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मंगलवार, 9 जून 2015

navgeet: sanjiv

नव गीत:
आँसू और ओस
संजीव 'सलिल'


हम आँसू हैं,
ओस बूँद 
मत कहिये हमको... 
*
वे पल भर में उड़ जाते हैं,
हम जीवन भर साथ रहेंगे,
हाथ न आते कभी-कहीं वे,
हम सुख-दुःख की कथा कहेंगे.
छिपा न पोछें हमको नाहक
श्वास-आस सम 
हँस-मुस्का  
प्रिय! सहिये हमको ...
*
वे उगते सूरज के साथी,
हम हैं यादों के बाराती,
अमल विमल निस्पृह वे लेकिन
दर्द-पीर के हमीं संगाती.
अपनेपन को अब न छिपायें,
कभी तो कहें: 
बहुत रुके 
'अब बहिये' हमको...
*
ऊँच-नीच में, धूप-छाँव में,
हमने हरदम साथ निभाया.
वे निर्मोही-वीतराग हैं,
सृजन-ध्वंस कुछ उन्हें न भाया.
हारे का हरिनाम हमीं हैं,
'सलिल' नाद 
कलकल ध्वनि हम  
नित गहिये हमको...
*

muktak: aansu -sanjiv

मुक्तक:
संजीव
*
आँसू-नहाओ तो 
दिल में बसाओ तो
कंकर से शंकर हो 
सर पर चढ़ाओ तो
*
आँसू नहीं नियम बंधन हैं  
आँसू नहीं प्रलय संगम हैं 
आँसू ममता स्नेह प्रेम हैं-
आँसू नहीं चरण-चुम्बन हैं 
*
आँसू ये अगड़े हैं, किंचित न पिछड़े हैं 
गीतों के मुखड़े हैं, दुनिया के दुखड़े हैं 
शबनम के कतरे हैं, कविता की सतरें हैं 
ग़ज़लों की बहरें हैं, सागर से गहरे हैं 
*
चंद पल आँसू बहाकर भूल जाते हैं 
गलत है आरोप, हम गंगा नहाते हैं 
श्राद्ध करते ले ह्रदय के भाव अँजुरी में- 
चादरें सुधियों की चुप मन में तहाते हैं 
शक न उल्फत पर हुआ विश्वास पर शक आपको.
हौसलों पर शक नहीं है, ख्वाब पर शक आपको..
त्रास को करते पराजित, प्रयासों का साथ दे-
आँसुओं पर है भरोसा, हास पर शक आपको..
*

Poetry: Tears -Sanjiv

Poetry: 
Tears of a human
sanjiv 
*
Tears of a human 
Flooded with hope
Mountain of hope
Devine help to cope.


Tears of a human
Stored in the heart.
Controls the brain
Put tension apart.


Tears of a human
Rains in deep sadness.
Flows in the pleasure
Jump high in gladness.


Tears of a human
Cleans the chicks bright.
Cares the eye-beauty
Makes the scene bright.


Tears of a human
Do'nt mean heart broken. 
While keeping silence 
Says yet not spoken.

*

virasat: aansu -prasad

विरासत 
आँसू  
जयशंकर
​ प्रसाद
छिल-छिल कर छाले फोड़े 
मल-मल कर मृदुल चरण से 
धुल-धुल कर बह रह जाते 
आँसू करुणा के कण से

​*
इस हृदय कमल का घिरना
 
अलि अलकों की उलझन में 
आँसू मरन्द का गिरना 
मिलना निश्वास पवन में
*​
चातक की चकित पुकारें 
श्यामा ध्वनि सरल रसीली 
मेरी करुणार्द्र कथा की 
टुकड़ी आँसू से गीली

जो घनीभूत पीड़ा थी 
मस्तक में स्मृति-सी छायी 
दुर्दिन में आँसू बनकर 
वह आज बरसने आयी
*
 
मेरे क्रन्दन में बजती 
क्या वीणा, जो सुनते हो 
धागों से इन आँसू के 
निज करुणापट बुनते हो
*

श्यामल अंचल धरणी का 
भर मुक्ता आँसू कन से 
छूँछा बादल बन आया 
मैं प्रेम प्रभात गगन से
*

