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बुधवार, 5 अक्टूबर 2011

एक गीत: आईने अब भी वही हैं --संजीव 'सलिल'

एक गीत:
आईने अब भी वही हैं
-- संजीव 'सलिल'
*

आईने अब भी वही हैं
अक्स लेकिन वे नहीं...
*
शिकायत हमको ज़माने से है-
'आँखें फेर लीं.
काम था तो याद की पर
काम बिन ना टेर कीं..'
भूलते हैं हम कि मकसद
जिंदगी का हम नहीं.
मंजिलों के काफिलों में
सम्मिलित हम थे नहीं...
*
तोड़ दें गर आईने
तो भी मिलेगा क्या हमें.
खोजने की चाह में
जो हाथ में है, ना गुमें..
जो जहाँ जैसा सहेजें
व्यर्थ कुछ फेकें नहीं.
और हिम्मत हारकर
घुटने कभी टेकें नहीं...
*
बेहतर शंका भुला दें,
सोचकर ना सिर धुनें.
और होगा अधिक बेहतर
फिर नये सपने बुनें.
कौन है जिसने कहे
सुनकर कभी किस्से नहीं.
और मौका मिला तो
मारे 'सलिल' घिस्से नहीं...
*
भूलकर निज गलतियाँ
औरों को देता दोष है.
सच यही है मन रहा
हरदम स्वयं मदहोश है.
गल्तियाँ कर कर छिपाईं
दण्ड खुद भरते नहीं.
भीत रहते किन्तु कहते
हम तनिक डरते नहीं....
*
आइनों का दोष क्या है?
पूछते हैं आईने.
चुरा नजरें, फेरकर मुँह
सिर झुकाया भाई ने.
तिमिर की करते शिकायत
मौन क्यों धरते नहीं?
'सलिल' बनकर दिया  जलकर
तिमिर क्यों हरते नहीं??...
*****

Acharya Sanjiv Salil

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विशेष: क्या है ये अंक 786 और क्यूँ मानते हैं इसको शुभ -- आदिल रशीद

विशेष:

क्या है ये अंक 786 और क्यूँ मानते हैं इसको शुभ
    आदिल रशीद

याद कीजिये फिल्म दीवार का वो मंज़र अमिताभ के सीने पर गोली लगती और उन्हें कुछ नहीं होता गोली उनके बिल्ला नम्बर 786 से टकरा कर बेकार हो चुकी है अमिताभ उस बिल्ले को कोट की जेब से निकाल कर चूमते हैं फिर फिल्म कूली मे वही चमत्कारी बिल्ला नंबर 786 लगाते है कूली मे घायल होते है जिंदगी और मौत की जंग मे जीत ज़िन्दगी की होती है और वो रुपहले परदे पर भी और वास्तविक जीवन मे भी अंक 786 के कायल हो जाते हैं और आज भी उसको अपने लिए शुभ मानते हैं

क्या है ये अंक 786 और क्यूँ मानते हैं इसको शुभ

एक अरबी शब्द है "अबजद" जिसका एक मतलब होता हैं किसी बिद्या को सीखने की सब से पहली स्तिथि यानि अलिफ़,बे,ते (A.B.C.D.) सीखना जो दूसरा मतलब है वो अपने आप मे एक विद्या हैं किसी भी शब्द के नंबर निकालना ये अरबी की विद्या है इसलिए अरबी के तरीके से ही चलती है इसमें अरबी के हर अक्षर को एक गिनती दी हुई है किसी शब्द मे जो जो अक्षर प्रयोग होते हैं उन को गिन कर जोड़ कर जो अंकफल निकलता है वही उस शब्द के अंक होते है आदिल को उर्दू मे लिखेंगे عادل رشید इसमें प्रयोग हुआ ऐन. अलिफ़ ,दाल, लाम, तो इस में
ऐन के . =70 अलिफ़ के =1 दाल के =4 लाम के =30 टोटल = 105
इसी तरह रशीद रे के =200 शीन के =300 ये के =10 दाल के =4 टोटल=314
आदिल रशीद के हुए 105 +314=419
इसी हिसाबे अबजद से बिस्मिल्लाह हिर रहमानिर रहीम जिसके अर्थ हुए शुरू करता हूँ उस अल्लाह के नाम से जो बेहद रहम वाला है
अगर पुरे वाक्य "बिस्मिल्लाह हिर रहमानिर रहीम" के अंक अबजद से नंबर निकालें तो बनेगे 786 इसी लिए मुस्लिम्स में इसको लकी माना जाता है बहुत से लोग इसको नहीं भी मानते.
इस में हिन्दू मुस्लिम्स एकता का भी एक मन्त्र छुपा है अगर हम इसी तरह से " हरे रामा हरे कृष्णा" के निकालें तो भी निकलेंगे 786 दोनों के बिलकुल एक काश ये हमारे कुछ नेता गण समझ जाएँ इश्वर एक है उसका सन्देश एक है मानवता सब से बड़ा धर्म है.

