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शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

नवगीत: उत्सव का मौसम -- संजीव 'सलिल'

नवगीत 
उत्सव का मौसम 
-- संजीव 'सलिल'
*
उत्सव का
मौसम आया
मन बन्दनवार बनो...
*
सूना पनघट और न सिसके.
चौपालों की ईंट न खिसके..
खलिहानों-अमराई की सुध
ले, बखरी की नींव न भिसके..
हवा विषैली
राजनीति की
बनकर पाल तनो...
*
पछुआ को रोके पुरवाई.
ब्रेड-बटर तज दूध-मलाई
खिला किसन को हँसे जसोदा-
आल्हा-कजरी पड़े सुनाई..
कंस बिराजे
फिर सत्ता पर
बन बलराम धुनो...
*
नेह नर्मदा सा अविकल बह.
गगनविहारी बन न, धरा गह..
खुद में ही खुद मत सिमटा रह-
पीर धीर धर, औरों की कह..
दीप ढालने
खातिर माटी के
सँग 'सलिल' सनो.
*****
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

12 टिप्‍पणियां:

- ksantosh_45@yahoo.co.in ने कहा…

आ० सलिल जी
बहुत ही उत्कृष्ट रचना। बधाई स्वीकारें।
सन्तोष कुमार सिंह

Saurabh Pandey ने कहा…

सिली हुई माटी के गंध से मुग्ध मन को उत्सव-उत्सव करता आपका यह नवगीत, आचार्यजी, बहा ले गया है.

यह सही है कि जो कुछ बीत गया है वह दुबारा नहीं आ सकता लेकिन कवि की अपेक्षाएँ अपनी अपेक्षाएँ हैं. प्रस्तुत पंक्तियाँ इसी का परिचायक हैं -

//सूना पनघट और न सिसके.

चौपालों की ईंट न खिसके..

खलिहानों-अमराई की सुध

ले, बखरी की नींव न भिसके..//

यहाँ ’भिसकना’ शब्द तो जैसे मोह गया. अति सुन्दर.



//पछुआ को रोके पुरवाई.

ब्रेड-बटर तज दूध-मलाई

खिला किसन को हँसे जसोदा-

आल्हा-कजरी पड़े सुनाई..//

इस पछुआ को रोकने में पुरवाई का परिशुद्ध रह पाना ही दिन-ब-दिन कठिन होता जा रहा है. सही कहिये आल्हा की याद ही कितनों को रह गयी है? या, मैहर का मतलब कितने पुरबियों के मन में रह गया है? इस लिहाज से आपका प्रस्तुत प्रयास आशा की किरण सदृश है.

और, घनश्याम के साथ ’धुनो’ कत्तई नहीं बल्कि ’हनो’. बन घनश्याम हनो. आचार्यवर, लात के भूत बात से कभी नहीं मानते. ये सचमुच के ’ताड़न के अधिकारी’ हैं.



//दीप ढालने

खातिर माटी के

सँग 'सलिल' सनो.//

आपके इस आवाहन पर आपको शत्-शत् नमन. ..

Ganesh Jee "Bagi" ने कहा…

Ganesh Jee "Bagi"

नेह नर्मदा सा अविकल बह.
गगनविहारी बन न, धरा गह..
खुद में ही खुद मत सिमटा रह-
पीर धीर धर, औरों की कह..
दीप ढालने
खातिर माटी के
सँग 'सलिल' सनो.

बहुत खूब आचार्य जी, गहन कथ्य के संग यह रचना बहुत ही मनोहारी बन पड़ी है, आभार आपका |

Divya Narmada ने कहा…

आपका आभार शत-शत.

बागी नव सौरभ बिखराये.
कली भ्रमर को सबक सिखाये.
मनमोहन अब छले न हमको-
जन-आस्था राधा हो पाये.
ढाई आखर का चरखा ले
चादर नवल बुनो.....

- pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी

बहुत सुन्दर रचना!

सादर
प्रताप

- mandalss@gmail.com ने कहा…

शानदार आचार्य सलिलजी

- navincchaturvedi@gmail.com ने कहा…

सुंदर नवगीत है सलिल जी

sanjiv 'salil' ने कहा…

आपका आभार शत-शत.

बागी नव सौरभ बिखराये.
कली भ्रमर को सबक सिखाये.
मनमोहन अब छले न हमको-
जन-आस्था राधा हो पाये.
ढाई आखर का चरखा ले
चादर नवल बुनो.....

siyasachdev ने कहा…

सूना पनघट और न सिसके.
चौपालों की ईंट न खिसके..
खलिहानों-अमराई की सुध
ले, बखरी की नींव न भिसके..

bahut hi khoobsurat panktiya ...
naman aapki is rachna ko
behed umda wah

Saurabh Pandey ने कहा…

बहत खूब आचार्यजी !
आपकी प्रतिक्रिया अपन के प्रति हार्दिक शुभकामना है !

अपनी कहन और अपने कथ्य से यह तो वस्तुतः मूल रचना का ही भाग सदृश है.

आभार.

Rakesh Khandelwal ✆ ekavita ने कहा…

खिला किसन को हँसे जसोदा-
आल्हा-कजरी पड़े सुनाई..
परमानन्द.

सादर

राकेश

kamlesh kumar diwan - ने कहा…

bahut sundar rachna hai salil ji ,badhai

utsav ka mousam aaya ...sunadar geet hai ,prarak bhi hai