शीतल समीर आता हैं 
कर पावन परस तुम्हारा 
मैं सिहर उठा करता हूँ 
बरसा कर आँसू धारा
*
अब छुटता नहीं छुड़ाये 
रंग गया हृदय हैं ऐसा 
आँसू से धुला निखरता 
यह रंग अनोखा कैसा
*
नीचे विपुला धरणी हैं 
दुख भार वहन-सी करती 
अपने खारे आँसू से 
करुणा सागर को भरती
*
उच्छ्वास और आँसू में 
विश्राम थका सोता है 
रोई आँखों में निद्रा 
बनकर सपना होता है
*
अपने आँसू की अंजलि 
आँखो से भर क्यों पीता 
नक्षत्र पतन के क्षण में 
उज्जवल होकर है जीता
*
 

वह हँसी और यह आँसू 
घुलने दे-मिल जाने दे 
बरसात नई होने दे 
कलियों को खिल जाने दे
*

फिर उन निराश नयनों की 
जिनके आँसू सूखे हैं 
उस प्रलय दशा को देखा 
जो चिर वंचित भूखे हैं
​*
संदेश में फोटो देखें
​आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
, 94251 83244
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

सोमवार, 8 जून 2015

dwipadi

द्विपदी:
संजीव 
*
राम का है राज, फ़ौज़ हो न हो 
फ़ौज़दार खुद को ये मन मानता है.

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव 
*
फरफराता उड़ा आँचल
जी गया जी, बजी पायल
खनक कंकण कह गया कुछ
छलकती  नयनों की छागल 
देह में
रह कर विदेहित   
मूर्तिमन्त हुआ मिथक है 
*
बजाता है समय मादल 
नाचता मन मोर पागल 
दामिनी से गले मिलकर 
बरस पड़ता रीत बादल 
भीगकर  
जल बिन्दुओं पर    
रीझता भीगा पथिक है 
*
इंद्र-धनु सी भौंह बाँकी
नयन सज्जित सजन झाँकी
प्रणय माथे पर यकायक 
मिलन बिंदी विहँस टाँकी
काम-शर  
के निशाने पर  
ह्रदय, प्रेयसि ही वधिक है 
*

haiku: sanjiv

हाइकु:
संजीव    
*
हर-सिंगार 
शशि  भभूत नाग 
रूप अपार 
*
रूप को देख 
धूप ठिठक गयी
छवि है नयी 
*

doha: sanjiv

दोहा सलिला:
संजीव 
*
रवि से दिव्य प्रकाश पा, सलिल हुआ संजीव 
इंद्र कृपा पा संग में, खिले अगिन राजीव 
*
रेप किया पकडे गये, जो वे हैं नादान 
बिन पकड़े मंत्री बने, जो वे परम सुजान 
*
खामोशी की सुन सकें, यदि हम-तुम आवाज़ 
दूरी पल में दूर हो, सुनकर दिल का साज़ 
*

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव 
*
सत्य भी कुछ तो रहा उपहास में 
दीन शशि से अधिक रवि खग्रास में 
*
श्लेष को कर शेष जब चलता किया 
यमक की थी धमक व्यापी श्वास में 
*
उपन्यासों में बदल कर लघुकथा 
दे रही संत्रास ही परिहास में 
*
आ गये हैं दिन यहाँ अच्छे 'सलिल'
बरसते अंगार हैं मधुमास में
*
मदिर महुआ की कसम खाकर कहो 
तृप्ति से ज़्यादा न सुख क्या प्यास में
*


गुरुवार, 4 जून 2015

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव
*
इंसानी फितरत समान है, रहो देश या बसों विदेश 
ऐसी कोई  जगह नहीं है जहाँ मलिनता मिले न लेश 
जैसा देश वेश हो वैसा पुरखे सच ही कहते थे-
स्वीकारें सच किन्तु क्षुब्ध हो नोचें कभी न अपने केश
*