अरबी के सभी अक्षरों के नम्बर इस प्रकार हैं,
अलिफ़ =1,बे=2,जीम=3,दाल=4,हे=5,=वाओ=6, ज़े=7,बड़ी हे =8,तूए के =9,ये =10
छोटा काफ =20,लाम=30,मीम=40,नून के =50,सीन=60,ऐन =70,फे=80,स्वाद =90,
बड़े काफ =100,रे =200,शीन =300,ते =400,से=500,खे=600,जाल -700,जवाद =800
जोए =900,गैन=1000,

अबजद के खेल में ताश जिसे इल्मी ताश कहा जाता है बच्चे इल्मी ताश खेलते है और आये हुए पत्तों से शब्द बनाते हैं इस से उनका शब्द ज्ञान बढ़ता है
हाज़िर है एक ग़ज़ल के चन्द शेर

सब तो बैठे हुए हैं मसनद पर
हम ही ठहरे हुए हैं अबजद पर

कल ही मिटटी से सर निकाला है
आज ऊँगली उठा दी बरगद पर

आँख सोते मे भी खुली रखना
सब की नज़रें लगीं हैं मसनद पर

आज के दिन बटा था इक आँगन
आज मेला लगेगा सरहद पर

पहले उसने मेरे कसीदे पढ़े
घूम फिर कर वो आया मकसद पर

सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

आंच पर हाइकु हरीश प्रकाश गुप्त के हाइकु -- करण समस्तीपुरी

आंच पर हाइकु

हरीश प्रकाश गुप्त के हाइकु

-- करण समस्तीपुरी


हाइकु हिंदी साहित्य में अभिनव आयातित पद्य विधा है। यह जापान से बरास्ते अंग्रेजी भारत आयी है। हाइकु का उद्गम स्थल जापान है। जापान में सतरहवी शताब्दी में 5-7-5 नाद वाले तीन पंक्तियों की कविता लिखने का प्रचलन हुआ। आरंभिक अवस्था में इसके प्रथम चरण में प्राकृतिक सौंदर्य/घटना या ऋतु-वर्णन होता था और अंत में उसे किसी सामजिक सन्दर्भ से जोड़ दिया जाता था। जापानी हाइकु की एक विशेषता यह थी कि यह सामान्य क्षैतिज पंक्ति में न होकर तीन उदग्र रेखाओं में लिखा जाता था। आशु-कविता की यह शैली हैकाई कहलाती थी। हैकाई का बहु-वचन होक्कू शब्द-विकास के दौर से गुजर कर कालांतर में हाइकु हो गया।

हाइकु की खोज करने का श्रेय मासाओका शिकी को जाता है। उन्नीसवी शताब्दी में उन्होंने ही सर्वप्रथम इसे हाइकु की संज्ञा दी थी और इसे विश्व साहित्य धरातल पर प्रतीष्ठित करने का श्रेय प्रसिद्द जापानी कवि बासोहो को है। अंग्रेजी में वर्ड्सवर्थ सरीखे कवियों ने हाइकु पर कलम चलाई है तो भारतीय साहित्य में हाइकु को प्रतिष्ठा दिलाई कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ टैगोर ने।

गागर में सागर भर लाना हाइकु की मूल-भूत विशेषता है फिर भी यह विधा हिंदी साहित्य में वह स्थान नहीं बना पायी है, जिसकी यह अधिकारी है। शायद हिंदी साहित्य अभी भी प्रबंध के मोह से नहीं निकल पाया है।
 
हाइकु के शैली-विज्ञान की दृष्टि से यह ५-७-नादबद्धता के धर्म का निर्वाह कर रही है। यहाँ ध्यातव्य यह है कि संस्कृत, हिंदी या अरबी-फारसी साहित्य के विपरीत हाइकु में 'ध्वनि की मात्रा' नहीं ध्वनि की गणना की जाती है। 
वर्तमान हिंदी हाइकुकारों में चर्चित श्री हरि प्रकाश गुप्त की हाइकु कुछ रचनाओं की चर्चा करें. प्रथम हाइकु है: 

भरा उदधि
हुआ मधु विस्‍फोट
फूटी कविता ।

 
सागर का उदर जब भर जाता है तो इसमें ज्वालामुखी विस्फोट (सुनामी) होता है और फिर एक नया सृजन। उसी प्रकार हृदय में भावनाओं के आवेग से मधु (आनंददायी) विस्फोट होता है जिस से कविता रूपी लावा का जन्म होता है। वर्डस्वर्थ ने भी कहा है, "Poetry is the spontenious overflow of powerfull minds." इसमें कविता के निर्माण प्रक्रिया को समुद्र के ज्वालामुखी-विस्फोट से जोड़ कर कवि ने हाइकु के स्वाभावगत धर्म का पालन भी किया है। हालांकि दो विपरीत प्रकृति और प्रभाव वाले उपमा और उपमानो को कवि ने बहुत ही सहजता और सुन्दरता के साथ जोड़ा है।

दूसरा हाइकु है,
उतर गई
अन्‍तस में, नैनन
पढ़ कविता ।

काव्य के प्रभाव का इन तीन पंक्तियों से विशद वर्णन क्या होगा ? कविता वह जो मन की ऑंखें खोल दे। वेद के 'तमसो मा ज्योतिर्गमय....' का प्रथम सोपान। काव्यानंद अंतर्मन को उजियार कर देता है।

एक और हाइकु है,

                                                       रात निठल्‍ली

                                                    सोई, दिन ने थक

                                                         बेबस ढोई ।

इसमें कवि ने वर्ग-भेद को उजागर किया है।
गली-गली में

घूमा, ठहरा, सोचा

लेकिन कहाँ ?

इस हाइकु में कवि चलायमान जीवन की नश्वरता का संकेत किया है, तो


गली में शाम
नुक्‍कड़ में रोशनी
मीना बाजार ।
गुप्तजी के हाइकु शल्यगत सौन्दर्य से परिपूर्ण और गहन अर्थ से आप्लावित हैं। किसी भी पद में मात्र-दोष नहीं है। इन पदों की एक और खासियत यह कि यह एक दूसरे से बिलकुल स्वतंत्र हैं।
उपर्युक्त हाइकु में कवि ने स्थान-भेद अथवा दृष्टि भेद से एक ही बात के अलग-अलग मायने बताया है। गली में जब शाम होती है तो नुक्कर पर बत्ती जल जाती है। वहाँ छिट-पुट रौशनी हो जाती है और ऐश्वर्या और विलासिता का प्रतीक मीना बाज़ार गुलजार हो जाता है। वक़्त एक ही है पुनश्च यह अंतर उस स्थान विशेष की हैसियत से आता है।
                       हाइकू
-- हरीश प्रकाश गुप्त

भरा उदधि
हुआ मधु विस्‍फोट
फूटी कविता ।

उतर गई
अन्‍तस में, नैनन
पढ़ कविता ।

मेरी कविता
मेरे मन का गीत
सुर संगीत

रात निठल्‍ली
सोई, दिन ने थक
बेबस ढोई ।

अचल बिंदु
के इर्द-गिर्द घूम
रहा बेसुध ।

गली-गली में
घूमा, ठहरा, सोचा
लेकिन कहॉं?

