओँ के शब्द भंडार को लेकर उर्दू ग़ज़ल निर्धारित लयखण्डों (बह्रों) पर आधारित होती हैं। मधु जी की ग़ज़लनुमा रचनाएँ हिंदी ग़ज़ल या उर्दू ग़ज़ल की रीती-निति से सर्वथा अलग अपनी राह आप बनाती हैं। इनमें पंक्तियों का पदभार समान नहीं है, यति भी भिन्न-भिन्न हैं, केवक तुकांतता को साधा गया है।
इन रचनाओं की भाषा आम लोगों द्वारा दैनंदिन जीवन में बोली जानेवाली भाषा है। यह मधु जी की ताकत और कमजोरी दोनों है। ताकत इसलिए कि इसे आम पाठक को समझने में आसानी होती है, कमजोरी इसलिए कि इससे रचनाकार की स्वतंत्र शैली या पहचान नहीं बनती। मधु जी बहुधा प्रसाद गुण संपन्न भाषा और अमिधा में अपनी बात कहती है। लक्षणा या व्यजना का प्रयोग अपेक्षाकृत कम है। उनकी ग़ज़लें जहाँ गीत के निकट होती हैं, अधिक प्रभाव छोड़ती हैं -
मन मुझसे बातें करता है, मैं मन से बतियाती हूँ।
रो-रोकर, हँस-हँसकर जीवन मैं सहज कर पाती हूँ।
पीले पत्ते टूटे सारे, देखो हर एक डाल के
वृद्ध हैं सारे बैठे हुए नीचे उस तिरपाल के
मधु जी के गीत अपेक्षाकृत अधिक भाव प्रवण हैं-
मैंने हँसना सीख लिया है, जग की झूठी बातों पर
सहलाये भूड़ घाव ह्रदय के रातों के सन्नाटों पर
विश्वासों से झोली भरकर आस का दीप जलाने दो
मुझको दो आवाज़ जरा तुम, पास तो मुझको आने दो
किसी रचनाकार की दसवीं कृति में उससे परिपक्वता की आशा करना बेमानी नाहने है किन्तु इस कृति की रचनाओं को तराशे जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। गीति रचनाओं में लयबद्धता, मधुरता, सरसता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता आदि होना उन्हें स्मरणीय बनाता है। इस संकलन की रचनाएँ या आभास देती हैं कि रचनाकार को उचित मार्गदर्शन मिले तो वे सफल और सशक्त गीतकार बन सकती हैं।
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संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, विश्व वाणी हिन्दी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
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