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
थाली की 
गोदी में बैठ 
कटोरी खेले. 
चम्मच के  
नखरे अनगिन 
दोनों ने झेले.
*
बब्बा गंज, 
कढ़ाई दादी,
बेलन नाना,
झरिया नानी 
मँहगाई का रोना रोते 
नेह-प्रेम की फसलें बोते 
बिना सियासत ताल-मेल कर 
मन का संयम तनिक न खोते 
आये एक पर
मुश्किल, सब मिल
सिर पर लेते 
थाली की 
गोदी में बैठ 
कटोरी खेले. 
चम्मच के  
नखरे अनगिन 
दोनों ने झेले.
*
आटा-दाल, 
मिठाई-रोटी,
पुड़ी-कचौरी ,
ताज़ी मोटी. 
जिस मन भाये, जी भर खाये. 
बिना मिलावट, पचा न पाये. 
फास्ट फुडों की मारामारी 
कोल्ड ड्रिंक करता बटमारी.  
लस्सी-पनहा 
पान-पन्हैया 
बिसरा देते  
थाली की 
गोदी में बैठ 
कटोरी खेले. 
चम्मच के  
नखरे अनगिन 
दोनों ने झेले.
*
खस के परदे, 
कूलर निगले,
भीषण ताप,
गैस भी उगले. 
सरकारें कर बढ़ा-बढ़ाकर 
अपनी ही जनता को लूटें.  
अफसर-नेता निज सुविधा पर  
बेदर्दी से जन-धन फूंकें.
अच्छे दिन है
अच्छे-अच्छे 
हारे-रोते. 
थाली की 
गोदी में बैठ 
कटोरी खेले. 
चम्मच के  
नखरे अनगिन 
दोनों ने झेले.
*

बुधवार, 3 जून 2015

नवगीत:

पाती अमराई के नाम
संजीव
*
पाती अमराई के नाम
भेजी खलिहानों ने
*
गदरायी अमियों को भीड़
तन रहे गुलेल सकें छेड़
संयम के ऊसर है खेत
बहक रहे पैर तोड़ मेड़
ढोलक ने,
मादल ने,
घुंघरू ने,
पायल ने
क्ज्रो की बिसरायी तान
पनघट-दालानों ने
पाती अमराई के नाम
भेजी खलिहानों ने
*
चेहरों से गुम रंगत
अब न ख़ुशी की संगत
भावी को भाती नहीं
अब अतीत की संगत
बादल ने,
बिजली ने,
भँवरों ने,
तितली ने
तानी है काम की कमान
मुकुलित बागानों ने
पाती अमराई के नाम
भेजी खलिहानों ने
*
परिवर्तन की आहट
खो-पाने की चाहत
सावन में भादों क्यों
चाह रहा फगुनाहट
सरगम ने,
परचम ने,
कोशिश ने,
बम-बम ने
किस्मत की थामी लगाम
 जनगण ने हाथों ने
पाती अमराई के नाम
भेजी खलिहानों ने
*

  

मंगलवार, 2 जून 2015

dwipadi: sanjiv

यमकीय दो पदी :
रोटियाँ दो जून की दे, खुश हुआ दो जून जब
टैक्स दो दोगुना बोला, आयकर कानून तब

kundalini: sanjiv

कुंडलिनी:
अफसर आईएएस  हैं, सब कष्टों की खान
नाच नचा मंत्रियों को, धमकाते भर कान
धमकाते भर कान, न मानी बात हमारी
तो हम रहें न साथ, खोल दें पोल तुम्हारी
केर-बेर सा संग, निभाते दोनों अक्सर
नीति सुझाते बना-बना मंत्री को अफसर.
***  

doha salila: sanjiv

दोहा सलिला:
संजीव
*
नयन कह रहे हैं ग़ज़ल, दोहा है मुस्कान
अधर गीत, है नासिका मुक्तक रस की खान
*
कहें सूर को कब रही, आँखों की दरकार
मन-आँखों में विराजे, जब बाँके सरकार
*
वदन बदन नम नयन नभ, वसन नील अभिराम
नील मेघ नत नमन कर, बरसे हुए प्रणाम
*
राधा आ भा हरि कहें, आभा उषा ललाम
आराधा पल-पल जिसे, है गुलाम बेदाम
*


muktika: sanjiv

मुक्तिका सलिला:
सन्जीव
*
ये पूजता वो लगाता है ठोकर
पत्थर कहे आदमी है या जोकर?