कुत्ता ले भागा
रोटी, नुक्‍कड़ वाले
भिखमंगे की ।

दरक गया
शीशे-सा जब देखा-
सच, सपना

शीशे में देखा
चेहरा, अपना या
कुछ उनका ।

गली में शाम
नुक्‍कड़ में रोशनी
मीना बाजार ।

रविवार, 2 अक्टूबर 2011

लघुकथा: गाँधी जयंती -- संजीव 'सलिल'

लघुकथा:                     
गाँधी जयंती
संजीव 'सलिल'
*



  बापू आम आदमी के प्रतिनिधि थे। जब तक हर भारतीय को कपड़ा न मिले,
तब तक कपड़े न पहनने का संकल्प उनकी महानता का जीवंत उदाहरण है। वे 
हमारे प्रेरणास्रोत हैं’ 
   -नेताजी भाषण फटकारकर मंच से उतरकर अपनी महँगी आयातित कार में 
बैठने लगे तो एक पत्रकार ने उनसे कथनी-करनी में अन्तर का कारण पूछा।

नेताजी बोले– ‘बापू पराधीन भारत के नेता थे। उनका अधनंगापन पराये शासन में 

देश का दुर्दशा दर्शाता था, हम स्वतंत्र भारत केनेता हैं। अपने देश के जीवनस्तर की 
समृद्धि तथा सरकार की सफलता दिखाने के लिए हमें यह ऐश्वर्य भरा जीवन जीना 
होता है। हमारी कोशिश तो यह है कि हर जनप्रतिनिधि को अधिक से अधिक सुख-
सुविधाएँ दी जाएँ।’

‘चाहे जन प्रतिनिधियों की सुविधाएँ जुटाने में देश के जनगण का दीवाला निकल जाए? 

अभावों की आग में देश का जन सामान्य जलता रहे मगर नेता नीरो की तरह बाँसुरी 
बजाते ही रहेंगे- वह भी गांधी जैसे आदर्श नेता की आड़ में?’
–एक युवा पत्रकार बोल पड़ा।

अगले दिन से उसे सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो गया।

Acharya Sanjiv Salil

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लघुकथा निपूती भली थी -- संजीव 'सलिल'

लघुकथा 
निपूती भली थी  
    संजीव 'सलिल'     
          
बापू के निर्वाण दिवस पर देश के नेताओं, चमचों एवं अधिकारियों ने उनके आदर्शों का अनुकरण करने की शपथ ली। अख़बारों और दूरदर्शनी चैनलों ने इसे प्रमुखता से प्रचारित किया।

अगले दिन एक तिहाई अर्थात नेताओं और चमचों ने अपनी आँखों पर हाथ रख कर कर्तव्य की इति श्री कर ली। 

उसके बाद दूसरे तिहाई अर्थात अधिकारियों ने कानों पर हाथ रख लिए. 

तीसरे दिन शेष तिहाई अर्थात पत्रकारों ने मुँह पर हाथ रखे तो भारत माता प्रसन्न हुई कि देर से ही सही इन्हे सदबुद्धि तो आयी।

उत्सुकतावश भारत माता ने नेताओं के नयनों पर से हाथ हटाया तो देखा वे आँखें मूँदे जनगण के दुःख-दर्दों से दूर सत्ता और सम्पत्ति जुटाने में लीन थे।

दुखी होकर भारत माता ने दूसरे बेटे अर्थात अधिकारियों के कानों पर रखे हाथों को हटाया तो देखा वे आम आदमी की पीड़ाओं की अनसुनी कर पद के मद में मनमानी कर रहे थे। 

नाराज भारत माता ने तीसरे पुत्र अर्थात पत्रकारों के मुँह पर रखे हाथ हटाये तो देखा नेताओं और अधिकारियों से मिले विज्ञापनों से उसका मुँह बंद था और वह दोनों की मिथ्या महिमा गाकर ख़ुद को धन्य मान रहा था।

अपनी सामान्य संतानों के प्रति तीनों की लापरवाही से क्षुब्ध भारत माता के मुँह से निकला- ‘ऐसे पूतों से तो मैं निपूती ही भली थी।

*********



एक रचना: कम हैं... --संजीव 'सलिल'

एक रचना:
कम हैं...
--संजीव 'सलिल'
*
जितने रिश्ते बनते  कम हैं...

अनगिनती रिश्ते दुनिया में
बनते और बिगड़ते रहते.
कुछ मिल एकाकार हुए तो
कुछ अनजान अकड़ते रहते.
लेकिन सारे के सारे ही
लगे मित्रता के हामी हैं.
कुछ गुमनामी के मारे हैं,
कई प्रतिष्ठित हैं, नामी हैं.
कोई दूर से आँख तरेरे
निकट किसी की ऑंखें नम हैं
जितने रिश्ते बनते  कम हैं...

हमराही हमसाथी बनते
मैत्री का पथ अजब-अनोखा
कोई न देता-पाता धोखा
हर रिश्ता लगता है चोखा.
खलिश नहीं नासूर हो सकी
पल में शिकवे दूर हुए हैं.
शब्द-भाव के अनुबंधों से
दूर रहे जो सूर हुए हैं.
मैं-तुम के बंधन को तोड़े
जाग्रत होता रिश्ता 'हम' हैं
जितने रिश्ते बनते  कम हैं...