वही काट पाते फसल खेत से जो
गये थे जमीं में कभी आप बोकर

हकीकत है ये आप मानें, न मानें
अधूरे रहेंगे मुझे ख्वाब खोकर

कोशिश हूँ मैं हाथ मेरा न छोड़ें
चलें मंजिलों तक मुझे मौन ढोकर

मेहनत ही सबसे बड़ी है नियामत 
कहता है इंसान रिक्शे में सोकर 

केवल कमाया न किंचित लुटाया 
निश्चित वही जाएगा आप रोकर

हूँ संजीव शब्दों से सच्ची सखावत 
करी, पूर्णता पा मगर शून्य होकर 
***

सोमवार, 1 जून 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव 
*
उत्तरायण की 
सदा चर्चा रही है 
*
तीर शैया पर रही सोती विरासत
समय के शर बिद्ध कर, करते बगावत
विगत लेखन को सनातन मान लेना
किन्तु आगत ने, न की गत से सखावत
राज महलों ने
न सत को जान पाया
लोक-सीता ने
विजन वन-मान पाया
दक्षिणायण की
सतत अर्चा रही है
*
सफल की जय बोलना ही है रवायत
सफलता हित सिया-सत बिन हो सियासत
खुरदुरापन नव सृजन पथ खोलता है
साध्य क्यों संपन्न को ही हो नफासत
छेनियों से, हथौड़ी से
दैव ने आकार पाया
गढ़ा मूरतकार ने पर
लोक ने पल में भुलाया
पूर्वायण की
विकट वर्चा रही है
***
१५-११-२०१४
कालिंदी विला लखनऊ
Sanjiv verma 'Salil', 94251 83244

navgeet: sanjiv

नवगीत :
संजीव
*
तुमने मुझको रौंदा
मैं रोऊँ,
न रोऊँ?
न्यायालय से पूछूँगा
*
शेर पिट रहा है सियार से
नगद न जीता है उधार से
कचरा बिकता है प्रचार से
जूता पोलिश का
ब्रश ले मुँह
पर रगड़ा
मूँछ ऐंठकर ऊँछूंगा
तुमने मुझको रौंदा
मैं रोऊँ,
न रोऊँ?
न्यायालय से पूछूँगा
*
चरखे से आज़ादी पाई
छत्तीस इंची छाती भाई
जुमलों से ही की कुडमाई  
अच्छे दिन आये
मत रोओ  
चुप सोओ  
उलझा-सुलझा बूझूँगा
तुमने मुझको रौंदा
मैं रोऊँ,
न रोऊँ?
न्यायालय से पूछूँगा
*
देश माँगता खेत भुला दो
जिस-तिस का झंडा फहरा दो
सैनिक मारो फिर लौटा दो  
दुनिया घूमूँगा  
देश भक्त मैं  
हूँ सशक्त मैं  
नित ढिंढोरा पीटूँगा
तुमने मुझको रौंदा
मैं रोऊँ,
न रोऊँ?
न्यायालय से पूछूँगा
*

kruti charcha: sanjiv


कृति चर्चा:
समवेत स्वर: कविताओं का गजर 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
[कृति विवरण: समवेत स्वर, सामूहिक कविता संग्रह, संपादक विजय नेमा 'अनुज', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ७० + २६ , २०० रु., वर्तिका प्रकाशन जबलपुर]
*
साहित्य सर्व हित की कामना से रचा जाता है. समय के साथ सामाजिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में साहित्य का कथ्य, शिल्प, भाषा और भंगिमा में सतत परिवर्तन स्वाभाविक है. जबलपुर की साहित्यिक संस्था वर्तिका ने १०२७ से १९८५ के मध्य जन्में ७० कवियों की एक-एक कविता, चित्र, जन्म तिथि तथा पते का संग्रह समवेत शीर्षक से सक्रिय साहित्य सेवी विजय नेमा 'अनुज' के संपादन में प्रकाशित किया है. इसमें नगर के कई रचनाकार सम्मिलित हैं कई रह गये हैं. यदि शेष को भी जोड़ा जा सकता तो यह नगर के समकालिक साहित्यकारों का प्रतिनिधि संकलन हो सकता था.



भूमिका में डॉ. हरिशंकर दुबे के आकलन के अनुसार "काव्य के छंद, वस्तु विन्यास और प्रभांविती की दृष्टि से नहीं भाव और बोध की दृष्टि से यह पाठकीय प्यार की अभिलाषा वाले स्वर हैं. नयी पीढ़ी में एक व्याकुल अधीरता है, शीघ्र से शीघ्र पा लेने की. ३० वर्ष से ८७ वर्ष के आयु वर्ग और एक से ६ दशकों तक काव्य कर्म में जुटी कलमों में नयी पीढ़ी का किसे माना जाए? अधिकांश सहभागियों की स्वतंत्र कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं अथवा कई पत्र-पत्रिकाओं में कई बार रचनायें छप चुकी हैं तथापि रचनाओं को काव्य के छंद, वस्तु विन्यास और प्रभांविती की दृष्टि से उपयुक्त न पाया जाए तो संकलन के उद्देश्य पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है. २० पृष्ठों में भूमिका, सन्देश आदि का विस्तार होने पर भी सम्मिलित रचनाओं और रचनाकारों के चयन के आधार, उनकी गुणवत्ता, उनमें अन्तर्निहित शिल्प, कथ्य, शैली, रस, छंद आदि की चर्चा तो दूर उल्लेख तक न होना चकित करता है.