हम सब एक दूजे के पूरक
लगते हैं लेकिन प्रतिद्वंदी.
उड़ते हैं उन्मुक्त गगन में
लगते कभी दुराग्रह-बंदी.
कौन रहा कब एकाकी है?
मन से मन के तार जुड़े हैं.
सत्य यही है अपने घुटने
'सलिल' पेट की ओर मुड़े हैं.
रिश्तों के दीपक के नीचे
अजनबियत के कुछ तम-गम हैं.
जितने रिश्ते बनते  कम हैं...
  *
Acharya Sanjiv Salil

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शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

नवगीत: उत्सव का मौसम -- संजीव 'सलिल'

नवगीत 
उत्सव का मौसम 
-- संजीव 'सलिल'
*
उत्सव का
मौसम आया
मन बन्दनवार बनो...
*
सूना पनघट और न सिसके.
चौपालों की ईंट न खिसके..
खलिहानों-अमराई की सुध
ले, बखरी की नींव न भिसके..
हवा विषैली
राजनीति की
बनकर पाल तनो...
*
पछुआ को रोके पुरवाई.
ब्रेड-बटर तज दूध-मलाई
खिला किसन को हँसे जसोदा-
आल्हा-कजरी पड़े सुनाई..
कंस बिराजे
फिर सत्ता पर
बन बलराम धुनो...
*
नेह नर्मदा सा अविकल बह.
गगनविहारी बन न, धरा गह..
खुद में ही खुद मत सिमटा रह-
पीर धीर धर, औरों की कह..
दीप ढालने
खातिर माटी के
सँग 'सलिल' सनो.
*****
Acharya Sanjiv Salil

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तापसी नागराज

तापसी नागराज 

हरिगीतिका --अम्बरीष श्रीवास्तव


Ambarish Srivastava
--अम्बरीष श्रीवास्तव

 

(१)
मधु छंद सुनकर छंद गुनकर, ही हमें कुछ बोध है,
सब वर्ण-मात्रा गेयता हित, ही बने यह शोध है, 
अब छंद कहना है कठिन क्यों, मित्र क्या अवरोध है,
रसधार छंदों की बहा दें, यह मेरा अनुरोध है ||

(२)
यह आधुनिक परिवेश इसमें, हम सभी पर भार है,
यह भार भी भारी नहीं जब, संस्कृति आधार  है,
सुरभित सुमन सब है खिले अब, आपसे मनुहार है, 
निज नेह के दीपक जलायें, ज्योंति का त्यौहार है ||

(३)
सहना पड़े सुख दुःख कभी मत, भूलिए उस पाप को,
यह जिन्दगी है कीमती अब, छोडिये संताप को,
अभिमान को भी त्यागिये तब, मापिये निज ताप को,    
तब तो कसौटी पर कसें हम, आज अपने आप को||
*

शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

नवगीत : तुम मुस्कायीं जिस पल.... -- संजीव 'सलिल'

नवगीत 

तुम मुस्कायीं  जिस पल...

संजीव 'सलिल'

 *
तुम मुस्कायीं जिस पल
   उस पल उत्सव का मौसम.....
*
लगे दिहाड़ी पर हम
जैसे कितने ही मजदूर
गीत रच रहे मिलन-विरह के
आँखें रहते सूर
नयन नयन से मिले झुके
उठ मिले मिट गया गम
तुम शर्मायीं जिस पल
  उस पल उत्सव का मौसम.....
*
देखे फिर दिखलाये
एक दूजे को सपन सलोने
बिना तुम्हारे छुए लग रहे
हर पकवान अलोने
स्वेद-सिंधु में नहा लगी
हर नेह-नर्मदा नम
तुम अकुलायीं जिस पल
  उस पल उत्सव का मौसम.....
*
कंडे थाप हाथ गुबरीले
सुना रहे थे फगुआ
नयन नशीले दीपित
कहते दीवाली अगुआ
गाल गुलाबी 'वैलेंटाइन
डे' की नव सरगम
तुम भरमायीं  जिस पल
  उस पल उत्सव का मौसम.....
****

नवगीत शहर में मुखिया आये - आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"

नवगीत                                                                                                                                   


netaji नेताओं की कहानी, शायर  अशोक  की जुबानी !!!शहर में मुखिया आये

- आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"

*शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...

*

जन-गण को कर दूर
निकट नेता-अधिकारी.
इन्हें बनायें सूर
छिपाकर कमियाँ सारी.
सबकी कोशिश, करे मजूरी
भूखी सुखिया, फिर भी गाये.
शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...

*

है सच का आभास
कर रहे वादे झूठे.
करते यही प्रयास
वोट जनगण से लूटें.
लोकतंत्र की
लख मजबूरी,
लोभतंत्र दुखिया पछताये.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...

*
आये-गये अखबार रँगे,
रेला-रैली में.
शामिल थे बटमार
कर्म-चादर मैली में.
अंधा देखे, गूंगा बोले,
बहरा सुनकर चुप रह जाए.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...
*

हरिगीतिका छन्द - संजीव 'सलिल'

हरिगीतिका छन्द 
 संजीव 'सलिल'


हरिगीतिका है छंद मात्रिक, पद-चरण दो-चार हैं. सोलह तथा बारह कला पर, रुक-बढ़ें यह सार है..


 हरिगीतिका चार चरणोंवाला मात्रिक सम छन्द है जिसके प्रत्येक चरण में १६+१२=२८ मात्रा तथा १६-१२ पर यति होना अनिवार्य है. हर दो / चार पंक्तियों में तुकांत समान तथा  प्रत्येक चरण के अंत में लघु-गुरु अनिवार्य होता है. पदांत में लघु-गुरु / रगण (गुरु-लघु-गुरु) का विधान वर्णित है. उदहारण: हरिगीतिका हरिगीतिका  हरि, गीतिका हरिगीतिका (११२१२ ११२१२ ११, ११ १२ ११२१२). यहाँ अंतिम लघु गुरु को छोड़ कर बाकी स्थान पर सिर्फ मात्रा भार समझे जाएँ, परंतु लय प्रधान होने के कारण इस छंद की लय में बाधा उत्पन्न न हो, इस का भी खयाल रखा जाये।

एक उर्दू बहर 'रजज' जिसकी तक्तीह मुस तफ़ इलुन 
/ मुस तफ़ इलुन मुस / तफ़ इलुन / मुस तफ़ इलुन [2212 / 2212 2 / 212 / 2122] इस से मिलती जुलती है। यहाँ १६वीं मात्रा पर यति बिठानी है, तथा अंतिम इलुन को हिन्दी वर्णों / अक्षरों के अनुसार लघु गुरु माना जाना है। यहाँ अंतिम लघु गुरु को छोड़ कर बाकी स्थान पर '2' को 2 मात्रा भार समझा जाये न कि गुरु वर्ण।

  • इस छंद की लय कुछ इस तरह से हो सकती है :- 

           १. लल-ला-ल-ला   / लल-ला-ल-ला लल, / ला-ल-ला / लल-ला-ल-ला   (पहचानले x ४ )
           २. ला-ला-ल-ला / ला-ला-ल-ला ला, / ला-ल-ला  / ला-ला-ल-ला             (आजाइए x ४)
           ३. ला-ला-ल-ल ल  / ला-ला-ल-ल ल  ला, / ला-ल-ल ल  / लल-ला-ल-ल ल (आ जा सनम x ४)
           ४. ल ल-ला-ल-ल ल  / ल ल-ला-ल-ल ल   ल ल, / ला-ल-ल ल  / ल ल-ला-ल-ल ल (कविता कलम x ४)


एक उर्दू बहर 'रजज' जिसकी तक्तीह मुस तफ़ इलुन  / मुस तफ़ इलुन मुस / तफ़ इलुन / मुस तफ़ इलुन [2212 / 2212 2 / 212 / 2122] इस से मिलती जुलती है। यहाँ १६वीं मात्रा पर यति बिठानी है, तथा अंतिम इलुन को हिन्दी वर्णों / अक्षरों के अनुसार लघु गुरु माना जाना है। यहाँ अंतिम लघु गुरु को छोड़ कर बाकी स्थान पर '2' को 2 मात्रा भार समझा जाये न कि गुरु वर्ण।

पर्व नव सद्भाव के
संजीव 'सलिल'
*
हैं आ गये राखी कजलियाँ, पर्व नव सद्भाव के.
सन्देश देते हैं न पकड़ें, पंथ हम अलगाव के..

भाई-बहिन सा नेह-निर्मल, पालकर आगे बढ़ें.
सत-शिव करें मांगल्य सुंदर, लक्ष्य सीढ़ी पर चढ़ें..

थाती पुरातन, शुभ सनातन, यह हमारा गर्व है.
हैं जानते वह व्याप्त सबमें, प्रिय उसे जग सर्व है..

मन मोर नाचे देख बिजुरी और बरखा मेघ की
कब बंधु आए? सोच बहना, मगन प्रमुदित हो रही

धरती हरे कपड़े पहन कर, लग रही है षोडशी.
सलिला नवोढ़ा नारियों सी, है कथा नव मोद की..

शालीनता तट में रहें सब, भंग ना मर्याद हो.
स्वातंत्र्य उच्छ्रंखल न हो यह,  मर्म सबको याद हो..

बंधन रहे कुछ
तो, तभी  हम - गति-दिशा गह पायेंगे.
निर्बंध होकर गति-दिशा बिन, शून्य में खो जायेंगे..

बंधन अप्रिय लगता हमेशा, अशुभ हो हरदम नहीं.
रक्षा करे बंधन 'सलिल' तो, त्याज्य होगा क्यों कहीं?

यह दृष्टि भारत पा सका तब, जगद्गुरु कहला सका.
निज शत्रु दिल संयम-नियम से, विजय कर दहला सका..

इतिहास से ले सबक बंधन, में बंधें हम एक हों.
संकल्पकर इतिहास रच दें, कोशिशें शुभ नेक हों..

.
उदाहरण: 

१. 
श्री राम चन्द्र कृपालु भज मन हरण भव भय दारुणं।

नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं ।।
कंदर्प अगणित अमित छवि नव-नील नीरद सुन्दरं ।
पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमि  जनकसुता वरं।।  तुलसी कृत रामचरित मानस से.
[ऊपर की पंक्ति में 'चंद्र' का 'द्र' और 'कृपालु' का 'कृ' संयुक्त अक्षर की तरह एक मात्रिक गिने गए हैं]
[यह स्तुति यू ट्यूब पर भी उपलब्ध है]


मात्रा गणना :-

श्री राम चन्द्र कृपालु भज मन 
२ २१ २१ १२१ ११ ११ = १६ मात्रा और यति  

हरण भव भय दारुणं 
१११ ११ ११ २१२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु 

नव कंज लोचन कंज मुख कर 
११ २१ २११ २१ ११ ११ = १६ मात्रा और यति 

कंज पद कंजारुणं
२१ ११ २२१२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु 

कंदर्प अगणित अमित छवि नव 
२२१ ११११ १११ ११ ११ = १६ मात्रा और यति 

नील नीरद सुन्दरं
२१ २११ २१२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु 

पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि 
११ २१ २११ १११ ११ ११ = १६ मात्रा और यति 