वर्तिका द्वारा पूर्व में भी सामूहिक काव्य संकलन प्रकाशित किये जा चुके हैं. वर्ष २००८ में प्रकाशित अभिव्यक्ति (२२० पृष्ठ, २०० रु.) में ग़ज़ल खंड में ४० तथा गीत खंड में २५ कुल ६५ कवियों को २-२ पृष्ठों में सुरुचिपूर्वक प्रकाशित किया जा चुका है. अभिव्यक्ति का वैशिष्ट्य नगर के बाहर बसे कुछ श्रेष्ठ कवि-सदस्यों को जोड़ना था. इस संग्रह की गुणवत्ता और रचनाओं की पर्याप्त चर्चा भी हुई थी.



वर्तमान संग्रह की सभी रचनाओं को पढ़ने पर प्रतीत होता है कि ये रचनाकारों की प्रतिनिधि रचनाएँ नहीं हैं. विषय तथा विधा का बंधन न होने से संग्रह में संपादन की दृष्टि से स्वतंत्रता ली गयी है. असम्मिलित रचनाकारों की कुछ श्रेष्ठ पंक्तियाँ दी जा सकतीं तो संग्रह की गुणवत्ता में वृद्धि होती. सूची में प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', श्री किशोरीलाल नेमा, प्रो. जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण', डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल', डॉ. कृष्ण कान्त चतुर्वेदी, डॉ. राजकुमार 'सुमित्र', आचार्य भगवत दुबे, प्रो. राजेंद्र तिवारी, श्रीमती लक्ष्मी शर्मा, श्री इंद्रबहादुर श्रीवास्तव 'इंद्र', मेराज जबलपुरी, सुरेश तन्मय, सुशिल श्रीवास्तव, मनोहर चौबे 'आकाश', विजय तिवारी 'किसलय', गजेन्द्र कर्ण, विवेकरंजन श्रीवास्तव, अशोक श्रीवास्तव 'सिफर', गीता 'गीत', डॉ. पूनम शर्म तथा सोहन परोहा 'सलिल' जैसे हस्ताक्षर होना संग्रह के प्रति आश्वस्त करता है.



ऐसे सद्प्रयास बार-बार होने चाहिए तथा कविता के अतिरिक्त अन्य विधाओं पर भी संग्रह होने चाहिए.

kruti charcha: sanjiv

कृति चर्चा: 
                       संवेदनाओं के स्वर : कहानीकार की कवितायेँ 
चर्चाकार: आचार्य संजीव 
[कृति विवरण: संवेदनाओं के स्वर, काव्य संग्रह, मनोज शुक्ल 'मनोज', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १४४, मूल्य १५० रु., प्रज्ञा प्रकाशन २४ जग्दिश्पुरम, लखनऊ मार्ग, त्रिपुला चौराहा रायबरेली]
*
मनोज शुक्ल 'मनोज' मूलतः कहानीकार हैं. कहानी पर उनकी पकड़ कविता की तुलना में बेहतर है. इस काव्य संकलन में विविध विधाओं, विषयों तथा छन्दों की त्रिवेणी प्रवाहित की गयी है. आरम्भ में हिंदी वांग्मय के कालजयी हस्ताक्षर स्व. हरिशंकर परसाई का शुभाशीष कृति की गौरव वृद्धि करते हुए मनोज जी व्यापक संवेदनशीलता को इंगित करता है. संवेदनशीलता समाज की विसंगतियों और विषमताओं से जुड़ने का आधार देती है.