नौमि जनकसुता वरं
२१ ११११२ १२ = १२ मात्र, अंत में लघु गुरु 
२.
कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
१२ २२ २ २ २१, २१२ २२१२
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना।।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै।।
२२१२ २१२२ २, २१२ २२१२
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै।।
२२१२ २२१२ २, २१२२ २१२
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं।।
२२१२ २१२२ २, २१२ २२१२

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
२१२२ २२१२ २, १२२ २२१२
कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।।
२१२२ २२१२ २, २१२ २२१२
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
२२१२ २२१२ २, १२२ २२१२
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही।।

२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२

उक्त छंद रामचरितमानस के सुंदरकांड से हैं। इन छंदों में बहुधा २२१२ का मात्राक्रम है, किंतु यह आवश्यक नहीं है। यह क्रम २१२२, १२२२ या २२२१ भी हो सकता है मगर ऐसा करने पर लय बाधित होती है। प्रवाह हेतु २१२२  या २२१२ ही उपयुक्त। हरिगीतिका छंद को (२+३+२) क्ष ४ के रूप में भी लिखा जा सकता है। ३ के स्थान पर १-२ या २-१ ले सकते हैं।  - धर्मेन्द्र कुमार सिंह 'सज्जन'
२.

वो वस्त्र कितने सूक्ष्म थे, कर लो कई जिनकी तहें।
शहजादियों के अंग फिर भी झांकते जिनसे रहें ।।
थी वह कला या क्या कि कैसी सूक्ष्म थी अनमोल थी ।
सौ हाथ लम्बे सूत की बस आध रत्ती तोल थी ।।           -भारत भारती से
३.
अभिमन्यु-धन के निधन से, कारण हुआ जो मूल है।
इस से हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है ।।
उस खल जयद्रथ को जगत में, मृत्यु ही अब सार है ।
उन्मुक्त बस उस के लिए रौ'र'व नरक का द्वार है ।।     -जयद्रथ वध से

[यहाँ 'जयद्रथ' को संधि विच्छेद का प्रयोग तथा उच्चारण कला का इस्तेमाल करते हुए यूँ बोला जाएगा 'जयद्द्रथ'। पुराणों के अनुसार नरकों के विभिन्न प्रकारों में 'रौरव [रौ र व] नरक' बहुत ही भयानक नरक होता है]
४. गणपति वन्दना 
वन्‍दहुँ विनायक, विधि-विधायक, ऋद्धि-सिद्धि प्रदायकं।
गजकर्ण, लम्बोदर, गजानन, वक्रतुंड, सुनायकं।।
श्री एकदंत, विकट, उमासुत, भालचन्द्र भजामिहं।
विघ्नेश, सुख-लाभेश, गणपति, श्री गणेश नमामिहं ।।  - नवीन सी. चतुर्वेदी
५. सरस्वती वन्दना
ज्योतिर्मयी! वागीश्वरी! हे - शारदे! धी-दायिनी !
पद्मासनी, शुचि, वेद-वीणा -  धारिणी! मृदुहासिनी !!
स्वर-शब्द ज्ञान प्रदायिनी! माँ  -  भगवती! सुखदायिनी !
शत शत नमन वंदन वरदसुत, मान वर्धिनि! मानिनी !!   - राजेन्द्र स्वर्णकार
६. सामयिक
सदियों पुरानी सभ्यता को, बीस बार टटोलिए
किसको मिली बैठे-बिठाये, क़ामयाबी, बोलिए
है वक़्त का यह ही तक़ाज़ा, ध्यान से सुन लीजिए
मंज़िल खड़ी है सामने ही, हौसला तो कीजिए।१
 
चींटी कभी आराम करती, आपने देखी कहीं
कोशिश-ज़दा रहती हमेशा, हारती मकड़ी नहीं
सामान्य दिन का मामला हो, या कि फिर हो आपदा
जलचर, गगनचर कर्म कर के, पेट भरते हैं सदा।२

गुरुग्रंथ, गीता, बाइबिल, क़ुरआन, रामायण पढ़ी

प्रारब्ध सबको मान्य है, पर - कर्म की महिमा बड़ी
ऋगवेद की अनुपम ऋचाओं में इसी का ज़िक्र है
संसार उस के साथ है, जिस को समय की फ़िक्र है।३- नवीन सी. चतुर्वेदी
७. रक्षाबंधन

सावन सुहावन आज पूरन पूनमी भिनसार है,
भैया बहन खुश हैं कि जैसे मिल गया संसार है|
राखी सलोना पर्व पावन, मुदित घर परिवार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
*
८. दीपावली
 
भाई बहन के पाँव छूकर दे रहा उपहार है,
बहना अनुज के बाँध राखी हो रही बलिहार है|
टीका मनोहर भाल पर शुभ मंगलम त्यौहार है
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
*
सावन पुरातन प्रेम पुनि-पुनि, सावनी बौछार है,
रक्षा शपथ ले करके भाई, सर्वदा तैयार है|
यह सूत्र बंधन तो अपरिमित, नेह का भण्डार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||

बहना समझना मत कभी यह बन्धु कुछ लाचार है,
मैंने दिया है नेग प्राणों का कहो स्वीकार है |
राखी दिलाती याद पावन, प्रेम मय संसार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
*
बिन दीप तम से त्राण जगका, हो नहीं पाता कभी.
बिन गीत मन से त्रास गमका, खो नहीं पाता कभी..
बिन सीप मोती कहाँ मिलता, खोजकर हम हारते-
बिन स्वेद-सीकर कृषक फसलें, बो नहीं पाता कभी..
*
हर दीपकी, हर ज्योतिकी, उजियारकी पहचान हूँ.
हर प्रीतका, हर गीतका, मनमीत का अरमान हूँ..
मैं भोरका उन्वान हूँ, मैं सांझ का प्रतिदान हूँ.
मैं अधर की मुस्कान हूँ, मैं हृदय का मेहमान हूँ..
*
 यह छंद हर प्रसंग परऔर हर रस की काव्य रचना हेतु उपयुक्त है.
**