मनोज सरल व्यक्तित्व के धनी हैं. कहानीकार पिता स्व. रामनाथ शुक्ल से विरासत में मिले साहित्यिक संस्कारों को उन्होंने सतत पल्लवित किया है. विवेच्य कृति में डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी, सनातन कुमार बाजपेयी 'सनातन' ने वरिष्ठ तथा विजय तिवारी 'किसलय' ने सम कालिक कनिष्ठ रचनाधर्मियों का प्रतिनिधित्व करते हुए संकलन की विशेषताओं का वर्णन किया है. बाजपेयी जी के अनुसार भाषा की सहजता, भावों की प्रबलता, आडम्बरविहीनता मनोज जी के कवि का वैशिष्ट्य है. चतुर्वेदी जी ने साधारण की असाधारणता के प्रति कवि के स्नेह, दीर्घ जीवनानुभवों तथा विषय वैविध्य को इंगित करते हुए ठीक ही कहा है कि 'राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए स्वयं संभाव्य है' तथा ' कवि न होऊँ अति चतुर कहूं, मति अनुरूप राम-गुन गाऊँ' में राम के स्थान पर 'भाव' कर दिया जाए तो आज की (कवि की भी) आकुल-व्याकुलता सहज स्पष्ट हो जाती है. फिर जो उच्छ्वास प्रगट होता है वह स्थापित काव्य-प्रतिमानों में भले ही न ढल पाता हो पर मानव मन की विविधवर्णी अभिव्यक्ति उसमें अधिक सहज और आदम भाव से प्रगट होती है.'
निस्संदेह वीणावादिनी वन्दना से आरम्भ संकलन की ७२ कवितायें परंपरा निर्वहन के साथ-साथ बदलते समय के परिवर्तनों को रेखांकित कर सकी हैं. इस कृति के पूर्व कहानी संग्रह क्रांति समर्पण व एक पाँव की जिंदगी तथा काव्य संकलन याद तुम्हें मैं आऊँगा प्रस्तुत कर चुके मनोज जी छान्दस-अछान्दस कविताओं का बहुरंगी-बहुसुरभि संपन्न गुलदस्ता संवेदनाओं के स्वर में लाये हैं. शिल्प पर कथ्य को वरीयता देती ये काव्य रचनाएं पाठक को सामायिक सत्य की प्रतीति करने के साथ-साथ कवि के अंतर्मन से जुड़ने का अवसर भी उपलब्ध कराती हैं. जाय, होंय, रोय, ना, हुये, राखिये, भई, आंय, बिताँय जैसे देशज क्रिया रूप आधुनिक हिंदी में अशुद्धि माने जाने के बाद भी कवि के जुड़ाव को इंगित करते हैं. संत साहित्य में यह भाषा रूप सहज स्वीकार्य है चूँकि तब वर्तमान हिंदी या उसके मानक शब्द रूप थे ही नहीं. बैंक अधिकारी रहे मनोज इस तथ्य से सुपरिचित होने पर भी काव्याभिव्यक्ति के लिये अपने जमीनी जुड़ाव को वरीयता देते हैं.
मनोज जी को दोहा छंद का प्रिय है. वे दोहा में अपने मनोभाव सहजता से स्पष्ट कर पाते हैं. कुछ दोहे देखें:
ऊँचाई की चाह में, हुए घरों से दूर
मन का पंछी अब कहे, खट्टे हैं अंगूर 
.
पाप-पुन्य उनके लिए, जो करते बस पाप
लेकिन सज्जन पुण्य कर, हो जाते निष्पाप 
.
जंगल में हाथी नहीं, मिलते कभी सफेद 
हैं सत्ता में अनगिनत, बगुले भगत सफेद 
. 
दोहों में चन्द्रमा के दाग की तरह मात्राधिक्य (हो गए डंडीमार, बनो ना उसके दास, चतुर गिद्ध और बाज, मायावती भी आज १२ मात्राएँ), वचन दोष (होता इनमें उलझकर, तन-मन ही बीमार) आदि खीर में कंकर की तरह खलते हैं.

अछांदस रचनाओं में मनोज जी अधिक कुशलता से अपने मनोभावों को व्यक्त कर सके हैं. कलयुगी रावण, आतंकवादी, पुरुषोत्तम, माँ की ममता त्रिकोण सास बहू बेटे का, पत्नी परमेश्वर, मेरे आँगन की तुलसी आदि रचनाएँ पठनीय हैं. गांधी संग्रहालय से एक साक्षात्कार शीर्षक रचना अनेक विचारणीय प्रश्न उठाती है. मनोज का संवेदनशील कवि इन रचनाओं में सहज हो सका है.
संझा बिरिया जब-जब होवे, तुलसी तेरे घर-आँगन में, फागुन के स्वर गूँज उठे, ओ दीप तुझे जलना होगा, प्रलय तांडव कर दिया आदि रचनाएँ इस संग्रह के पाठक को बाँधने में समर्थ हैं. 
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