एक गीत: शेष है... --संजीव 'सलिल'

एक गीत:
शेष है...
संजीव 'सलिल'
*
किरण आशा की
अभी भी शेष है...
*
देखकर छाया न सोचें
उजाला ही खो गया है.
टूटता सपना नयी आशाएँ
मन में बो गया है.
हताशा कहती है इतना
सदाशा भी लेश है...
*
भ्रष्ट है आचार तो क्या?
सोच है-विचार है.
माटी का तन निर्बल
दैव का आगार है.
कालिमा अमावसी में
लालिमा अशेष है...
*
कुछ न कहीं खोया है
विधि-हरि-हर हम में हैं.
शारदा, रमा, दुर्गा
दीप अगिन तम में हैं.
आशत स्वयं में ही
चाहिए विशेष है...
***
Acharya Sanjiv Salil

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गुरुवार, 29 सितंबर 2011

रचना / प्रति रचना: परिचय --राकेश खंडेलवाल / सलिल

रचना / प्रति रचना:
परिचय 
राकेश खंडेलवाल / सलिल
*
बस इतना है परिचय मेरा
भाषाओं से कटा हुआ मैं
हो न सका अभिव्यक्त गणित वह
गये नियम प्रतिपादित सब ढह
अनचाहे ही समीकरण से जिसके प्रतिपल घटा हुआ मैं
जीवन की चौसर पर साँसों के हिस्से कर बँटा हुआ मैं
बस इतना है परिचय मेरा
इक गंतव्यहीन यायावर
अन्त नहीं जिसका कोई, पथ
नीड़ नहीं ना छाया को वट
ताने क्रुद्ध हुए सूरज की किरणों की इक छतरी सर पर
चला तोड़ मन की सीमायें, खंड खंड सुधि का दर्पण कर
बस इतना है परिचय मेरा
सका नहीं जो हो परिभाषित
इक वक्तव्य स्वयं में उलझा
अवगुंठन जो कभी न सुलझा
हो पाया जो नहीं किसी भी शब्द कोश द्वारा अनुवादित
आधा लिखा एक वह अक्षर, जो हर बार हुआ सम्पादित
बस इतना है परिचय मेरा




*
प्रति रचना :
_परिचय:
संजीव 'सलिल'
*
बस इतना परिचय काफी है...
*
परिचय के मुहताज नहीं तुम.
हो न सके हो चाह कभी गुम.
तुमसे नियमों की सार्थकता-
तुम बिन वाचा होती गुमसुम.
तुम बिन दुनिया नाकाफी है...
*
भाषा-भूषा, देश-काल के,
सर्जक, ध्वंसक व्याल-जाल के.
मंजिल सार्थक होती तुमसे-
स्वेद-बिंदु शुचि काल-भाल के.
समय चाहता खुद माफी है.....
*
तुमको सच से अलग न पाया.
अनहद भी निज स्वर में गाया.
सत-चित-आनंद, सत-शिव-सुंदर -
साथ लिये फिरते सरमाया.
धूल पाँव की गद्दाफी है...
*

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

एक गीत मिट्टी का तन... --- संजीव 'सलिल'

एक गीत
मिट्टी का तन...
संजीव 'सलिल'
*

मिट्टी का तन मिट्टी ही है...

मिट्टी कभी चटकती भी है.
मिट्टी कभी दरकती भी है.
मिट्टी जब उठ जाती है तो-
मिट्टी तनिक महकती भी हो.
मिट्टी है दोस्ती कभी तो
मिट्टी लड़कर कट्टी भी है...

मिट्टी सुख-दुःख, हँसी-रुदन है.
मिट्टी माली, कली-चमन है.
मिट्टी पीड़ा, घुटन, चुभन है.
मिट्टी दिल की लगी, अगन है..
मिट्टी आशा और निराशा-
मिट्टी औषधि-पट्टी भी है...
*****
Acharya Sanjiv Salil

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एक कुण्डलिनी: गूगल के १३ वें जन्मदिवस पर -- संजीव वर्मा 'सलिल'

एक कुण्डलिनी:
गूगल के १३ वें जन्मदिवस पर
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सकल जगत एक गाँव है, गूगल है चौपाल.
सबको सबसे जोड़ता, करता रोज कमाल.
करता रोज कमाल, धमाल मचाता जीभर.
चढ़ जाता है नशा, स्नेह की मदिरा पीकर..
कहे सलिल कविराय, अकेला रहे बे-अकल.
अकलवान है वही, जोड़ता जगत जो सकल..
Acharya Sanjiv Salil

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एक हुए दोहा यमक: -- संजीव 'सलिल'

एक हुए दोहा यमक:
संजीव 'सलिल'
*
लिए विरासत गंग की, चलो नहायें गंग.
भंग न हो सपना 'सलिल', घोंटें-खायें भंग..
*
सुबह शुबह में फर्क है, सकल शकल में फर्क.
उच्चारण में फर्क से, होता तर्क कु-तर्क..
*
बुला कहा आ धार पर, तजा नहीं आधार.
निरा धार होकर हुआ, निराधार साधार..
*
ग्रहण किया आ भार तो, विहँस कहा आभार.
देय - अ-देय ग्रहण किया, तत्क्षण ही साभार..
*
नाप सके भू-चाल जो बना लिए हैं यंत्र.
नाप सके भूचाल जो, बना न पाए तंत्र..
*
शह देती है मात तो, राह भटकता लाल.
शह पाकर फिर मात पा, हुआ क्रोध से लाल..
*
दह न अगन में दहन कर, मन के सारे क्लेश.
लग न सृजन में लगन से, हर कर हर विद्वेष..
*
सकल स कल कर कार्य सब, स कल सकल मत देख.
अकल अ कल बिन अकल हो, मीन मेख मत लेख..
*
दान नहीं आदान है, होता दान प्रदान.
अगर कहा आ-दान तो, हो न निदान प्रदान..
*
जान बूझकर दे रही, जान आप पर जान.
जान बचाते फिर रहे, जान जान से जान..
*
एक खुशी मुश्किल हुई, सुलभ हुए शत रंज.
सारे सुख-दुःख भुलाकर, चल खेलें शतरंज..
*

सोमवार, 26 सितंबर 2011

एक गीत: गरल पिया है... -- संजीव 'सलिल'

एक गीत:
गरल पिया है...
संजीव 'सलिल'
*
तुमने तो बस गरल पिया है...

तुम संतोष करे बैठे हो.
असंतोष को हमने पाला.
तुमने ज्यों का त्यों स्वीकारा.
हमने तम में दीपक बाला.
जैसा भी जब भी जो पाया
हमने जी भर उसे जिया है
तुमने तो बस गरल पिया है...

हम जो ठानें वही करेंगे.
जग का क्या है? हँसी उड़ाये.
चाहे हमको पत्थर मारे
या प्रशस्ति के स्वर गुंजाये.
कलियों की रक्षा करने को
हमने पत्थर किया हिया है
तुमने तो बस गरल पिया है...

जड़ता वर तुम बने अहल्या.
विश्वामित्र बने हम चेतन.
तुमको गलियाँ रहीं लुभातीं
हमको भाया आत्म निकेतन.
लेना-देना तुम्हें न भाया.
हमने सुख-दुःख लिया-दिया है.
तुमने तो बस गरल पिया है...

हम विषधर के फन पर नाचे,
कभी इंद्र को रहे छकाते.
कभी सुनी मीरा की वाणी
सूर कभी कुछ रहे सुनाते.
जब-जब कोई मिला सुदामा
हमने तंदुल माँग लिया है.
तुमने तो बस गरल पिया है...

तुमने अपना हमें न माना.
तुमको साया लगा पराया.
हमने गैर न तुमको जाना.
हमें गैर लग सगा सुहाया..
तुम मनमोहन को सराहते.
हमको जनगण लगा पिया है.
तुमने तो बस गरल पिया है...
  ***
Acharya Sanjiv Salil

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रविवार, 25 सितंबर 2011

मुक्तिका : फूल हैं तो बाग़ में _संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
फूल हैं तो बाग़ में
-- संजीव 'सलिल'

*

फूल हैं तो बाग़ में कुछ खार होना चाहिए.
मुहब्बत में बाँह को गलहार होना चाहिए.

लयरहित कविता हमेशा गद्य लगती है हमें.
गीत हो या ग़ज़ल रस की धार होना चाहिए..

क्यों डरें आतंक से हम? सामना डटकर करें.
सर कटा दें पर सलामत यार होना चाहिए..


आम लोगों को न नेता-दल-सियासत चाहिए.
फ़र्ज़ पहले बाद में अधिकार होना चाहिए..


ज़हर को जब पी सके कंकर 'सलिल' शंकर बने.
त्याग को ही राग का श्रृंगार होना चाहिए..

दुश्मनी हो तो 'सलिल' कोई रहम करना नहीं.
इश्क है तो इश्क का इज़हार होना चाहिए..
**********


 फायलातुन फायलातुन  फायलातुन फायलुन
( बहरे रमल मुसम्मन महजूफ )
२१२२            २१२२              २१२२         २१२
कफिया: आर (अखबार, इतवार, बीमार आदि)
रदीफ   : होना चाहिये
*
Acharya Sanjiv Salil

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एक हुए दोहा यमक: -- संजीव 'सलिल'

एक हुए दोहा यमक:
-- संजीव 'सलिल'
*
हरि से हरि-मुख पा हुए, हरि अतिशय नाराज.
बनना था हरि, हरि बने, बना-बिगाड़ा काज?
हरि = विष्णु, वानर, मनुष्य (नारद), देवरूप, वानर
*
नर, सिंह, पुर पाये नहीं, पर नरसिंहपुर नाम.
अब हर नर कर रहा है, नित सियार सा काम..
*
बैठ डाल पर काटता, व्यर्थ रहा तू डाल.
मत उनको मत डाल तू, जिन्हें रहा मत डाल..
*
करने कन्यादान जो, चाह रहे वरदान.
करें नहीं वर-दान तो, मत कर कन्यादान..
*
खान-पान कर संतुलित, खा अजवाइन-पान.
सात्विक शुद्ध विचार रख, बन सद्गुण की खान..
*
खिला, न दे तू सुपारी, मीत न करना भीत.
खेली जिसने सु-पारी, उसने पाई जीत..
खिला = खिला दे, खेलने दे -श्लेष.
सुपारी = खाद्य पदार्थ, हत्या हेतु अग्रिम राशि- श्लेष.
सु-पारी = अच्छी पारी.
*
लीक पीटते रह गये, तजी न किंचित लीक.
चक्र प्रगति का थम गया, हवा हवा हुई लीक..
*
धर उधार अधार में, मिलती बिन आधार.
वही धार मंझधार के, मध्य मिली साधार..
*
आम लेट हरदम नहीं, खास नहीं पाबंद.
आमलेट खा रहे हैं, दोनों ले आनंद..
*
भेद रहे दे भेद जो, सकल सुरक्षा चक्र.
छेड़ बंद कर छेड़ दें, उनको जो हैं वक्र..
*
तनखा को तन खा गया, लेकिन मिटी  न भूख.
सूख रहा आनन पिचक, कैसे रहे रसूख..
*************